जीवाश्म ईंधन और नीतिगत दुविधा
यह एडिटोरियल 30/08/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘The agenda for Petroleum Minister Hardeep Singh Puri’’ लेख पर आधारित है। इसमें कच्चे तेल के आयात और उपयोगिता के संबंध में भारत के सामने मौजूद नीतिगत चुनौतियों की चर्चा की गई है।
जलवायु परिवर्तन के कारण हो रही तबाही का विस्तार और इसकी गति पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के लिये यदि नैतिक नहीं तो कम से कम एक नीतिगत दुविधा अवश्य उत्पन्न करती है।
दुविधा यह है कि आत्मनिर्भरता (Self Sufficiency) की अनिवार्यता के सामने आपूर्ति-पक्ष की प्राथमिकताओं को फिर से कैसे परिभाषित किया जाए, जबकि देश में लगभग 85% जीवाश्म ईंधन अभी भी आयात किये जाते हैं।
इस प्रकार माँग-आपूर्ति के अंतराल को भरने के लिये पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा उठाए जा सकने वाले विभिन्न उपायों पर विचार करने की आवश्यकता है।
कच्चे तेल प्रबंधन से जुड़ी समस्याएँ
- निष्कर्षण के साथ-साथ पर्यावरण को संतुलित करना: भारतीय तेल और गैस उद्योग से संबंधित व्यक्तियों/संस्थाओं को जीवाश्म ईंधन की खपत में कमी लाने की प्रतिबद्धता पर कायम रहते हुए बदलते पर्यावरण के प्रति अनुकूल प्रतिक्रिया दे सकने की दोहरी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
- आयात पर निर्भरता: भारतीय अर्थव्यवस्था जीवाश्म ईंधन पर निर्भर है और इस निर्भरता का कोई निकट अंत होता नज़र नहीं आता।
- भारत कच्चे तेल की अपनी आवश्यकताओं का लगभग 85% आयात करता है और इस कारण अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार की अस्थिरता से प्रभावित होता है।
- इसके अलावा उसके आयात का एक बड़ा भाग मध्य-पूर्व से प्राप्त होता है- मुख्यतः सऊदी अरब, इराक और ईरान से, जो गहरे राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं का शिकार हैं और इससे हमारी आपूर्ति शृंखलाओं के कभी भी टूट सकने का खतरा रहता है।
- अन्वेषण संबंधी समस्याएँ: हाल के वर्षों में कुछ ही वास्तविक व्यावसायिक अन्वेषण कार्य हुए हैं, क्योंकि भंडार का एक बड़ा हिस्सा जटिल भू-वैज्ञानिक संरचनाओं और दुर्गम क्षेत्रों (हिमालय की तलहटी या गहरे अपतटीय जल क्षेत्र) में स्थित है।
- इनकी खोज करना कठिन है और कभी इन भंडारों का पता लग भी जाता है तो निष्कर्षण की लागत इतनी अधिक होती है कि उच्च मूल्यों वाले बाज़ार परिदृश्यों को छोड़ दें तो ये व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य नहीं होते।
- संरचनात्मक चुनौतियाँ: वर्ष 2021 में कोविड-19 महामारी ने कई संरचनात्मक परिवर्तनों को जन्म दिया है। इनमें से कुछ का उल्लेख ग्राफ-1 में किया गया है।
आगे की राह:
- घरेलू अन्वेषण को युक्तिसंगत बनाना: भारत को अपने अन्वेषण अभियान तेज़ कर अपने स्वदेशी पेट्रोलियम संसाधनों के दोहन को बढ़ावा देना चाहिये, लेकिन इसके साथ ही इसमें संलग्न संसाधनों का उचित प्रबंधन भी किया जाना चाहिये।
- चूँकि अन्वेषण की अपनी चुनौतियाँ हैं, अन्वेषण के लिये निर्धारित संसाधनों को युक्तियुक्तकरण के साथ कहीं और अधिक उत्पादक रूप से उपयोग किया जा सकता है।
- उत्पादकता और दक्षता में सुधार: ONGC जैसी कंपनियों को अपने उत्पादक क्षेत्रों की उत्पादकता में सुधार के लिये अधिकाधिक संसाधनों का आवंटन करना चाहिये। भारत में औसत तेल प्राप्ति दर लगभग 28% है। इसका अर्थ यह है कि खोजे गए प्रत्येक 100 अणुओं में से केवल 28 का ही मुद्रीकरण होता है।
- समतुल्य भू-वैज्ञानिक क्षेत्रों के लिये वैश्विक औसत लगभग 45% है।
- प्राप्ति (रिकवरी) दर वर्तमान में बेहतर हो सकती है लेकिन यदि अभी भी व्यापक अंतर है, तो Enhanced Oil Recovery (EOR) प्रौद्योगिकी का उपयोग घरेलू उत्पादन बढ़ाने के लिये अपेक्षाकृत कम जोखिम वाला अवसर प्रदान कर सकता है।
- एक आकस्मिकता योजना की आवश्यकता: भारत में इस समय 12 दिन के आयात के बराबर सामरिक भंडार मौजूद है। सरकार ने इस बफर को बढ़ाकर 25 दिन करने की योजना को मंज़ूरी दी है।
- तुलनात्मक रूप से चीन, यूरोपीय संघ, दक्षिण कोरिया और जापान के पास 70-100 दिनों का भंडार है।
- जामनगर में एक भंडारगृह का निर्माण कर कच्चे तेल के भंडार को बढ़ाया जाना चाहिये। जामनगर ही वह भंडार क्षेत्र (Entrepot) है जो हमारे कच्चे तेल के आयात का लगभग 60% प्राप्त करता है और टैंकों एवं पाइपलाइनों के माध्यम से देश के भीतरी इलाकों की रिफाइनरियों से सुसंबद्ध है।
- सार्वजनिक क्षेत्र की पेट्रोलियम कंपनियों का पुनर्गठन: अपस्ट्रीम परिसंपत्तियों को ONGC के तहत समेकित किया जाना चाहिये (BPCL, IOC, HPCL और GAIL की अपस्ट्रीम परिसंपत्तियाँ ONGC को हस्तांतरित होनी चाहिये) और GAIL को एक ‘सार्वजनिक उपयोगिता गैस पाइपलाइन कंपनी’ में बदल दिया जाना चाहिये।
- यह पुनर्गठन ’इंट्रा-पब्लिक सेक्टर’ प्रतिस्पर्द्धा की "परिहार्य" लागत को कम करने में मदद करेगा, "सब स्केल" परिचालन की अक्षमताओं को कम करेगा और स्वच्छ ऊर्जा विकसित करने की मध्यम-आवधिक एवं दीर्घावधिक आवश्यकताओं के साथ सुरक्षित और किफायती हाइड्रोकार्बन प्रदान करने हेतु अल्पकालिक आवश्यकता को संतुलित करते हुए एक केंद्रीय मंच प्रदान करेगा।
- अन्य विकल्पों की तलाश: इन कंपनियों को हाइड्रोकार्बन के अतिरिक्त एक ‘हरित ऊर्जा’ उद्यम के निर्माण के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- मेथनॉल आधारित अर्थव्यवस्था और बायोमास जैसे अन्य विकल्पों की तलाश की जानी चाहिये।
निष्कर्ष
इस प्रकार सभी हितधारकों को तेल और प्राकृतिक गैस के संकुचित दृष्टिकोण के माध्यम से ही कार्यशील होने की आवश्यकता नहीं है। उन्हें अपने दायरे का विस्तार करना चाहिये और ऊर्जा संक्रमण/रूपांतरण का अगुवा बनने का प्रयास करना चाहिये।
यदि स्वच्छ ऊर्जा ढाँचे के अंदर प्राथमिकताएँ विकसित की जाती हैं तो पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय की नीतिगत दुविधाएँ दूर हो सकती हैं।
अभ्यास प्रश्न: कच्चे तेल की मांग तथा आपूर्ति के बीच अंतराल को भरने के लिये भारत द्वारा विभिन्न उपायों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है। टिप्पणी कीजिये।