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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंध और भारत

  • 26 Apr 2019
  • 15 min read

संदर्भ

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान से तेल खरीदने पर भारत सहित आठ देशों को दी गई छूट आगे न बढ़ाने का फैसला किया है। अमेरिका ने 180 दिनों की यह छूट भारत, चीन, इटली, ग्रीस, जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान और तुर्की को दी थी जिसकी अवधि 2 मई को समाप्त हो रही है। अमेरिका के इस प्रतिबंध का भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या असर होगा, इसे लेकर चिंता जताई जा रही है।

अमेरिका ने क्यों लगाए ईरान पर प्रतिबंध?

पिछले वर्ष नवंबर में अमेरिका ने वे सभी प्रतिबंध दोबारा लगा दिये थे जो 2015 में हुए परमाणु समझौते के बाद हटा लिये गए थे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते की आलोचना करते हुए पिछले वर्ष मई में अमेरिका को इस समझौते से अलग कर लिया था। ज्ञातव्य है कि 2015 में हुए समझौते के तहत ईरान अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध हटाए जाने के एवज़ में अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित करने पर सहमत हुआ था। तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि यह समझौता ईरान को परमाणु हथियार विकसित करने से रोकेगा। लेकिन वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का तर्क है कि समझौते की शर्तें अमेरिका के लिये अस्वीकार्य हैं क्योंकि यह समझौता ईरान को बैलिस्टिक मिसाइल विकसित करने और पड़ोसी देशों में दखल देने से नहीं रोक पाया है। इन प्रतिबंधों के तहत अमेरिका उन देशों के खिलाफ भी कठोर क़दम उठा सकता है जो ईरान के साथ कारोबार जारी रखेंगे।

तेल के बड़े आयातकों में से एक है भारत

  • विश्व में पेट्रोलियम उत्पादों के चार सबसे बड़े आयातक देशों में चीन, भारत, जापान और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। ईरान से सबसे अधिक तेल खरीदने वालों में चीन के बाद दूसरे नंबर पर भारत है। 2018-19 के दौरान भारत ने ईरान से लगभग 2.4 करोड़ टन कच्चा तेल खरीदा।
  • भारत अपनी पेट्रोलियम ज़रूरतों की पूर्ति के लिये 80% कच्चा तेल आयात करता है। भारत जिन देशों से कच्चा तेल आयात करता है उनमें इराक़, सऊदी अरब, ईरान, वेनेज़ुएला शामिल हैं। ये ओपेक के संस्थापक सदस्य देश भी हैं और कुल मिलाकर भारत की ज़रूरत का 60% तेल सप्लाई करते हैं।
  • दूसरी तरफ अमेरिका तेल निर्यात के बाज़ार में अभी हाल ही में आया है और भारत उससे बहुत कम तेल खरीदता है, क्योंकि वहां से तेल लाने में समय बहुत लगता है। जबकि ईरान, इराक, सऊदी अरब, ओमान जैसे देश भारत के नज़दीक भी हैं और पारंपरिक रूप से इनसे संबंध अच्छे भी रहे हैं।

तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक

ओपेक यानी तेल निर्यातक देशों के संगठन की स्थापना 1960 में बगदाद में हुई थी। 14 देशों के इस संगठन में शामिल तेल उत्पादक देशों ने इसकी स्थापना इसलिये की थी ताकि कच्चे तेल की आपूर्ति पर नियंत्रण बनाए रखकर अपने मनमुताबिक कीमतें तय कर पाएंगे। ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब, वेनेज़ुएला, कतर, इंडोनेशिया, लीबिया, संयुक्त अरब अमीरात, अल्जीरिया, नाइजीरिया, इक्वाडोर और अंगोला ओपेक के सदस्य देश हैं।

अन्य देशों से बढ़ेगा निर्यात

विश्‍वभर में कच्चे तेल का चौथा सबसे बड़ा प्रमाणित भंडार ईरान में ही है। ईरान अपने जीवाश्म ईंधन के निर्यात पर अत्यधिक निर्भर है। यह ईरान की 440 अरब डॉलर की GDP का लगभग 15 फीसदी है। ईरान में उत्‍पादित कच्‍चे तेल के दो सबसे बड़े आयातक चीन और भारत हैं जो ऐसी उभरती महाशक्तियाँ हैं जिन्‍हें अपने यहाँ त्‍वरित औद्योगिक विकास की रफ्तार को और तेज़ करने के लिये काफी बड़ी मात्रा में कच्‍चा तेल चाहिये। लेकिन अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के तहत ईरान से कच्चे तेल की खरीद को लक्षित किया गया है। कार्यकारी आदेश 13622 और राष्ट्रीय रक्षा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 1245 के ज़रिये अमेरिका उन बैंकों पर प्रतिबंध लगाएगा जिन्‍हें किसी तीसरे देश द्वारा ईरानी तेल के आयात का मार्ग प्रशस्‍त करने का दोषी पाया जाएगा।

  • ईरान से आयात बंद होने की वज़ह से आपूर्ति में होने वाली कमी की भरपाई सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात और मेक्सिको में मौजूद आपूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोतों से की जाएगी। अमेरिका से भी कुछ मात्रा में कच्चा तेल आयात किया जा सकता है।
  • भारत सरकार ने भारतीय रिफाइनरियों को कच्चे तेल की पर्याप्त आपूर्ति के लिये योजना बनाई है, जिसके तहत अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देशों से अतिरिक्त आपूर्ति की व्यवस्था की जाएगी।
  • भारत के पास कई आपूर्तिकर्ताओं से तय अनुबंध पर या उससे ऊपर भी आपूर्ति का विकल्प है, जिसे कच्चे तेल की कमी को पूरा करने के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • इंडियन ऑयल के पास मेक्सिको से 7 लाख टन तय खरीद के ऊपर 7 लाख टन अतिरिक्त कच्चा तेल लेने का विकल्प है।
  • सऊदी अरब से 56 लाख टन के सावधि अनुबंध के ऊपर 20 लाख टन अतिरिक्त कच्चा तेल लेने का विकल्प है।
  • कुवैत से 15 लाख टन और संयुक्त अरब अमीरात से 10 लाख टन कच्चा तेल लेने का विकल्प है।

ईरान में निवेश की ONGC की योजना टली

अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण सरकारी बहुराष्ट्रीय तेल-गैस कंपनी ओएनजीसी (ONGC) की सहायक कंपनी ONGC Videsh ने ईरान के फरजाद-B गैस क्षेत्र में निवेश करने की योजना फिलहाल स्थगित कर दी है। बैंकों और ऑपरेटरों के अमेरिका द्वारा प्रतिबंधों को लेकर चिंता व्यक्त करने की वज़ह से निवेश का फैसला टाल दिया गया। यह समझौता पिछले साल 15 सितंबर में होने की उम्मीद थी, लेकिन एक यूरोपीय और ऑस्ट्रेलियाई सलाहकार कंपनियों द्वारा समझौते से हटने के बाद इसे स्थगित कर दिया गया था। इसी तरह की चिंता SBI ने भी जताई थी, जिसने ONGC की पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी की कई परियोजनाओं की फंडिंग की है। भारत सरकार 2009 से ही गैस क्षेत्र के लिये ईरान से समझौता करने का प्रयास कर रही है। फरजाद-B गैस रिज़र्व में लगभग 21.6 लाख करोड़ क्यूबिक फीट गैस होने का अनुमान है।

तेल की कीमतों में हो रही वृद्धि

ईरान से तेल खरीद में भारत सहित कई देशों के लिये रियायत खत्म करने के अमेरिकी फैसले से कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में बढ़ोतरी हुई है, जिससे भारत में महँगाई दरों में मामूली बढ़ोतरी हो सकती है। इसके अलावा सरकार का तेल आयात बिल और सब्सिडी बोझ बढ़ेगा।

कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में प्रत्येक एक फीसदी बढ़ोतरी से उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महँगाई दर 0.04 फीसदी और थोक मूल्य सूचकांक आधारित महँगाई दर 0.1 फीसदी बढ़ेगी। हालाँकि ऐसा उस स्थिति में होगा, जब घरेलू बाजारों में कीमतों में बढ़ोतरी का पूरा बोझ ग्राहकों पर डाला जाएगा। कुछ दिन पहले अंतर्राष्ट्रीय तेल बेंचमार्क ब्रेंट क्रूड 75 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गया, जो नवंबर के बाद का सर्वोच्च स्तर है। अनुमान है कि चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में कच्चे तेल की वैश्विक कीमतें 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच सकती हैं। इससे भारत के चालू खाते के घाटे पर असर पड़ेगा और रुपया भी कमज़ोर होगा।

माननी ही होंगी अमेरिकी शर्तें

इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका के ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों से भारत के लिये परेशानी और दुविधा खड़ी हो गई है। भारत ने इसका क्षीण प्रतिरोध करते हुए पहले भी कई बार कहा है कि अमेरिका ने यह प्रतिबंध एकपक्षीय तौर पर लागू किया है और भारत केवल संयुक्त राष्ट्र द्वारा लागू प्रतिबंधों को ही मानता है। लेकिन भारत यह भी जानता है कि ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का पालन करने के लिये भारत, चीन सहित अन्य सभी देश इसलिये बाध्य हैं कि अंतर्राष्ट्रीय बैंकिंग लेन-देन अमेरिकी बैंकिंग चैनलों के ज़रिये ही होते हैं और जो देश अमेरिकी प्रतिबंधों को नहीं मानेंगे, वे अमेरिकी बैंकिंग चैनलों का इस्तेमाल नहीं कर सकेंगे। इसका असर यह होगा कि भारत को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारी दिक्कतें होंगी, क्योंकि ज़्यादातर व्यापार अमेरिकी डॉलर में ही होता है।

  • यूरोपीय संघ ने पिछले साल ईरान पर लगे अमेरिकी प्रतिबंधों का विरोध किया था और कहा था कि यूरोपीय कंपनियों को ईरान से लेन-देन करने की पूरी छूट होगी। लेकिन अब अमेरिकी प्रशासन द्वारा अपने प्रतिबंधों में कुछ देशों के लिये दी गई छूट को वापस लेने के बाद यूरोपीय कंपनियों के लिये भी ईरान से लेन-देन करना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि उनके सामने भी अमेरिका से संबंध बनाए रखने की मजबूरी है।

प्रतिबंध के पीछे अमेरिकी तर्क

अमेरिकी प्रतिबंधों का तर्क यह है कि ईरान अपने परमाणु और बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम को पूरी तरह बंद कर दे और इसके निरीक्षण की अनुमति अंतर्राष्ट्रीय समुदाय यानी अमेरिका को दे। इसके पहले अमेरिका ने ईरान की सेना रिवॉल्युशनरी गार्ड को आतंकवादी करार देकर अपना दवाब बढ़ाया था और ईरान ने इस पर काफी तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की थी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने सत्ता संभालते ही ईरान के साथ अमेरिकी अगुवाई में छह देशों के परमाणु समझौते को रद्द करने का एलान किया था। हालाँकि इसके मुख्य साझीदार यूरोपीय संघ ने इसका विरोध किया था, परंतु अमेरिका अपनी आर्थिक ताकत के बल पर ईरान पर लगाए एकपक्षीय प्रतिबंधों को अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों में बदलवाने में सफल हो गया, क्योंकि कोई देश अमेरिकी बैंकिंग सिस्टम को नजरंदाज़ कर अन्य देशों से व्यापारिक लेन-देन नहीं कर सकता।

  • भारत में कुछ रिफाइनरियाँ विशेष रूप से ईरानी क्रूड पर ही आधारित हैं, इसलिये ईरान से आयात थम जाने की स्थिति में इन रिफाइनरियों के उन्नयन में भारी-भरकम निवेश करना होगा। ऐसे में इसके मद्देनजर भारत को अपनी विदेश नीति में जो पुनर्निर्धारण और बदलाव करने होंगे उनके दायरे में रहते हुए अलग-अलग तेल कंपनियों के अलग-अलग तरीकों को एकीकृत करना निश्चित रूप से काफी मायने रखता है। नि:संदेह सबसे कठिन चुनौतियाँ तेल आयात की दिशा बदलने से जुड़े इसी पहलू में निहित हैं।

प्रतिबंधों से मुक्त है चाबहार

भारत अपनी सालाना पेट्रोलियम ज़रूरतों का 10 फीसदी ईरान से आयात करता रहा है, पर पिछले साल जब अमेरिकी प्रशासन ने ईरान पर प्रतिबंध लगाने का एलान किया था, तब भारत सहित सात देशों को कुछ छूट दी गई थी। एक बड़ी दुविधा यह है कि ईरान से भारत के रिश्ते सिर्फ तेल आयात करने तक ही सीमित नहीं हैं। भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह का विकास किया है, जिसका इस्तेमाल वह अफगानिस्तान के अलावा मध्य एशिया के देशों के साथ व्यापार के लिये करना चाहता है। फिलहाल अमेरिका ने चाबहार को लेकर मानवीय आधार पर कुछ छूट दी है, लेकिन देखना होगा कि आगे इस बारे में अमेरिका का क्या रुख होता है।

भारत और ईरान के ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं और मध्य एशिया के साथ रिश्तों को व्यापक आधार देने के इरादे से भारत और ईरान के रिश्तों की विशेष अहमियत है। इसलिये भारत सरकार ने भी ईरान के साथ रिश्तों को मज़बूत बनाने पर ज़ोर दिया है, लेकिन अमेरिका के साथ भी भारत के सामरिक संबंध कम अहमियत नहीं रखते।

अभ्यास प्रश्न: वैश्विक अर्थव्यवस्था के संदर्भ में अमेरिका द्वारा ईरान पर लगाए गए प्रतिबंधों का भारत पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभावों की विवेचना कीजिये?

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