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भारतीय राजव्यवस्था
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत
प्रिलिम्स के लिये:शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत, संविधान की मूल संरचना, सर्वोच्च न्यायालय, NJAC अधिनियम मेन्स के लिये:शक्ति और मुद्दों के पृथक्करण का सिद्धांत, संविधान की मूल संरचना |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक 1973 के केशवानंद भारती मामले का हवाला देते हुए शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर बहस को फिर से शुरू कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत:
- शक्तियों का पृथक्करण सरकार के विधायी, कार्यकारी और न्यायिक कार्यों का विभाजन है।
- अनुच्छेद 50 के अनुसार, राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिये कदम उठाएंगे।
- संवैधानिक सीमांकन से सरकार की किसी भी एक शाखा में शक्ति के एकीकरण को रोका जा सकता है।
- भारतीय संविधान संरचना निर्धारित करता है, राज्य के प्रत्येक अंग की भूमिका तथा कार्यों को परिभाषित एवं निर्धारित करता है, उनके अंतर्संबंधों तथा नियंत्रण और संतुलन के लिये मानदंड स्थापित करता है।
नियंत्रण एवं संतुलन का साधन:
- विधायिका का नियंत्रण:
- न्यायपालिका के संदर्भ में: न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति तथा न्यायालय के ‘अधिकार से परे’ या अल्ट्रा वायर्स घोषित कानूनों में संशोधन करने तथा इसे पुनः मान्य बनाने की शक्ति।
- कार्यपालिका के संदर्भ में: विधायिका निर्धारित प्रक्रिया के तहत एक अविश्वास मत पारित कर सरकार को भंग कर सकती है। विधायिका को प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का आकलन करने की शक्ति प्रदान की गई है।
- कार्यपालिका का नियंत्रण:
- न्यायपालिका के संदर्भ में: मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।
- विधायिका के संदर्भ में: प्रत्यायोजित कानून के तहत प्राप्त शक्तियाँ। संविधान के प्रावधानों के तहत संबंधित कानूनों के प्रभावी कार्यन्वयन हेतु आवश्यक नियम बनाने का अधिकार।
- न्यायिक नियंत्रण:
- कार्यपालिका पर: न्यायिक समीक्षा यानी संविधान के उल्लंघन की स्थिति में कार्यकारी गतिविधियों की जाँच करने का अधिकार ।
- विधायिका पर: केशवानंद भारती मामला 1973 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित मूल संरचना सिद्धांत के तहत संविधान की असंशोधनीयता।
शक्तियों के पृथक्करण से संबंधित समस्याएँ:
- कमज़ोर विपक्ष: नियंत्रण और संतुलन लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है। ये लोकतंत्र को बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में बदलने से रोकते हैं।
- संसदीय प्रणाली में ये नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत विपक्षी दल द्वारा प्रदान किये जाते हैं।
- हालाँकि लोकसभा में एक दल के बहुमत ने संसद में एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका को कम कर दिया है।
- न्यायपालिका की नियंत्रण और संतुलन के प्रति विमुखता: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना 99वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारातीत करार दिया था।
- NJAC अनुचित राजनीतिकरण से व्यवस्था की स्वतंत्रता की गारंटी दे सकता है, नियुक्तियों की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है, चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता को बढ़ा सकता है, न्यायपालिका की संरचना में विविधता को बढ़ावा दे सकता है और व्यवस्था में जनता के विश्वास का पुनर्निर्माण कर सकता है।
- न्यायिक सक्रियता: हालिया कई निर्णयों में को देखें तो कानून और नियम से संबंधित निर्णय लेने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अति-सक्रिय हो गया है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका के क्षेत्र का उल्लंघन है।
- कार्यपालिका: भारत में कार्यपालिका पर सत्ता के अति-केंद्रीकरण, सार्वजनिक संस्थानों को कमज़ोर करने, कानून, व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा में सुधार के लिये कानून पारित करने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की आलोचना की जाती है।
संविधान की मूल संरचना:
आगे की राह
- भारत का संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है और इसमें बदलाव के समय समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखना चाहिये।
- भारतीय संविधान के निर्माताओं ने स्वीकार किया कि ज्ञान पर किसी पीढ़ी का एकाधिकार नहीं है और कोई भी पीढ़ी यह तय नहीं कर सकती है कि आने वाली पीढ़ियों हेतु सरकार कैसी होनी चाहिये।
- हालाँकि संशोधन की शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। प्रश्न. ‘आधारिक संरचना’ के सिद्धांत से प्रारंभ करते हुए न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिये कि भारत एक उन्नतिशील लोकतंत्र के रूप में विकसित हो, एक उच्चतः अग्रलक्षी (प्रोऐक्टिव) भूमिका निभाई है। इस कथन के प्रकाश में लोकतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति के लिये हाल के समय में ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ द्वारा निभाई भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2014) प्रश्न. अध्यादेशों का आश्रय लेने ने हमेशा ही शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत की भावना के उल्लंघन पर चिंता जागृत की है। अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति के तर्काधार को नोट करते हुए विश्लेषण कीजिये कि क्या इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विनिश्चयों ने इस शक्ति का आश्रय लेने को और सुगम बना दिया है। क्या अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति का निरसन कर दिया जाना चाहिये? (मुख्य परीक्षा, 2015) प्रश्न. क्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है बल्कि यह “नियंत्रण और संतुलन” के सिद्धांत पर आधारित है? व्याख्या कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2019) प्रश्न. न्यायिक विधान, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकारणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी बड़ी संख्या में दायर होने वाली लोक हित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2020) |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय राजव्यवस्था
मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, मौलिक अधिकार, मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सर्वोच्च न्यायालय मेन्स के लिये:महत्त्वपूर्ण निर्णय, मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने सर्वसम्मति और उचित तरीके से मंत्रियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी अतिरिक्त प्रतिबंध से इनकार कर दिया।
पृष्ठभूमि:
- यह मामला (कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) 2016 की बुलंदशहर बलात्कार की घटना से संबंधित है, जिसमें राज्य के तत्कालीन मंत्री ने इस घटना को 'राजनीतिक साजिश और कुछ नहीं' करार दिया था।
- सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पीड़ितों द्वारा एक रिट याचिका दायर की गई थी तथा न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया: "क्या एक सार्वजनिक पदाधिकारी की बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है?"
न्यायालय का निर्णय:
- बहुमत निर्णय:
- उचित प्रतिबंधों पर:
- अन्य नागरिकों की तरह, मंत्रियों को भी अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी दी गई है, जो अनुच्छेद 19(2) में निर्धारित उचित प्रतिबंधों द्वारा शासित है, और वे पर्याप्त हैं।
- क्योंकि "न्यायालय की भूमिका वैध प्रतिबंधों द्वारा सीमित मौलिक अधिकारों की रक्षा करना है, न कि प्रतिबंधों की रक्षा करना और अधिकारों को अवशिष्ट विशेषाधिकार बनाना।"
- सामूहिक उत्तरदायित्त्व पर:
- बहुमत के फैसले ने अपने मंत्रियों द्वारा किये गए गलत निर्णय या घृणित टिप्पणियों के लिये सरकार की परोक्ष ज़िम्मेदारी पर भी एक वैध अंतर किया।
- सामूहिक उत्तरदायित्त्व में धारा का प्रवाह मंत्रिपरिषद से लेकर व्यक्तिगत मंत्रियों तक होता है।
- प्रवाह विपरीत दिशा में नहीं है, अर्थात् व्यक्तिगत मंत्रियों से मंत्रिपरिषद तक।
- सामूहिक उत्तरदायित्त्व के विचार को "लोकसभा अथवा विधानसभा के बाहर किसी मंत्री द्वारा मौखिक रूप से दिये गए प्रत्येक भाषण" पर लागू नहीं किया जा सकता है।
- बहुमत के फैसले ने अपने मंत्रियों द्वारा किये गए गलत निर्णय या घृणित टिप्पणियों के लिये सरकार की परोक्ष ज़िम्मेदारी पर भी एक वैध अंतर किया।
- किसी मंत्री द्वारा दिया गया वक्तव्य:
- न्यायालय ने इस मुद्दे की भी जाँच की कि क्या एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी मंत्री के भाषण को संवैधानिक अपकृत्य माना जा सकता है।
- संवैधानिक अपकृत्य (Constitutional Tort) एक कानूनी उपकरण है जिसमें राज्य को अपने अभिकर्त्ताओं के कार्यों के लिये वैकल्पिक रूप से जवाबदेह ठहराया जाता है।
- यहाँ तक कि अगर कोई मंत्री ऐसी टिप्पणी करता है जो किसी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, इस संबंध में विधिक कार्रवाई तब तक नहीं हो सकती जब तक कि यह वास्तव में किसी की चोट या नुकसान का कारण नहीं बनता है।
- न्यायालय ने इस मुद्दे की भी जाँच की कि क्या एक नागरिक के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले किसी भी मंत्री के भाषण को संवैधानिक अपकृत्य माना जा सकता है।
- उचित प्रतिबंधों पर:
- असहमतिपूर्ण निर्णय:
- विभाजनकारी सार्वजनिक संवाद के संदर्भ में:
- अल्पमत निर्णय में विभाजनकारी सार्वजनिक संवाद पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा गया है कि "घृणास्पद भाषण (Hate Speech) के तहत चाहे कुछ भी कहा गया हो, वह लोगों की गरिमा के प्रतिकूल है"।
- यह सार्वजनिक अधिकारियों और अन्य प्रभावशाली लोगों द्वारा ज़िम्मेदारीपूर्वक और संयमित शब्दों के माध्यम से संवाद करने से संबंधित विशिष्ट उत्तरदायित्त्व का उल्लेख करता है।
- सामूहिक उत्तरदायित्त्व के संबंध में:
- यदि कोई मंत्री सरकार के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्त्व करता है और यह समसामयिक मामलों के लिये प्रासंगिक है, तो सरकार को वैकल्पिक रूप से उत्तरदायी माना जा सकता है।
- इस तरह के बयान के लिये स्वयं मंत्री ज़िम्मेदार होता है यदि यह सरकार की विचारधारा के विपरीत है।
- मंत्री का व्यक्तिगत वक्तव्य:
- यह विचार है कि उन कृत्यों और चूकों को परिभाषित करने के लिये एक उचित कानूनी ढाँचा होना चाहिये जो 'संवैधानिक अपराध' के बराबर होते हैं।
- विभाजनकारी सार्वजनिक संवाद के संदर्भ में:
अनुच्छेद 19:
- भारत के संविधान का अनुच्छेद 19 भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है तथा आमतौर पर राज्य के खिलाफ लागू किया जाता है।
- 1949 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) में सभी नागरिकों को अधिकार होगा
(a) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का।
(b) शांतिपूर्वक और बिना हथियारों के इकट्ठा होना।
(c) संघ या समिति का गठन करना।
(d) पूरे भारत राज्यक्षेत्र में स्वतंत्र रूप से आवागमन करना।
(e) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भी हिस्से में निवास करना और बसना।
(f) निरसित (Ommited)
(g) किसी भी पेशे या व्यवसाय को अपनाना।
- 1949 में भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1) में सभी नागरिकों को अधिकार होगा
- भारतीय संविधान 1949 में अनुच्छेद 19 (2),
- खंड (1) के उपखंड (a) में दी गई स्वतंत्रता किसी भी मौजूदा कानून के संचालन को प्रभावित नहीं करेगी, या राज्य को कोई कानून बनाने से नहीं रोकेगी, जब तक कि ऐसा कानून भारत की संप्रभुता और अखंडता के हितों में उक्त उपखंड द्वारा प्रदत्त अधिकार के प्रयोग पर राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध के लिये उकसाने के संबंध में उचित प्रतिबंध लगाता हो।
आगे की राह
- नफरत और हिंसा भड़काने वाले या दूसरों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाले वाक् से निपटने के लिये कानून में पर्याप्त प्रावधान हैं।
- घृणा वाक् पर कार्रवाई करने के लिये सरकारों की राजनीतिक इच्छाशक्ति और राजनीतिक संकल्प की कमी, विशेष रूप से जब इसमें उनका अपना कोई हित हो, प्रमुख समस्या है तथा इसे दूर करने के लिये कोई कानूनी प्रावधान नहीं हैं।
- सरकार उन्हीं कानूनी प्रावधानों को साधन बना सकती है जो असहमत नागरिकों के खिलाफ घृणास्पद वाक् को रोकने के लिये बनाए गए हैं।
- संसद के सुचारु कामकाज़ के लिये सदस्यों को संसदीय विशेषाधिकार प्रदान किये जाते हैं लेकिन ये अधिकार हमेशा मौलिक अधिकारों के अनुरूप होने चाहिये क्योंकि ये हमारे प्रतिनिधि हैं और हमारे कल्याण के लिये काम करते हैं।
- यदि विशेषाधिकार मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं होंगे, तो नागरिकों के अधिकारों की रक्षा का लोकतंत्र का सार ही खो जाएगा।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न: आप वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं? चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2014) |