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डेली न्यूज़

  • 24 Aug, 2020
  • 49 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सऊदी अरब-पाकिस्तान मतभेद

प्रिलिम्स के लिये:

‘इस्लामिक सहयोग संगठन’, ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा’

मेन्स के लिये:

भारत-सऊदी अरब संबंध, वैश्विक राजनीति में व्यापार और आर्थिक हितों की भूमिका

चर्चा में क्यों?

हाल ही में पाकिस्तानी सेना प्रमुख के नेतृत्त्व में सऊदी अरब के दौरे पर गए एक पाकिस्तानी प्रतिनिधि मंडल को सऊदी क्राउन प्रिंस के साथ बैठक की अनुमति नहीं प्राप्त हो सकी जिसने पिछले कुछ समय से दोनों देशों के बीच बढ़ते मतभेद को और अधिक स्पष्ट कर दिया है।

प्रमुख बिंदु:

  • गौरतलब है कि कश्मीर मुद्दे पर भारत के खिलाफ पाकिस्तान को सऊदी अरब का समर्थन नहीं प्राप्त हो सका था।
  • सऊदी क्राउन प्रिंस के साथ बैठक संभव नहीं होने के बाद पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने चीनी विदेश मंत्री से मुलाकात की है।

सऊदी-पाकिस्तान संबंध:

  • सऊदी अरब और पाकिस्तान के संबंध भारत और पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 के युद्ध के दौरान सबसे अधिक मज़बूत माने जाते हैं।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार, इस युद्ध के दौरान सऊदी अरब ने पाकिस्तान को लगभग 75 लड़ाकू जहाज़ उधार देने के साथ हथियार और अन्य उपकरण उपलब्ध कराए थे।
  • इस युद्ध के पश्चात सऊदी अरब ने पाकिस्तान के युद्ध बंदियों को लौटाए जाने की मांग का समर्थन किया था।
  • युद्ध के पश्चात वर्ष 1977 तक सऊदी अरब ने पाकिस्तान को अमेरिका से F-16 लड़ाकू जहाज़ और हार्पून मिसाइल सहित अन्य आवश्यक हथियार खरीदने के लिये लगभग 1 मिलियन अमेरिकी डॉलर का ऋण उपलब्ध कराया।
  • पाकिस्तान द्वारा परमाणु परीक्षण के बाद उस पर लगे प्रतिबंधों के बीच सऊदी अरब से प्राप्त होने वाले तेल और आर्थिक सहायता ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को स्थिर रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • पिछले दो दशकों के दौरान जब भी पाकिस्तान आर्थिक समस्याओं में पड़ा है सऊदी अरब ने उसे विलंबित भुगतान पर तेल उपलब्ध कराया है।
  • सऊदी अरब से मिलने वाली फंडिंग के कारण पाकिस्तान में मदरसों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है, जिसने पाकिस्तान में धार्मिक चरमपंथ को भी बढ़ावा दिया है।
  • वर्ष 1990 में कुवैत पर इराक के हमले के दौरान पाकिस्तान ने सऊदी अरब की रक्षा के लिये अपनी थल सेना भेजी थी।

मतभेद:

  • सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच पिछले कुछ वर्षों से मतभेद बढ़ते जा रहे थे।
  • वर्ष 2015 में पाकिस्तान की संसद ने यमन में अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त सरकार को बहाल करने के सऊदी सैन्य प्रयास का समर्थन न करने का फैसला किया।
  • वर्ष 2019 में पुलवामा हमले के दौरान अमेरिका के अतिरिक्त सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात या ‘युएई’ (UAE) ने विंग कमांडर अभिनंदन को छोड़ने के लिये पाकिस्तान पर दबाव बनाया।
  • पाकिस्तानी रक्षा मंत्री ने सऊदी अरब पर कश्मीर मामले में भारत के खिलाफ पाकिस्तान का समर्थन करने में विफल रहने का आरोप लगाया साथ ही पाकिस्तान ने इस मामले में ‘इस्लामिक सहयोग संगठन’ (Organisation of Islamic Cooperation- OIC) के नेतृत्त्व पर भी प्रश्न उठाया था।
  • पाकिस्तान द्वारा तुर्की और मलेशिया का बढ़ता समर्थन भी इस मतभेद को बढ़ाने का एक बड़ा कारण रहा है
    • गौरतलब है कि तुर्की वर्तमान में सऊदी अरब को चुनौती देते हुए स्वयं को मुस्लिम देशों के बीच एक नए नेतृत्त्व के रूप में स्थापित करने का प्रयास कर रहा है।
  • पाकिस्तान के हालिया रवैये से नाराज़ होते हुए सऊदी अरब ने वर्ष 2018 में दिये 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर के ऋण की वापस किये जाने की मांग की और विलंबित भुगतान पर पाकिस्तान को तेल बेचने से इंकार कर दिया।
    • ध्यातव्य है कि नवंबर 2018 में सऊदी अरब ने पाकिस्तान के लिये 6.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर के आर्थिक सहायता पैकेज की घोषणा की थी।

चीन की भूमिका:

  • ‘चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे’ (China-Pakistan Economic Corridor- CPEC) के माध्यम से चीन, पाकिस्तान के लिये एक बड़ा सहयोगी बनकर उभरा है।
    • CPEC की शुरूआती लागत 46 बिलियन अमेरिकी डॉलर बताई गई थी परंतु वर्तमान में यह परियोजना लगभग 62 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गई है।
  • सऊदी अरब ने भी CPEC परियोजनाओं में 10 बिलियन डॉलर का निवेश किया है परंतु पाकिस्तान वर्तमान में राजनयिक और आर्थिक समर्थन के लिये सऊदी अरब की अपेक्षा चीन को अधिक प्राथमिकता देता है।
  • पाकिस्तानी विदेश मंत्री ने अपनी हालिया चीन यात्रा को पाकिस्तान और चीन की सामरिक सहकारी साझेदारी को मज़बूत बनाने के लिये अत्यंत महत्त्वपूर्ण बताया है।

सऊदी अरब और भारत:

  • पिछले कुछ वर्षों में सऊदी अरब ने खनिज तेल पर अपनी अर्थव्यवस्था की निर्भरता को कम करने पर विशेष ध्यान दिया है और इसका प्रभाव उसकी विदेश नीति पर भी देखने को मिला है।
  • सऊदी अरब अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने के प्रयास में दक्षिण एशिया में भारत को एक महत्त्वपूर्ण साझेदार के रूप में देखता है।
  • पिछले 6 वर्षों में भारत और अरब क्षेत्र के देशों (विशेषकर सऊदी अरब और UAE) के संबंधों में महत्त्वपूर्ण प्रगति देखने को मिली है।
  • सऊदी अरब वर्तमान में भारत का चौथा (चीन, अमेरिका और जापान के बाद) सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है।
    • भारत और सऊदी अरब का द्विपक्षीय व्यापार लगभग 28 बिलियन अमेरिकी डॉलर का है।
    • भारत अपनी कुल आवश्यकता का लगभग 18% खनिज तेल सऊदी अरब से आयात करता है, साथ ही सऊदी अरब भारत के लिये ‘तरल पेट्रोलियम गैस’ या एलपीजी (LPG) का एक बड़ा स्त्रोत है।
  • अमेरिकी प्रतिबंधों के दबाव में भारत द्वारा ईरान से तेल के आयात को स्थगित करने के निर्णय के बाद भारत के लिये सऊदी अरब का महत्त्व और भी बढ़ गया है।

प्रभाव:

  • पाकिस्तान और सऊदी अरब के मतभेदों पर भारत ने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी है, हालाँकि ‘जम्मू और कश्मीर’ तथा ‘नागरिकता संशोधन विधेयक-एनआरसी’(CAA-NRC) मुद्दे पर सऊदी अरब की चुप्पी ने भारत सरकार के आत्मविश्वास को बढ़ाया है।
  • भारत और सऊदी अरब दोनों के लिये यह द्विपक्षीय संबंध बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। वर्तमान में चीन के साथ सीमा-विवाद के समय पाकिस्तान तथा चीन की घनिष्ठता भारत के लिये एक चिंता का विषय है, परंतु ऐसे समय में सऊदी अरब का समर्थन भारत को पाकिस्तान के खिलाफ एक मज़बूत बढ़त प्रदान करेगा।

आगे की राह:

  • भारत के पक्ष में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्तमान में पाकिस्तान-चीन और पाकिस्तान-सऊदी अरब ध्रुव एक दूसरे से नहीं जुड़े हैं, अर्थात अभी यह एक पाकिस्तान-चीन-सऊदी-अरब त्रिकोणीय साझेदारी नहीं है।
  • ऐसे में इस क्षेत्र का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत इस स्थिति का किस प्रकार लाभ उठाता है।

स्त्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजनीति

न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971

प्रीलिम्स के लिये

न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971

मेन्स के लिये

न्यायालय की अवमानना से संबंधित विभिन्न संवैधानिक पक्ष

चर्चा में क्यों

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने नागरिक अधिकारों के अधिवक्ता प्रशांत भूषण को न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी पाया।

प्रमुख बिंदु

  • अधिवक्ता ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ मानहानि संबंधी ट्वीट किया था।
  • SC की मानहानि: निर्णय में कहा गया कि ट्वीट ने एक संस्था के रूप में सर्वोच्च न्यायालय की निंदा की है।
    • यह माना जाता है कि भारतीय न्यायपालिका का प्रतीक होने के नाते, सर्वोच्च न्यायालय पर एक हमले से देश भर में उच्च न्यायालय के साधारण वादी और न्यायाधीशों का सर्वोच्च न्यायालय से विश्वास उठ सकता है।
  • न्यायाधीशों का समर्थन नहीं करना: हालांकि न्यायालय ने स्वीकार किया कि उसकी अवमानना शक्तियों का उपयोग केवल कानून की महिमा को बनाए रखने के लिये किया जा सकता है, इसका उपयोग एक व्यक्तिगत न्यायाधीश के खिलाफ नहीं
  • किया जाना चाहिये जिसके खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी की जाती है।
  • शीर्ष न्यायालय को स्वतः संज्ञान (Suo Motu) की अवमानना शक्तियाँ संविधान के अनुच्छेद 129 द्वारा प्रदान की गई हैं।
  • न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) न्यायालय की इस शक्ति को सीमित नहीं कर सकता है।

न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act of 1971):

  • न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 के अनुसार, न्यायालय की अवमानना दो प्रकार की होती है:
    • नागरिक अवमानना: न्यायालय के किसी भी निर्णय, डिक्री, निर्देश, आदेश, रिट अथवा अन्य किसी प्रक्रिया या किसी न्यायालय को दिये गए उपकरण के उल्लंघन के प्रति अवज्ञा को नागरिक अवमानना कहते हैं।
    • आपराधिक अवमानना: यह किसी भी मामले का प्रकाशन है या किसी अन्य कार्य को करना है जो किसी भी न्यायालय के अधिकार का हनन या उसका न्यूनीकरण करता है, या किसी भी न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करता है, या किसी अन्य तरीके से न्याय के प्रशासन में बाधा डालता है।
  • सजा: न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 में दोषी को दंडित किया जा सकता है यह दंड छह महीने का साधारण कारावास या 2,000 रुपए तक का जुर्माना या दोनों एक साथ हो सकता है।
  • संशोधन: इस कानून में वर्ष 2006 में एक रक्षा के रूप में ‘सच्चाई और सद्भावना’ (Truth And Good Faith) को शामिल करने के लिये संशोधित किया गया था।

आलोचना:

  • इसकी आलोचना भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की याद दिलाने के रूप में की जाती है क्योंकि यूनाइटेड किंगडम से अवमानना कानूनों को समाप्त कर दिया गया है।
  • यह भी कहा जाता है कि इससे न्यायिक पहुँच में कमी आ सकती है।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में अवमानना के मामले उच्च संख्या में लंबित हैं, जो पहले से ही अतिरिक्त भारयुक्त न्यायपालिका द्वारा न्याय प्रशासन में देरी करते हैं।

विधि आयोग द्वारा समीक्षा:

  • विधि आयोग ने वर्ष 2018 में न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 की समीक्षा की और कहा:
    • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की अवमानना की शक्तियाँ अधिनियम, 1971 से स्वतंत्र हैं और उच्च न्यायालयों की अवमानना शक्तियाँ भारत के संविधान के 129 और 215 से ली गई हैं।
      • अनुच्छेद 129: सर्वोच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा और इस तरह की न्यायालय की सभी शक्तियाँ होंगी जिसमें स्वयं की अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति भी होगी।
      • अनुच्छेद 215: प्रत्येक उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय होगा और इस तरह के न्यायालय को सभी शक्तियाँ होंगी जिसमें वह स्वयं की अवमानना के लिये दंडित करने में सक्षम है।
    • भारत में आपराधिक अवमानना के मामलों की संख्या बहुत अधिक है, जबकि ब्रिटेन में न्यायालय की अवमानना संबंधी अंतिम अपराध वर्ष 1931 में आया था जो ब्रिटेन में इसके उन्मूलन का एक कारण हो सकता है।
    • आयोग ने कहा कि भारत में इस अपराध को समाप्त करने से विधायी अंतर समाप्त हो जाएगा।
    • यह उच्च न्यायालय को अधिकार देता है कि यदि कोई अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना करता है तो वह कार्रवाई करेगा। 1971 अधिनियम में ऐसे उदाहरणों को बाहर करने के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं जो अधिनियम 1971 की धारा 2 (c) के अंतर्गत परिभाषित आपराधिक अवमानना के अंतर्गत नहीं आते हैं।
    • इस कानून ने लगभग पाँच दशकों तक न्यायिक जाँच का परीक्षण किया है।


स्वतः संज्ञान के मामले (Suo Moto Cognizance):

  • सुओ मोटो (स्वतः संज्ञान) एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है किसी सरकारी एजेंसी, न्यायालय या अन्य केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा अपने स्वयं के द्वारा की गई कार्रवाई।
  • न्यायालय कानूनी मामले में स्वतः संज्ञान तब लेता है जब वह मीडिया के माध्यम से अधिकारों के उल्लंघन या ड्यूटी के उल्लंघन या किसी तीसरे पक्ष की अधिसूचना के बारे में जानकारी प्राप्त करता है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में क्रमशः लोक हित याचिका (Public Interest Litigation- PIL) दायर करने के प्रावधान है। इसने न्यायालय को किसी मामले के स्वतः संज्ञान पर कानूनी कार्रवाई शुरू करने की शक्ति दी है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेने की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
    • भारतीय न्यायालयों द्वारा स्वतः संज्ञान लेने की कार्रवाई न्यायिक सक्रियता का प्रतिबिंब है।

स्रोत- द हिंदू


शासन व्यवस्था

बीआईएस द्वारा पेयजल मानक का मसौदा

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय मानक ब्यूरो, समग्र जल प्रबंधन सूचकांक, जल-जीवन मिशन

मेन्स के लिये:

जल प्रदूषण की चुनौती और इससे निपटने हेतु सरकार के प्रयास

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘भारतीय मानक ब्यूरो’ (Bureau of Indian Standards- BIS) ने पाइप द्वारा पेयजल की आपूर्ति के लिये मानकों का एक मसौदा तैयार किया गया है ।

प्रमुख बिंदु:

  • ‘पेयजल आपूर्ति गुणवत्ता प्रबंधन प्रणाली- पाइप द्वारा पेयजल आपूर्ति सेवा के लिये आवश्यकताएँ’ नामक यह मसौदा भारतीय मानक ब्यूरो की ‘सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति सेवा अनुभागीय समिति’ (Public Drinking Water Supply Services Sectional Committee) द्वारा तैयार किया गया है।
  • इस मसौदे में स्त्रोत से लेकर घर के नल तक पानी की आपूर्ति की प्रक्रिया को रेखांकित किया गया है।
  • इस मसौदे को केंद्र सरकार द्वारा ‘जल जीवन मिशन’ के तहत वर्ष 2024 तक नल कनेक्शन के माध्यम से सभी ग्रामीण घरों में सुरक्षित और पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है।

आवश्यक दिशा-निर्देश:

  • इस मसौदे में जल आपूर्तिकर्त्ताओं के लिये आवश्यक महत्त्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया गया है, जिनमें पाइप द्वारा पेयजल आपूर्ति प्रणाली की स्थापना, संचालन, रखरखाव और इससे जुड़े सुधारों को शामिल किया गया है।
  • इस मसौदे में निर्धारित प्रक्रिया जल स्त्रोत की पहचान से शुरू होती है, जो भू-जल, सतही जल स्रोत जैसे नदी, झरना या जलाशय हो सकता है।
  • जल के प्रसंस्करण के पश्चात जल की गुणवत्ता BIS द्वारा विकसित भारतीय मानक ‘आईएस-10500’ (IS-10500) के अनुरूप होनी चाहिये।
  • आईएस 10500 जल में उपस्थित विभिन्न पदार्थों की स्वीकार्य मात्रा को रेखांकित करता है, जिनमें आर्सेनिक जैसी भारी धातुएँ, पानी में धुलित ठोस पदार्थ, जल का pH मान (pH Value), रंग और गंध आदि मापदंड शामिल हैं।
  • इस मसौदे में उपभोक्ताओं के हितों पर विशेष ध्यान, उत्तरदायित्व, सेवा के लिये एक गुणवत्ता नीति स्थापित करने, लोगों को उपलब्ध कराए जा रहे जल की गुणवत्ता की निगरानी और परीक्षण से संबंधित आवश्यक दिशा-निर्देशों को शामिल किया गया है।
  • मसौदे में जारी दिशा-निर्देशों के अनुसार, उपचार संयंत्र से प्रत्येक चार घंटे, संयत्र के जलाशयों में एकत्र जल से प्रत्येक आठ घंटे पर जल के नमूने लेकर निर्धारित मानकों पर इसकी जाँच की जानी चाहिये। साथ इस प्रक्रिया के तहत घरों के स्तर पर भी जल के यादृच्छिक नमूने लेकर उनकी जाँच की जानी चाहिये।

जल वितरण प्रक्रिया:

  • इस मसौदे के अनुसार, जल स्त्रोत की पहचान के बाद जल में निर्धारित मानकों के अनुरूप पीने योग्य गुणवत्ता बनाए रखने के लिये इसे एक उपचार संयंत्र से गुजारा जाएगा।
  • उपचार संयंत्र से निकलने के बाद जल के भंडारण हेतु वितरण प्रणाली में जलाशय होने चाहिये साथ ही वितरण के किसी भी स्तर पर संदूषण (Contamination) से छुटकारा पाने के लिये कीटाणुशोधन सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिये।
  • वितरण प्रणाली में पर्याप्त दबाव बनाए रखने के लिये आवश्यकता पड़ने पर पंपिंग स्टेशन या बूस्टर (Booster) का प्रबंध किया जाना चाहिये।
  • वितरण प्रणाली में जल के नियंत्रण और निगरानी के लिये मीटर, वाल्व (Valve) और अन्य आवश्यक उपकरण लगाए जाने चाहिये।
  • इस मसौदे के अनुसार, वितरण प्रणाली को स्वचालित मोड (Automation Mode) में चलाने पर विशेष बल दिया जाना चाहिये।
  • जहाँ भी संभव हो वहाँ ‘डिस्ट्रिक्ट मीटरिंग एरिया’ (District Metering Area- DMA) की अवधारणा को अपनाया जाना चाहिये।
  • बेहतर निगरानी/ऑडिट के लिये आपूर्तिकर्त्ताओं द्वारा जल वितरण प्रणाली में ‘बल्क वाटर मीटर’ (Bulk Water Meters) की व्यवस्था की जा सकती है, हालाँकि घरेलू मीटर का भी प्रावधान किया जाना चाहिये।
    • मीटर में संभावित छेड़छाड़ से बचने के लिये जल आपूर्तिकर्त्ताओं क यह सुनिश्चित करना होगा कि उपभोक्ताओं तक मीटर की सीधी पहुँच न हो।

‘डिस्ट्रिक्ट मीटरिंग एरिया’ (District Metering Area- DMA):

  • DMA जल नेटवर्क में रिसाव को नियंत्रित करने के लिये एक अवधारणा है।
  • इसके तहत जल वितरण तंत्र को विभिन्न क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है, जिन्हें डिस्ट्रिक्ट मीटरिंग एरिया के नाम से जाना जाता है।
  • इसके तहत जल रिसाव का पता लगाने के लिये विभाजन बिंदु पर एक ‘प्रवाह मीटर’ या ‘फ्लो मीटर’ (Flow Meter) लगा दिया जाता है।

स्वच्छ जल आपूर्ति का संकट:

  • वर्ष 2019 में ‘केंद्रीय उपभोक्ता मामले, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय’ द्वारा जारी जल गुणवत्ता रिपोर्ट के अनुसार, देश के विभिन्न शहरों (दिल्ली, हैदराबाद, भुवनेश्‍वर, रांची आदि) में जल की गुणवत्ता निर्धारित मानकों के अनुरूप संतोषजनक नहीं पाई गई।
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, देश के 13 राज्यों की राजधानियों (चंडीगढ़, तिरुवनंतपुरम, पटना, भोपाल, गुवाहाटी, बंगलूरू, गांधीनगर, लखनऊ, जम्‍मू, जयपुर, देहरादून, चेन्‍नई और कोलकाता) में एकत्र नमूनों में जल की गुणवत्ता मानकों के अनुरूपसही नहीं थी।
  • मार्च, 2020 में ‘केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय’ द्वारा राज्यसभा में प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के कम-से-कम 30 ज़िलों का भू-जल प्रदूषित पाया गया, इन ज़िलों से लिये गए भू-जल के नमूनों में आर्सेनिक, आयरन, लेड,कैडमियम, क्रोमियम, नाइट्रेट जैसी धातुएँ पाई गईं थी।

आगे की राह:

  • हाल के वर्षों में जनसंख्या वृद्धि और तेज़ी से होते औद्योगिक विकास के कारण शहरों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्वच्छ जल की आपूर्ति एक बड़ी चुनौती बनती जा रही है।
  • जल के प्रबंधन में तकनीकी और डेटा आधारित पद्धतियों को बढ़ावा देकर तथा जल गुणवत्ता संबंधी मानकों का अनुपालन सुनिश्चित कर इस समस्या को कुछ सीमा तक कम किया जा सकता है।
  • जल की गुणवत्ता के संदर्भ में जागरूकता फैलाने तथा स्वच्छ जल की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये ‘नीति आयोग’ (NITIAayog) द्वारा जारी ‘समग्र जल प्रबंधन सूचकांक’ (Composite Water Management Index- CWMI) तथा सरकार द्वारा शुरू की गई ‘अटल भू-जल योजना’ (2019) और ‘जल-जीवन मिशन’ योजना इस दिशा में उठाए गए कुछ महत्त्वपूर्ण कदम हैं।

स्त्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

श्रीलंका: नए संविधान का मसौदा

प्रिलिम्स के लिये

मित्र शक्ति, SLINEX

मेन्स के लिये

भारत - श्रीलंका संबंध

चर्चा में क्यों

श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे (2019 में निर्वाचित) ने संसद के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि श्रीलंका एक नए संविधान का मसौदा तैयार करेगा और राष्ट्रपति की शक्तियों को कम करने वाले 19वें संशोधन को समाप्त कर संसद की भूमिका को मज़बूत करेगा।

प्रमुख बिंदु

  • श्रीलंका के नए मंत्रिमंडल में राजपक्षे परिवार के सदस्य शामिल हैं।
    • महिंदा राजपक्षे (Mahinda Rajapaksha) श्रीलंका के प्रधानमंत्री हैं।
  • राजपक्षे की अगुवाई में श्रीलंका पीपुल्स पार्टी (Sri Lanka People’s Party- SLPP) ने हाल ही में हुए संसदीय चुनावों (अगस्त 2020) में शानदार जीत हासिल की जिससे प्रभावशाली परिवार अगले पांच वर्षों के लिये सत्ता को मज़बूत कर सके।

  • 19वां संशोधन:
    • वर्ष 2015 में पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना (Maithripala Sirisena) और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे (Ranil Wickremesinghe) के कार्यकाल (2015-19) के दौरान इसे पारित किया गया था।
    • इसने न केवल राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों को बढ़ाने की कोशिश की गई बल्कि न्यायपालिका, सार्वजनिक सेवा और चुनाव जैसे प्रमुख स्वतंत्र आयोगों को भी मज़बूत करने की मांग की गई।
      • इसने राष्ट्रपति पद के दो-कार्यकाल की सीमा को वापस ले लिया।
    • समकालीन श्रीलंका के इतिहास में प्रगतिशील कानून के रूप में नागरिक समाज के सदस्यों सहित कई लोगों द्वारा इसका स्वागत किया गया था।
    • हालाँकि राजपक्षे कैंप द्वारा 19वें संशोधन के खंडों को अपने नेताओं की सत्ता में वापसी को रोकने के लिये मुख्य रूप से देखा गया।
      • इस संशोधन ने दोहरे नागरिकों को चुनाव लड़ने से रोका। उस समय वर्तमान राष्ट्रपति सहित राजपक्षे परिवार के दो सदस्य संयुक्त राज्य अमेरिका और श्रीलंका के दोहरे नागरिक थे।
    • इसके उन्मूलन से राजपक्षे की सत्ता पर पकड़ मज़बूत होगी क्योंकि देश अपनी पिछली संवैधानिक स्थिति में वापस आ जाएगा जिसमें राष्ट्रपति पुलिस, न्यायपालिका एवं सार्वजनिक सेवा के लिये अधिकारियों की नियुक्ति कर सकते हैं और एक वर्ष के बाद कभी भी संसद को भंग कर सकते हैं।
  • नया संविधान:
    • राष्ट्रपति ने कहा कि नया संविधान ‘सभी लोगों के लिये एक देश, एक कानून’ की अवधारणा को प्राथमिकता देगा।
      • वर्ष 1978 से अब तक 19 बार श्रीलंका का संविधान बदला गया है, जिससे बहुत सारी अनिश्चितताएँ और भ्रम पैदा हुए हैं।
    • आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लाभदायक पहलुओं को बनाए रखते हुए संसद की स्थिरता और लोगों के प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिये परिवर्तन किये जाएंगे।
    • अधिकार कार्यकर्ता संविधान में नियोजित बदलावों को SLPP और राजपक्षे भाइयों के मुख्य रूप से बौद्ध, सिंहली भाषी मतदाताओं को और सशक्त बनाने के प्रयास के रूप में देखते हैं।
      • राजपक्षे परिवार जिसने वर्ष 2005 से वर्ष 2015 तक सरकार पर अपना वर्चस्व कायम रखा, देश के लंबे गृहयुद्ध (1983-2009) के चरमोत्कर्ष का गवाह बना।
      • युद्ध ने श्रीलंका को नृजातीय रेखाओं के साथ विभाजित कर दिया, जिसने अल्पसंख्यक बौद्ध सिंहली-बहुल सरकार को तमिल विद्रोहियों के खिलाफ खड़ा कर दिया जो एक अलग राज्य चाहते थे।
      • वर्ष 2009 में सरकारी बलों द्वारा विद्रोहियों को हराया गया था।
  • भारत - श्रीलंका संबंध:
    • भारत की पहल:
      • हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) ने श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने और देश की वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने हेतु 400 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मुद्रा विनिमय सुविधा प्रदान करने के लिये एक समझौते पर हस्ताक्षर किये हैं, जो COVID-19 महामारी से बुरी तरह प्रभावित है।
      • इससे पहले भारत ने महामारी से लड़ने के लिये अप्रैल और मई 2020 में आवश्यक दवाओं और उपकरणों की चार खेप (Consignments) भेजकर श्रीलंका की सहायता की थी।
      • भारतीय आवास परियोजना (Indian Housing Project) भारत सरकार की श्रीलंका को विकासात्मक सहायता की प्रमुख परियोजना है। इसकी आरंभिक प्रतिबद्धता गृह युद्ध से प्रभावित लोगों के साथ-साथ बागान क्षेत्रों में संपदा श्रमिकों के लिये 50,000 घरों का निर्माण करना है।
    • द्विपक्षीय सहयोग:
      • भारत और श्रीलंका संयुक्त सैन्य अभ्यास (मित्र शक्ति) और नौसेना अभ्यास (SLINEX) करते हैं।
      • दोनों देशों के क्षेत्रीय जल की निकटता को देखते हुए मछुआरों के भटकने की घटनाएँ आम हैं विशेष रूप से पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी की घटनाएँ। दोनों देशों ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा को पार करते हुए दोनों ओर के मछुआरों की स्थिति से निपटने के लिये कुछ व्यावहारिक व्यवस्थाओं पर सहमति व्यक्त की है।
    • चिंता:
      • श्रीलंका के नए सत्तारूढ़ कबीले LAC और क्षेत्र में चीन के साथ भारत की परेशानियों के बारे में काफी जागरूक हैं। राजपक्षे चीन का भारत के प्रति प्रतिकार के रूप में उपयोग करते रहेंगे।

आगे की राह

  • श्रीलंका के लिये नई सरकार की संविधान-निर्माण प्रक्रिया श्रीलंका के लोकतंत्र को मज़बूत करेगी और सभी के लिये समृद्धि प्राप्त करने हेतु देश के लिये एक समावेशी मंच प्रदान करेगी।
  • भारत द्वारा श्रीलंका की सुरक्षा चिंताओं के प्रति संवेदनशील रहते हुए श्रीलंका में तमिलों के लिये सुलह के प्रयासों पर ज़ोर देना चाहिये।

स्रोत- द हिंदू


सामाजिक न्याय

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये राष्ट्रीय परिषद

प्रिलिम्स के लिये:

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये राष्ट्रीय परिषद, ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम- 2019

मेन्स के लिये:

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम- 2019

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय' (Ministry of Social Justice and Empowerment) द्वारा एक अधिसूचना के माध्यम से ‘ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये राष्ट्रीय परिषद’ (National Council for Transgender Persons- NCT) का गठन किया गया।

प्रमुख बिंदु:

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 2014 में ‘राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ मामले’ में सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर लोगों को 'तीसरे लिंग' (Third Gender) के रूप में मान्यता प्रदान की गई।
  • वर्ष 2014 में एक निजी सदस्य विधेयक, 'ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार विधेयक' को राज्यसभा में पेश किया गया।
  • वर्ष 2019 में संसद में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक पारित किया।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019:

  • परिभाषा:
    • अधिनियम एक ट्रांसजेंडर को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है जिसका लिंग जन्म के समय निर्धारित लिंग से मेल नहीं खाता है।
  • पहचान का प्रमाण पत्र:
    • एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति 'ट्रांसजेंडर' पहचान के प्रमाण पत्र के लिये ज़िला मजिस्ट्रेट को एक आवेदन कर सकता है।
  • भेदभाव के खिलाफ प्रतिबंध:
    • अधिनियम एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, जिसमें सेवा से इनकार करना या शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य सेवा के संबंध में अनुचित व्यवहार शामिल हैं।
  • अधिकार:
    • सार्वजनिक संपत्ति तक समान पहुँच, सुविधाओं तथा अवसरों की समान उपलब्धता।
    • घूमने का अधिकार, निवास करने, किराये पर आवास लेने या संपत्ति प्राप्त करने का समान अधिकार।
    • सार्वजनिक या निजी कार्यालय में काम करने का समान अवसर।
  • स्वास्थ्य देखभाल:
    • अधिनियम, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को लिंग पुनर्निर्धारण सर्जरी (Sex Reassignment Surgeries) सहित स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करने का अधिकार देता है।
    • अधिनियम में यह भी कहा गया है कि सरकार ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों के समाधान के लिये चिकित्सा पाठ्यक्रम की समीक्षा करेगी और उनके लिये व्यापक चिकित्सा बीमा योजनाएँ उपलब्ध कराएगी।
  • राष्ट्रीय परिषद:
    • यह अधिनियम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये एक राष्ट्रीय परिषद (National Council for Transgender persons- NCT) की स्थापना का प्रावधान करता है।
  • सजा प्रावधान:
    • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ अपराध करने पर जुर्माना के अलावा, छह महीने से दो वर्ष तक का कारावास की सजा हो सकती है।

परिषद की संरचना:

अध्यक्ष
  • सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री
उपाध्यक्ष
  • राज्य मंत्री, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय
पदेन सदस्य
  • परिषद के सदस्यों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, गृह मंत्रालय, आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय, अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय (शिक्षा मंत्रालय), ग्रामीण विकास मंत्रालय, श्रम और रोज़गार मंत्रालय, कानूनी मामलों के विभाग, पेंशन एवं पेंशनभोगी कल्याण विभाग और नीति आयोग के अधिकारी शामिल होंगे।
मनोनीत सदस्य
  • परिषद में ट्रांसजेंडर समुदाय से पाँच मनोनीत सदस्य भी शामिल हैं।
  • ये प्रतिनिधि रोटेशन के आधार पर राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों से मनोनीत किये जाएंगे।
  • समुदाय के सदस्यों का कार्यकाल तीन वर्ष का होगा।

परिषद के उदेश्य:

  • राज्यों के साथ मिलकर सभी राज्यों में 'ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड' (Transgender Welfare Boards) स्थापना की दिशा में कार्य करना।
  • ट्रांसजेंडर समुदाय से जुड़ी विशेष आवश्यकताओं यथा- आवास, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा जैसी ज़रूरतों को पूरा करना।

परिषद के कार्य:

  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के संबंध में नीतियों, कार्यक्रमों, कानून और परियोजनाओं के निर्माण पर केंद्र सरकार को सलाह देना;
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समान अधिकार प्रदान करने और पूर्ण भागीदारी प्राप्त करने की दिशा में निर्मित नीतियों और कार्यक्रमों के प्रभावशीलता की निगरानी और मूल्यांकन करना;
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण की दिशा में कार्य करने वाले संबंधित सरकारी विभागों तथा अन्य गैर-सरकारी संगठनों की गतिविधियों की समीक्षा और समन्वय करना;
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की शिकायतों का निवारण करना;
  • केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित किये गए अन्य कार्य करना।

आगे की राह:

  • ट्रांसजेंडर समुदाय के समक्ष आने वाले मुद्दों की पहचान करने और तदनुसार सरकार को सलाह देने में परिषद सक्षम है या नहीं इसका निर्धारण परिषद की कार्यप्रणाली को देखने के बाद ही किया जा सकेगा।
  • नीतियों और नियमों के अलावा, विशेष रूप से ट्रांसजेंडर समुदाय के मुद्दों के प्रति कानूनी और कानून प्रवर्तन प्रणालियों को संवेदनशील बनाने के लिये एक समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता भी है।

स्रोत: द हिंदू


भूगोल

कैलिफोर्निया में दावानल

प्रिलिम्स के लिये

सांता आना पवनें

मेन्स के लिये

वैश्विक तापन और वैश्विक स्तर पर दावानल की तीव्रता में वृद्धि

चर्चा में क्यों?

संयुक्त राज्य अमेरिका के उत्तरी एवं मध्य कैलिफोर्निया में दावानल (Wildfire) के कारण 400,000 एकड़ से अधिक में फैले हुए जंगल समाप्त हो चुके हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • ऐतिहासिक रूप से कैलिफोर्निया में दावानल की कई घटनाएँ घटित हो चुकी हैं जो हाल के दिनों में कई गुना बढ़ी हैं।
    • वर्ष 2000 के बाद से यहाँ 10 सबसे बड़ी दावानल की घटनाएँ हो चुकी हैं जिसमें वर्ष 2018 का मेंडोकिनो कॉम्प्लेक्स फायर (Mendocino Complex Fire) भी शामिल है जो संयुक्त राज्य अमेरिका के इतिहास में सबसे बड़ा दावानल है।
    • वर्ष 1970 के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका के पश्चिमी भाग में दावानल की आवृत्ति में 400% की वृद्धि हुई है।
  • कैलिफोर्निया में दो अलग-अलग मौसम हैं जिनमें दावानल जैसी घटनाएँ घटित होती हैं:
    1. पहला मौसम जून से सितंबर के मध्य का मौसम होता है जब गर्म एवं शुष्क मौसम के कारण दावानल की घटनाएँ घटित होती हैं और यह आग अधिकतर अंतर्देशीय एवं अधिक ऊँचाई वाले जंगलों में लगती है।
    2. दूसरा मौसम अक्तूबर से अप्रैल के मध्य का मौसम होता है जब सांता आना पवनों (Santa Ana Winds) के कारण दावानल की घटनाएँ घटित होती हैं और यह आग अधिकतर शहरी क्षेत्रों के पास के जंगलों में लगती है।
      • इस अवधि में लगने वाली आग पहले के मौसम में लगने वाली आग से तीन गुना तेज़ होती है।
      • इस अवधि में लगने वाली आग पिछले दो दशकों में 80% आर्थिक नुकसान के लिये ज़िम्मेदार है।

सांता आना पवनों (Santa Ana Winds):

  • पवनों का यह नाम कैलिफोर्निया के ऑरेंज काउंटी में सांता आना घाटी के नाम पर रखा गया है।
  • दक्षिणी कैलिफोर्निया में सांता आना कैनियन/घाटी से होकर तटवर्ती मैदानों की ओर चलने वाली धूलभरी आंधी को सांता आना कहते हैं।
  • ये पवनें अत्यंत शुष्क एवं गर्म होती हैं।
  • ये पवनें पूर्व या उत्तर-पूर्व की ओर चलती हैं।
  • ये आमतौर पर मौसमी पवनें होती हैं और अक्तूबर एवं मार्च के मध्य प्रवाहित होती हैं तथा दिसंबर में ये पवनें चरम अवस्था में पहुँच जाती हैं।
  • ये पवनें तब उत्पन्न होती हैं जब सिएरा नेवादा और रॉकी पर्वतमाला के बीच ग्रेट बेसिन के उच्च-ऊँचाई वाले रेगिस्तान में उच्च दबाव प्रणाली का निर्माण होता है।
    • जब ये पवनें नीचे की ओर प्रवाहित होती हैं और रेगिस्तान को पार करती हैं तो ये अत्यंत शुष्क, गर्म एवं तीव्र गति प्राप्त करती हैं।
  • सांता आना पवनों में आर्द्रता की कमी से वनस्पति सूख जाती है जिससे वनस्पति आग के लिये बेहतर ईंधन बन जाती है।

कारण:

  • जलवायु: यहाँ अधिकतर नमी सर्दियों के मौसम में मिलती है किंतु यहाँ की वनस्पति वर्षा की कमी एवं गर्म तापमान के कारण गर्मियों में सूख जाती है जो अंततः आग के लिये प्रज्जवलन का कार्य करती है।
    • हालाँकि वैश्विक तापन (Global Warming) के कारण तापमान में 1-2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है, जिससे दावानल के मामलों में वृद्धि हुई है।
  • मानव हस्तक्षेप: कई आग की घटनाएँ मानव हस्तक्षेप के कारण होती हैं जैसे- विद्युत लाइन का गिरना आदि।
    • शहरीकरण के कारण मानव बस्तियाँ वन क्षेत्रों का अतिक्रमण कर रही हैं जिसे शहरी- वनभूमि इंटरफेस (Urban-Wildland Interface) के रूप में जाना जाता है। इस क्षेत्र को दावानल के लिये अतिसंवेदनशील माना जाता है।
  • आग को दबाना (Suppressing Fires): लंबे समय तक कृत्रिम रूप से प्राकृतिक आग के दमन के कारण वनों में अत्यधिक सूखी सामग्री जमा हो गई है जिससे आग लगने की संभावना बढ़ जाती है।
    • संयुक्त राज्य वन सेवा अब निर्धारित, नियंत्रित या कूल बर्निंग (Cool Burning) के उपयोग के माध्यम से अपने पिछली गलतियों को सुधारने की कोशिश कर रही है।

कूल बर्निंग (Cool Burning):

  • इस प्रक्रिया में किसी भी क्षेत्र में उपलब्ध वनस्पति की मात्रा को सीमित करने के लिये कृत्रिम रूप से छोटे, स्थानीयकृत तरीके से आग को नियंत्रित किया जाता है। अर्थात् इस प्रक्रिया में वनों में सामान्य आग को दावानल में बदलने से रोकने के लिये ‘वनस्पति ईंधन’ के निर्माण की प्रक्रिया को रोका जाता है।
  • सांता आना पवनों (Santa Ana Winds): सांता आना पवनें वनस्पति को सुखा देती हैं और वनों में आग के चारों ओर फैलने में सहायक होती हैं।

प्रभाव:

  • जीवन एवं संपत्ति के विनाश से आर्थिक नुकसान होता है।
  • धूल के छोटे कणों द्वारा वायु प्रदूषण तथा अम्ल, कार्बनिक रसायन एवं धातु के कारण एलर्जी जैसी स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
  • उच्च तापमान के कारण भूमि क्षरण होता है जिससे भूमि से सभी पोषक तत्त्व एवं वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं और भूमि अनुर्वरक हो जाती है।
  • जैवविविधता को नुकसान होता है।

तात्कालिक समाधान:

  • दावानल के तात्कालिक समाधानों के रूप में संवेदनशील क्षेत्रों में ज्वलनशील पेड़ों की प्रजातियाँ जैसे- यूकेलिप्टस एवं पाइन आदि को लगाने से बचना चाहिये।
  • वन क्षेत्रों के पास मानव विकास गतिविधियों को अनुमति नहीं देना चाहिये।
  • मरुस्थलीय भू-निर्माण, कम पानी की खपत वाले उपकरणों को बढ़ावा, अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण जैसी जल संरक्षण वाली नीतियों को बढ़ावा देना चाहिये।

आगे की राह:

  • हालाँकि वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने के लिये लंबे समय से कार्य किया जा रहा है और इस प्रकार जलवायु परिवर्तन ऐसी घटनाओं को नियंत्रित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है जिन्होंने न केवल कैलिफोर्निया बल्कि पूरी दुनिया को प्रभावित किया है।
  • अन्य उदाहरण: ऑस्ट्रेलियाई बुशफायर (Australian Bushfires) और उत्तराखंड में वनाग्नि।

स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस


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