मराठवाड़ा क्षेत्र में मरुस्थलीकरण की स्थिति
चर्चा में क्यों?
निकट भविष्य में मराठवाड़ा क्षेत्र के मरुस्थलीकरण (Desertification) की चेतावनी देने वाले अर्थशास्त्रियों और जल शिक्षाविदों के अनुसार महाराष्ट्र में जल संकट एक नीति-संबंधी विफलता है। यह नीति-निर्माताओं की पर्यावरण एवं पारिस्थितिक संबंधी अशिक्षा को दर्शाता है। साथ ही संभ्रांत और सत्ताधारी लोगों द्वारा अपने स्वार्थपूर्ण रवैये के कारण संपूर्ण मराठवाड़ा में किसानों को ऐसी फसल-प्रतिरूप नीति अपनाने के लिये प्रेरित करना जो वहाँ की कृषि के लिये आवश्यक जलवायु के अनुकूल ही नहीं है, केवल आपदा को पूर्व न्योता देने जैसा है।
प्रमुख बिंदु
- विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले चार दशकों से मराठवाड़ा के भू-जल स्तर में निरंतर कमी देखने को मिली है। मराठवाड़ा के भू -जल का इस प्रकार से दोहन हुआ है कि वहाँ के भू-जल स्तर को पुनर्जीवन देना लगभग असंभव है।
- मराठवाड़ा के आठ ज़िलों की 76 तालुकाओं में से 50 में पिछले साल लगभग 300 मिमी. वर्षा हुई। यह वर्षा-जल प्रति हेक्टेयर तीन मिलियन लीटर (प्रयोग करने योग्य) जल में परिवर्तित हो जाता है। यह देखते हुए कि मराठवाड़ा में औसत जनसंख्या घनत्व 300 प्रति वर्ग किमी. है। यहाँ की आबादी की बुनियादी ज़रूरतों जैसे पीने के पानी और घरेलू ज़रूरतों आदि के लिये जल की पूर्ति हेतु यह वर्षा जल पर्याप्त है, लेकिन कपास, गन्ने जैसी फसलों के लिये पर्याप्त नहीं है।
शुष्क जलवायु
विशेषज्ञों की मानें तो बीते दशकों में इस क्षेत्र के फसल प्रतिरूप में काफी परिवर्तन आया है। जहाँ पहले मुख्य फसलों में अनाज और तिलहन की खेती हुआ करती थी, वहीं आज यहाँ कपास और गन्ने की खेती का वर्चस्व है।
- अनाज और तिलहन की फसलें न केवल मराठवाड़ा की शुष्क जलवायु के लिये अनुकूल थी, बल्कि सूखा विरोधी होने के साथ-साथ नमी संग्रहण में भी सहायक थी।
- परंतु वर्तमान में मराठवाड़ा की 50 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के 80% से अधिक भाग पर सोयाबीन और BT कॉटन की खेती की जाती होती है। इन फसलों के साथ गन्ने की खेती से अधिक मुनाफा कमाने के लालच ने किसानों और नागरिकों को वर्तमान जल संकट की चपेट में ला खड़ा किया है।
- यहाँ यह जानना बेहद आश्चर्यजनक है कि इस क्षेत्र के 80% जल संसाधनों का प्रयोग कर कुल कृषि योग्य भूमि के केवल 4% भाग पर गन्ना उगाया जाता है। परिणामस्वरुप मौसम चक्र में थोड़ा-सा भी परिवर्तन होने पर यहाँ गंभीर जल संकट की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
- एक जल विशेषज्ञ द्वारा इस क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति का अध्ययन करने के बाद यह जानकारी सामने आई कि मराठवाड़ा में मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया शुरू हो गई है। विशेषज्ञों के अनुसार, इस पारिस्थितिक अव्यवस्था से उबरने का एकमात्र तरीका गन्ने की खेती पर प्रतिबंध लगाना है।
- वर्ष 1976 के महाराष्ट्र सिंचाई अधिनियम (Maharashtra Irrigation Act of 1976) के अंतर्गत यह प्रावधान निहित है कि जल संकट के समय या पानी की कमी की स्थिति में सरकार कमांड क्षेत्र (Command Area) के लोगों को गन्ने जैसी गहन फसलों हेतु आवश्यक सिंचाई की अनुमति नहीं दे सकती है।
- हालाँकि, गन्ने की खेती को प्रतिबंधित करने और सूखा-प्रतिरोधी तिलहन और दलहन जैसी फसलों की ओर रूख करने के लिये सरकार की ओर से कोई प्रयास नहीं किये गये हैं।
- मराठवाड़ा में गन्ना एक प्रकार की 'राजनीतिक फसल' (Political Crop) थी जो महाराष्ट्र में सत्ता प्राप्त करने की अचूक और आजमाई हुई विधि के रूप में कार्य करती थी।
- सत्ताधारी वर्ग ने इस फसल का इस्तेमाल अपने वोट बैंक के निर्माण और उसे बनाए रखने के लिये एक शक्तिशाली साधन के रूप में किया है। कभी कृषि ऋण माफी तो कभी गन्ने के बढ़ते मूल्य, उप-उत्पादों के बाज़ारीकरण जैसी उम्मीदों और वादों के आधार पर इस फसल को एक राजनितिक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया।
- राज्य में मौजूद 200 से अधिक चीनी कारखानों में से लगभग 50 मराठवाड़ा में स्थित हैं। गौर करने वाली बात यह है कि 1 किलो चीनी का उत्पादन करने के लिये 2,500 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यह राजनीतिक अभिजात वर्ग की चीनी फैक्ट्रियों को बनाए रखने के लिये इंसानों और पशुओं के जल के अधिकार को छीन लेने का प्रयास है। इन मिलों के कारण इस क्षेत्र के बाँध सूख गये हैं। जल की कमी के चलते लातूर ज़िले के कई हिस्से जनवरी में ही सूख गए।
वर्तमान में यहाँ 12 दिनों में एक बार जल की आपूर्ति होती है जो किसी अचानक हुई बर्फ़बारी की घटना से कम नहीं है। गन्ने की खेती पर प्रतिबंध लगाने, बेहतर जल-प्रबंधन, वर्षा जल के संचयन एवं मराठवाड़ा में संचालित कारखानों/मिलोंं में जल के दुरुपयोग को प्रबंधित करने जैसे उपायों पर गौर किये जाने की आवश्यकता है ताकि समय रहते इस समस्या का हल खोजा जा सके। सरकार द्वारा मरुस्थलीकरण की ओर बढ़ते मराठवाड़ा क्षेत्र के लिये एक बेहतर जल-प्रबंधन के क्रियान्वयन को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
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स्रोत:द हिन्दू
वित्तीय संस्थानों के लिये नई नियामक संरचना
चर्चा में क्यों?
भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India-RBI) के केंद्रीय बोर्ड ने वाणिज्यिक, शहरी सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पर्यवेक्षण एवं विनियमन को मज़बूती प्रदान करने के लिये RBI के अंतर्गत एक विशेष पर्यवेक्षी और नियामक संवर्ग/कैडर (Supervisory and Regulatory cadre) बनाने का निर्णय लिया है।
- भारतीय रिज़र्व बैंक का यह कदम ऐसे समय में महत्त्वपूर्ण है जब गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ IL&FS संकट के कारण तरलता में भारी कमी जैसी समस्या का सामना कर रही हैं।
इस निर्णय का कारण
- बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (Non Banking Financial Companies-NBFCs) जैसी विनियमित संस्थाओं में बढ़ती जटिलता को देखते हुए RBI द्वारा एक विशेष पर्यवेक्षी और नियामक कैडर बनाने का निर्णय उचित है।
- बैंकों में धोखाधड़ी के हालिया मामले और NBFCs द्वारा चूक, जिसने पिछले एक साल में वित्तीय बाज़ारों को स्थिर कर दिया, के बाद वित्तीय क्षेत्रों की बेहतर स्थिति सुनिश्चित करने के लिये विशेष पर्यवेक्षण आवश्यक है।
पृष्ठभूमि
- कुछ NBFCs और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों (Housing Finance Companies) में तरलता की कमी की कमी को देखते हुए NBFCs के ऋण साधनों में निवेश और प्रवर्तकों/प्रमोटरों द्वारा गिरवी रखे गए शेयरों तथा प्रमोटरों के वित्त पोषण से चिंताजनक स्थिति उत्पन्न हुई है।
- ऐसा माना जाता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक पर्यवेक्षी कार्यों में, विशेषकर बैंकिंग क्षेत्र में धोखाधड़ी और अव्यवस्थित प्रशासन का समय पर पता लगाने में असफल रहा था।
ओज़ोन क्षरण के लिये ज़िम्मेदार गैस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में नेचर (Nature) नामक जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार वैश्विक स्तर पर ओज़ोन क्षरण के लिये ज़िम्मेदार गैस(CFC-11) पूर्वी चीन की अवैध औद्योगिक गतिविधियों से उत्पन्न होती है।
प्रमुख बिंदु
- क्लोरोफ्लोरोकार्बन-11 (Chloroflurocarbon-CFC-11) एक शक्तिशाली ओज़ोन क्षयकारी रसायन है जो अंटार्कटिक महाद्वीप पर उपस्थित ओज़ोन छिद्र को बढ़ने में सहायता करता है।
- CFC-11 का उपयोग मुख्य रूप से एरोसोल उत्पादों में एक प्रणोदक और कई तरह के पॉलीमर्स एजेंट के रूप में प्रयोग किया जाता था। क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्पादन और उपभोग को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol) के तहत नियंत्रित किया गया था । वर्ष 1996 के बाद विकसित देशों द्वारा एवं वर्ष 2010 में वैश्विक स्तर पर इसके उपभोग को प्रतिबंधित कर दिया गया।
- इसके काफी सकारात्मक परिणाम भी सामने आए एवं पर्यावरण में CFC-11 के स्तर में गिरावट देखने को मिली। तस्मानिया के केप ग्रिम में स्थित केंद्र द्वारा प्रदत्त जानकारियों के अनुसार वर्ष 1994 में CFC-11 पर्यावरण में अपने चरम स्तर पर पहुँच गया था और वर्ष 2018 तक आते आते इसमें 14% तक कमी दर्ज़ की गई।
- वर्ष 2015 में (Commonwealth Scientific and Industrial Research Organisation-CSIRO) के वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलियाई सरकार को उन्नत वैश्विक वायुमंडलीय गैसों के अनुप्रयोग (The Advanced Global Atmospheric Gases Experiment-AGAGE) द्वारा संकलित मापनों के आधार पर सलाह दी गई, जिसमें केपग्रिम के मापनों को भी शामिल किया गया, जिसमें वर्ष 2011 में CFC के उत्सर्जन में वृद्धि कि बात की गई।
- साथ ही यह भी बताया गया कि यदि CFC-11 का उत्सर्जन इसी प्रकार बढ़ता रहा तो ओज़ोन छिद्र को नियंत्रित करना मुश्किल होगा, जो मानव के लिये हानिकारक सिद्ध होगा।
- हाल ही में कोरियाई और जापानी अध्ययनकर्त्ताओं के आँकड़ों से प्राप्त जानकारी के अनुसार, वर्तमान में CFC-11 के बढ़ते उत्सर्जन का मुख्य स्रोत पूर्वी चीन के दो प्रान्त शानदोंग एवं हेबेई हैं वर्ष 2013 के बाद से इन दोनों प्रान्तों ने संयुक्त रूप से 7,000 टन/प्रतिवर्ष उत्सर्जन में वृद्धि की।
- इसके अलवा AGAGE नेटवर्क को वैश्विक स्तर पर विकसित देशों जैसे- उत्तरी अमेरिका, यूरोप, जापान, कोरिया और ऑस्ट्रेलिया में कही भी CFC-11 उत्सर्जन के साक्ष्य नहीं प्राप्त हुए हैं।
- इस नए अध्ययन में वैश्विक स्तर के लगभग आधे हिस्से पर ही उत्सर्जन में वृद्धि के प्रभाव का पता लगाया गया तो यह भी संभावना होती है कि कुछ अन्य देशों में भी CFC-11 में थोड़ी वृद्धि हो गई हो जिसका पता न चल पाया हो।
निष्कर्ष
यह अध्ययन CFC-11 जैसी ट्रेस गैसों के दीर्घकालिक मापन के महत्त्व पर प्रकाश डालता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों और प्रोटोकॉल के तहत कार्य हो रहे हैं अथवा नहीं। इस अध्ययन में क्षेत्रीय स्तर पर ओज़ोन क्षयकारी पदार्थों के उत्सर्जन का पता लगाने वाले वैश्विक नेटवर्क में खामियों की भी पहचान की गई है। इन महत्त्वपूर्ण माप नेटवर्क के विस्तार को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है ताकि भविष्य में होने वाले उत्सर्जन के संक्रमण की शीघ्रता से पहचान की जा सके।
मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (Montreal Protocol)
ओज़ोन परत को नुकसान पहुँचाने वाले विभिन्न पदार्थों के उत्पादन तथा उपभोग पर नियंत्रण के उद्देश्य के साथ विश्व के कई देशों ने 16 सितंबर, 1987 को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किये थे। जिसे आज विश्व का सबसे सफल प्रोटोकॉल माना जाता है। गौरतलब है कि इस प्रोटोकॉल पर विश्व के 197 पक्षकारों ने हस्ताक्षर किये हैं। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के तहत तीन पैनल आते हैं-
- वैज्ञानिक आकलन पैनल।
- प्रौद्योगिकी और आर्थिक आकलन पैनल।
- पर्यावरणीय प्रभाव आकलन पैनल।
- क्लोरोफ्लोरोकार्बन-11 (Chloroflurocarbon-11)CFC-11, जिसे ट्राइक्लोरोफ्लोरोमीथेन के रूप में भी जाना जाता है, कई क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFC) रसायनों में से एक है, जिन्हें 1930 के दशक के दौरान शुरू में शीतलक के रूप में विकसित किया गया था।
- जब वायुमंडल में CFC के अणु टूट जाते हैं, तो वे क्लोरीन परमाणुओं को छोड़ते हैं जो ओज़ोन परत (जो हमें पराबैंगनी किरणों से बचाती है) को तेजी से नष्ट करने में सक्षम होते हैं।
- एक टन CFC-11 लगभग 5,000 टन कार्बनडाइ ऑक्साइड के बराबर होता है, जिससे न केवल ओज़ोन परत का ह्रास हुआ है, बल्कि पृथ्वी के समग्र तापमान में भी वृद्धि हुई है।
स्रोत: न्यूयॉर्क टाइम्स
मंगल ग्रह पर सबसे बड़े जल भंडार की खोज
चर्चा में क्यों
वैज्ञानिकों ने मंगल (Mars) ग्रह पर अब तक के सबसे बड़े जल भंडार का पता लगाया है। मंगल ग्रह पर यह जल भंडार बर्फ की परत के रूप में सतह से एक किलोमीटर नीचे पाया गया है। यह एक ऐसी खोज है जो इस बात का रहस्योद्घाटन कर सकती है कि अतीत में मंगल ग्रह (Red Planet) रहने योग्य था अथवा नहीं।
प्रमुख बिंदु
- ऑस्टिन में टेक्सास विश्वविद्यालय और अमेरिका में एरिज़ोना विश्वविद्यालय की टीम का अनुमान है कि अगर बर्फ की ये परत पिघल जाती है, तो इस ग्रह के जलमग्न होने की स्थिति बन सकती है क्योंकि यह पिघला हुआ जल 5 फीट(1.5 मीटर) की लंबाई को धारण किये होगा जो इस ग्रह को आच्छादित करने के लिए पर्याप्त है।
- शोधकर्त्ताओं ने नासा के मार्स रिकॉनेनेस ऑर्बिटर (Mars Reconnaissance Orbiter) पर शैलो राडार (Shallow RADAR- SHARAD) द्वारा एकत्र किये गए डेटा का उपयोग कर यह खोज की है।
- SHARAD ऐसी राडार तरंगों का उत्सर्जन करता है जो मंगल की सतह के 1.5 मील नीचे तक प्रवेश कर सकती हैं।
- जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स (Geophysical Research Letters) पत्रिका में प्रकाशित इस निष्कर्ष के अनुसार, बर्फ की परतें मंगल ग्रह की अतीत की जलवायु का रिकॉर्ड/प्रमाण ठीक उसी तरह से रखती हैं जैसे कि वृक्ष वलय (Tree Rings) पृथ्वी पर अतीत के जलवायु का रिकॉर्ड रखता हैं।
- शोधकर्त्ताओं ने कहा कि इन परतों की ज्यामिति और संरचना का अध्ययन वैज्ञानिकों को बता सकता है कि मंगल ग्रह पर जलवायु की परिस्थितियाँ अतीत में अनुकूल थीं या प्रतिकूल।
- इस खोज में प्राप्त बर्फ की परतें शुद्ध बर्फ की न होकर रेत मिश्रित हैं हालाँकि कुछ जगहों पर इस मिश्रण में 90% जल भी पाया गया।
- शोधकर्त्ताओं के अनुसार, मंगल पर विगत हिम युगों के दौरान ध्रुवों पर बर्फ जमा होने से इन परतों का निर्माण हुआ होगा। ग्रह का तापमान बढ़ने पर बर्फ की परत का अवशेष रेत से ढंक गया होगा जिसके कारण वाष्पीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध हुई होगी।
मार्स रिकॉनेनेसेंस (टोही) ऑर्बिटर (Mars Reconnaissance Orbiter-MRO)
- MRO का प्रक्षेपण 2005 में हुआ जिसका लक्ष्य इस साक्ष्य का पता लगाना था कि एक लंबे समय-अंतराल तक मंगल ग्रह पर जल की उपलब्धता रही होगी।
- MRO में कई प्रकार के उपकरण होते हैं जैसे कैमरा, स्पेक्टोमीटर और राडार जिनका प्रयोग मंगल ग्रह के प्राकृतिक भू-अवस्थिति, स्ट्रेटिग्राफी, खनिज और बर्फ के विश्लेषण हेतु किया जाता है।
शैलो राडार (Shallow Radar-SHARAD):
- यह मंगल की सतह के नीचे 4 किलोमीटर तक भूगर्भीय सीमाओं की तलाश करता है।
- शैलो राडार वांछित रीज्योलूशन प्राप्त करने हेतु 15-25 मेगाहर्ट्ज़ आवृत्ति वाली राडार तरंगों का उपयोग करते हुए सतह की छानबीन करता है।
- राडार द्वारा छोड़ी गई तरंगे परावर्तित होकर वापस आएंगी जिन्हें SHARAD एंटीना द्वारा कैप्चर किया जाएगा। ये तरंगे चट्टान, रेत सतह और उपसतह में मौजूद जल की विद्युत-परावर्तन विशेषताओं में होने वाले परिवर्तन के प्रति संवेदनशील होती हैं। जल किसी उच्च घनत्व वाली चट्टान की तरह बहुत संवहनीय होता है और राडार द्वारा छोड़ी गई तरंगों को अच्छी तरह परावर्तित करता है।
- SHARAD इटालियन स्पेस एजेंसी (Italian Space Agency-ASI) द्वारा प्रदान की गई थी।
स्रोत: टाइम्स ऑफ़ इंडिया
Rapid Fire करेंट अफेयर्स (24 May)
- देश में कृत्रिम बुद्धिमत्ता (Artificial Intelligence-AI) के लिये एक अवसंरचना तैयार करने की नीति आयोग ने योजना बनाई है। इसने AIRAWAT के नाम से क्लाउड कंप्यूटिंग प्लेटफॉर्म एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाने के लिये 7500 करोड़ रुपए की फंडिंग उपलब्ध कराने की ज़रूरत बताई है। साथ ही इसमें AI की प्रगति की निगरानी के लिये एक कार्यबल बनाना भी शामिल है। नीति आयोग चाहता है कि AI के लिये एक इंस्टीट्यूशनल फ्रेमवर्क और पारदर्शी नीति बनाई जाए। नीति आयोग द्वारा सरकार को भेजे गए प्रस्ताव में 5 सेंटर ऑफ रिसर्च एक्सीलेंस (CORE), 20 इंटरनेशनल सेंटर फॉर ट्रांसफॉर्मेशनल AI (ICTAI) शुरू करने के साथ ही AIRAWAT के नाम से एक क्लाउड कंप्यूटिंग प्लेटफॉर्म बनाना शामिल है। इंस्टीट्यूट्स और पार्टनर्स का चयन दिशा-निर्देशों के आधार पर किया जाएगा, जिन्हें तैयार करने की प्रक्रिया चल रही है। AI से जुड़ी इस पूरी योजना की निगरानी एक कार्यबल करेगा, जिसके प्रमुख नीति आयोग के एक सदस्य होंगे। ज्ञातव्य है कि सरकार का मानना है कि टेक्नोलॉजी से शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि और मोबिलिटी जैसे क्षेत्रों में बड़ी चुनौतियों से निपटने में आसानी होगी। एक अनुमान के अनुसार, AI से वर्ष 2035 तक देश की GDP में 957 अरब डॉलर का प्रवाह हो सकता हैं।
- संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भारत में मज़बूत घरेलू खपत और निवेश से आर्थिक वृद्धि दर वर्ष 2019 में 7.0 प्रतिशत तथा वर्ष 2020 में 7.1 प्रतिशत रहने का अनुमान जताया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2018 में आर्थिक वृद्धि दर 7.2 प्रतिशत रही। वर्ष 2019 मध्य की संयुक्त राष्ट्र विश्व आर्थिक स्थिति तथा संभावना (WESP) रिपोर्ट में व्यक्त अनुमान इस वर्ष जनवरी में जारी अनुमान से कम है। उस समय वर्ष 2019 और वर्ष 2020 में आर्थिक वृद्धि दर क्रमश: 7.6 तथा 7.4 प्रतिशत रहने की संभावना जताई गई थी। उल्लेखनीय है कि रिज़र्व बैंक ने भी मानसून पर अल-नीनो के प्रभाव तथा वैश्विक चुनौतियों के कारण चालू वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को कम कर 7.2 प्रतिशत कर दिया, जबकि पहले इसके 7.4 प्रतिशत रहने की संभावना जताई गई थी। रिपोर्ट में भारत सहित दक्षिण एशिया की आर्थिक वृद्धि में अवसंरचनात्मक बाधाओं को प्रमुख चुनौती बताया गया है। वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर के बारे में रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका और चीन के बीच व्यापार विवाद, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीतिगत अनिश्चितता तथा कंपनियों का कमज़ोर आत्मविश्वास, वैश्विक आर्थिक वृद्धि के लिये चुनौती है।
- वर्ष 2018-19 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP) वार्ता में शामिल 16 सदस्य देशों में 11 के साथ भारत की व्यापार स्थिति घाटे की रही। इनमें ब्रुनेई, जापान, मलेशिया, ऑस्ट्रेलिया, चीन, इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, न्यूज़ीलैंड, थाईलैंड और सिंगापुर प्रमुख हैं। दूसरी तरफ, कंबोडिया, म्यांमार तथा फिलीपींस के साथ भारत की व्यापार अधिशेष (Surplus) की स्थिति रही। भारत ने पिछले वित्त वर्ष में लाओस के साथ व्यापार नहीं किया। गौरतलब है कि RCEP वार्ता नवंबर 2012 में कम्बोडिया के नोम पेन्ह में शुरू हुई थी। भारत का आसियान, जापान तथा दक्षिण कोरिया के साथ मुक्त व्यापार समझौता है। RCEP वार्ता समूह में आसियान समूह के 10 देश (ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, म्याँमार, सिंगापुर, थाईलैंड, फिलीपींस, लाओस तथा वियतनाम) तथा उसके छह FTA भागीदार- भारत, चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड शामिल हैं।
- दुनिया की सबसे ऊँची प्रतिमा सरदार पटेल की स्टैचू ऑफ यूनिटी को वर्ल्ड आर्किटेक्चर न्यूज़ अवार्ड्स 2019 के लिये नामित किया गया है। यह पुरस्कार वास्तुकला के लिये दिया जाना वाला दुनिया का अग्रणी पुरस्कार है और सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय डिज़ाइनों के लिये दिया जाता है। ज्ञातव्य है कि गुजरात के नर्मदा ज़िले में स्थित सरदार सरोवर के निकट केवाड़िया गाँव में स्थापित 182 मीटर ऊँची यह प्रतिमा विश्व में सबसे ऊँची है। यह प्रतिमा तेज़ हवाओं का भी सामना कर सकती है तथा रिक्टर पैमाने पर 6.8 की तीव्रता वाले भूकंप को भी झेल सकती है।
- पाकिस्तान ने मोइन-उल-हक को भारत में अपना नया उच्चायुक्त नियुक्त किया है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत, चीन और जापान सहित लगभग दो दर्जन देशों में नए उच्चायुक्तों तथा राजदूतों की नियुक्ति को मंज़ूरी दी। मोइन-उल-हक फिलहाल फ्राँस में पाकिस्तान के राजदूत हैं। ज्ञातव्य है कि पाकिस्तान के नए विदेश सचिव के रूप में सोहेल महमूद की नियुक्ति के बाद से ही भारत में पाकिस्तानी उच्चायुक्त का पद रिक्त था।
- वर्ष 1974 में दूरदर्शन के लिये एक चिड़िया, अनेक चिड़ियाँ...जैसा कालजयी गीत तैयार करने वाली डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता विजया मुले का दिल्ली में 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 7 मिनट की इस डॉक्यूमेंटरी फिल्म के कारण ही विजया मुले को अपार प्रसिद्धि मिली। उन्हें बेस्ट सिनेमा राइटिंग के लिये नेशनल अवॉर्ड से भी सम्मानित किया गया था। विजया मुले पटना फिल्म सोसायटी की फाउंडर मेंबर भी रहीं। इसके अलावा उन्होंने वर्ष 1959 में दिल्ली फिल्म सोसाइटी की स्थापना में भी अहम योगदान दिया और बाद में फेडरेशन ऑफ फिल्म सोसाइटी की संयुक्त सचिव भी बनी।