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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

पेरिस समझौते पर गतिरोध के निहितार्थ

  • 06 Jun 2017
  • 10 min read

संदर्भ 
1 जून, 2017 को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ‘पेरिस समझौते’ (Paris agreement on climate change) से हटने की बात करते हुए इसकी पुष्टि करने से इनकार कर दिया गया। स्वाभाविक तौर पर, अमेरिकी प्रशासन का यह फैसला पेरिस समझौते की सफलता के प्रति प्रयासरत सम्पूर्ण वैश्विक समुदाय के लिये एक बेहद चिंताजनक विषय है।

इसके साथ ही, ट्रंप ने पेरिस सम्मलेन की पुष्टि न करने के पीछे के अपने कारणों का भी उल्लेख किया है। दरअसल, उनका कहना है कि भारत जैसे देश विकसित राष्ट्रों से मिलने वाले अरबों-खरबों के अनुदान की वजह से इस समझौते का हिस्सा बने हैं। यानी उनका इशारा इस तरफ था कि भारत की जलवायु नीति लेन-देन पर आधारित है न कि सिद्धांत पर। भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इस कथन का ज़ोरदार शब्दों में खंडन करते हुए कहा है कि पर्यावरणीय मुद्दों पर देश का रुख किसी लालच, भय या राजनीति से प्रभावित नहीं है बल्कि पर्यावरण संरक्षण पर पहल करना हमारी पाँच हज़ार वर्ष पुरानी सांस्कृतिक परंपरा का एक अंग है। 

हालाँकि, ट्रंप के उक्त फैसले के भावी परिणामों के प्रति भारत की चिंता जगज़ाहिर है, परन्तु भारतीय नेतृत्व पेरिस समझौते के अपने पक्ष पर अब तक अडिग है। इस गतिरोध का भारत-अमेरिका संबंधों पर क्या प्रभाव होगा, अभी यह कहना मुश्किल है; यह सब ट्रंप प्रशासन के अगले कदम पर निर्भर करेगा। 

अमेरिका द्वारा पेरिस सम्मलेन की पुष्टि न करने के पीछे के कारण

  • उद्योगों पर प्रभाव- ट्रंप का कहना है कि इस समझौते से उनके कोयला आधारित उद्योगों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। ऐसे में अमेरिका के ऊर्जा तथा अन्य उद्योगों के प्रभावित होने की आशंका है।
  • समझौते का निष्पक्ष न होना- ट्रंप का कहना है कि इस समझौते में भारत और चीन जैसे 'प्रदूषणकारी देशों' को अनुचित लाभ मिला है। इस समझौते के तहत दोनों देश अगले कुछ वर्षों में कोयले से संचालित बिजली संयंत्रों को दोगुना कर लेंगे और भारत को अपनी प्रतिबद्धताएँ पूरी करने के लिये अरबों डॉलर मिलेंगे। दरअसल, उनको भय है कि इन उपायों से चीन को अमेरिका पर वित्तीय बढ़त हासिल हो जाएगी। परन्तु यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि वे शायद इस तथ्य की अनदेखी कर रहे हैं कि भारत और चीन दोनों ही संधि के प्रावधानों के तहत निर्धारित लक्ष्यों को लेकर गंभीर हैं। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार दोनों देश वर्ष 2015 के समझौते में कार्बन उत्सर्जन कम करने का जो लक्ष्य तय किया गया था, उससे आगे चल रहे हैं। रिपोर्ट में उम्मीद जताई गई है कि भारत निर्धारित लक्ष्य से आठ साल पहले, यानी 2022 तक ही अपनी 40 प्रतिशत बिजली गैर-पारंपरिक स्रोतों से पैदा करने लगेगा।
  • अमेरिकी हित को वरीयता-  ट्रंप का मानना है कि पेरिस सम्मलेन अमेरिकी लोगों के आर्थिक हितों की अनदेखी करता है और इससे अमेरिकी संप्रभुता प्रभावित हो सकती है। इसलिये अमेरिका और उसके नागरिकों की रक्षा करने के लिये उनका विशेष कर्त्तव्य है कि इस समझौते की पुष्टि न की जाए।

पेरिस सम्मलेन से जुड़े कुछ प्रमुख तथ्य

  • जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये पेरिस समझौता इसके हस्ताक्षरकर्ता देशों के लिये एक गैर-बाध्यकारी (Non-Binding) अंतर्राष्ट्रीय समझौता है।
  • 30 नवंबर से लेकर 11 दिसंबर, 2015 तक 195 देशों की सरकारें पेरिस, फ्रांस में इकट्ठा हुईं और वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के उद्देश्य से जलवायु परिवर्तन पर एक नए वैश्विक समझौते को संपन्न किया, जो जलवायु परिवर्तन के खतरे को कम करने की दृष्टि से एक प्रभावी कदम होगा।
  • पेरिस समझौते का मुख्य उद्देश्य वैश्विक  औसत तापमान को इस सदी के अंत तक औद्योगीकरण के पूर्व के समय के तापमान के स्तर से 2 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक नहीं होने देना है।
  • वैसे, पेरिस समझौता मूलतः मानव गतिविधियों द्वारा उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा को सीमित करने पर आधारित है। 
  • साथ ही, यह समझौता उत्सर्जन को कम करने के लिये प्रत्येक देश के योगदान की समीक्षा करने की आवश्यकता का उल्लेख भी करता है। इसके अंतर्गत ही राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution) की संकल्पना को प्रस्तावित किया गया है और  प्रत्येक राष्ट्र से यह अपेक्षा है कि वह ऐच्छिक तौर पर अपने लिये उत्सर्जन के लक्ष्यों का निर्धारण करे।
  • पेरिस समझौते में प्रावधान है कि विकसित देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल और नवीकरणीय ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिये गरीब देशों को "जलवायु वित्त"(Climate  Finance) प्रदान करके सहायता करनी चाहिये।
  • यद्यपि समझौते में रिपोर्टिंग की आवश्यकता जैसे कुछ बाध्यकारी तत्त्व हैं, परन्तु समझौते का अन्य  महत्त्वपूर्ण पक्ष जैसे उत्सर्जन का लक्ष्य निर्धारित करना, बाध्यकारी नहीं है।

राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC)

  • उत्सर्जन में कटौती करने के लिये देशों द्वारा स्वैच्छिक तौर पर उत्सर्जन लक्ष्य को तय किये जाने की व्यवस्था है।
  • पेरिस समझौते के लिये सभी देशों को "राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान" (NDC) के माध्यम से अपने सर्वोत्तम प्रयासों को आगे बढ़ाने और अगले वर्षों में इन प्रयासों को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
  • इस समझौते में शामिल सभी पक्षों (सदस्य देशों) द्वारा हमेशा अपने द्वारा किये जाने वाले उत्सर्जन एवं उसे कम करने हेतु किये गए प्रयासों की रिपोर्टिंग करना भी आवश्यक होता है।
  • समझौते के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये सामूहिक प्रयास का आकलन करने और विभिन्न पक्षों द्वारा आगे की व्यक्तिगत कार्यवाहियों को सूचित करने के लिये प्रत्येक 5 वर्षों पर उत्सर्जन की वैश्विक मात्रा (Global Stock) की समीक्षा करना भी शामिल है।

अब आगे क्या?

  • भारत की ओर से स्पष्ट तौर पर यह कहा गया है कि अमेरिका की अनुपस्थिति में भी वह जलवायु परिवर्तन से संबंधित अपने संकल्पों पर बना रहेगा। इस दशा में भारत को जल्दबाजी में कोई प्रतिक्रिया देने के स्थान पर अन्य वैश्विक शक्तियों यथा यूरोपीय संघ व चीन के अगले कदम का इंतज़ार करना चाहिये।
  • अमेरिका की अनुपस्थिति की दशा में चीन व यूरोपीय संघ की भूमिका अहम हो सकती है, इसलिये इस विषय पर, इन दोनों पक्षों से भारत को लगातार संपर्क बनाए रखना चाहिये।


निष्कर्ष 
अमेरिकी नेतृत्त्व अपनी आर्थिक व अन्य समस्याओं का निदान पेरिस समझौते से बाहर रहने में देखता है जो एक अव्यावहारिक निर्णय है। कार्बन उत्सर्जन की समस्या का निदान उत्सर्जन कम करते हुए हरित तकनीकों को बढ़ावा देने से हो सकता है, जिसके लिये विकासशील देशों को मज़बूत वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। अतः अमेरिका जैसे देश का इस समझौते से बाहर हो जाना स्वाभाविक तौर पर बहुत बड़ा झटका है। परन्तु अमेरिका की अनुपस्थिति में जलवायु परिवर्तन के लक्ष्यों से समझौता करना कहीं से भी व्यावहारिक व धारणीय कदम नहीं होगा।

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