भारत में जलवायु परिवर्तन और विकास
यह लेख द हिंदू में प्रकाशित आलेख 'Parley:Is India doing enough to combat climate change?' का भावानुवाद है। इसमें विचार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन की समस्या से भारत वृहत स्तर पर कैसे निपट सकता है।
संदर्भ
इसमें कोई दोराय नहीं है कि वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन हमारे समक्ष विद्यमान सबसे गंभीर वैश्विक पर्यावरणीय संकट है। यह केवल पर्यावरणीय समस्या भर नहीं है, बल्कि वैश्विक से लेकर स्थानीय स्तर तक अपने बहुस्तरीय चरित्र में यह एक अभूतपूर्व परिदृश्य है। वस्तुतः कई मायनों में यह हमारी समस्त समस्याओं में से सबसे तात्कालिक है।
- एक स्तर पर, कई लोगों के लिये जलवायु परिवर्तन एक अस्तित्वकारी समस्या के रूप में उभरा है। एक ऐसी समस्या जो उत्पादक जीवन के लिये अनुकूल परिस्थितियों का ह्रास करती है और इसलिये यह एक ऐसी समस्या है जो अन्य सभी मुद्दों का अधिरोहण भले न करती हो लेकिन निश्चित रूप से अन्य सभी पर भारी पड़ती है। कई अन्य लोगों के लिये जलवायु परिवर्तन एक दूरस्थ समस्या है जो अन्य अधिक तात्कालिक मुद्दों से अभिभूत है।
वर्तमान परिदृश्य
- वर्तमान संदर्भ में बात करें तो जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता वर्ष 2020 में कार्यान्वित होने के लिये तैयार है और इस विषय में विचार-विमर्श शुरू हो गया है कि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संधि के तहत व्यक्त की गई प्रतिबद्धताओं के साथ अपने सामाजिक उद्देश्यों और ऊर्जा आवश्यकताओं को संरेखित करने के लिये किन विकासपरक उपायों को अपनाया जाना चाहिये। साथ ही कौन से महत्त्वपूर्ण निर्णयों और कार्यनीतियों का अनुपालन किया जाना चाहिये।
लघु अभिप्राय
- विस्तृत परिप्रेक्ष्य में बात करें तो वर्तमान मुद्दों और जलवायु परिवर्तन के बीच विद्यमान संबंध की अनदेखी नहीं की जा सकती है। उदाहरण के लिये, यदि वर्तमान समय में देश में मौजूद कृषक संकट पर विचार करें तो जलवायु परिवर्तन इस संकट को और अधिक जटिल बनाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहा है।
- इसी प्रकार, जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप देश में पेयजल संकट की समस्या भी गंभीर होती जा रही है, जिसका प्रभाव न केवल व्यक्तिगत एवं कृषि आवश्यकताओं पर पड़ रहा है बल्कि आने वाले समय में औद्योगिक जगत में इसका असर देखने को मिलेगा।
वैश्विक कार्बन प्रणाली परस्पर संबद्ध है
- जैसा कि हम जानते हैं, वैश्विक कार्बन प्रणाली एक परस्पर संबद्ध (interlocked) प्रणाली है। इस प्रकार, हमें निम्न कार्बन प्रणाली की ओर वैश्विक रूपांतरण और इसके परिणामी प्लवन प्रभावों (Spillover Effects), अर्थात् एक अर्थव्यवस्था में परिवर्तनों से दूसरी अर्थव्यवस्था में परिवर्तन, एक स्थान की राजनीति में परिवर्तनों से दूसरे स्थान की राजनीति में परिवर्तन आदि पर विचार करने की आवश्यकता है।
- इस संदर्भ में यह बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि हम भारत को एक निम्न कार्बन अर्थव्यवस्था में रूपांतरित कैसे करें (क्योंकि भारत विश्व की एक तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था, बाज़ार एवं दूसरी सबसे बड़ी आबादी है और वह इन सकारात्मक प्रभावों का भागीदार बनकर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है)।
- यदि भारत को अपने विकास लक्ष्यों को पूरा करते हुए अकार्बनीकरण (Decarbonise) की ओर आगे बढ़ना है तो उसे नए निवेश मॉडल की दिशा की ओर उन्मुख होना होगा, लेकिन इस दिशा में अन्य विकास उद्देश्यों के साथ-साथ आवश्यक तालमेल और बाधाओं पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये।
समाचार-पत्र में उल्लिखित विचार
हालाँकि भारत वायुमंडल में कार्बन के जमाव के लिये ज़िम्मेदार नहीं है, विकसित देशों पर इसकी ज़िम्मेदारी तय करने के लिये हमें अपने वर्तमान प्रयासों से अधिक कोशिश करने की आवश्यकता होगी।
- भारत वैश्विक उत्सर्जन में केवल 6-7 प्रतिशत का योगदान करता है लेकिन भारत इसके प्रति सर्वाधिक भेद्य या संवेदनशील देशों में से एक है। ऐसे में इस दिशा में गंभीर रुख अख्तियार करते हुए आवश्यक कार्यवाही की जानी चाहिये।
अनुकूलन और शमन
- हमें जलवायु परिवर्तन को और अधिक गंभीरता से देखने की आवश्यकता है, विशेष रूप से इसके प्रति अनुकूलन के विषय में, क्योंकि वास्तविक रूप से इसके संदर्भ में चिंता के कई अहम कारण हैं।
- जलवायु परिवर्तन के शमन के विषय में भारत को बहुत सावधान रहना होगा क्योंकि देश 'निम्न कार्बन एजेंडा' तथा 'विकास एजेंडा' के बीच के अवसरों के दायरे को पूरी तरह से खोजने में सफल नहीं हो पाया है।
- भारत में अभी भी आधारभूत संरचना विकास की भारी कमी है और दुर्भाग्य से विकास की कमी को दूर करने और वास्तविक जलवायु परिवर्तन अनुकूलन के बीच के उपयुक्त अवसरों की तलाश करने की दिशा में कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं की गई है। अतः विकास की कमी के पहलू पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिये।
- ऐसा इसलिये भी है क्योंकि अनुकूलन के विरुद्ध पहली रक्षा पंक्ति के निर्माण में विकास की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
- इसके लिये ‘विकास बनाम अनुकूलन’ को समझना होगा और आकलन करना होगा कि देश को कितना और किस प्रकार के शमन करने की आवश्यकता है। इस बात पर गौर किये जाने की आवश्यकता है कि देश की आर्थिक संवृद्धि पर शमन कार्यों का समग्र बोझ कितना होगा और वर्तमान में कितना है।
- इस प्रकार अनुकूलन में इस बात पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये कि विकास के संदर्भ में हम कहाँ चूक कर रहे हैं।
- उदाहरण के लिये, सुधार और स्वच्छ ऊर्जा परिवहन साधनों की तलाश की आवश्यकता का अभिप्राय यह नहीं होना चाहिये कि हम इलेक्ट्रिक वाहनों की ओर अंधाधुंध बढ़ जाएँ, बल्कि पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिये कि बेहतर और सर्वसुलभ सार्वजनिक परिवहन का विकास किया जाए।
- विकास की कमी को एक बहुउद्देश्यीय दृष्टिकोण से समझना होगा। अर्थशास्त्र और पहुँच के संदर्भ में वायु प्रदूषकों जैसे स्थानीय प्रदूषकों, जलवायु परिवर्तन व शमन और शहरों की संवहनीयता के संदर्भ में देश को और अधिक बहुआयामी एवं विश्लेषणपरक ढाँचे की आवश्यकता है।
सबसे बड़ी आवश्यकता भविष्य के लिये ‘हेजिंग’ (hedging) की है
भारत की समस्या भविष्य के हेजिंग (hedging: वित्तीय जोखिम को कम करने या समाप्त करने के लिये डिज़ाइन की गई कोई भी तकनीक; उदाहरण के लिये दो ऐसी स्थितियों का निर्माण करना जो मूल्य परिवर्तन पर एक-दूसरे को प्रति-संतुलित करती हैं) की है, न कि महज इसकी कि हम अभी क्या उपभोग कर रहे अथवा तात्कालिक रूप से क्या प्राप्त करने की अपेक्षा रखते हैं।
- चूँकि ‘हेजिंग’ अथवा प्रतिरक्षा एक जारी प्रक्रिया है, यह कोई स्थैतिक संख्या नहीं है, यह समय के साथ बदलती रहती है और इसकी लगातार निगरानी एवं अध्ययन किये जाने की ज़रूरत होगी।
- भले ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) में भारत का प्रदर्शन अच्छा रहा है, तथापि देश इसके विषय में अपने योगदान और प्रतिबद्धताओं में अप्रत्याशित वृद्धि नहीं कर सकता है, विशेषकर जब तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इन प्रतिबद्धताओं के संदर्भ में कोई विशेष प्रभावी एवं गंभीर कार्यवाही अथवा प्रदर्शन देखने को नहीं मिलता है।
क्या विशिष्ट उपभोग पर कार्बन टैक्स लगाए जाने से ऊर्जा तक पहुँच में निष्पक्षता आएगी?
यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि कार्बन को शुद्ध रूप से उपभोग के संदर्भ में ही नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि इसके उत्पादन के संदर्भ में भी विचार किया जाना चाहिये। उदाहरण के लिये, यदि केरल में ऊर्जा उत्सर्जन की दर अधिक नहीं है तो इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि उसे इसका विशेष लाभ मिलना चाहिये, इसी तरह धनबाद (झारखंड) को अत्यधिक उत्सर्जन के लिये दंडित करना न्यायपूर्ण होगा क्योंकि धनबाद कार्बन उत्पादक राज्य है।
इस प्रकार उपभोग के मामले में असमानता का व्यवहार वास्तविक रूप में उचित नहीं है। उत्पादन के लिये उपभोग किया जा रहा है या व्यक्तिगत उपयोग के लिये? दोनों स्थितियों को सदृश नहीं माना जा सकता है। वस्तुतः ‘व्यक्तिगत उपयोग के लिये उपभोग’ के बजाय ‘उत्पादन के लिये उपभोग’ समस्या का बड़ा योगदानकर्त्ता है। इस संबंध में गंभीर रूप से विचार-विमर्श किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
यह कहा जा सकता है कि हमें जलवायु परिवर्तन को वैश्विक सामूहिक कार्रवाई समस्या के रूप में चिह्नित करना चाहिये। हमें अपने विदेश नीति एजेंडे में जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को शीर्ष स्तर पर रखने की ज़रूरत है।
हम ऊर्जा उपभोग के अपने मौजूदा स्तर को किसी भी प्रकार भारत के भविष्य की आवश्यकता के मानक के रूप में नहीं देख सकते है। ऐसा इसलिये है क्योंकि हमारा प्रति व्यक्ति ऊर्जा उपभोग का स्तर बहुत कम है और भारत में जिस विकास व जीवनशैली की अपेक्षा की जाती हैं यह उसके अनुरूप नहीं है।
वास्तविक दुविधा यह है कि क्या हम ऊर्जा के उपयोग को ऐसे समय में बढ़ाना चाहते हैं जब वैश्विक स्तर पर कार्बन प्रणाली में बदलाव की कोशिश की जा रही है। इसके संदर्भ में एक और बड़ी चुनौती रोज़गार प्रदान करने की भी है, विशेषकर तब, जब शक्ति और क्षमता में स्वचालन एवं कृत्रिम बुद्धिमत्ता का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। इसलिये भारत को जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को एकल प्रौद्योगिकी रूपांतरण के रूप में नहीं देखना चाहिये। इसके बजाय इस संदर्भ में रोज़गार, ऊर्जा और प्रदूषण जैसे प्रश्नों पर विचार करना चाहिये।
यू.पी.एस.सी. के लिये यह विषय क्यों महत्त्वपूर्ण है?
वर्ष 2017 की मुख्य परीक्षा के प्रश्नपत्र-III में निम्नलिखित प्रश्न पूछा गया था:
“जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है। जलवायु परिवर्तन से भारत कैसे प्रभावित होगा? जलवायु परिवर्तन से भारत के हिमालयी और तटीय राज्य कैसे प्रभावित होंगे?”
संभावित प्रश्न: "हालाँकि भारत वैश्विक उत्सर्जन में केवल 6-7 प्रतिशत का योगदान देता है, फिर भी यह जलवायु परिवर्तन के प्रति सर्वाधिक भेद्य (संवेदनशील) देशों में से एक है।" चर्चा करें।