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एडिटोरियल

  • 03 Aug, 2022
  • 12 min read
कृषि

कृषि का नारीकरण

यह एडिटोरियल 01/08/2022 को हिंदुस्तान टाइम्स में प्रकाशित “India’s natural farming policy should recognise women’s new role” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में कृषि के ‘नारीकरण’ (feminization of agriculture) और प्राकृतिक खेती में महिलाओं की भागीदारी के लाभों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 33.7% ग्रामीण पुरुष रोज़गार और बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में पलायन या प्रवास करते हैं। ग्रामीण पुरुषों के बढ़ते प्रवास ने कृषि क्षेत्र के ‘नारीकरण’ (feminization of agriculture), यानी कृषि गतिविधियों में महिलाओं की वृहत संलग्नता एवं भागीदारी, का परिदृश्य उत्पन्न किया है, जहाँ कृषि और संबद्ध गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होती जा रही है।

इस बदलते परिदृश्य को संबोधित करने के लिये महिलाओं को भारत की नीतिगत पहल के केंद्र में रखना आवश्यक हो गया है।

भारतीय कृषि के नारीकरण के प्रमुख कारण

  • कार्य का लिंग-विभाजन: निम्न भुगतान-प्राप्त अनियमित कार्य स्वीकार करने के प्रति महिलाएँ अधिक इच्छुक होती हैं, उन्हें कार्य पर लगाना और हटाना आसान है, उन्हें अधिक नियंत्रणाधीन एवं मेहनती माना जाता है तथा कुछ कार्यों को महिला कार्य के रूप में जाना जाता है।
  • सामाजिक गतिशीलता और प्रवासन (पुरुषों के लिये आरक्षित): पुरुषों को आम तौर पर परिवार का अर्जक माना जाता है, क्योंकि उन्हें शिक्षा के अधिक अवसर मिलते हैं और शारीरिक श्रम के लिये उन्हें प्राथमिकता दी जाती है।
    • नतीजतन, भारतीय ग्रामीण इलाकों में बेहतर नौकरियों की तलाश में पुरुषों के ग्रामीण से शहरी क्षेत्रों की ओर प्रवासन और स्थानांतरण की अधिक संभावना होती है, जबकि महिलाएँ मुख्य रूप से घरेलू कार्यों और कृषि संबंधी कार्यों की ज़िम्मेदारी उठाती हैं।
  • गरीबी: गरीबी के कारण महिलाएँ प्रायः खेतिहर मज़दूर या घरेलू श्रमिक के रूप में कार्य करती हैं ताकि परिवार की आय में अपना योगदान दे सकें।

कृषि के नारीकरण का महिलाओं पर प्रभाव

  • कार्य अधिभार: पितृसत्तात्मक सामाजिक भूमिकाओं के अनुरूप महिलाएँ प्रजनन और पारिवारिक देखभाल कार्यों के लिये उत्तरदायी हैं। पुरुषों के पलायन के साथ महिलाओं को कृषि कार्यों की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी भी उठानी पड़ रही है।
    • इसका अर्थ है कि उन्हें अब अपने परिवार की देखभाल करने के साथ-साथ खेतिहर मज़दूर के रूप में भी कार्य करना होगा।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक अलगाव: जो महिलाएँ परिवार के पुरुषों के प्रवास के बाद परिवार के पोषण के लिये पारंपरिक पुरुष भूमिकाएँ निभाती हैं, उन्हें प्रायः समुदायों में तिरस्कृत किया जाता है क्योंकि माना जाता है कि वे सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों का उल्लंघन कर रही हैं।
  • बच्चों के पालन-पोषण के लिये अपर्याप्त समय: काम के अधिक बोझ के कारण महिलाएँ अपने बच्चों के लिये अपर्याप्त समय निकाल पाती हैं। पुरुष प्रवास से प्राप्त आर्थिक लाभ के बावजूद, माता-पिता की अनुपस्थिति प्रत्यक्ष रूप से देखभाल और देखरेख में कमी ला सकती है, जो बच्चों के पालन-पोषण को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है।
  • मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ: पुरुष प्रवास के कारण पति-पत्नी अलगाव, साहचर्य की कमी और घरेलू ज़िम्मेदारियों में वृद्धि से प्रवासी श्रमिकों की पीछे छूटी महिला जीवनसाथी में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
  • मान्यता और स्वामित्व से वंचित: महिलाएँ घर में और खेत में, दोनों ही स्तरों पर कार्य का प्रबंधन करती हैं, जिसमें पशुधन की देखरेख करना और बाज़ार में दूध एवं अन्य उत्पाद बेचना भी शामिल है। लेकिन दुर्भाग्य से उनके योगदान और भूमिकाओं को कभी भी पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं दी जाती है और भूमि के स्वामित्व के मामले में वे हाशिए पर बनी रही हैं।

प्राकृतिक खेती में महिलाओं की भागीदारी कैसे समग्र लाभ की स्थिति बन सकती है?

  • प्राकृतिक खेती (Natural farming) प्राकृतिक आदानों (इनपुट्स) के माध्यम से प्राकृतिक या पारिस्थितिक प्रक्रियाओं पर आधारित विधियों का उपयोग करती है। यह आदानों की खरीद पर किसानों की निर्भरता को न्यूनतम करने के साथ ही उनकी आय में वृद्धि करने, पारिस्थितिक लाभ प्रदान करने और पोषक खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने का एक आशाजनक उपाय है।
  • महिला सशक्तीकरण: प्राकृतिक खेती की पहलों में महिलाओं की भागीदारी से उनकी आय में वृद्धि हो सकती है जबकि निर्णय ले सकने की उनकी क्षमता भी बढ़ेगी। यह परिवार के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति को भी सकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा।
    • विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि प्राथमिक उत्पादक के रूप में कृषि संसाधनों पर महिलाओं के नियंत्रण और उनके पारिवारिक सामाजिक-आर्थिक अभिलक्षणों के बीच एक प्रत्यक्ष संबंध है।
  • प्रभावशील प्राकृतिक खेती: चूँकि महिलाएँ ही अधिकांशतः अपने परिवार के लिये खाना बनाती हैं, इसलिये वे अपने बच्चों के पोषण हेतु प्राकृतिक उत्पादों के महत्त्व को भलीभांति समझती हैं। परिणामस्वरूप महिलाएँ पुरुषों की तुलना में प्राकृतिक खेती को अपनाने हेतु अधिक प्रवृत्त होंगी।
    • महिलाओं ने पारिस्थितिक अभ्यासों (जैसे पारंपरिक बीजों का संरक्षण, प्राकृतिक उर्वरक तैयार करना और दैनिक घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विविध प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग) के माध्यम से जैव विविधता प्रबंधन और संवहनीय कृषि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
    • प्राकृतिक खेती में उनकी संलग्नता एवं भागीदारी यह सुनिश्चित करेगी कि ऐसे पारिस्थितिक अभ्यास संवहनीय और वृद्धिकारी बने रहें, यह आर्थिक लाभ एवं समता (इक्विटी) को बढ़ावा देगी और देश के सतत विकास एजेंडे को सहयोग देगी।
  • उदाहरण: आंध्र प्रदेश समुदाय-प्रबंधित प्राकृतिक खेती (Andhra Pradesh Community-Managed Natural Farming- APCNF)
    • APCNF ने महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों (SHGs) के मौजूदा संस्थागत मंच का उपयोग कर सामाजिक जुड़ाव, सामूहिक कार्रवाई, सामुदायिक शिक्षा और सामुदायिक विपणन में महिलाओं को संलग्न किया है, जो प्राकृतिक कृषि कार्यक्रम का विस्तार करने, उन्हें सतत बनाए रखने और उन्हें गहन करने में सहायक हैं।
      • इस आंदोलन ने महिलाओं को अपने घरेलू पोषण स्तर एवं आय में सुधार लाने में भी मदद की है और उन्हें अपने गाँव में अपने अभिकर्तृत्व (एजेंसी) के निर्माण के लिये सशक्त किया है।

आगे की राह

  • सामाजिक सुरक्षा: यह सुनिश्चित करने के लिये एक सामाजिक सुरक्षा आवरण आवश्यक है कि महिलाओं के पास कार्य प्रबंधन के साथ-साथ घरेलू ज़िम्मेदारियों, बच्चों के पालन-पोषण और वित्तीय बोझ से निपटने के लिये एक सुदृढ़ समर्थन प्रणाली मौजूद है।
  • महिलाओं के लिये कृषि भूमि स्वामित्व: कृषि भूमि स्वामित्व के साथ महिलाओं को कृषकों के रूप में चिह्नित करने की आवश्यकता लगातार बढ़ती जा रही है ताकि वे केवल खेतिहर मज़दूर भर होने के बजाय विभिन्न योजनाओं और लाभों की पात्रता प्राप्त कर सकें।
    • कृषि जनगणना (2015-16) के अनुसार कृषि कार्यों में संलग्न 73.2% ग्रामीण महिलाओं में से केवल 12.8% को ही भूमि स्वामित्व प्राप्त था।
  • महिलाओं के योगदान को चिह्नित करना: कृषि क्षेत्र में महिलाओं की उपस्थिति और योगदान को चिह्नित करने के लिये कृषि नीति कार्यान्वयन में समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता है।
    • इसके अतिरिक्त, महिलाओं पर लक्षित बेहतर विस्तार सेवाएँ और प्रशिक्षण कार्यक्रम लैंगिक असमानता को दूर कर सकते हैं।
  • ‘जेंडर बजटिंग’: विधान, कार्यक्रमों एवं योजनाओं, संसाधनों का आवंटन आदि का लैंगिक रूप से संवेदनशील सूत्रीकरण ‘जेंडर मेनस्ट्रीमिंग’ प्राप्त करने का एक शक्तिशाली साधन हो सकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विकास का लाभ पुरुषों की तरह महिलाओं तक भी पहुँचे।
  • योजना चरण में स्थानीय महिलाओं को शामिल करना: भारत के कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को मुख्यधारात्मक बनाने के लिये आगामी विकास परियोजनाओं और कार्य योजनाओं में महिलाओं को इसके योजना चरणों में शामिल किया जाना चाहिये।
    • खेती कार्यों से संलग्न महिलाएँ अपने गाँव के भूगोल एवं भूमि स्थलाकृति के बारे में अधिक जागरूक हैं और यह योजना को एक समतापूर्ण और समावेशी दृष्टिकोण भी प्रदान कर सकता है।

महिला सशक्तीकरण और कृषि से संबंधित सरकारी पहलें:

अभ्यास प्रश्न: महिलाओं पर ‘कृषि के नारीकरण’ के प्रभावों की चर्चा कीजिये। प्राकृतिक खेती में महिलाओं की भागीदारी एक समग्र लाभ की स्थिति कैसे हो सकती है?


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