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डेली न्यूज़

  • 29 Sep, 2022
  • 17 min read
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भारतीय इतिहास

भगत सिंह की जयंती

प्रिलिम्स के लिये:

भगत सिंह, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन, नौजवान भारत सभा।

मेन्स के लिये:

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में स्वतंत्रता सेनानियों का योगदान।

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भगत सिंह की 115वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर श्रद्धांजलि देते हुए भारत के प्रधानमंत्री ने चंडीगढ़ हवाईअड्डे का नामकरण भगत सिंह के नाम पर करने की घोषणा की।

Bhagat-Singh

जीवन परिचय:

  • आरंभिक जीवन:
    • भगत सिंह का जन्म 26 सितंबर, 1907 में भागनवाला (Bhaganwala) के रूप में हुआ तथा इनका पालन-पोषण पंजाब के दोआब क्षेत्र में स्थित जालंधर ज़िले के संधू जाट किसान परिवार में हुआ।
      • वह एक ऐसी पीढ़ी से ताल्लुक रखते थे जो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दो निर्णायक चरणों में हस्तक्षेप करती थी- पहला, लाल-बाल-पाल के 'चरमपंथ' का चरण और दूसरा, अहिंसक सामूहिक कार्रवाई का गांधीवादी चरण
  • स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका:
    • वर्ष 1923 में भगत सिंह ने नेशनल कॉलेज, लाहौर में प्रवेश लिया, जिसकी स्थापना लाला लाजपत राय एवं भाई परमानंद ने की थी तथा प्रबंधन भी इन्हीं के द्वारा किया जाता था।
      • शिक्षा के क्षेत्र में स्वदेशी का विचार लाने के उद्देश्य से इस कॉलेज को सरकार द्वारा चलाए जा रहे संस्थानों के विकल्प के रूप में स्थापित किया गया था।
    • वर्ष 1924 में वह कानपुर में सचिंद्रनाथ सान्याल द्वारा एक साल पहले शुरू किये गए हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सदस्य बने। एसोसिएशन के मुख्य आयोजक चंद्रशेखर आज़ाद थे और भगत सिंह उनके बहुत करीबी बन गए थे।
      • हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सदस्य के रूप में भगत सिंह ने ‘फिलॉसफी ऑफ द बॉम्ब’ (Philosophy of the Bomb) को गंभीरता से लेना शुरू किया।
        • फिलॉसफी ऑफ द बॉम्ब नामक प्रसिद्ध लेख क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा ने लिखा था। उन्होंने फिलॉसफी ऑफ द बॉम्ब सहित तीन महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दस्तावेज़ लिखे; अन्य दो दस्तावेज़ नौजवान सभा का घोषणापत्र और HSRA का घोषणापत्र थे।
      • उन्होंने सशस्त्र क्रांति को ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एकमात्र हथियार माना।
    • वर्ष 1925 में भगत सिंह लाहौर लौट आए और अगले एक वर्ष के भीतर उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर ‘नौजवान भारत सभा’ नामक एक उग्रवादी युवा संगठन का गठन किया।
    • अप्रैल 1926 में भगत सिंह ने सोहन सिंह जोश के साथ संपर्क स्थापित किया तथा उनके साथ मिलकर ‘श्रमिक और किसान पार्टी’ (Workers and Peasants Party) की स्थापना की, जिसने पंजाबी में एक मासिक पत्रिका कीर्ति का प्रकाशन किया।
      • साल भर तक भगत सिंह ने सोहन सिंह जोश के साथ मिलकर कार्य किया तथा कीर्ति के संपादक मंडल में शामिल हो गए।
    • वर्ष 1927 में काकोरी कांड (Kakori Case) में संलिप्त होने के आरोप में उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया था तथा अपने छद्म नाम ‘विद्रोही’ से लिखे गए लेख हेतु आरोपी माना गया।
    • वर्ष 1928 में भगत सिंह ने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन (HSRA) कर दिया।
      • वर्ष 1930 में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु के साथ ही HSRA भी समाप्त हो गया।
      • पंजाब में HSRA का स्थान नौजवान भारत सभा ने ले लिया।
    • लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला लेने के लिये भगत सिंह और उनके साथियों ने पुलिस अधीक्षक जेम्स ए स्कॉट की हत्या की साजिश रची। हालाँकि क्रांतिकारियों ने गलती से जे.पी. सॉन्डर्स को मार डाला। इस घटना को लाहौर षड्यंत्र मामला (1929) के नाम से जाना जाता है।
      • वर्ष 1928 में लाला लाजपत राय ने साइमन कमीशन के भारत आगमन के विरोध में निकाले गए एक जुलूस का नेतृत्व किया था। इस जुलूस में शामिल लोगों पर पुलिस ने बर्बरता से लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला लाजपत राय गंभीर रूप से घायल हो गए और बाद में उनकी मृत्यु हो गई।
    • भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दो दमनकारी विधेयकों- सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक और व्यापार विवाद विधेयक के पारित होने के विरोध में 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका।
      • उनके पत्रकों में किये गए उल्लेख के अनुसार, उनके द्वारा बम फेंके जाने का उद्देश्य, किसी को मारना नहीं था बल्कि बधिर हो चुकी ब्रिटिश सरकार को उसके द्वारा निर्दयतापूर्वक किये जा रहे शोषण के बारे में सचेत करना था।
      • इस घटना के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त दोनों ने आत्मसमर्पण कर दिया तथा मुकदमे का सामना किया ताकि अपने उद्देश्यों को जन-जन तक पहुँचा सकें। इस घटना के लिये उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी।
    • भगत सिंह को लाहौर षड्यंत्र मामले में जे.पी. सॉन्डर्स की हत्या करने एवं बम निर्माण का भी दोषी पाया गया तथा इस मामले में 23 मार्च, 1931 को सुखदेव एवं राजगुरु के साथ लाहौर में उन्हें फाँसी दे दी गई।
    • हर साल 23 मार्च को स्वतंत्रता सेनानी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रद्धांजलि देने हेतु शहीद दिवस मनाया जाता है।
  • प्रकाशन:
    • मैं नास्तिक क्यों हूँ: एक आत्मकथात्मक प्रवचन (Why I Am an Atheist: An Autobiographical Discourse)
    • द जेल नोटबुक एंड अदर राइटिंग्स

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स


भारतीय राजनीति

राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र

प्रिलिम्स के लिये:

चुनाव आयोग, स्थानीय निकाय, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 

मेन्स के लिये:

राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और इसकी आवश्यकता 

चर्चा में क्यों?

निर्वाचन आयोग द्वारा राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक लोकतंत्र के मुद्दे को उठाए जाने की संभावना है।

आंतरिक लोकतंत्र की क्या आवश्यकता है?  

  • प्रतिनिधित्त्व: ’इंट्रा-पार्टी/अंतर-दलीय लोकतंत्र’ के अभाव ने राजनीतिक दलों को संकीर्ण निरंकुश संरचनाओं में बदल दिया है। यह नागरिकों के राजनीति में भाग लेने और चुनाव लड़ सकने के समान राजनीतिक अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
  • गुटबाज़ी में कमी: इससे मज़बूत ज़मीनी संपर्क या जनाधार रखने वाले नेता को दल में दरकिनार नहीं किया जा सकेगा। जिससे पार्टी के भीतर गुटबाज़ी और विभाजन का खतरा कम हो जाएगा। उदाहरण के लिये भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस (INC) छोड़कर शरद पवार ने राष्ट्रवादी कॉन्ग्रेस पार्टी (NCP) और ममता बनर्जी ने अखिल भारतीय तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) का गठन कर लिया था।  
  • पारदर्शिता: पारदर्शी प्रक्रियाओं के साथ एक पारदर्शी दलीय संरचना, उपयुक्त टिकट वितरण और उम्मीदवार चयन को बढ़ावा देगी। ऐसे चयन पार्टी के कुछ शक्तिशाली नेताओं की इच्छा पर आधारित नहीं होंगे, बल्कि वे समग्र रूप से पार्टी की पसंद का प्रतिनिधित्त्व करेंगे।
  • जवाबदेहिता: एक लोकतांत्रिक दल अपने सदस्यों के प्रति उत्तरदायी होगा, क्योंकि अपनी कमियों के कारण वे आगामी चुनावों में हार सकते हैं।
  • सत्ता का विकेंद्रीकरण: प्रत्येक राजनीतिक दल की राज्य और स्थानीय निकाय स्तर की इकाइयाँ होती हैं। दल में प्रत्येक स्तर पर चुनाव का आयोजन विभिन्न स्तरों पर शक्ति केंद्रों के निर्माण का अवसर देगा। इससे सत्ता या शक्ति का विकेंद्रीकरण हो सकेगा तथा ज़मीनी स्तर पर निर्णय लिये जा सकेंगे।
  • राजनीति का अपराधीकरण: चूँकि भारत में चुनाव से पूर्व उम्मीदवारों को टिकटों के वितरण हेतु कोई सुव्यवस्थित प्रक्रिया मौजूद नहीं है, इसलिये उम्मीदवारों को बस उनके ‘जीत सकने की क्षमता’ की एक अस्पष्ट अवधारणा के आधार पर टिकट दिये जाते हैं। इससे धनबल-बाहुबल अथवा आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में उतरने की अतिरिक्त समस्या उत्पन्न हुई है।

अंतर-पार्टी लोकतंत्र की कमी के कारण:

  • वंशवाद की राजनीति: अंतर-दलीय लोकतंत्र की कमी ने राजनीतिक दलों में भाई-भतीजावाद (Nepotism) की प्रवृति में योगदान दिया है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं द्वारा अपने परिवार के सदस्यों को चुनाव मैदान में उतारा जाता है।
  • राजनीतिक दलों की केंद्रीकृत संरचना: राजनीतिक दलों के कार्यकरण का केंद्रीकृत स्वरूप और वर्ष 1985 में अधिनियमित दल-बदल विरोधी कानून, राजनीतिक दलों के निर्वाचित सदस्यों को राष्ट्रीय तथा राज्य विधानमंडलों में अपने व्यक्तिगत पसंद या विवेक से मतदान करने को अवरुद्ध करता है।
  • कानून की कमी: वर्तमान में भारत में राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतांत्रिक विनियमन के लिये कोई स्पष्ट प्रावधान मौजूद नहीं है और एकमात्र शासी कानून ‘लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951’ की धारा 29A द्वारा प्रदान किया गया है, जो भारतीय निर्वाचन आयोग में राजनीतिक दलों के पंजीकरण का प्रावधान करता है। हालाँकि राजनीतिक दलों द्वारा अपने पदाधिकारियों के चयन हेतु नियमित रूप से आंतरिक चुनाव आयोजित किये जाते हैं, किंतु किसी दंडात्मक प्रावधान के अभाव में यह अत्यंत सीमित ही है।
  • व्यक्ति पूजा: प्रायः आम लोगों में नायक पूजा की प्रवृत्ति होती है और कई बार पूरी पार्टी पर कोई एक व्यक्ति हावी हो जाता है जो अपनी मंडली बना लेता है, जिससे सभी प्रकार के अंतर-दलीय लोकतंत्र का अंत हो जाता है। उदाहरण के लिये माओत्से तुंग का चीनी कम्युनिस्ट पार्टी पर आधिपत्य या अमेरिका में रिपब्लिक पार्टी पर डोनाल्ड ट्रंप का प्रभाव।
  • आंतरिक चुनावों को अप्रभावी करना: पार्टी में शक्ति समूहों द्वारा अपनी सत्ता को मज़बूत करने और यथास्थिति बनाए रखने के लिये आंतरिक संस्थागत प्रक्रियाओं को नष्ट करना बेहद सरल है।

 आंतरिक लोकतंत्र पर चुनाव आयोग के निर्देश:

  • जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951:
    • चुनाव आयोग ने समय-समय पर जनप्रतिनिधित्त्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 A के तहत पार्टियों के पंजीकरण के लिये जारी दिशा-निर्देशों का उपयोग किया है ताकि पार्टियों को चुनाव कराने के लिये याद दिलाया जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि हर पाँच वर्ष में उनका नेतृत्व नवीनीकृत, बदला या फिर से निर्वाचित हो।
  • पार्टी का संविधान:
    • अधिनियम के तहत पंजीकरण के लिये आवेदन करने वाले दलों हेतु चुनाव आयोग के दिशा-निर्देश में कहा गया है कि आवेदक को पार्टी संविधान की एक प्रति जमा करनी चाहिये।
      • चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों में कहा गया है, "विभिन्न स्तरों पर संगठनात्मक चुनावों और ऐसे चुनावों की अवधि तथा पार्टी के पदाधिकारियों के पद की शर्तों के संबंध में पार्टी के संविधान/नियमों एवं विनियमों/ज्ञापन में एक विशिष्ट प्रावधान होना चाहिये।"
  • राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति:
    • चुनाव आयोग ने पूर्व में कानून मंत्रालय से राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने की शक्ति की मांग थी, लेकिन अभी तक इस प्रस्ताव को मंजूर नहीं किया गया है।
  • किसी पार्टी के लिये कोई स्थायी अध्यक्ष नहीं:
    • भारत के चुनाव आयोग (ECI) ने भी हाल ही में एक पार्टी के लिये 'स्थायी अध्यक्ष' के विचार को खारिज कर दिया है।
      • चुनाव आयोग का मानना है कि ऐसा कदम स्वाभाविक रूप से लोकतंत्र विरोधी है।

आगे की राह

  • मौजूदा कानूनों की फिर से व्याख्या करने और कुछ साहसिक कदम उठाने की आवश्यकता है,जैसे-
    • राजनीतिक दलों को नियमित रूप से संगठनात्मक चुनाव कराने चाहिये।
    • राजनीतिक दलों को अपने पदाधिकारियों और उनके पते में किसी भी प्रकार के बदलाव के बारे में भारतीय चुनाव आयोग (ECI) को सूचित करना आवश्यक हो।
    • इन्हें चुनाव के दौरान और उसके अलावा किये गए खर्च का एक दस्तावेज़ जमा करना आवश्यक होना चाहिये।
  • यह राजनीतिक दलों का कर्तव्य है कि सभी स्तरों पर चुनाव का आयोजन सुनिश्चित करने हेतु उचित कदम उठाए जाएँ। राजनीतिक दलों को निर्वाचन आयोग द्वारा नामित पर्यवेक्षकों की उपस्थिति में राष्ट्रीय एवं राज्य स्तर के आंतरिक चुनाव संपन्न कराने चाहिये।
  • निर्वाचन आयोग को आंतरिक चुनाव की आवश्यकता संबंधी किसी भी प्रावधान के गैर-अनुपालन के आरोपों की जाँच की शक्ति होने के साथ यदि राजनीतिक दल स्वतंत्र एवं निष्पक्ष रूप से चुनाव आयोजित नहीं करते हैं, तो ऐसी स्थिति में निर्वाचन आयोग के पास दल का पंजीकरण रद्द करने की दंडात्मक शक्ति होनी चाहिये।

स्रोत: द हिंदू


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