शासन व्यवस्था
ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट
चर्चा में क्यों?
धनबाद (झारखंड) के उपायुक्त ने वर्ष 2017-2020 के लिये ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट (DMFT) के फंड के उपयोग के ऑडिट और प्रभावी मूल्यांकन का आदेश दिया है।
प्रमुख बिंदु
- सांविधिक प्रावधान: खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन अधिनियम, 2015 के मुताबिक खनन गतिविधियों से प्रभावित भारत के प्रत्येक ज़िले में राज्य सरकार अधिसूचना के माध्यम से ज़िला खनिज फाउंडेशन के नाम से गैर-लाभकारी निकाय के रूप में एक ट्रस्ट की स्थापना करेगी।
- ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट फंड: नियम के अनुसार, खनन कंपनियाँ सरकार को दी जाने वाली रॉयल्टी राशि का 10-30 प्रतिशत हिस्सा उस ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट के फंड में देती हैं, जहाँ वे परिचालन में हैं।
- उद्देश्य: इस ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट का प्राथमिक उद्देश्य खनन प्रभावित क्षेत्रों के समुदायों/व्यक्तियों का लाभ सुनिश्चित करना है, जो कि इस तथ्य से प्रेरित है कि खनन प्रभावित क्षेत्रों के स्थानीय लोग, जिनमें अधिकतर आदिवासी गरीब हैं, को भी प्राकृतिक संसाधनों से लाभान्वित होने का अधिकार है।
- स्थिति: खनन मंत्रालय के आँकड़ों की मानें तो अब तक देश भर के कुल 572 ज़िलों में इस प्रकार के गैर-लाभकारी निकाय गठित किये गए हैं, जिनमें फंड के तौर पर कुल 40000 करोड़ रुपए की राशि संचय की गई है।
- कार्यपद्धति: देश के सभी खनिज समृद्ध राज्यों ने ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट की संरचना और कार्यपद्धति तथा फंड के प्रयोग से संबंधित नियम तैयार किये हैं, हालाँकि केंद्र सरकार की और से निर्धारित नियमों में सभी राज्यों को प्रधानमंत्री खनन क्षेत्र कल्याण योजना (PMKKKY) के दिशा-निर्देशों को शामिल करने का आदेश दिया गया है।
प्रधानमंत्री खनन क्षेत्र कल्याण योजना (PMKKKY)
- नोडल मंत्रालय: ज़िला खनिज फाउंडेशन ट्रस्ट के फंड का उपयोग कर खनन गतिविधियों से प्रभावित लोगों और क्षेत्रों का कल्याण सुनिश्चित करने संबंधी यह खनन मंत्रालय की एक प्रमुख योजना है।
- उद्देश्य
- खनन प्रभावित क्षेत्रों में विभिन्न विकासात्मक और कल्याणकारी परियोजनाओं/कार्यक्रमों को लागू करना, जो राज्य और केंद्र सरकार की मौजूदा परियोजनाओं/कार्यक्रमों के पूरक के तौर पर कार्य करें।
- आम लोगों के स्वास्थ्य, पर्यावरण और उस क्षेत्र विशिष्ट की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर खनन गतिविधियों के प्रतिकूल प्रभावों को कम करना।
- खनन क्षेत्रों में प्रभावित लोगों के लिये दीर्घकालिक स्थायी आजीविका सुनिश्चित करना।
- क्रियान्वयन
- कम-से-कम 60 प्रतिशत फंड का उपयोग ‘उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों’ जैसे- पेयजल आपूर्ति, पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियंत्रण उपाय, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा आदि के लिये किया जाएगा।
- शेष फंड का उपयोग ‘अन्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों’ जैसे कि अवसंरचना, सिंचाई, ऊर्जा तथा वाटरशेड विकास और पर्यावरण गुणवत्ता में सुधार करने संबंधी उपायों के लिये किया जाएगा।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
सामाजिक उद्यमिता
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय उद्योग परिसंघ (दक्षिणी क्षेत्र) ने सामाजिक उद्यमिता पर एक प्रतियोगिता की घोषणा की है।
- यह प्रतिस्पर्द्धा/प्रतियोगिता मौजूदा सामाजिक उद्यमों (जो अपने शुरूआती चरण में हैं) और ऐसे छात्रों के लिये है जिनके विचार उद्यमशील होने के साथ ही समाज केंद्रित तथा समाज पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले हैं।
- भारतीय उद्योग परिसंघ (Confederation of Indian Industry) सलाहकार और परामर्श संबंधी प्रक्रियाओं के माध्यम से भारत के विकास, उद्योग, सरकार एवं नागरिक समाज के बीच साझेदारी के लिये अनुकूल वातावरण बनाने का काम करता है। CII एक गैर-सरकारी, गैर-लाभकारी, उद्योगों को नेतृत्व प्रदान करने वाला और उद्योग-प्रबंधित संगठन है।
प्रमुख बिंदु
सामाजिक उद्यमिता का अर्थ:
- यह वाणिज्यिक उद्यम के विचार को धर्मार्थ (Charitable) गैर-लाभकारी संगठन के सिद्धांतों के साथ मिश्रित करने वाली अवधारणा है।
- इसमें सामाजिक असमानताओं को दूर करने हेतु कम लागत वाले उत्पादों एवं सेवाओं से जुड़े व्यावसायिक मॉडल के विकास पर ज़ोर दिया जाता है।
- यह अवधारणा आर्थिक पहल को सफल बनाने में मदद करती है और इसके तहत किये जाने वाले सभी निवेश सामाजिक एवं पर्यावरणीय मिशन पर केंद्रित होते हैं।
- सामाजिक उद्यमियों को सामाजिक नवप्रवर्तनकर्त्ता (Social Innovators) भी कहा जाता है। वे परिवर्तनकारी के एजेंट के रूप में कार्य करते हैं और अपने अभिनव विचारों का उपयोग करके महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करते हैं। वे समस्याओं की पहचान करते हैं और अपनी योजना के माध्यम से उनका समाधान करते हैं।
- सामाजिक उत्तरदायित्व (Social Responsibility) और ESG (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) निवेश के साथ-साथ सामाजिक उद्यमिता की अवधारणा भी तेज़ी से विकसित हो रही है।
- सामाजिक उद्यमिता के उदाहरणों में- गरीब बच्चों के लिये शैक्षिक कार्यक्रम शुरू करना, पिछड़े क्षेत्रों में बैंकिंग सेवाएँ प्रदान करना और महामारी के कारण अनाथ हुए बच्चों की मदद करना शामिल है।
भारत में आवश्यकता:
- भारत को सामाजिक समस्याओं से संबंधित विभिन्न विषयों जैसे- स्वच्छता, शिक्षा, जल संरक्षण, लैंगिक पूर्वाग्रह, प्राथमिक स्वास्थ्य, कन्या भ्रूण हत्या, कार्बन उत्सर्जन आदि के समाधान हेतु ऐसे अनेक सामाजिक उद्यमियों की आवश्यकता है जो इन समस्याओं का अभिनव समाधान प्रदान कर सकें। ये समस्याएँ समाज लगातार बनी हुई हैं और इसलिये इनका तत्काल समाधान करना आवश्यक है।
भारत में उदाहरण:
- प्रवाह तथा कम्युटिनी (Pravah and ComMutiny): ये दोनों संगठन युवाओं में नेतृत्व की क्षमता का विकास करने हेतु उन्हें प्रशिक्षित करते हैं। वर्ष 2020 में इन दोनों संगठनों ने श्वाब फाउंडेशन (Schwab Foundation) तथा जुबिलेंट भारतीय फाउंडेशन (Jubilant Bhartia Foundation) द्वारा स्थापित सोशल एंटरप्रेन्योर ऑफ द ईयर पुरस्कार जीता है।
- वर्ष 1993 में स्थापित प्रवाह (Pravah) संगठन भारत में मनो-सामाजिक (Psycho-Social) हस्तक्षेपों के माध्यम से युवा परिवर्तनकारियों के विकास में योगदान दे रहा है, जिसके परिणामस्वरूप ये युवा अधिक समावेशी समाज के निर्माण में सक्षम होते हैं।
- कम्युटिनी जिसकी स्थापना वर्ष 2008 में की गई थी, प्रवाह जैसे संगठनों की सामूहिकता पर ज़ोर देता है।
- डॉ. गोविंदप्पा वेंकटस्वामी का अरविंद नेत्र चिकित्सालय: इसका व्यावसायिक मॉडल अत्यधिक सामाजिक होने के साथ-साथ संधारणीय भी है। इसकी स्थापना का उद्देश्य भारत में गरीबों (विशेष रूप से ग्रामीण भारत में न्यूनतम दैनिक वेतन वाले ऐसे लोग, जो चिकित्सा उपचार का खर्च नहीं उठा सकते) के बीच से दृष्टीहीनता को समाप्त करना है।
चुनौतियाँ:
- व्यवसाय योजना: बाज़ार की वास्तविकताओं और ग्राहक अंतर्दृष्टि पर आधारित योजना का निर्माण तथा उनका दृढ़तापूर्वक अनुसरण कठिन है क्योंकि सामाजिक उद्यमियों को एक बेहतर व्यवसाय योजना विकसित करने में अधिवक्ताओं, चार्टर्ड एकाउंटेंट तथा वरिष्ठ उद्यमियों के मदद की आवश्यकता होती है।
- विशिष्ट भौगोलिक सीमा तक सीमित: निधियन की कमी या संस्थापकों के सीमित नेटवर्क के कारण योजनाएँ एक विशिष्ट भौगौलिक सीमा तक ही सीमित रह जाती हैं।
सुझाव:
- वर्ष 2013 का कंपनी अधिनियम जो कंपनियों को अपने औसत शुद्ध लाभ का 2% कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्त्व (CSR) के रूप में दान करने के लिये बाध्य करता है, ने सामाजिक उपक्रमों में निवेश को उत्प्रेरित किया है। परंतु सही मायनों में इसके लाभ को प्राप्त करने के लिये इसे और अधिक समन्वित किये जाने की आवश्यकता है।
- परोपकारी उद्यम फर्म या पारिस्थितिकी तंत्र के अभिकर्त्ता सामाजिक उद्यमी निवेशकों के वर्ग को व्यवस्थित कर एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। निवेशकों के वर्ग को व्यवस्थित करने का कार्य उनके द्वारा प्रदत्त चेक के आकार (अर्थात् धनराशि), उनके द्वारा केंद्रित क्षेत्र और उनकी विशिष्ट प्राथमिकताओं के अनुसार तथा इन सबमें सबसे महत्त्वपूर्ण उनकी पहचान को सुगम बनाकर किया जा सकता है।
- इसके अलावा ‘प्रभाव मूल्यांकन’ की भी आवश्यकता है-
- सभी निवेशक परिणाम देखना चाहते हैं, परंतु परिणाम को उस स्थिति में कैसे मापा जा सकता है जब हस्तक्षेप की समयावधि बहुत अधिक हो।
- उद्देश्यपूर्ण तरीके से यह तो मापा जा सकता है कि बच्चों को उनके स्कूल में कितने मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराए जाते हैं लेकिन छात्रों में आत्मविश्वास पैदा करने के लिये स्थापित एक खेल कार्यक्रम की प्रभावकारिता को निर्धारित करना कठिन है।
संबंधित प्रयास :
- भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड द्वारा सोशल स्टॉक एक्सचेंज (SSE) बनाने की पहल सामाजिक क्षेत्र के संगठनों को निधि देने के लिये एक नया मंच प्रदान कर भारत में सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव की दिशा में निवेश को बढ़ावा देगा साथ ही यह दाताओं तथा निवेशकों दोनों के लिये सामाजिक प्रभाव को मापने एवं रिपोर्ट करने हेतु एक मानकीकृत ढाँचा स्थापित करेगा।
- ग्रामीण विकास ट्रस्ट (Gramin Vikas Trust-GVT): ‘कृषक भारती कोऑपरेटिव लिमिटेड’ (Krishak Bharati Cooperative Limited- KRIBHCO)) द्वारा वर्ष 1999 में स्थापित एक राष्ट्र स्तरीय संगठन है, जो गरीबों और समाज में हाशिए पर रह रहे समुदायों (विशेषकर महिलाओं तथा आदिवासी आबादी) की आजीविका में एक स्थायी सुधार लाने के लिये कार्य करता है।
- GVT सामाजिक उद्यमिता को एक बड़े पैमाने पर सामाजिक परिवर्तन लाने की प्रक्रिया के रूप में देखता है
आगे की राह:
- समय के साथ-साथ सामाजिक उद्यमिता भी विकसित हुई है और इसने अनेक नवीन और लाभदायक विचार दिये हैं जो सामाजिक समस्याओं का समाधान करते हैं। देश में जहाँ पहले से ही अमूल, बेयरफुट कॉलेज, ग्रामीण बैंक, आदि जैसे सफल उदाहरण मौजूद हैं, वहीं यदि अधिक विचारों के ऊष्मायन और सामाजिक उद्यम में उपयुक्त निवेश सुनिश्चित किया जाए तो ऐसे ही कई और सामाजिक रूप से प्रासंगिक उद्यम स्थापित किये जा सकते हैं।
स्रोत: द हिंदू
भूगोल
शीत अयनांत
चर्चा में क्यों?
21 दिसंबर या शीत अयनांत (Winter Solstice) उत्तरी गोलार्द्ध में वर्ष का सबसे छोटा दिन होता है। इसी दिन दक्षिणी गोलार्द्ध में ग्रीष्म अयनांत, वर्ष का सबसे लंबा दिन होता है।
प्रमुख बिंदु:
अयनांत (Solstice):
- ‘Solstice’ एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “Stalled Sun” यानी “ठहरा हुआ सूर्य”। यह एक प्राकृतिक घटना है जो पृथ्वी के प्रत्येक गोलार्द्ध में वर्ष में दो बार होती है, एक बार ग्रीष्म ऋतु में और एक बार शीत ऋतु में।
शीत अयनांत:
- इस समय सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत चमकता है। इस स्थिति को शीत अयनांत कहते हैं।
- इस समय दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन की अवधि लंबी तथा रात छोटी होती है।
- वस्तुतः सूर्य के दक्षिणायन होने अर्थात् दक्षिणी गोलार्द्ध में उन्मुख होने की प्रक्रिया 23 सितंबर के बाद से प्रारंभ हो जाती है जिससे दक्षिणी गोलार्द्ध में दिन बड़े व रातें छोटी होने लगती हैं।
- इस समय उत्तरी गोलार्द्ध में ठीक विपरीत स्थिति देखी जाती है।
- 22 दिसंबर के उपरांत 21 मार्च तक सूर्य पुनः विषुवत रेखा की ओर उन्मुख होता है एवं दक्षिणी गोलार्द्ध में धीरे-धीरे ग्रीष्म ऋतु की समाप्ति हो जाती है।
- वैदिक परंपरा के अनुसार, अंतरिक्ष में पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में हुई गति को सूर्य सिद्धांत के रूप से स्पष्ट किया गया है जो उत्तरायण (मकर संक्रांति और कर्क संक्रांति के मध्य की अवधि) की स्थिति को दर्शाता है इसलिये, शीतकालीन संक्रांति उत्तरायण का प्रथम दिन होता है।
- विशेष शीत अयनांत 2020:
- इस वर्ष एक दुर्लभ खगोलीय घटना में लगभग 400 वर्षों के बाद बृहस्पति और शनि एक-दूसरे के बहुत करीब (महासंयुग्मन- Great Conjunction) एक चमकते सितारे की तरह दिखाई देंगे।
- संयुग्मन (Conjunction): यदि दो आकाशीय पिंड पृथ्वी से एक-दूसरे के करीब दिखाई देते हैं, तो इसे संयुग्मन कहा जाता है।
- महासंयुग्मन (Great Conjunction): शनि और बृहस्पति के संयुग्मन की स्थिति को महासंयुग्मन कहा जाता है।
- इस वर्ष एक दुर्लभ खगोलीय घटना में लगभग 400 वर्षों के बाद बृहस्पति और शनि एक-दूसरे के बहुत करीब (महासंयुग्मन- Great Conjunction) एक चमकते सितारे की तरह दिखाई देंगे।
भौगोलिक कारण:
- दिनों के छोट-बड़े होने का कारण पृथ्वी का अपने अक्ष पर झुकाव है।
- पृथ्वी अपने कक्षीय तल पर 23.5 ° के कोण पर झुकी हुई है। पृथ्वी का आकार भू-आभ (Geoid) होने के कारण इसके आधे भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है अतः आधे भाग भर दिन रहता है, जबकि शेष आधे भाग पर उस समय प्रकाश नहीं पहुँचता है इसलिये आधे भाग पर रात रहती है।
- पृथ्वी का झुकाव विभिन्न मौसमों के लिये भी उत्तरदायी है। यह घटना वर्ष में उत्तरी से दक्षिणी गोलार्द्ध तक सूर्य की गति और इसके विपरीत वर्ष में मौसमी बदलाव का कारण है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
श्रीनिवास रामानुजन
चर्चा में क्यों?
प्रतिवर्ष महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन की जयंती (22 दिसंबर)को राष्ट्रीय गणित दिवस (National Mathematics Day) के रूप में मनाया जाता है।
प्रमुख बिंदु
रामानुजन के बारे में
- श्रीनिवास रामानुजन का जन्म 22 दिसंबर, 1887 को तमिलनाडु के इरोड (मद्रास प्रेसीडेंसी) में हुआ था और 26 अप्रैल, 1920 को मात्र 32 वर्ष की आयु में तमिलनाडु के कुंभकोणम में उनकी मृत्यु हुई थी।
- रामानुजन ने काफी कम उम्र में ही गणित का कौशल हासिल कर लिया था, मात्र 12 वर्ष की आयु में उन्होंने त्रिकोणमिति में महारत हासिल कर ली थी।
- वर्ष 1903 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय की एक छात्रवृत्ति प्राप्त की, किंतु अगले ही वर्ष यह छात्रवृत्ति वापस ले ली गई, क्योंकि वे गणित की तुलना में किसी अन्य विषय पर अधिक ध्यान नहीं दे रहे थे।
- वर्ष 1913 में उन्होंने ब्रिटिश गणितज्ञ गॉडफ्रे एच. हार्डी के साथ पत्र-व्यवहार शुरू किया, जिसके बाद वे ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज़ चले गए।
- वर्ष 1918 में लंदन की रॉयल सोसाइटी के लिये उनका चयन हुआ।
- रामानुजन ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी के सबसे कम उम्र के सदस्यों में से एक थे और कैम्ब्रिज़ विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज के फेलो चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।
गणित में योगदान
- सूत्र और समीकरण
- रामानुजन ने अपने 32 वर्ष के अल्प जीवनकाल में लगभग 3,900 परिणामों (समीकरणों और सर्वसमिकाओं) का संकलन किया है। उनके सबसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में पाई (Pi) की अनंत श्रेणी शामिल थी।
- उन्होंने पाई के अंकों की गणना करने के लिये कई सूत्र प्रदान किये जो परंपरागत तरीकों से अलग थे।
- खेल सिद्धांत
- उन्होंने कई चुनौतीपूर्ण गणितीय समस्याओं को हल करने के लिये नवीन विचार प्रस्तुत किये, जिन्होंने खेल सिद्धांत के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- खेल सिद्धांत में उनका योगदान विशुद्ध रूप से अंतर्ज्ञान पर आधारित है और इसे अभी तक गणित के क्षेत्र में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।
- रामानुजन की पुस्तकें
- वर्ष 1976 में जॉर्ज एंड्रयूज ने ट्रिनिटी कॉलेज की लाइब्रेरी में रामानुजन की एक नोटबुक की खोज की थी। बाद में इस नोटबुक को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया था।
- रामानुजन नंबर
- गणित में रामानुजन का सबसे बड़ा योगदान रामानुजन संख्या यानी 1729 को माना जाता है।
- यह ऐसी सबसे छोटी संख्या है, जिसको दो अलग-अलग तरीके से दो घनों के योग के रूप में लिखा जा सकता है।
- 1729, 10 और 9 के घनों का योग है- 10 का घन है 1000 और 9 का घन है 927 और इन दोनों को जोड़ने से हमें 1729 प्राप्त होता है।
- 1729, 12 और 1 के घनों का योग भी है- 12 का घन है 1728 और 1 का घन है 1 और इन दोनों को जोड़ने से हमें 1729 प्राप्त होता है।
- अन्य योगदान: रामानुजन के अन्य उल्लेखनीय योगदानों में हाइपर जियोमेट्रिक सीरीज़, रीमान सीरीज़, एलिप्टिक इंटीग्रल, माॅक थीटा फंक्शन और डाइवर्जेंट सीरीज़ का सिद्धांत आदि शामिल हैं।
स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया
शासन व्यवस्था
प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली
चर्चा में क्यों?
पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा एक ऐसी विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली (Early Health Warning System) विकसित की जा रही है, जिससे देश में किसी भी रोग के प्रकोप की संभावना का अनुमान लगाया जा सकेगा।
- गौरतलब है कि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) भी इस विशिष्ट प्रणाली की विकास अध्ययन और प्रक्रिया में शामिल है।
प्रमुख बिंदु
- पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (MoES) द्वारा विकसित किया जा रहा मॉडल मौसम में आने वाले परिवर्तन और रोग की घटनाओं के बीच संबंध पर आधारित है।
- ज्ञात हो कि ऐसे कई रोग हैं, जिनमें मौसम की स्थिति अहम भूमिका निभाती है।
- उदाहरण के लिये मलेरिया, जिसमें विशेष तापमान और वर्षा पैटर्न के माध्यम से इसके प्रकोप के बारे में आसानी से पता लगाया जा सकता है।
प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली
(Early Health Warning System)
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के मुताबिक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली एक ऐसी निगरानी प्रणाली है, जो त्वरित सार्वजनिक स्वास्थ्य हस्तक्षेप को संभव बनाने के लिये ऐसे रोगों से संबंधित सूचना एकत्र करती है, जो भविष्य में महामारी का रूप ले सकते हैं।
- हालाँकि इन प्रणालियों में स्वास्थ्य रुझानों में आने वाले बदलावों का पता लगाने के लिये सांख्यिकीय पद्धतियों का प्रयोग बहुत कम ही किया जाता है।
- अधिकतर मामलों में यह प्रणाली महामारीविदों द्वारा उपलब्ध डेटा की गहन समीक्षा पर आश्रित होती है, जो कि स्वयं कभी व्यवस्थित तरीके से नहीं की जाती है।
- महामारी विज्ञान (Epidemiology) विज्ञान की वह शाखा है जिसमें एक निर्दिष्ट क्षेत्र के अंतर्गत रोगों के वितरण, पैटर्न और संभावित नियंत्रण का अध्ययन किया जाता है।
महत्त्व
- इस प्रणाली उपयोग वेक्टर-जनित रोगों, विशेष रूप से मलेरिया और डायरिया आदि के प्रकोपों का अनुमान लगाने के लिये किया जाएगा। इसका प्रयोग गैर-संचारी रोगों (NCDs) की निगरानी हेतु भी किया जा सकता है।
- वेक्टर (रोगवाहक) वे जीव होते हैं, जो एक संक्रमित व्यक्ति (या जानवर) से किसी दूसरे व्यक्ति (या जानवर) में रोगजनकों और परजीवियों को संचारित करते हैं, जो कि आम लोगों के बीच गंभीर बीमारी का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिये चिकनगुनिया, मलेरिया, डेंगू, पीत ज्वर/येलो फीवर और चेचक रोग आदि इसी तरह से फैलने वाले रोग हैं।
- वेक्टर-जनित रोगों का प्रत्यक्ष संबंध मौसम के पैटर्न से होता है।
- गैर-संचारी रोग (NCD) भी मौसम की स्थिति से प्रभावित होते हैं। उदाहरण के लिये हृदय और श्वसन संबंधी बीमारियाँ हीट वेव तथा पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि से जुड़ी हुई हैं।
- इस प्रकार की प्रणाली स्थानीय प्रशासन को बीमारी से निपटने हेतु पर्याप्त समय उपलब्ध कराएगी।
विश्लेषण और अध्ययन
- इस विशिष्ट प्रारंभिक स्वास्थ्य चेतावनी प्रणाली की क्षमता को सत्यापित करने के लिये महाराष्ट्र के दो ज़िलों (पुणे और नागपुर) में मलेरिया तथा डायरिया के मामलों का एक विस्तृत विश्लेषण किया गया था।
- विश्लेषण के दौरान नागपुर में मलेरिया के मामलों की संख्या अधिक पाई गई, जबकि पुणे में डायरिया के मामले अधिक थे।
- विश्लेषण के मुताबिक, मौसम में अस्थायी और स्थानिक परिवर्तन, उदाहरण के लिये अल-नीनो के प्रभाव के रूप में तापमान और वर्षा में अल्पकालिक वृद्धि, मलेरिया के प्रकोप का कारण बन सकता है।
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) ने अपने एक अध्ययन में कहा था कि जलवायु परिवर्तन के कारण डायरिया संबंधी बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है। जलवायु परिवर्तन, जो कि बाढ़ और सूखे जैसी चरम घटनाओं में वृद्धि के लिये उत्तरदायी है, विकासशील देशों में अत्यधिक चिंता का विषय है।
- COVID-19 के संदर्भ में
- यद्यपि कोरोना वायरस महामारी के प्रसार को प्रभावित करने वाले मौसम के पैटर्न पर कई अध्ययन और विश्लेषण किये गए हैं, किंतु अभी तक शोधकर्त्ता कोरोना वायरस महामारी और मौसम के बीच एक निश्चित संबंध स्थापित करने में सफल नहीं हो पाए हैं।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
जैव विविधता और पर्यावरण
तेंदुओं की आबादी में वृद्धि
चर्चा में क्यों?
हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) द्वारा ‘भारत में तेंदुओं की स्थिति 2018’ (Status of leopards in India 2018) नामक रिपोर्ट को जारी किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में तेंदुओं की आबादी में वर्ष 2014 से अब तक 60% की वृद्धि हुई है।
प्रमुख बिंदु:
- तेंदुओं की अनुमानित आबादी वर्ष 2014 में लगभग 8,000 थी जो बढ़कर 12,852 हो गई है।
- तेंदुओं की सर्वाधिक आबादी मध्य प्रदेश में (3,421) है, इसके बाद क्रमशः कर्नाटक (1,783) और महाराष्ट्र (1,9090) इस संदर्भ में दूसरे एवं तीसरे स्थान पर हैं।
- क्षेत्रवार वितरण:
- मध्य भारत और पूर्वी घाट में तेंदुओं की संख्या सर्वाधिक (8071) है।
- पश्चिमी घाट में तेंदुओं की कुल संख्या 3,387 है।
- शिवालिक और गंगा के मैदान में तेंदुओं की कुल संख्या 1,253 है।
- पूर्वोत्तर पहाड़ियों में तेंदुओं की कुल संख्या 141 है।
- रिपोर्ट के अनुसार तेंदुओं के निवास क्षेत्र में पिछले 100-125 वर्षों में अत्यधिक कमी आई है जबकि तेंदुओं की अनुमानित संख्या में वृद्धि हुई है।
गणना में प्रयुक्त की गई तकनीक:
- कैमरा ट्रैप
- सैटेलाइट इमेज़िंग
- भारतीय वन्यजीव संस्थान और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा फील्ड कार्य।
सीमित दायरा:
- इस गणना को प्रोजेक्ट टाइगर (Project Tiger) के तहत केवल बाघ आबादी वाले क्षेत्रों में संचालित किया गया है,जबकि तेंदुओं की उपस्थिति सर्वव्यापी है।
- तेंदुए अन्य कृषि क्षेत्रों, गैर-वनों (चाय और कॉफी के बागान) और उत्तर-पूर्व के अधिकांश हिस्सों में भी पाए जाते हैं लेकिन इन क्षेत्रों को गणना में शामिल नहीं किया गया है।
तेंदुओं के लिये खतरे:
- वनों के विखंडन के साथ-साथ वनों की गुणवत्ता में गिरावट से निवास स्थान की क्षति होती है।
- मानव तथा तेंदुओं के मध्य संघर्ष।
- अवैध शिकार।
- प्राकृतिक शिकार स्थान (जहाँ ये शिकार कर सकते हैं) की क्षति।
संरक्षण की स्थिति:
- IUCN की रेड लिस्ट में तेंदुए को सुभेद्य (Vulnerable) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
- ‘वन्यजीवों और वनस्पतियों की लुप्तप्राय प्रजातियों में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर कन्वेंशन’ (The Convention of International Trade in Endangered Species of Wild Fauna and Flora- CITES) के अंतर्गत इसे परिशिष्ट-I में शामिल किया गया है।
- CITES का परिशिष्ट I:
- इसमें उन प्रजातियों को शामिल किया जाता है जो विलुप्तप्राय हैं तथा जिन्हें व्यापार से और भी अधिक खतरा हो सकता है।
- भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची-I के तहत तेंदुए का शिकार प्रतिबंधित है।
- अनुसूची-I और अनुसूची-II के तहत भाग-II संकटग्रस्त प्रजातियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करते हैं। इन अनुसूचियों के अंतर्गत अपराध पर उच्चतम दंड निर्धारित किया गया है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान
- भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत एक स्वतंत्र निकाय है। इसका गठन वर्ष 1982 में किया गया था।
- यह देहरादून (उत्तराखंड) के चन्द्रबनी में अवस्थित है।
- इस संस्थान द्वारा लुप्तप्राय जीवों, जैवविविधता, वन्यजीव नीति, जैव विकास और जलवायु परिवर्तन जैसे क्षेत्रों में शोध कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है।
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण
- राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (National Tiger Conservation Authority) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत एक वैधानिक निकाय (सांविधिक निकाय) है।
- इसका गठन टाइगर टास्क फोर्स की सिफारिशों (वर्ष 2005) के बाद किया गया था।
- वर्ष 2006 में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के प्रावधानों में संशोधन कर बाघ संरक्षण प्राधिकरण की स्थापना की गई। प्राधिकरण की पहली बैठक नवंबर 2006 में संपन्न हुई।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
इच्छानुरूप जीनोमिक परिवर्तन
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अमेरिका के खाद्य और औषधि प्रशासन (Food and Drug Administration- FDA) द्वारा गालसेफ पिग्स (GalSafe pigs) कहे जाने वाले पालतू सूअरों में अपनी तरह के पहले इच्छानुरूप जीनोमिक परिवर्तन (Intentional genomic alteration– IGA) की मज़ूरी दी गई है।
- संभवतः यह पहली बार हुआ है जब नियामक ने भोजन और जैव चिकित्सा दोनों उद्देश्यों के लिये पशु जैव प्रौद्योगिकी उत्पाद को मंज़ूरी दी है।
प्रमुख बिंदु:
इच्छानुरूप जीनोमिक परिवर्तन/संशोधन (IGA):
- किसी जीव में इच्छानुरूप जीनोमिक संशोधन (Intentional genomic alteration– IGA) किये जाने से आशय ‘जीनोम एडिटिंग’ या ‘आनुवंशिक इंजीनियरिंग’ (Genetic Engineering) जैसी आधुनिक तकनीकों के माध्यम से जीव के जीनोम (Genome) में विशिष्ट परिवर्तन करना है।
- जीनोम एडिटिंग प्रौद्योगिकियों का एक समूह है जो वैज्ञानिकों को किसी जीव के डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (DNA) में संशोधन करने में सक्षम बनाती है।
- ये प्रौद्योगिकियाँ वैज्ञानिकों को किसी जीनोम में विशेष स्थानों पर आनुवंशिक पदार्थ को जोड़ने, हटाने या बदलने में सक्षम बनाती हैं।
- ऐसी ही एक तकनीक क्रिस्पर-कैस 9 (Clustered Regualarly Interspaced Short Palindromic Repeats) है। यह तकनीक वैज्ञानिकों को अनिवार्य रूप से किसी जीव के DNA में आनुवंशिक पदार्थ को जोड़ने, हटाने या बदलने में समर्थ बनाती है।
- क्रिस्पर डीएनए के हिस्से हैं, जबकि कैस-9 (CRISPR-ASSOCIATED PROTEIN9-Cas9) एक एंजाइम है।
- हाल ही में फ्राँस की इमैनुएल चार्पेंटियर (Emmanuelle Charpentier) और अमेरिका की जेनिफर ए डौडना (Jennifer A Doudna) को रसायन के क्षेत्र में वर्ष 2020 का नोबेल पुरस्कार इसी क्षेत्र में संबंधित विकास हेतु प्रदान किया गया है।
- इमैनुएल चार्पेंटियर एवं जेनिफर ए डौडना द्वारा विकसित ‘क्रिस्पर-कैस9 जेनेटिक सीज़र्स’ (CRISPR-Cas9 Genetic Scissors) का उपयोग जानवरों, पौधों एवं सूक्ष्मजीवों के डीऑक्सीराइबोन्यूक्लिक एसिड (Deoxyribonucleic Acid- DNA) को अत्यधिक उच्च सटीकता के साथ बदलने के लिये किया जा सकता है।
- आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (Genetically Modified Organism - GMO) एक ऐसा जानवर, पौधा या सूक्ष्म जीव है, जिसके DNA में आनुवंशिक इंजीनियरिंग तकनीकों का प्रयोग कर संशोधन किया जाता है।
- एक IGA को किसी जीव में उसकी संरचना और कार्य में परिवर्त्तन के लिये समाविष्ट किया जाता है।
- किसी गैर-IGA और IGA जीव में यह अंतर होता है कि IGA उन्हें नए लक्षण या विशेषता जैसे- तेज़ी से विकास या कुछ बीमारियों से प्रतिरोध आदि प्रदान करता है।
IGA के अनुप्रयोग:
- किसी जीव के DNA अनुक्रम में परिवर्तन अनुसंधान का उपयोग मानव उपभोग के लिये स्वस्थ मांस का उत्पादन करने के साथ ही जानवरों में रोग प्रतिरोध का अध्ययन करने के लिये किया जा सकता है।
- उदाहरण IGAs का उपयोग किसी जीव को कैंसर जैसे रोगों के लिये अतिसंवेदनशील बनाने के लिये किया जाता है, जो शोधकर्त्ताओं को इस रोग के संबंध में बेहतर समझ प्राप्त करने तथा इसके उपचार के नए तरीके विकसित करने में मदद करता है।
FDA’s की स्वीकृति:
- FDA ने GalSafe में IGA को अल्फा-गैल नामक स्तनधारियों में पाई जाने वाली एक प्रकार के शुगर को खत्म करने की अनुमति दी है।
- गालसेफ पिग्स का उपयोग संभवतः मानव चिकित्सा उत्पादों के उत्पादन में किया जा सकता है, IGA अंतत: इन उत्पादों में अल्फा-गैल शुगर की पहचान कर उत्पाद को उससे मुक्त करने में मदद करेगा, जिससे मानव उपभोक्ताओं को संभावित एलर्जी से बचाया जा सकेगा।
- गालसेफ सूअरों (GalSafe Pigs) की कोशिकाओं की सतह पर शुगर मौजूद होती है और जब इनका उपयोग दवाओं या भोजन (शुगर, रेड मीट जैसे- गोमांस, सूअर का मांस और भेड़ के बच्चे में पाया जाता है) जैसे उत्पादों के लिये किया जाता है, तो यह शुगर अल्फा-गैलिक सिंड्रोम (AGS) वाले कुछ लोगों को कम से लेकर गंभीर एलर्जी प्रतिक्रियाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बनाती है।
भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों से संबंधित विधान/कानून:
- भारत में, आनुवंशिक रूप से संशोधित जीव (GMOs) और उसके उत्पादों को पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत अधिसूचित “खतरनाक सूक्ष्मजीवों, आनुवंशिक रूप से संशोधित जीवों या कोशिकाओं के विनिर्माण/उपयोग/आयात/निर्यात और भंडारण के नियम 1989 (नियम, 1989 के रूप में संदर्भित) विनियमित किया जाता है।
- नियम, 1989 में निहित अनुसंधान, जीवविज्ञान, सीमित क्षेत्र परीक्षण, खाद्य सुरक्षा मूल्यांकन, पर्यावरण जोखिम आकलन आदि पर दिशा-निर्देशों की एक शृंखला द्वारा समर्थित हैं।
- ये नियम अनिवार्य रूप से GMOs और उत्पादों से जुड़ी गतिविधियों के पूरे स्पेक्ट्रम को कवर करते हुए बहुत व्यापक हैं।
- ये किसी भी पदार्थ, उत्पाद और खाद्य सामग्री आदि पर भी लागू होते हैं।
- जेनेटिक इंजीनियरिंग के अलावा नई जीन तकनीकों को भी इनमें शामिल किया गया है।
- नियम, 1989 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT), विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा राज्य सरकारों के साथ संयुक्त रूप से लागू किया जाता है।
- इन नियमों के तहत छह सक्षम प्राधिकरणों और उनकी संरचना को अधिसूचित किया गया है:
- rDNA सलाहकार समिति (rDNA Advisory Committee - RDAC)
- संस्थागत जैव सुरक्षा समिति (Institutional Biosafety Committee- IBSC)
- आनुवंशिक हेरफेर पर समीक्षा समिति (Review Committee on Genetic Manipulation- RCGM)
- जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (Genetic Engineering Appraisal Committee- GEAC)
- राज्य जैव प्रौद्योगिकी समन्वय समिति (State Biotechnology Coordination committee -SBCC)
- जिला स्तरीय समिति (District Level Committee- DLC)
- RDAC प्रकृति में सलाहकार प्राधिकरण है, IBSC, RCGM और GEAC कार्य को विनियमित करने के लिये ज़िम्मेदार हैं। SBCC और DLC निगरानी उद्देश्यों के लिये हैं।
- GMOs से संबंधित भारतीय पहल:
- भारतीय GMO अनुसंधान सूचना प्रणाली: यह भारत में GMO और उसके उत्पादों के उपयोग से संबंधित गतिविधियों का एक डेटाबेस है।
- इस वेबसाइट का प्राथमिक उद्देश्य वैज्ञानिकों, नियामकों, उद्योग और आम जन सहित सभी हितधारकों को अनुसंधान तथा वाणिज्यिक उपयोग के तहत GMOs एवं उत्पादों से संबंधित उद्देश्यपूर्ण व यथार्थवादी वैज्ञानिक जानकारी उपलब्ध कराना है।
- बीटी कपास (Bacillus Thuringiensis –Bt) आनुवंशिक रूप से संशोधित (GM) एकमात्र फसल है जिसे भारत में अनुमति प्राप्त है। बेसिलस थुरिनजेनेसिस (bacillus thuringiensis –Bt) एक जीवाणु है जो प्राकृतिक रूप से क्रिस्टल प्रोटीन उत्पन्न करता है। यह प्रोटीन कीटों के लिये हानिकारक होता है।
- बीटी फसलों का नाम बेसिलस थुरिनजेनेसिस (bacillus thuringiensis -Bt) के नाम पर रखा गया है। बीटी फसलें ऐसी फसलें होती है जो बेसिलस थुरिनजेनेसिस नामक जीवाणु के समान ही विषाक्त पदार्थ को उत्पन्न करती हैं ताकि फसल का कीटों से बचाव किया जा सके।
- भारतीय GMO अनुसंधान सूचना प्रणाली: यह भारत में GMO और उसके उत्पादों के उपयोग से संबंधित गतिविधियों का एक डेटाबेस है।
- भारत जैव सुरक्षा पर कार्टाजेना प्रोटोकॉल का भी एक हस्ताक्षरकर्त्ता है, जिसका उद्देश्य आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी के परिणामस्वरूप संशोधित जीवों द्वारा उत्पन्न संभावित जोखिमों से जैवविविधता की रक्षा करना है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
जैव विविधता और पर्यावरण
जैवविविधता प्रबंधन समितियाँ
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (National Green Tribunal) ने COVID-19 महामारी के कारण जैवविविधता प्रबंधन समितियों (BMCs) के गठन और पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टरों (PBR) की तैयारी के लिये समय सीमा बढ़ा दी है।
प्रमुख बिंदु:
- जैवविविधता प्रबंधन समितियाँ (BMC):
- जैविक विविधता अधिनियम 2002 के अनुसार, देश भर में स्थानीय निकायों द्वारा "जैविक विविधता के संरक्षण, सतत उपयोग और प्रलेखन को बढ़ावा देने के लिये" BMCs का निर्माण किया जाता है।
संरचना:
- इसमें एक अध्यक्ष शामिल होगा तथा स्थानीय निकाय द्वारा नामित अधिकतम छह व्यक्ति होंगे, जिनमें कम-से-कम एक तिहाई महिलाएँ और 18% अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के सदस्य होने चाहिये।
- BMC का मुख्य कार्य स्थानीय लोगों के परामर्श से पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर तैयार करना है।
पीपुल्स बायोडायवर्सिटी रजिस्टर (PBR):
- इन रजिस्टरों में क्षेत्र के पौधों, खाद्य स्रोतों, वन्य जीवन, औषधीय स्रोतों आदि में जैवविविधता का पूर्ण प्रलेखन दर्ज होता है।
PBR के लाभ:
- एक अच्छा PBR यह पता लगाने में मदद करेगा कि आवासीय परिवर्तन किस प्रकार हो रहे हैं इसके अलावा यह हमारे वनों को समझने और उनका आकलन करने में सहायक होगा।
- बायोपायरेसी को रोकना:
- स्वदेशी और स्थानीय समुदाय पारंपरिक ज्ञान का भंडार हैं और उनका ज्ञान और प्रथाएँ जैवविविधता के संरक्षण और सतत् विकास में मदद करते हैं।
- बॉटम-अप प्रक्रिया होने के कारण, यह सांस्कृतिक और प्राकृतिक जैवविविधता के अधिव्यापन को समझने का एक साधन भी है।
- यह समावेशी दृष्टिकोण के माध्यम से एक विकेंद्रीकृत तरीके की परिकल्पना करता है।
भारत में जैवविविधता शासन
- जैवविविधता शासन के माध्यम से सभी हितधारकों की नीति निर्धारण और निर्णयन प्रक्रिया में भागीदारी पर बल दिया जाता है ताकि एक प्रभावी, कानून के शासन पर आधारित तथा पारदर्शी प्रणाली अपनाई जा सके, जो आनुवंशिक संसाधनों के निष्पक्ष और न्यायसंगत साझाकरण की गारंटी देता हो।
- भारत का जैविक विविधता अधिनियम 2002 (BD Act), नागोया प्रोटोकॉल के साथ घनिष्ठ तालमेल दर्शाता है और इसका उद्देश्य जैविक विविधता पर अभिसमय (CBD) के प्रावधानों को लागू करना है।
- भारत का 'जैविक विविधता अधिनियम' (Biological Diversity Act)- 2002, नागोया प्रोटोकॉल के उद्देश्यों के अनुरूप है।
- इस अधिनियम को भारत में जैवविविधता के संरक्षण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में देखा गया था, क्योंकि इसमें प्राकृतिक संसाधनों पर देशों के संप्रभु अधिकारों को मान्यता दी गई थी।
- अधिनियम के माध्यम से स्थानीय आबादी तक ‘पहुँच और लाभ साझाकरण’ (Access and Benefit Sharing-ABS) पर बल दिया गया।
- अधिनियम के माध्यम से विकेंद्रीकृत तरीके से जैव संसाधनों के प्रबंधन के मुद्दों का समाधान का प्रयास किया गया।
- अधिनियम के तहत त्रि-स्तरीय संरचनाओं की परिकल्पना की गई है:
- राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जैवविविधता प्राधिकरण (NBA)।
- राज्य स्तर पर राज्य जैवविविधता बोर्ड (SSB)।
- स्थानीय स्तर पर जैवविविधता प्रबंधन समितियाँ (BMCs)।
- अधिनियम के तहत त्रि-स्तरीय संरचनाओं की परिकल्पना की गई है:
- अधिनियम सक्षम अधिकारियों के विशिष्ट अनुमोदन के बिना भारत में उत्पन्न ‘आनुवंशिक सामग्री के हस्तांतरण’ (Transfer of Genetic Material) पर प्रतिबंध लगाता है।
- अधिनियम जैवविविधता से संबंधित ज्ञान पर बौद्धिक संपदा का दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति के संबंध में देश के पक्ष को मज़बूत करता है।
जैवविविधता अभिसमय (CBD)
- जैवविविधता के संरक्षण के लिये कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि वर्ष 1993 से लागू है। इसके 3 मुख्य उद्देश्य हैं:
- जैवविविधता का संरक्षण।
- जैवविविधता के घटकों का सतत उपयोग।
- आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों का उचित और न्यायसंगत साझाकरण।
स्रोत: द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
पीएम वाणी: भारत की नई सार्वजनिक वाई-फाई योजना
चर्चा में क्यों?
हाल ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूरसंचार विभाग (DoT) द्वारा सार्वजनिक वाई-फाई एक्सेस नेटवर्क इंटरफेस (Public Wi-Fi Access Network Interface) स्थापित करने हेतु लाए गए एक प्रस्ताव को अपनी मंज़ूरी दी है।
- सार्वजनिक वाई-फाई एक्सेस नेटवर्क इंटरफेस, जिसे ‘पीएम वाणी’ (PM-WANI) के नाम से भी जाना जाएगा, को पहली बार भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) द्वारा वर्ष 2017 में अनुशंसित किया गया था।
प्रमुख बिंदु:
- पीएम वाणी: इसमें PDO, PDOAS, एप प्रदाताओं और एक केंद्रीय रजिस्ट्री सहित विभिन्न हितधारक शामिल होंगे। पीएम-वाणी के बुनियादी ढाँचे को एक पिरामिड के रूप में संरचित किया जा सकता है।
- सभी ऐप प्रदाताओं, पीडीओए और पीडीओ के विवरण का रिकॉर्ड रखने के लिये एक केंद्रीय रजिस्ट्री स्थापित की जाएगी। इस रजिस्ट्री की देखरेख सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमैटिक्स (C-DoT) द्वारा की जाएगी।
भारत में सार्वजनिक वाई-फाई की आवश्यकता:
- देश में इंटरनेट सेवाओं के प्रसार को बढ़ाने के लिये।
- सार्वजनिक डेटा ऑफिस (PDOs), जो कि मूल रूप से देश के विभिन्न हिस्सों में छोटे खुदरा आउटलेट होंगे, के माध्यम से देश के सुदूर हिस्सों तक इंटरनेट कनेक्टिविटी की पहुँच को सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया है।
- सामान्य नागरिक को लागत प्रभावी विकल्प उपलब्ध कराने के लिये।
- पर्याप्त मोबाइल डेटा कवरेज वाले शहरी क्षेत्रों में भी, मोबाइल इंटरनेट टैरिफ में वृद्धि होना तय है।
- डिजिटल इंडिया के लक्ष्य को प्राप्त करना:
- वर्ष 2015 से जून 2020 के बीच भारत में इंटरनेट ग्राहकों की संख्या 302 मिलियन से बढ़कर 750 मिलियन हो गई। यह 20% चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) ही भारत को विश्व के सबसे तेज़ी से बढ़ते इंटरनेट बाज़ारों में से एक बनाती है।
- हालाँकि यह आँकड़ा पहुँच की गुणवत्ता के डेटा पर हावी दिखाई देता है। गौरतलब है कि वर्तमान में देश में मात्र 23 मिलियन उपभोक्ता ही वायर्ड इंटरनेट (Wired internet) से जुड़े हुए हैं।
- डिजिटल इंडिया की दृष्टिकोण को प्राप्त करने के लिये हर भारतीय तक एक लचीला और विश्वसनीय कनेक्शन उपलब्ध कराना आवश्यक है, ताकि वे हर जगह वहनीय कीमत पर विश्वसनीय इंटरनेट की पहुँच प्राप्त कर सकें।
- डिजिटल क्वालिटी ऑफ लाइफ इंडेक्स 2020 में भारत को इंटरनेट वहनीयता (Internet Affordability) के मामले में 9वें स्थान पर रखा गया, इस श्रेणी में भारत ने यूके, संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे देशों से भी बेहतर प्रदर्शन किया। हालाँकि इंटरनेट गुणवत्ता और ई-बुनियादी ढाँचे के मामले में भारत को क्रमशः 78वें और 79वें (कुल 85 में से) स्थान पर रखा गया था।
संभावित लाभ:
- इस योजना में बड़े पैमाने पर कनेक्टिविटी के लिये लागत-प्रभावी साधन उपलब्ध कराने के अलावा 2 करोड़ से अधिक नौकरियों और उद्यमशीलता के अवसरों के सृजन की क्षमता है।
- राष्ट्रीय डिजिटल संचार नीति के तहत वर्ष 2022 तक 1 करोड़ सार्वजनिक वाई-फाई हॉटस्पॉट बनाने के लक्ष्य और वर्तमान में केवल 3.5 लाख वाई-फाई हॉटस्पॉट की छोटी संख्या को देखते हुए, पीएम-वाणी के माध्यम से इस राष्ट्रस्तरीय पहल के लिये आवश्यक उपकरणों की मांग और स्थानीय स्तर पर उनके निर्माण को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।
- PDOs सामग्री (शिक्षा/समाचार या मनोरंजनसे संबंधित डिज़िटल सामग्री) के लिये स्थानीय वितरण केंद्र बन सकते हैं।
- इसके माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में छात्र बिना इंटरनेट का उपयोग किये ऑफलाइन सामग्री प्राप्त कर सकते हैं।
- इस पहल को अन्य सेवा प्रदाताओं (OSPs) के विनियम के उदारीकरण से साथ जोड़कर देखा जा सकता है कि भारत दुष्कर अनुपालन के बोझ के बिना ही डिजिटल SME (लघु और मध्यम आकार के उद्यम) के लिये ऑनलाइन पहुँच बनाने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
- यह ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस (Ease of Doing Business) और ईज़ ऑफ लिविंग (Ease of Living) को और आगे बढ़ाएगा, क्योंकि यह छोटे दुकानदारों को वाई-फाई सेवा प्रदान करने में सक्षम करेगा।
चुनौतियाँ:
- नेटवर्क सुरक्षा:
- अधिकांश वाई-फाई हॉटस्पॉट इंटरनेट पर भेजी जाने वाली जानकारी को कूटबद्ध (Encrypt) नहीं करते हैं, इसलिये वे सुरक्षित नहीं होते हैं। सार्वजनिक वाई-फाई की सुरक्षा में यह कमी उपकरणों पर व्यक्तिगत जानकारी की संभावित हैकिंग या अनुचित/गैर-अनुमोदित पहुँच का कारण बन सकती है।
- हालाँकि भारतीय सार्वजनिक वाई-फाई हॉटस्पॉट नेटवर्क प्रणाली के तहत यह परिकल्पना की गई है कि इन वाई-फाई पॉइंट्स के माध्यम से इंटरनेट पहुँच की अनुमति केवल इलेक्ट्रॉनिक केवाईसी (KYC ) और ओटीपी (OTP) तथा मैक आईडी-आधारित प्रमाणीकरण प्रणाली के माध्यम से दी जाएगी जिससे नेटवर्क सुरक्षा के जोखिम को कम किया जा सकेगा।
- मैक प्रमाणीकरण की विधि के तहत नेटवर्क तक पहुँच के लिये उपकरणों को प्रमाणित करने के बाद ही उन्हें एक सुरक्षित नेटवर्क तक पहुँच प्रदान की जाती है।
- परियोजना की व्यावहारिकता:
- भारत में सार्वजनिक वाई-फाई नेटवर्क की व्यावहारिकता पर प्रश्न उठाए गए हैं क्योंकि इससे पहले भी इस क्षेत्र में कई तकनीकी-दिग्गज (जैसे-गूगल और फेसबुक) बड़े प्रयासों के बाद भी असफल रहे हैं।
- वर्ष 2017 में सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक ने 'एक्सप्रेस वाई-फाई' की शुरुआत की थी। हालाँकि यह परियोजना बहुत अधिक प्रभावी नहीं हुई।
- गूगल द्वारा वर्ष 2015 में पूरे भारत में 400 से अधिक रेलवे स्टेशनों और हज़ारों अन्य सार्वजनिक स्थानों पर निशुल्क वाई-फाई प्रदान करने के लिये ‘स्टेशन प्रोजेक्ट’ नामक पहल की शुरुआत की गई थी, परंतु सफल न होने के कारण इसे वर्ष 2020 की शुरुआत में बंद कर दिया गया।
- गूगल द्वारा इसकी असफलता के लिये सस्ते और अधिक सुलभ मोबाइल डेटा, सभी के लिये इंटरनेट तक पहुँच प्रदान करने हेतु सरकारी पहलों तथा अलग-अलग तकनीकी आवश्यकताओं एवं बुनियादी ढाँचे की चुनौतियों को उत्तरदायी बताया गया।
वाई-फाई (Wi-Fi):
- यह एक नेटवर्किंग प्रौद्योगिकी है जिसमें कम दूरी पर उच्च गति पर डेटा हस्तांतरण के लिये रेडियो तरंगों का उपयोग किया जाता है।
- वाई-फाई 'स्थानीय क्षेत्र नेटवर्क' (LAN) को बिना केबल और वायरिंग के संचालित करने की अनुमति देता है, जो इसे घर तथा व्यावसायिक नेटवर्क के लिये एक लोकप्रिय विकल्प बनाता है।
- वाई-फाई का उपयोग कई आधुनिक उपकरणों, जैसे लैपटॉप, स्मार्टफोन, टैबलेट कंप्यूटर और इलेक्ट्रॉनिक गेमिंग कंसोल के लिये वायरलेस ब्रॉडबैंड इंटरनेट की पहुँच प्रदान करने हेतु भी किया जा सकता है।
- वाई-फाई सक्षम उपकरण इंटरनेट से जुड़ने में तब समर्थ होते हैं जब वे उन क्षेत्रों में हों जहाँ वाई-फाई की पहुँच होती है, जिसे "हॉट स्पॉट" भी कहा जाता है।
- सिस्को वार्षिक इंटरनेट रिपोर्ट (2018-2023) [Cisco Annual Internet Report(2018-2023)] के अनुसार, वर्ष 2023 तक विश्व भर में कुल सार्वजनिक वाई-फाई हॉटस्पॉट की संख्या वर्ष 2018 के 169 मिलियन हॉटस्पॉट से बढ़कर लगभग 623 मिलियन तक पहुँच जाएगी।
- इसके तहत, वर्ष 2023 तक सर्वाधिक हॉटस्पॉट्स की हिस्सेदारी एशिया-प्रशांत क्षेत्र (46%) में होगी। सिस्को के अनुमानों के आधार पर, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) द्वारा की गई गणना के अनुसार, भारत में वर्ष 2023 तक कुल वाई-फाई हॉटस्पॉट की संख्या लगभग 100 मिलियन हो सकती है।
सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमैटिक्स (सी-डॉट):
- ‘सी-डॉट’ की स्थापना अगस्त 1984 में भारत सरकार के दूरसंचार विभाग के तहत एक स्वायत्त दूरसंचार अनुसंधान और विकास केंद्र के रूप में की गई थी।
- यह सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत एक पंजीकृत सोसायटी है।
- यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान विभाग (DSIR) के तहत एक पंजीकृत ‘सार्वजनिक वित्त पोषित अनुसंधान संस्थान ’है।
आगे की राह:
- देश के नागरिक मज़बूत सेवा, डेटा अखंडता की सुरक्षा, डेटा के व्यावसायिक उपयोग पर पारदर्शिता और साइबर हमले से सुरक्षा की उम्मीद करते हैं।
- सरकार द्वारा इस क्षेत्र में किसी एक संस्था/कंपनी के एकाधिकार को रोकने के लिये TRAI के सुझावों के अनुरूप हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर, एप और भुगतान सेवाओं से जुड़े विभिन्न सेवा प्रदाताओं की बराबर भागीदारी के साथ-साथ एक निष्पक्ष प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
- वर्तमान में सक्रिय सार्वजनिक वाई-फाई विकल्प कुछ संस्थाओं द्वारा सीमित पैमाने पर चलाए जाते हैं जिससे उपभोक्ताओं को एकल गेटवे एप के माध्यम से भुगतान करने के लिये विवश होना पड़ता है, जो इस क्षेत्र में व्यापक सुधार की आवश्यकता को रेखांकित करता है।