डेली न्यूज़ (14 Jan, 2021)



खुदरा मुद्रास्फीति और कारखाना उत्पादन पर आँकड़े

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) द्वारा खुदरा मुद्रास्फीति और कारखाना उत्पादन (Factory Output) पर अलग-अलग आँकड़े जारी किये गए हैं।

प्रमुख बिंदु:

खुदरा मुद्रास्फीति (Retail Inflation):

  • इसे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) द्वारा मापा जाता है। तथा इसमें दिसंबर 2020 में 4.59% तक की कमी दर्ज की गई है।
  • नवंबर माह में खुदरा मुद्रास्फीति 6.93% थी।
  • दिसंबर का CPI आँकड़ा भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा निर्धारित मुद्रास्फीति की ऊपरी  सीमा (6%) में आ गया है।
    • केंद्र सरकार ने मुद्रास्फीति लक्ष्यीकरण ( Inflation Targeting) के अनुसार RBI हेतु खुदरा मुद्रास्फीति को 2% के मार्जिन के साथ 4% की सीमा में रखने के लिये अनिवार्य कर दिया है।
    • CPI मुद्रास्फीति 11 माह से अधिक समय तक RBI के निर्धारित मुद्रास्फीति लक्ष्य 4 +/- 2% से अधिक रही है।
  • RBI द्वारा अपनी द्वि-मासिक मौद्रिक नीति बनाते समय खुदरा मुद्रास्फीति के आँकड़ों को मुख्य कारक के रूप में शामिल किया जाता है। 
    • दिसंबर 2020 में द्विमासिक मौद्रिक नीति बैठक में RBI ने अपनी प्रमुख ब्याज दरों  (रेपो और रिवर्स रेपो दर) को अपरिवर्तित बनाए रखा था और आवश्यक रूप से (कम-से-कम वर्तमान वित्तीय वर्ष में) 'समायोजन रुख' बनाए रखने का फैसला लिया था। 
  • खुदरा मुद्रास्फीति में कमी का कारण:
    • खाद्य कीमतों में गिरावट: दिसंबर माह में फूड बास्केट के मामले में मुद्रास्फीति में 3.41% तक की कमी आई, जो कि नवंबर में 9.50% थी।

कारखाना उत्पादन (Factory Output):

  • भारत में कारखाना उत्पादन, जिसे औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) के संदर्भ में मापा जाता है, में नवंबर 2020 के दौरान -1.9% का संकुचन देखा गया।
  • वित्त वर्ष 2020-21 (अप्रैल-नवंबर) में अब तक की औद्योगिक वृद्धि -15.5% रही है, जबकि वर्ष 2019 की इसी अवधि में इसमें 0.3% की वृद्धि देखी गई थी।

कारखाना उत्पादन में संकुचन का कारण:

  • खनन और विनिर्माण क्षेत्र
    • नवंबर माह में खनन क्षेत्र में -7.3% की गिरावट, जबकि विनिर्माण क्षेत्र में -1.7% की गिरावट देखी गई।
    • हालाँकि विद्युत क्षेत्र में 3.5% की वृद्धि दर्ज की गई है।
    • नवंबर 2019 में विनिर्माण क्षेत्र में 3.0% की वृद्धि देखी गई। इसी अवधि के दौरान खनन क्षेत्र में 1.9% की वृद्धि हुई थी, जबकि विद्युत क्षेत्र में -5.0% की गिरावट देखी गई थी।

उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index-CPI)

  • यह खुदरा खरीदार के दृष्टिकोण से मूल्य में हुए परिवर्तन को मापता है तथा इसे राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा जारी किया जाता है।
  • यह उन चयनित वस्तुओं और सेवाओं के खुदरा मूल्यों के स्तर में समय के साथ बदलाव को मापता है, जिन वस्तुओं और सेवाओं पर एक परिभाषित समूह के उपभोक्ता अपनी आय खर्च करते हैं।
  • CPI के निम्नलिखित चार प्रकार हैं:
    a. औद्योगिक श्रमिकों (Industrial Workers-IW) के लिये CPI 
    b. कृषि मज़दूर (Agricultural Labourer-AL) के लिये CPI
    c. ग्रामीण मज़दूर (Rural Labourer-RL) के लिये CPI
    d. CPI (ग्रामीण/शहरी/संयुक्त)
  • इनमें से प्रथम तीन के आँकड़े श्रम और रोज़गार मंत्रालय में श्रम ब्यूरो (labor Bureau) द्वारा संकलित किये जाते हैं, जबकि चौथे प्रकार की CPI को सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation) के अंतर्गत केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (Central Statistical Organisation-CSO) द्वारा संकलित किया जाता है।
  • CPI का आधार वर्ष 2012 है।

औद्योगिक उत्पादन सूचकांक

(Index of Industrial Production- IIP)

  • यह सूचकांक अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों के विकास का विवरण प्रस्तुत करता है, जैसे कि खनिज खनन, बिजली, विनिर्माण आदि।
  • इसके आँकड़ों को केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO), सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा मासिक रूप से संकलित और प्रकाशित किया जाता है।
  • IIP एक समग्र संकेतक है जो प्रमुख क्षेत्र (Core Sectors) एवं उपयोग आधारित क्षेत्र के आधार पर आँकड़े उपलब्ध कराता है।
  • इसमें शामिल आठ प्रमुख क्षेत्र (Core Sectors) निम्नलिखित हैं:
    • रिफाइनरी उत्पाद (Refinery Products)> विद्युत (Electricity)> इस्पात (Steel)> कोयला (Coal)> कच्चा तेल (Crude Oil)> प्राकृतिक गैस (Natural Gas)> सीमेंट (Cement)> उर्वरक (Fertilizers)।
  • अप्रैल 2017 में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक का आधार वर्ष 2004-05 से संशोधित कर 2011-12 कर दिया गया है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


गाँठदार त्वचा रोग

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के गौवांशों (Bovines) में गाँठदार त्वचा रोग या ‘लंपी स्किन डिजीज़’ (Lumpy Skin Disease- LSD) के संक्रमण के मामले देखने को मिले हैं।  

  • गौरतलब है कि भारत में इस रोग के मामले पहली बार दर्ज किये गए हैं।

प्रमुख बिंदु: 

संक्रमण का कारण: 

  • मवेशियों या जंगली भैंसों में यह रोग ‘गाँठदार त्वचा रोग वायरस’ (LSDV) के  संक्रमण के कारण होता है।  
  • यह वायरस ‘कैप्रिपॉक्स वायरस’ (Capripoxvirus) जीनस के भीतर तीन निकट संबंधी प्रजातियों में से एक है, इसमें अन्य दो प्रजातियाँ शीपपॉक्स वायरस (Sheeppox Virus) और गोटपॉक्स वायरस (Goatpox Virus) हैं। 

लक्षण:  

  • यह पूरे शरीर में विशेष रूप से सिर, गर्दन, अंगों, थन (मादा मवेशी की स्तन ग्रंथि) और जननांगों के आसपास दो से पाँच सेंटीमीटर व्यास की गाँठ के रूप में प्रकट होता है।
    • यह गाँठ बाद में धीरे-धीरे एक बड़े और गहरे घाव का रूप ले लेती है।
  • इसके अन्य लक्षणों में सामान्य अस्वस्थता, आँख और नाक से पानी आना, बुखार तथा दूध के उत्पादन में अचानक कमी आदि शामिल है।

प्रभाव:  

वेक्टर: 

  • यह मच्छरों, मक्खियों और जूँ के साथ पशुओं की लार तथा दूषित  जल एवं भोजन के माध्यम से फैलता है।

रोकथाम:

  • गाँठदार त्वचा रोग का नियंत्रण और रोकथाम चार रणनीतियों पर निर्भर करता है, जो निम्नलिखित हैं - 'आवाजाही पर नियंत्रण (क्वारंटीन), टीकाकरण, संक्रमित पशुओं का वध और प्रबंधन'। 

उपचार:

  • वायरस का कोई इलाज नहीं होने के कारण टीकाकरण ही रोकथाम व नियंत्रण का सबसे प्रभावी साधन है।
    • त्वचा में द्वितीयक संक्रमणों का उपचार गैर-स्टेरॉयडल एंटी-इंफ्लेमेटरी (Non-Steroidal Anti-Inflammatories) और एंटीबायोटिक दवाओं के साथ किया जा सकता है

वैश्विक प्रसार:

  • गाँठदार त्वचा रोग, अफ्रीका और पश्चिम एशिया के कुछ हिस्सों में होने वाला स्थानीय रोग है, जहाँ वर्ष 1929 में पहली बार इस रोग के लक्षण को देखे गए थे।
  • दक्षिण पूर्व एशिया (बांग्लादेश) में इस रोग का पहला मामला जुलाई 2019 में सामने आया था।
  • भारत जिसके पास दुनिया के सबसे अधिक (लगभग 303 मिलियन) मवेशी हैं, में बीमारी सिर्फ 16 महीनों के भीतर 15 राज्यों में फैल गई है।
    • भारत में इसका पहला मामला मई 2019 में ओडिशा के मयूरभंज में दर्ज किया गया था। 

निहितार्थ:

  • इससे देश पर विनाशकारी प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि यहाँ के अधिकांश डेयरी किसान या तो भूमिहीन हैं या सीमांत भूमिधारक हैं तथा उनके लिये दूध सबसे सस्ते प्रोटीन स्रोतों में से एक है।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


विशेष विवाह अधिनियम, 1954

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने विशेष विवाह अधिनियम के तहत विवाह के भावी पक्षों के लिये विवाह से 30 दिन पूर्व नोटिस जारी करना वैकल्पिक बना दिया है।

प्रमुख बिंदु

विशेष विवाह अधिनियम, 1954

  • विशेष विवाह अधिनियम भारत में अंतर-धार्मिक एवं अंतर्जातीय विवाह को पंजीकृत करने एवं मान्यता प्रदान करने हेतु बनाया गया है।
  • यह एक नागरिक अनुबंध के माध्यम से दो व्यक्तियों को अपनी शादी विधिपूर्वक करने की अनुमति देता है।
  • अधिनियम के तहत किसी धार्मिक औपचारिकता के निर्वहन की आवश्यकता नहीं होती है।

विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधान

  • धारा 4: अधिनियम की धारा 4 में कुछ शर्तें निर्धारित की गई हैं:
    • इसके अनुसार, दोनों पक्षों में से किसी का भी जीवनसाथी नहीं होना चाहिये। 
    • दोनों पक्षों को अपनी सहमति देने में सक्षम होना चाहिये, अर्थात् वे वयस्क हों एवं अपने फैसले लेने में सक्षम हों। 
    • दोनों पक्ष के बीच कानून के तहत निर्धारित निषिद्ध संबंध नहीं होना चाहिये। 
    • इसके साथ ही पुरुष की आयु कम-से-कम 21 वर्ष और महिला की आयु कम-से-कम 18 वर्ष होनी चाहिये।
  • धारा 5 और 6
    • इन धाराओं के तहत विवाह करने के इच्छुक पक्षों के लिये यह अनिवार्य है कि वे अथवा उनमें से कोई एक पक्ष जो कि पिछले तीस दिनों से जिस क्षेत्र में निवास कर रहा है, वहाँ के संबंधित विवाह अधिकारी को अपने विवाह संबंधी नोटिस दे। इसके पश्चात् विवाह अधिकारी अपने कार्यालय में विवाह की सूचना प्रकाशित करता है।
    • यदि किसी को भी इस विवाह से कोई आपत्ति है, तो वह अगले 30 दिनों की अवधि में इसके विरुद्ध सूचना दर्ज करा सकता है। यदि आपत्ति सही पाई जाती है तो विवाह अधिकारी विवाह हेतु अनुमति प्रदान करने से मना कर सकता है।

उच्च न्यायालय का निर्णय

  • टिप्पणी 
    • न्यायालय ने कहा कि विवाह संबंधित नोटिस के अनिवार्य प्रकाशन से संबंधित प्रावधान दोनों पक्षों की स्वतंत्रता और गोपनीयता संबंधी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, विवाह में शामिल दोनों पक्षों को राज्य एवं गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के हस्तक्षेप के बिना विवाह के लिये अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार है।
    • न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया कि विवाह के लिये धर्मनिरपेक्ष कानून के बावजूद देश में अधिकांश विवाह धार्मिक रीति-रिवाज़ों के अनुसार होते हैं। न्यायालय ने कहा कि जब धर्म संबंधी व्यक्तिगत कानूनों के तहत विवाह से संबंधित नोटिस जारी करने अथवा आपत्ति दर्ज करने की आवश्यकता नहीं होती है, तो ऐसी आवश्यकता देश के धर्मनिरपेक्ष कानून में भी मान्य नहीं होनी चाहिये।
  • वैवाहिक नोटिस प्रकाशित करना वैकल्पिक: न्यायालय ने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 5 और 6 के तहत प्रकाशन हेतु विवाह के दोनों पक्षों के लिये विवाह अधिकारी को विवाह से संबंधित नोटिस देना वैकल्पिक बना दिया है।
  • विवाह अधिकारी के लिये निर्देश: यदि दोनों पक्ष लिखित रूप में नोटिस के प्रकाशन हेतु  अनुरोध नहीं करते हैं, तो विवाह अधिकारी इस तरह के नोटिस को प्रकाशित नहीं करेगा अथवा विवाह को लेकर आपत्तियाँ दर्ज नहीं करेगा। हालाँकि यदि अधिकारी को कोई संदेह है, तो वह तथ्यों के अनुसार उपयुक्त विवरण/प्रमाण की मांग कर सकता है।

निर्णय का आधार

  • आधार के मामले (वर्ष 2017) में सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार माना था।
  • हादिया विवाह मामले (वर्ष 2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने साथी चुनने के अधिकार को एक मौलिक अधिकार माना था।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ वाद (वर्ष 2018) में सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को IPC की धारा 377 से अलग करते हुए समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। 

निर्णय का महत्त्व

  • इस निर्णय से विवाह के लिये धर्म परिवर्तन के मामलों में कमी आएगी, क्योंकि विशेष विवाह अधिनियम 1954 के तहत होने वाली देरी कई जोड़ों को धर्म परिवर्तन कर विवाह करने को मजबूर कर देती है।
  • यह अंतर-धार्मिक एवं अंतर्जातीय विवाह में आने वाली बाधाओं को समाप्त करेगा, जिससे सही मायनों में धर्मनिरपेक्षता और समतावाद के आदर्शों को बढ़ावा मिलेगा।
  • यह अंतर-धार्मिक एवं अंतर्जातीय जोड़ों को अशांत तत्वों का निशाना बनने से बचाएगा।

संबंधित मुद्दे

  • अनिवार्य रूप से सार्वजनिक नोटिस जारी करने के प्रावधान को समाप्त करने से धोखाधड़ी के मामलों में बढ़ोतरी हो सकती है।
  • यह बलपूर्वक धर्म परिवर्तन जैसी असामाजिक गतिविधियों को और सुविधाजनक बना सकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


एंटीबॉडीज़

चर्चा में क्यों?

हाल ही में बॉन विश्वविद्यालय (जर्मनी) के नेतृत्व में एक अंतर्राष्ट्रीय शोध दल ने SARS-CoV-2 (जोकि कोरोना वायरस का एक कारण है) वायरस के विरुद्ध नोवेल एंटीबॉडी फ्रेगमेंट (नैनोबॉडी) की पहचान की है।

प्रमुख बिंदु:

SARS-CoV-2 के विरुद्ध नैनोबॉडी:

  • एंटीबॉडीज़ के साथ उत्पादन: एक अल्पाका (Alpaca) और एक लामा (llama) में कोरोना वायरस के सतही प्रोटीन के इंजेक्शन (Injection) से उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा न सिर्फ वायरस पर लक्षित एक एंटीबॉडी का उत्पादन किया गया बल्कि यह एक सरल एंटीबॉडी संस्करण भी है जो नैनोबॉडी के आधार के रूप में कार्य कर सकती है।
  • अधिक प्रभावी: 
    • उन्होंने नैनोबॉडीज़ को संभावित रूप से प्रभावी अणुओं में भी संयोजित किया था, जो वायरस के विभिन्न हिस्सों पर एक साथ हमला करते हैं। यह प्रक्रिया रोगाणुओं को उत्परिवर्तन के माध्यम से एंटीबॉडी का प्रभाव उत्पन्न करने से रोक सकने में मददगार होगी
    • नैनोबॉडीज़, वायरस द्वारा अपनी लक्षित कोशिका का सामना करने से पहले एक संरचनात्मक परिवर्तन का रूप लेती है जो किसी कार्य का अप्रत्याशित और नोवेल प्रकार है। संरचनात्मक परिवर्तन के स्थिर रहने की संभावना होती है; इसलिये इस अवस्था में वायरस कोशिकाओं को पोषित कर उन्हें संक्रमित करने में सक्षम नहीं रहता है।

एंटीबॉडी

  • एंटीबॉडी संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली एक महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • ये बैक्टीरिया या वायरस की सतह पर संरचनाओं से बँध जाते हैं और उनकी प्रतिकृति बनने से रोकते हैं।
  • यही कारण है कि किसी भी बीमारी के विरुद्ध लड़ाई में महत्त्वपूर्ण कदम बड़ी मात्रा में प्रभावी एंटीबॉडी का उत्पादन और उन्हें रोगियों में इंजेक्ट करना होता है। हालाँकि एंटीबॉडी का उत्पादन करना प्रायः मुश्किल और अपेक्षाकृत लंबी अवधि की प्रकिया है; इसलिये इसे व्यापक उपयोग के लिये उपयुक्त नहीं माना जाता है।

नैनोबॉडीज़

  • नैनोबॉडीज़, एंटीबॉडी के वे टुकड़े होते हैं, जो इतने सरल होते हैं कि उन्हें बैक्टीरिया या खमीर (Yeast) द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है, यह कार्य अपेक्षाकृत कम खर्चीला होता है।
  • नैनोबॉडीज़ एक प्रकार के एकल डोमेन एंटीबॉडीज़ होते हैं, जिन्हें VHH एंटीबाडीज़ के नाम से भी जाता है।
  • इन्हें प्रायः पारंपरिक एंटीबॉडी के विकल्प के रूप में देखा जाता है और ये उत्पादन तथा उपयोग दोनों मामलों में एंटीबॉडी से अलग होते हैं, जो कि उनकी उपयुक्तता को प्रभावित करता है।

नैनोबॉडीज़ और पारंपरिक एंटीबाडी के बीच अंतर:

  • संरचना और डोमेन में अंतर
    • पारंपरिक एंटीबॉडी में VH और VL नाम से दो वेरिएबल डोमेन होते हैं, जो एक- दूसरे को स्थिरता प्रदान करते हैं।
    • नैनोबॉडीज़ में केवल VHH डोमेन होता है और इसमें VL डोमेन की कमी होती है, हालाँकि इसके वाबजूद ये अत्यधिक स्थिर रहते हैं। VL डोमेन को कम करने से नैनोबॉडी में एक हाइड्रोफिलिक (पानी में घुलने की प्रवृत्ति) पक्ष शामिल हो जाता है।
      • हाइड्रोफिलिक पक्ष होने का अर्थ है कि नैनोबॉडीज़ में विलेयता और एकत्रीकरण को लेकर कोई चुनौती नहीं उत्पन्न होती है, जो कि पारंपरिक एंटीबॉडी के साथ प्रायः देखा जाता है।
    • नैनोबॉडीज़ के उत्पादन में लगभग उसी प्रोटोटाइप का उपयोग किया जाता है, जो कि एंटीबाडी के उत्पादन में उपयोग होता है। हालाँकि इसमें पारंपरिक एंटीबॉडी की तुलना में कई फायदे जैसे- बेहतर स्क्रीनिंग, बेहतर आइसोलेशन तकनीक आदि भी मौजूद होते हैं, साथ ही इसके उत्पादन की वजह से जानवरों को कोई क्षति नहीं होती है।

Nanobody

  • प्रयोग:
    • नैनोबॉडीज़ पारंपरिक एंटीबॉडी की तुलना में बहुत छोटे होते हैं और इसलिये इनके ऊतक को बेहतर तरीके से समझकर बड़ी मात्रा में इनका उत्पादन अधिक आसानी से किया जा सकता है।
    • नैनोबॉडीज़ तापमान की एक विस्तृत शृंखला में स्थिर होते हैं और 80 डिग्री सेल्सियस तापमान पर भी इनकी कार्यात्मक दक्षता बनी रहती है।
      • नैनोबॉडीज़, गैस्ट्रिक द्रव (Gastric Fluid) के संपर्क में जीवित रहने में सक्षम होने के साथ ही चरम pH स्तर पर भी स्थिर रहते हैं।
    • नैनोबॉडीज़ आनुवंशिक इंजीनियरिंग विधियों के साथ भी अनुकूल होती है, जो बंधन क्षमता में सुधार करने हेतु अमीनो एसिड में परिवर्तन की अनुमति देते हैं।

नैनोबॉडी की सीमाएँ:

  • नैनोबॉडीज़ की तुलना में मोनोक्लोनल और पॉलीक्लोनल एंटीबॉडीज़ का उत्पादन करना थोड़ा सुरक्षित है, क्योंकि नैनोबॉडीज़ के उत्पादन में जैवसंकट/जैव खतरा (Biohazard) होता है जबकि पारंपरिक एंटीबॉडी के उत्पादन में ऐसा कोई खतरा नहीं होता है।
    • जैवखतरा मुख्य रूप से खतरनाक जीवाणुभोजी (वायरस का कोई भी समूह जो बैक्टीरिया को संक्रमित करता है) के उपयोग से उत्पन्न होता है। इसके अन्य स्रोतों में प्लास्मिड, एंटीबायोटिक्स और पुनः संयोजक डीएनए शामिल हैं। इन सामग्रियों के सुरक्षित निराकरण की आवश्यकता होती है।
      • पॉलीक्लोनल (Polyclonal) एंटीबॉडीज़, कई अलग-अलग प्रतिरक्षा कोशिकाओं का उपयोग करके बनाए जाते हैं।
      • मोनोक्लोनल (Monoclonal) एंटीबॉडीज़, समान प्रतिरक्षा कोशिकाओं का उपयोग करके बनाए जाते हैं इसके सभी क्लोन एक विशिष्ट मूल कोशिका के होते हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


टू डायमेंशनल इलेक्ट्रॉन गैस

चर्चा मे क्यों?

हाल ही में पंजाब के मोहाली स्थित नैनो विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान (Institute of Nano Science and Technology- INST) के वैज्ञानिकों ने अल्ट्रा-हाई मोबिलिटी वाले टू डायमेंशनल (2D) -इलेक्ट्रॉन गैस [Two dimensional (2D) Electron Gas- 2DEG] का उत्पादन किया है

प्रमुख बिंदु:

टू डायमेंशनल इलेक्ट्रॉन गैस (2DEG):

  • यह एक इलेक्ट्रॉन गैस है जो दो आयामों में स्थानांतरण करने के लिये स्वतंत्र है, परंतु तीसरे आयाम/डायमेंशंन में इसकी गति सीमित/परिरोध है। यह परिरोध तीसरी दिशा में गति के लिये ऊर्जा के स्तर को निर्धारित करता है। इस प्रकार इलेक्ट्रॉन 3D क्षेत्र में एम्बेडेड 2 डी शीट के समान प्रतीत होते हैं।
  • अर्द्धचालकों में सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों में से एक है संरचनाओं की उपलब्धि जिसमें इलेक्ट्रॉनिक गतिविधि अनिवार्य रूप से टू डायमेंशनल है
  • अधिकांश 2DEG अर्द्धचालकों की संरचना ट्रांजिस्टर जैसी पाई जाती है।
  • 2DEG अतिचालक चुंबकत्व के भौतिकी और उनके सह-अस्तित्व के अन्वेषण के लिये एक मूल्यवान प्रणाली है।
    • अतिचालकता एक ऐसी घटना है जिसमें किसी प्रतिरोध के बिना पदार्थ के माध्यम से आवेश स्थांतरित होता है। सैद्धांतिक रूप में यह ऊष्मा की क्षति किये बिना दो बिंदुओं के मध्य विद्युत ऊर्जा को पूर्ण दक्षता के साथ स्थानांतरित होने में सक्षम बनता है।

2DEG

2DEG के विकास का कारण:

  • आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में नई कार्य क्षमता प्राप्त करने की आवश्यकता के कारण एक इलेक्ट्रॉन के गुण में उसके आवेश के साथ फेर-बदल किया गया जिसे स्पिन डिग्री ऑफ फ्रीडम (Spin Degree of Freedom) कहा जाता है।  इससे स्पिन-इलेक्ट्रॉनिक्स या स्पिनट्रॉनिक्स (Spintronics) का एक नया क्षेत्र उभरकर सामने  आया है।
  • इलेक्ट्रॉन स्पिन का फेर-बदल बुनियादी और अनुप्रयुक्त अनुसंधान के लिये नए आयाम प्रदान करता है और इलेक्ट्रॉनिक्स प्रौद्योगिकी के लिये नई क्षमताओं का विकास करता है। यह एक उच्च गतिशीलता 2DEG में स्पिन ध्रुवीकृत इलेक्ट्रॉनों के अध्ययन को प्रेरित करता है
    • स्पिनट्रॉनिक्स, ठोस अवस्था वाले उपकरणों में, इसके मूलभूत विद्युत आवेश के अलावा, इलेक्ट्रॉन के आंतरिक स्पिन और उससे जुड़े चुंबकीय क्षण का अध्ययन है।

Spintronics

  • यह महसूस किया गया कि ‘रश्बा प्रभाव’ (Rashba Effect) नाम की एक घटना, जिसमें इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली में स्पिन-बैंड का विखंडन होता है, स्पिनट्रॉनिक उपकरणों में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
    • रश्बा प्रभाव: जिसे बाईचकोव-रश्बा प्रभाव भी कहा जाता है, यह विस्तृत क्रिस्टल और कम आयामी संघनित पदार्थ प्रणालियों में स्पिन बैंड की एक गति-आधारित विपाटन (Splitting) है।

प्रक्रिया तथा महत्त्व:

  • इलेक्ट्रॉन गैस की उच्च गतिशीलता के कारण, इलेक्ट्रॉन लंबी दूरी के लिये माध्यम के अंदर टकराते नहीं है और इस प्रकार मेमोरी और सूचना को भी नष्ट नहीं होने देते। 
    • इसलिये इस तरह की प्रणाली अपनी मेमोरी को लंबे समय और दूरी तक आसानी बनाए रख सकती है और उनका हस्तांतरण कर सकती है।
  • चूँकि वे अपने प्रवाह के दौरान कम टकराते हैं, इसलिए उनका प्रतिरोध बहुत कम होता है इसलिये वे ऊर्जा को ऊष्मा के रूप में नष्ट नहीं करते। 
    • अतः ऐसे उपकरण आसानी से गर्म नहीं होते हैं और इनको संचालित करने के लिये कम इनपुट ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

स्रोत: PIB


वायु सेना के लिये तेजस का अधिग्रहण

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति (CCS) ने भारतीय वायु सेना के लिये 48,000 करोड़ रुपए की लागत के 83 तेजस 'हल्के लड़ाकू विमानों' (Light Combat Aircraft- LCA) के अधिग्रहण की मंज़ूरी दे दी है।

  • इन 83 तेजस विमानों में से 73 एलसीए तेजस MK-1A लड़ाकू विमान और 10 LCA तेजस MK-1 ट्रेनर विमान शामिल हैं। तेजस का MK-1A संस्करण इसके MK-1 संस्करण का एक उन्नत रूप है, जिसमें एक इलेक्ट्रॉनिक युद्धक प्रणाली, ‘एडवांस्ड इलेक्ट्राॅनिकली स्कैंड ऐरे’ (Advanced Electronically Scanned Array- AESA) रडार, दृश्य क्षमता से परे (Beyond Visual Range- BVR) मिसाइल और ‘सॉफ्टवेयर डिफाइंड रेडियो’ (SDR) युक्त नेटवर्क युद्ध प्रणाली शामिल है।

सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति (CCS): 

  • CCS की अध्यक्षता भारत का प्रधानमंत्री करता है।
  • महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों, भारत के रक्षा व्यय के संबंध में प्रमुख फैसले सुरक्षा मामलों पर मंत्रिमंडलीय समिति (CCS) द्वारा लिये जाते हैं।

प्रमुख बिंदु: 

तेजस: 

  • लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA) कार्यक्रम को भारत सरकार द्वारा वर्ष1984 में शुरू किया गया था, जिसके बाद सरकार द्वारा LCA कार्यक्रम का प्रबंधन करने हेतु वैमानिकी विकास एजेंसी (Aeronautical Development Agency-ADA) की स्थापना की गई।
  • यह पुराने मिग 21 लड़ाकू विमानों का स्थान लेगा। 
  • डिज़ाइन:  
    • LCA का डिज़ाइन 'रक्षा अनुसंधान और विकास विभाग' के तहत संचालित 'वैमानिकी विकास एजेंसी' द्वारा तैयार किया गया है।
  • विनिर्माण:
  • विशेषताएँ
    • यह अपने वर्ग में सबसे हल्का, सबसे छोटा और टेललेस (Tailless) मल्टी-रोल सुपरसोनिक लड़ाकू विमान है।
    • यह हवा-से-हवा, हवा से सतह, सटीक-निर्देशित, हथियारों की एक रेंज को ले जाने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
    • यह यात्रा के दौरान आकाश में ईंधन भरने में सक्षम है।
    • इसकी अधिकतम पेलोड क्षमता 4000 किलो. है।
    • यह अधिकतम 1.8 मैक की गति प्राप्त कर सकता है।
    • इस विमान की रेंज 3,000 किमी. है।
  • तेजस के प्रकार:
    • तेजस ट्रेनर: यह वायु सेना के पायलटों के प्रशिक्षण के लिये 2-सीटर परिचालन ट्रेनर विमान है।
    • LCA नेवी: भारतीय नौसेना के लिये दो और एकल-सीट वाहक को ले जाने में सक्षम विमान ।
    • LCA तेजस नेवी MK2: यह LCA नेवी वैरिएंट का दूसरा संस्करण है।
    • LCA तेजस Mk-1A: यह LCA तेजस Mk1 का एक हाई थ्रस्ट इंजन के साथ अद्यतन रूप है।

स्रोत: द हिंदू