एडिटोरियल (03 Jul, 2020)



पुलिस सुधार और न्यायिक समर्थन की आवश्यकता

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में पुलिस सुधार और न्यायिक समर्थन की आवश्यकता से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

हाल ही में तमिलनाडु पुलिस द्वारा हिरासत में लिये गए दो व्यापारियों की मृत्यु (Custodial Death) और यातना की घटना ने भारत की विघटित होती आपराधिक न्यायिक प्रणाली की ओर इशारा करते हुए देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता को भी रेखांकित किया है। पुलिस व्यवस्था में सुधार के साथ ही न्यायिक प्रक्रियाओं के उचित उपयोग का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि रिमांड के संदर्भ में याचिका स्वीकार करते हुए न्यायिक दंडाधिकारी (Judicial Magistrate) उसकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं और वे पुलिस के पक्ष पर अति-विश्वास से प्रभावित होते हैं। 

इस आलेख में पुलिस व्यवस्था, बदलाव की आवश्यकता, विभिन्न आयोग व समितियों की सिफारिशें, पुलिस सुधार में न्यायालयों की भूमिका और नागरिकों को प्राप्त अधिकारों पर चर्चा की जाएगी। 

राज्य सूची का विषय

  • संविधान के अंतर्गत, पुलिस राज्य सूची का विषय है, इसलिये भारत के प्रत्येक राज्य के पास अपना एक पुलिस बल है। राज्यों की सहायता के लिये केंद्र को भी पुलिस बलों के रखरखाव की अनुमति दी गई है ताकि कानून और व्यवस्था की स्थिति सुनिश्चित की जा सके।
  • दरअसल, पुलिस बल राज्य द्वारा अधिकार प्रदत्त व्यक्तियों का एक निकाय है, जो राज्य द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करने, संपत्ति की रक्षा और नागरिक अव्यवस्था को सीमित रखने का कार्य करता है। पुलिस को प्रदान की गई शक्तियों में बल का वैध उपयोग करना भी शामिल है।

पुलिस सुधार की आवश्यकता क्यों?  

  • देश में अधिकांशतः राज्यों में पुलिस की छवि तानाशाहीपूर्ण, जनता के साथ मित्रवत न होना और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने की रही है।
  • रोज़ ऐसे अनेक किस्से सुनने-पढ़ने और देखने को मिलते हैं, जिनमें पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है। पुलिस का नाम लेते ही प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, रौब, उगाही, रिश्वत आदि जैसे शब्द दिमाग में कौंध जाते हैं।
  • भारत के अधिकांश राज्यों ने अपने पुलिस संबंधी कानून ब्रिटिश काल के पुलिस अधिनियम, 1861 के आधार पर बनाए हैं, जिसके कारण ये सभी कानून भारत की मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। 
  • विदित है कि मौजूदा दौर में गुणवत्तापूर्ण जाँच के लिये नवीन तकनीकी क्षमताओं की आवश्यकता होती है, किंतु भारतीय पुलिस व्यवस्था में आवश्यक तकनीक के अभाव में सही ढंग से जाँच संभव नहीं हो पाती है और कभी-कभी इसका असर उचित न्याय मिलने की प्रक्रिया पर भी पड़ता है।
  • भारत में पुलिस-जनसंख्या अनुपात काफी कम है, जिसके कारण लोग असुरक्षित महसूस करते हैं और पुलिस को मानव संसाधन की कमी से जूझना पड़ता है।  

पुलिस सुधारों के लिये विभिन्न आयोग व समितियाँ 

धर्मवीर आयोग (राष्ट्रीय पुलिस आयोग)

  • वर्ष 1977 में पुलिस सुधारों को केंद्र में रखकर जनता पार्टी की सरकार द्वारा श्री धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित इस आयोग को राष्ट्रीय पुलिस आयोग (National Police Commission) कहा जाता है। चार वर्षों में इस आयोग ने केंद्र सरकार को आठ रिपोर्टें सौंपी थीं, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल नहीं किया गया। 
  • धर्मवीर आयोग की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं-
    • प्रत्येक राज्य में एक प्रदेश सुरक्षा आयोग का गठन किया जाए। 
    • जाँच कार्यों को शांति व्यवस्था संबंधी कामकाज से अलग किया जाए। 
    • पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के लिये एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाए।
    • पुलिस प्रमुख का कार्यकाल तय किया जाए।
    • एक नया पुलिस अधिनियम बनाया जाए।

पद्मनाभैया समिति

  • वर्ष 2000 में पुलिस सुधारों पर पद्मनाभैया समिति का गठन किया गया था। 
  • इस समिति का मुख्य कार्य पुलिस बल की भर्ती प्रक्रियाओं, प्रशिक्षण, कर्तव्यों और ज़िम्मेदारियों, पुलिस अधिकारियों के व्यवहार और पुलिस जाँच आदि विषयों का अध्ययन करना था।

अन्य समितियाँ 

  • वर्ष 1997 में तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्त ने देश के सभी राज्यों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासकों को एक पत्र लिखकर पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिये कुछ सिफारिशें भेजी थीं।
  • देश में आपातकाल के दौरान हुई ज़्यादतियों की जाँच के लिये गठित शाह आयोग ने भी ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति से बचने के लिये पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त करने की बात कही थी।
  • इसके अलावा राज्य स्तर पर गठित कई पुलिस आयोगों ने भी पुलिस को बाहरी दबावों से बचाने की सिफारिशें की थीं। 
  • इन समितियों ने राज्यों में पुलिस बल की संख्या बढ़ाने और महिला कांस्टेबलों की भर्ती करने की भी सिफारिश की थी।

मॉडल पुलिस एक्ट, 2006

  • वर्ष 2006 में सोली सोराबजी समिति ने मॉडल पुलिस अधिनियम का प्रारूप तैयार किया था, लेकिन केंद्र या राज्य सरकारों ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। 
  • विदित है कि गृह मंत्रालय ने 20 सितंबर, 2005 को विधि विशेषज्ञ सोली सोराबजी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था, जिसने 30 अक्तूबर 2006 को मॉडल पुलिस एक्ट, 2006 का प्रारूप केंद्र सरकार को सौंपा।

सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक निर्णय 

  • जब किसी भी आयोग और समिति की रिपोर्ट पर कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं हुई तो उत्तर प्रदेश व असम में पुलिस प्रमुख और सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक रहे प्रकाश सिंह ने वर्ष 1996 में सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर अपील की कि सभी राज्यों को राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने के निर्देश दिये जाए।
  • इस याचिका पर एक दशक तक चली सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने कई आयोगों की सिफारिशों का अध्ययन कर आखिर में 22 सितंबर, 2006 को पुलिस सुधारों पर निर्णय देते हुए राज्यों और केंद्र के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये।
    • राज्यों को निर्देश: इनमें पुलिस पर राज्य सरकार का प्रभाव कम करने के लिये राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करने, पुलिस महानिदेशक, पुलिस महानिरीक्षक और अन्य वरिष्ठ अधिकारियों का न्यूनतम कार्यकाल दो साल तय करने, जाँच और कानून व्यवस्था की बहाली का ज़िम्मा अलग-अलग पुलिस इकाइयों को सौंपने, सेवा संबंधी तमाम मामलों पर फैसले के लिये एक पुलिस इस्टैब्लिशमेंट बोर्ड (Police Establishment Board) का गठन करने और पुलिस अफसरों के खिलाफ शिकायतों की जाँच के लिये पुलिस शिकायत प्राधिकरण का गठन करने जैसे दिशा-निर्देश शामिल थे। 
    • केंद्र को निर्देश: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को केंद्रीय पुलिस बलों में नियुक्तियों और कर्मचारियों के लिये बनने वाली कल्याण योजनाओं की निगरानी के लिये एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग के गठन का भी निर्देश दिया था, लेकिन अब तक इसका गठन नहीं हो सका है।

पुलिस सुधारों के प्रति राज्यों में गंभीरता का अभाव

  • विदित है कि राज्य सरकारें कई बार पुलिस प्रशासन का दुरुपयोग भी करती हैं। कभी अपने राजनीतिक विरोधियों से निपटने के लिये तो कभी अपनी किसी नाकामी को छिपाने के लिये संभवत: यही मुख्य कारण है कि राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये तैयार नहीं हैं।
  • राज्य सरकारें पुलिस सुधार के लिये कितनी संजीदा हैं, यह इस बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 2017 में जब गृह मंत्रालय ने द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की 153 अति महत्त्वपूर्ण सिफारिशों पर विचार करने के लिये मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाया जिनमें पुलिस सुधार पर चिंतन-मनन होना था, तो इस सम्मेलन में अधिकतर मुख्यमंत्री अनुपस्थित रहे। 
  • पुलिस सुधार के एजेंडे में जाँच व पूछताछ के तौर-तरीके, जाँच विभाग को विधि-व्यवस्था विभाग से अलग करने, महिलाओं की 33 प्रतिशत भागीदारी के अलावा पुलिस की निरंकुशता की जाँच के लिये विभाग बनाने पर भी चर्चा की जानी थी।
  • आज भी ज़्यादातर राज्य सरकारें पुलिस सुधार के मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने को तैयार नहीं हैं। यह आनाकानी पुलिस सुधार को लेकर उनकी बेरुखी को ही दर्शाती है। 

आवश्यक है न्यायालय का सहयोग

  • तमिलनाडु में व्यापारियों की पुलिस हिरासत में हुई मृत्यु से यह स्पष्ट है कि न्यायिक दंडाधिकारी ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मनुभाई रतिलाल पटेल बनाम गुजरात सरकार मामले में दी गई व्यवस्था के उलट काम किया है।
    • जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि रिमांड या उसकी समयावधि तय करते समय दंडाधिकारी न्यायिक कार्य का निर्वहन करता है। एक अभियुक्त की रिमांड पर निर्देश देना मौलिक रूप से एक न्यायिक कार्य है। 
    • दंडाधिकारी एक अभियुक्त को हिरासत में रखने का आदेश देते समय कार्यकारी क्षमता में कार्य नहीं करता है, इस न्यायिक कार्य के दौरान दंडाधिकारी का स्वयं इस पर संतुष्ट होना अनिवार्य है कि क्या उसके समक्ष रखे गए तथ्य इस तरह की रिमांड के लिये आवश्यक है या इसे अलग तरीके से देखा जाना चाहिये, भले ही अभियुक्त को हिरासत में रखने और उसकी रिमांड बढ़ाने के लिये पर्याप्त आधार मौजूद हों।
  • भारतीय दंड संहिता की धारा 167 के अनुसार, अपेक्षित रिमांड का उद्देश्य यह है कि जाँच 24 घंटे की निर्धारित समयावधि में पूरी नहीं की जा सकती। यह दंडाधिकारी को इस तथ्य का पर्यवेक्षण करने की शक्ति देता है कि क्या रिमांड वास्तव में आवश्यक है? दंडाधिकारी के लिये यह अनिवार्य है कि रिमांड देते समय वह अपने विवेक का इस्तेमाल करे न कि सिर्फ यांत्रिक रूप से रिमांड के आदेश को पारित कर दे।
  • सर्वोच्च न्यायालय के लिये यह आवश्यक है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों में होने वाली इस तरह की खामियों के मुद्दे को सुलझाए और उनकी ज़वाबदेही तय करे।
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्र सरकार को यह निर्देश जारी किया जाना चाहिये कि हिरासत में किसी अभियुक्त को चोट लगने या उसकी मृत्यु का उत्तरदायित्व संबंधित अधिकारी पर डालने संबंधी 10वें विधि आयोग की सिफारिश के अनुरूप भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन जैसे उपयुक्त कदम उठाए जाए।
  • चूँकि पुलिस हिरासत में यातना के शिकार बनने वाले लोगों में अधिकांश समाज के आर्थिक या सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्गों से संबंधित होते हैं, इसलिये अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार संसद से अत्याचार निवारण विधेयक (The Prevention of Torture bill) को पारित कराने की दिशा में कदम उठाए। 

पुलिस को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने की ज़रूरत

  • पुलिस व्यवस्था को आज नई दिशा, नई सोच और नए आयाम की आवश्यकता है। समय की मांग है कि पुलिस नागरिक स्वतंत्रता और मानव अधिकारों के प्रति जागरूक हो और समाज के सताए हुए तथा वंचित वर्ग के लोगों के प्रति संवेदनशील बने। देखने में यह आता है कि पुलिस प्रभावशाली व पैसे वाले लोगों के प्रति नरम तथा आम जनता के प्रति सख्त रवैया अपनाती है, जिससे जनता का सहयोग प्राप्त करना उसके लिये मुश्किल हो जाता है। 
  • आज देश का सामाजिक परिवेश पूरी तरह बदल चुका है। हमें यह समझना होगा कि पुलिस सामाजिक रूप से नागरिकों की मित्र है और बिना उनके सहयोग से कानून व्यवस्था का पालन नहीं किया जा सकता। लेकिन क्या समाज की भूमिका केवल मूक दर्शक बने रहकर प्रशासन पर टीका टिपण्णी करने या कैंडल लाइट मार्च निकालकर या सोशल साइट्स पर अपना विचार व्यक्त करने तक ही सीमित है?
  • प्रत्येक समाज को नीति-नियंताओं पर इस बात के लिये दबाव डालना चाहिये कि उनके राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्रों में पुलिस सुधार को एक अनिवार्य मुद्दे के रूप में शामिल करें।

निष्कर्ष

हमारे सामने प्रायः पुलिस की नकारात्मक छवि ही आती है, जिससे उसके प्रति आमजन का अविश्वास  और बढ़ जाता है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता का उसमें विश्वास है और यदि यह नहीं है तो समाज के लिये घातक है। पुलिस में संस्थागत सुधार ही वह कुंजी है, जिससे कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है। सभी तरह के गैर-कानूनी कार्यों पर नकेल कसी जा सकती है।

प्रश्न- ‘किसी भी लोकतांत्रिक देश में पुलिस बल की शक्ति का आधार जनता का उसमें विश्वास है और यदि यह नहीं है तो समाज के लिये घातक है।’ समीक्षा कीजिये।