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डेली न्यूज़

  • 12 May, 2022
  • 51 min read
शासन व्यवस्था

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी नियम मामलों में उच्च न्यायालय की कार्यवाही पर रोक

प्रिलिम्स के लिये:

ओवर-द-टॉप (OTT) प्लेटफॉर्म, सोशल मीडिया मध्यस्थ।

मेन्स के लिये:

सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021, केबल टेलीविज़न नेटवर्क (संशोधन) नियम, 2021 

चर्चा में क्यों? 

सर्वोच्च न्यायालय ने सोशल मीडिया और ओवर-द-टॉप (OTT) प्लेटफॉर्म के लिये नियामक ढाँचे की प्रभावकारिता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विभिन्न उच्च न्यायालयों में कार्यवाही पर रोक लगा दी है।

  • ये नियामक ढाँचे सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 और केबल टेलीविज़न नेटवर्क (संशोधन) नियम 2021 द्वारा स्थापित किये गए हैं।
  • यह मामला केंद्र सरकार द्वारा विभिन्न उच्च न्यायालयों में सूचना प्रौद्योगिकी नियमों को चुनौती देने वाले मामलों को एक आधिकारिक फैसले द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने के अनुरोध के बाद सामने आया है।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों के समक्ष याचिकाओं में यह दावा किया गया है कि ये नियम भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को "कम और प्रतिबंधित" करते हैं।

केबल टेलीविज़न नेटवर्क (संशोधन) नियम, 2021:

  • परिचय: 
    • इसे केबल टेलीविज़न नेटवर्क अधिनियम, 1995 के प्रावधानों के अनुसार सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा अधिसूचित किया गया था। 
      • केबल टेलीविज़न नेटवर्क अधिनियम, 1995 का उद्देश्य केबल नेटवर्क की सामग्री और संचालन को विनियमित करना है। यह अधिनियम 'केबल टेलीविज़न नेटवर्क के बेतरतीब ढंग से बढ़ने' की प्रवृत्ति को नियंत्रित करता है।
  • प्रावधान: 
    • यह त्रिस्तरीय शिकायत निवारण तंत्र का प्रावधान करता है- प्रसारकों द्वारा स्व-विनियमन, प्रसारकों के निकायों द्वारा स्व-विनियमन और केंद्र सरकार के स्तर पर एक अंतर-विभागीय समिति द्वारा निरीक्षण।
  • महत्त्व: 
    • यह अधिसूचना महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रसारकों और उनके स्व-नियामक निकायों पर जवाबदेही और ज़िम्मेदारी डालते हुए शिकायतों के निवारण हेतु एक मज़बूत संस्थागत प्रणाली का मार्ग प्रशस्त करती है।
    • यह प्रसारकों और उनके स्व-नियामक निकायों के लिये जिम्मेदारी और जवाबदेही का प्रावधान करती है।
    • यह टेलीविज़न के स्व-नियामक तंत्र द्वारा OTT कंपनियों और डिजिटल समाचार प्रकाशकों पर भी लागू किया जाएगा, जैसा कि सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम, 2021 में परिकल्पित है।

सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021:

  • परिचय: 
    • ये व्यापक रूप से सोशल मीडिया और ओवर-द-टॉप (Over-The-Top-OTT) प्लेटफाॅर्मों  से संबंधित हैं।
    • इन नियमों को सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000 की धारा 87 (2) के तहत तैयार किया गया है तथा पूर्ववर्ती सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती संस्‍थानों के लिये दिशा-निर्देश) नियम, 2011 के स्थान पर लाया गया है।
  • प्रावधान: 
    • महत्त्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थ (SSMIs):
      • भारत में एक अधिसूचित सीमा से अधिक पंजीकृत उपयोगकर्त्ताओं वाले सोशल मीडिया मध्यस्थों को SSMIs के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
      • इन मध्यस्थों/इंटरमीडियरीज़ को अतिरिक्त सम्यक तत्परता दिखानी होगी, जैसे- मुख्य अनुपालन अधिकारियों (चीफ कंप्लायंस ऑफिसर) की नियुक्ति, कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अपने प्लेटफॉर्म पर सूचना के पहले ओरिजिनेटर (अर्थात् जिसने सबसे पहले सूचना दी) को चिह्नित करना तथा कुछ विशेष कॉन्टेंट की पहचान करने के लिये प्रौद्योगिकी-आधारित उपायों को लागू करना।
    • ऑनलाइन पब्लिशर्स का विनियमन:  
      • ये नियम ऑनलाइन पब्लिशर्स (प्रकाशक) द्वारा समाचार और समसामयिक मामलों से संबंधित सामग्री एवं क्यूरेटेड ऑडियो-विजुअल सामग्री के नियमन हेतु एक रूपरेखा निर्धारित करते हैं।
    • बड़ी सोशल-मीडिया कंपनियों की जवाबदेही तय करना:
      • बड़ी सोशल-मीडिया कंपनियों को अपने प्लेटफॉर्म पर उपयोगकर्त्ता द्वारा पोस्ट किये गए कॉन्टेंट के लिये कानूनी सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी। अतः वे भारतीय नागरिक एवं आपराधिक कानूनों के प्रति जवाबदेह होंगी।
    • शिकायत निवारण तंत्र: 
      • सभी मध्यस्थों के लिये यह अनिवार्य है कि वे उपयोगकर्त्ताओं या पीड़ितों की शिकायतों के समाधान हेतु एक शिकायत निवारण तंत्र उपलब्ध कराएँ।
      • प्रकाशकों हेतु स्व-नियमन के विभिन्न स्तरों के साथ एक त्रि-स्तरीय शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने का प्रावधान किया गया है।
  • महत्त्व: 
    • सूचना प्रौद्योगिकी नियम, 2021 का उद्देश्य मीडिया प्लेटफॉर्म और OTT प्लेटफॉर्म के सामान्य उपयोगकर्त्ताओं की शिकायतों के निवारण तथा समयबद्ध समाधान के लिये एक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करना तथा शिकायत निवारण अधिकारी (Grievance Redressal Officer- GRO) जो कि भारत का निवासी होना चाहिये, की मदद से उस तंत्र को सशक्त बनाना है।
    • इन नियमों के तहत महिलाओं और बच्चों को यौन अपराधों, फेक न्यूज़ तथा सोशल मीडिया के अन्य दुरुपयोग से बचाने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।
  • महत्त्वपूर्ण मुद्दे: 
    • ये नियम कुछ मामलों में अधिनियम के तहत प्रत्यायोजित शक्तियों से स्वतंत्र हो सकते हैं, जैसे  वे महत्त्वपूर्ण सोशल मीडिया मध्यस्थों और ऑनलाइन प्रकाशकों का विनियमन करते  हैं तथा  जानकारी के पहले प्रवर्तक की पहचान करने के लिये कुछ मध्यस्थों की आवश्यकता होती है।
    • ऑनलाइन सामग्री को प्रतिबंधित करने के आधार अत्यंत व्यापक हैं और ये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकते हैं।
    •  मध्यस्थों द्वारा अधिकृत सूचना प्राप्त करने के लिये कानून प्रवर्तन एजेंसियों से अनुरोध करने के कोई प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय नहीं हैं।
    • इन प्लेटफ़ॉर्म पर सूचना के प्रथम प्रवर्तक की पहचान के लिये संदेश सेवाओं की आवश्यकता व्यक्तियों की गोपनीयता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स


भारतीय राजव्यवस्था

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति, अनुच्छेद 72, राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 161, राज्यपाल।

मेन्स के लिये:

राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में केंद्र द्वारा दावा किया गया कि राष्ट्रपति के पास यह तय करने के लिये "अनन्य शक्तियाँ" हैं कि राजीव गांधी हत्याकांड के दोषियों को क्षमा करना है या नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को निर्णय के लिये सुरक्षित रखने से पूर्व सरकार के इस कदम की आलोचना की है।

क्षमादान की शक्ति: 

  • राष्ट्रपति: 
    • परिचय: 
      • संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति के पास अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति की सज़ा को माफ करने, राहत देने, छूट देने या निलंबित करने, हटाने या कम करने की शक्ति होगी, जहाँ दंड मौत की सज़ा के रूप में है।
    • सीमाएँ: 
      • राष्ट्रपति सरकार से स्वतंत्र होकर अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता।
      • कई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाया है कि राष्ट्रपति को दया याचिका पर फैसला करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है। 
        • इन मामलों में वर्ष 1980 का मारू राम बनाम भारत संघ और वर्ष 1994 का धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं।
    • प्रक्रिया: 
      • राष्ट्रपति, कैबिनेट की सलाह के लिये दया याचिका को गृह मंत्रालय को अग्रेषित करता है।
      • मंत्रालय इसे संबंधित राज्य सरकार को अग्रेषित करता है; उसके जवाब के आधार पर यह मंत्रिपरिषद की ओर से अपनी सलाह तैयार करता है।
    • पुनर्विचार: 
      • हालाँकि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल से सलाह लेने के लिये बाध्य है, अनुच्छेद 74 (1) उसे एक बार पुनर्विचार के लिये इसे वापस करने का अधिकार देता है। यदि मंत्रिपरिषद किसी परिवर्तन के विरुद्ध निर्णय लेती है, तो राष्ट्रपति के पास उसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
  • राज्यपाल: 
    • अनुच्छेद 161 के तहत भारत में राज्यपाल को भी क्षमादान की शक्ति प्राप्त है।

राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्तियों के बीच अंतर:

  • अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का दायरा अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की क्षमादान शक्ति से अधिक व्यापक है जो निम्नलिखित दो तरीकों से भिन्न है:
    • कोर्ट मार्शल: राष्ट्रपति कोर्ट मार्शल के तहत सज़ा प्राप्त व्यक्ति की सज़ा  माफ़ कर सकता है परंतु अनुच्छेद 161 राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है।
    • मृत्युदंड: राष्ट्रपति उन सभी मामलों में क्षमादान दे सकता है जिनमें मृत्युदंड की सज़ा दी गई है लेकिन राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति मृत्युदंड के मामलों तक विस्तारित नहीं है।

प्रमुख शब्दावली:

  • क्षमा (Pardon): इसमें दंड और बंदीकरण दोनों को हटा दिया जाता है तथा दोषी की सज़ा  को दंड, दंडादेशों एवं निर्हर्ताओं से पूर्णतः मुक्त कर दिया जाता है। 
  • लघुकरण (Commutation): इसमें दंड के स्वरुप में परिवर्तन करना शामिल है, उदाहरण के लिये मृत्युदंड को आजीवन कारावास और कठोर कारावास को साधारण कारावास में बदलना।
  • परिहार (Remission): इसमें दंड कीअवधि को कम करना शामिल है, उदाहरण के लिये दो वर्ष के कारावास को एक वर्ष के कारावास में परिवर्तित करना।
  • विराम (Respite): इसके अंतर्गत किसी दोषी को प्राप्त मूल सज़ा के प्रावधान को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में बदलना शामिल है। उदाहरण के लिये महिला की गर्भावस्था की अवधि के कारण सज़ा को परिवर्तित करना।
  • प्रविलंबन (Reprieve): इसका अर्थ है अस्थायी समय के लिये किसी सज़ा (विशेषकर मृत्युदंड) के निष्पादन पर रोक लगाना। इसका उद्देश्य दोषी को राष्ट्रपति से क्षमा या लघुकरण प्राप्त करने के लिये समय देना है।

स्रोत: द हिंदू


जैव विविधता और पर्यावरण

ग्लोबल एनुअल टू डेकाडल क्लाइमेट अप्डेट रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

वार्षिक दशकीय जलवायु आउटलुक रिपोर्ट, रिपोर्ट के निष्कर्ष, विश्व मौसम विभाग, पेरिस समझौता।

मेन्स के लिये:

पर्यावरण प्रदूषण और गिरावट, संरक्षण।

चर्चा में क्यों? 

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organisation- WMO) द्वारा जारी ‘ग्लोबल  एनुअल टू डेकाडल क्लाइमेट अप्डेट रिपोर्ट’ (Global Annual To Decadal Climate Update Report) के अनुसार, भारत विश्व स्तर पर उन कुछ क्षेत्रों में शामिल हो सकता है जहांँ वर्ष 2022 और अगले चार वर्षों के लिये तापमान सामान्य से कम रहने की भविष्यवाणी की गई है।

  • वर्ष 2022 अलास्का और कनाडा के साथ-साथ भारत में (1991-2020 के औसत की तुलना में) ठंडा रहेगा।
  • वार्षिक अद्यतन हेतु अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित जलवायु वैज्ञानिकों की विशेषज्ञता और निर्णय लेने वालों के लिये कार्रवाई योग्य जानकारी को एकत्र करने के लिये विश्व के प्रमुख जलवायु केंद्रों से सर्वोत्तम भविष्यवाणी प्रणाली का उपयोग किया जाता है।

विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO):

  • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) 192 देशों की सदस्यता वाला एक अंतर-सरकारी संगठन है।
  • भारत विश्व मौसम विज्ञान संगठन का सदस्य देश है।
  • इसकी उत्पत्ति अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान संगठन (IMO) से हुई है, जिसे वर्ष 1873 के वियना अंतर्राष्ट्रीय मौसम विज्ञान कॉन्ग्रेस के बाद स्थापित किया गया था।
  • 23 मार्च, 1950 को WMO कन्वेंशन के अनुसमर्थन द्वारा स्थापित WMO, मौसम विज्ञान (मौसम और जलवायु), परिचालन जल विज्ञान तथा इससे संबंधित भू-भौतिकीय विज्ञान हेतु संयुक्त राष्ट्र की विशेष एजेंसी बन गई है।
  • WMO का मुख्यालय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में है।

प्रमुख निष्कर्ष:  

  • 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान: अगले पाँच वर्षों में से कम-से-कम एक वर्ष के लिये वार्षिक औसत वैश्विक तापमान अस्थायी रूप से पूर्व-औद्योगिक स्तर के 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर पहुँचने की 50 प्रतिशत संभावना है।
  • सर्वाधिक गर्म वर्ष: वर्ष 2022-2026 के बीच कम-से-कम एक वर्ष सबसे गर्म होने का रिकॉर्ड बनाएगा और वर्ष 2016 को सबसे गर्म वर्ष की शीर्ष रैंकिंग से हटा देगा।
    • वर्ष 2022-2026 का औसत पिछले पाँच वर्ष के औसत (2017-2021) की तुलना में 93% अधिक होने की भी संभावना है।
  • ला नीना और अल नीनो घटनाएँ: वर्ष 2021 की शुरुआत और अंत में ला नीना की घटनाएँ वैश्विक तापमान को कम करेंगी, लेकिन यह केवल अस्थायी है तथा दीर्घकालिक ग्लोबल वार्मिंग प्रवृत्ति के विपरीत नहीं है।
    • अल नीनो घटना में वृद्धि तापमान को तत्काल बढ़ा देगी, जैसा कि वर्ष 2016 में हुआ था, जो अब तक का रिकॉर्ड सर्वाधिक गर्म वर्ष है।
  • वर्षा पैटर्न: 1991-2020 के औसत की तुलना में नवंबर से मार्च 2022/23-2026/27 के औसत के लिये अनुमानित वर्षा पैटर्न, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वर्षा में वृद्धि और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कम वर्षा का संकेत देते हैं, जो जलवायु वार्मिंग के अपेक्षित पैटर्न के अनुरूप है। 

भारत विशिष्ट निष्कर्ष:

  • अगले वर्ष से भारत में तापमान कम होने का एक प्राथमिक कारण इस दशक में वर्षा गतिविधि में संभावित वृद्धि है।
  • भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, भारतीय मानसून वर्ष 1971 के बाद से नकारात्मक अवधि में रहने के बाद जल्द ही एक सकारात्मक अवधि में प्रवेश करेगा।
    • भारत के कई हिस्सों में सामान्य से अधिक वर्षा होगी जिससे तापमान भी कम रहेगा।
  • भविष्य की प्रवृत्ति बताती है कि 2021 से 2030 तक दशकीय औसत मानसून  सामान्य के करीब होगा।
    • यह तब सकारात्मक होगा,जब 2031-2040 के दशक में एक आर्द्र अवधि की शुरुआत होगी।

 संबंधित चिंताएँ:

  • अध्ययन के अनुसार, दुनिया अस्थायी रूप से जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के शुरूआती  लक्ष्य के करीब पहुँच रही है।
    • 1.5 डिग्री सेल्सियस शायद उस बिंदु का संकेतक है जिस पर जलवायु प्रभाव मानव और वास्तव में पूरे ग्रह के लिये हानिकारक हो जाएगा।
  • पेरिस समझौता इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने एवं वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिये सभी देशों को मार्गदर्शन प्रदान कर दीर्घकालिक लक्ष्य निर्धारित करता है और इसके साथ ही आगे चलकर तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस रखने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है।
  • जब तक लोग ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रखेंगे, तापमान में वृद्धि जारी रहेगी एवं इसके साथ-साथ, महासागर गर्म और अधिक अम्लीय होते जाएंगे, समुद्री बर्फ एवं ग्लेशियर पिघलते रहेंगे, तथा समुद्र का स्तर बढ़ता जाएगा, परिणामस्वरूप मौसम अधिक चरम होता जाएगा।
    • आर्कटिक वार्मिंग अनियंत्रित रूप से बढ़ रही है और आर्कटिक की स्थिति सभी को प्रभावित करती है। 

विगत वर्ष के प्रश्न:

प्रश्न. वर्ष 2015 में पेरिस में UNFCCC की बैठक में हुए समझौते के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन सा/से सही है/हैं? (2016) 

  1. इस समझौते पर UN के सभी सदस्य देशों ने हस्ताक्षर किये थे और यह वर्ष 2017 में लागू हुआ।  
  2. समझौते का लक्ष्य ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को सीमित करना है, ताकि इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस या 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक न हो।
  3. विकसित देशों ने ग्लोबल वार्मिंग में अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी को स्वीकार किया और जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये विकासशील देशों की मदद करने हेतु वर्ष 2020 से प्रतिवर्ष 1000 बिलियन डॉलर का दान करने के लिये प्रतिबद्धता ज़ाहिर की है।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 3 
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3 
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (B)

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय राजव्यवस्था

वैवाहिक बलात्कार

प्रिलिम्स के लिये:

IPC की धारा 375, IPC की धारा 498A, जस्टिस जेएस वर्मा समिति।

मेन्स के लिये:

वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण, आईपीसी की धारा 375, न्यायमूर्ति जे एस वर्मा समिति, घरेलू हिंसा के विरुद्ध महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, भारतीय समाज की मुख्य विशेषताएँ

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता (IPC) में वैवाहिक बलात्कार को प्रदान किये गए अपवाद को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर एक विभाजित निर्णय दिया।

  • विभाजित निर्णय के मामले में सुनवाई एक बड़ी पीठ द्वारा की जाती है।
  • जिस बड़ी पीठ द्वारा विभाजित निर्णय दिया जाता है, उसके संबंध में सुनवाई उच्च न्यायालय के तीन-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जा सकती है या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील की जा सकती है।  

Marital-Rape

संबंधित वाद: 

  • अदालत धारा 375 के अपवाद की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली चार याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। 
    • याचिकाकर्त्ता चाहते हैं कि अपवाद को पूरी तरह से इस आधार पर समाप्त कर दिया जाए कि यह अपवाद विवाहित महिलाओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।
  • फैसला सुनाते समय न्यायाधीशों में से एक ने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद 2 को खारिज़ कर दिया, लेकिन दूसरे न्यायाधीश ने इसकी वैधता को बरकरार रखा।

भारतीय दंड संहिता की धारा 375: 

  • आईपीसी की धारा 375 उन कृत्यों को परिभाषित करती है जो एक पुरुष द्वारा बलात्कार को परिभाषित करते हैं। 
  • हालाँकि यह प्रावधान दो अपवादों को भी निर्धारित करता है।  
    • वैवाहिक बलात्कार को अपराधमुक्त करने के अलावा यह उल्लेख करता है कि चिकित्सा प्रक्रियाओं या हस्तक्षेप को बलात्कार नहीं माना जाएगा।
    • धारा 375 के अपवाद 2 में कहा गया है कि "किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ संभोग या यौन कृत्य, यदि पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से कम नहीं है, बलात्कार नहीं है"।

भारत में वैवाहिक बलात्कार कानून का इतिहास:

  • घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005:
    • यह ‘लिव-इन’ या विवाह संबंध में किसी भी प्रकार के यौन शोषण द्वारा वैवाहिक बलात्कार का संकेत देता है।
      • हालाँकि यह केवल नागरिक उपचार प्रदान करता है। भारत में वैवाहिक बलात्कार पीड़ितों के लिये अपराधी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही शुरू करने का कोई तरीका नहीं है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय: 
    • दिल्ली उच्च न्यायालय वर्ष 2017 से इस मामले में दलीलें सुन रहा है।
      • हालाँकि यह पहली बार नहीं है जब देश में वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठाया गया है।
  • भारतीय विधि आयोग: 
    • इस वैवाहिक बलात्कार अपवाद को हटाने की आवश्यकता को भारत के विधि आयोग ने वर्ष 2000 में खारिज कर दिया था, जबकि यौन हिंसा को लेकर भारत के कानूनों में सुधार के कई प्रस्तावों पर विचार किया गया था।
  • न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति:
    • वर्ष 2012 में न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा समिति को भारत के बलात्कार कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव देने का काम सौंपा गया था।
      • इसकी कुछ सिफारिशों ने वर्ष 2013 में पारित आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम को आकार देने में मदद की, जबकि वैवाहिक बलात्कार सहित कुछ सुझावों पर कार्रवाई नहीं की गई।
  • संसद:
    • संसद में भी यह मुद्दा उठाया जा चुका है।
      • वर्ष 2015 में संसद के एक सत्र के दौरान सवाल पूछे जाने पर वैवाहिक बलात्कार को आपराध घोषित करने के विचार को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि "वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित नहीं किया जा सकता है क्योंकि शादी भारतीय समाज का एक संस्कार या अति पवित्र परंपरा है"।

वैवाहिक बलात्कार अपवाद और भारतीय दंड संहिता (IPC): 

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन:
    • 1860 में ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत में IPC को लागू किया गया था। 
      • नियमों के पहले संस्करण के तहत वैवाहिक बलात्कार अपवाद 10 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं पर लागू था, जिसे 1940 में बढ़ाकर 15 वर्ष कर दिया गया था।
  • 1847 का लॉर्ड मैकाले का मसौदा:
    • जनवरी 2022 में न्याय मित्र (Amicus Curiae) द्वारा यह तर्क दिया गया कि IPC औपनिवेशिक युग के भारत में स्थापित प्रथम विधि आयोग के अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले के 1847 के मसौदे पर आधारित है। 
      • मसौदे ने बिना किसी आयु सीमा के वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।
  • यह प्रावधान एक सदी पुराना विचार है जिसका तात्पर्य विवाहित महिलाओं की सहमति से है और जो पति के वैवाहिक अधिकारों की रक्षा करता है।
  • सहमति का विचार 1736 में तत्कालीन ब्रिटिश मुख्य न्यायाधीश मैथ्यू हेल द्वारा दिये गए ‘हेल  सिद्धांत’ से प्रेरित है।
    • इसमें कहा गया है कि पति बलात्कार का दोषी नहीं हो सकता है, क्योंकि "आपसी वैवाहिक सहमति और अनुबंध द्वारा पत्नी ने पति के समक्ष अपने-आप को समर्पित कर दिया है"।
  • पति-आश्रय का सिंद्धांत: 
    • पति-आश्रय के सिंद्धांत के अनुसार, शादी के बाद एक महिला की कोई व्यक्तिगत कानूनी पहचान नहीं होती है।
    • विशेष रूप से पति-आश्रय के सिंद्धांत के विषय पर सुनवाई के दौरान भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2018 में व्यभिचार को अपराध घोषित कर दिया था।
    • यह माना गया कि धारा 497, जो कि व्यभिचार को अपराध के रूप में वर्गीकृत करती है, पति-आश्रय के सिंद्धांत पर आधारित है।
    • यह सिद्धांत, संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है जो यह मानता है कि एक महिला शादी के साथ ही अपनी पहचान और कानूनी अधिकार खो देती है, परंतु यह उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।

सरकार का पक्ष:

  • केंद्र ने शुरू में बलात्कार के अपवाद का बचाव किया लेकिन बाद में अपना रुख बदल लिया और न्यायालय से कहा कि वह कानून की समीक्षा कर रहा है, "इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता है"।
  • दिल्ली सरकार ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को बरकरार रखने के पक्ष में तर्क दिया।  
    • सरकार का तर्क पत्नियों द्वारा पुरुषों को कानून के संभावित दुरुपयोग से बचाने, विवाह संस्था की रक्षा करने तक विस्तारित है।

वैश्विक स्तर पर वैवाहिक बलात्कार की स्थिति:

  • वैश्विक स्थिति: 
    • एमनेस्टी इंटरनेशनल के आंँकड़ों के अनुसार, 185 में से 77 (42%) देश कानून के माध्यम से वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानते हैं। 
    • अन्य देशों में इसका या तो उल्लेख नहीं किया गया है या स्पष्ट रूप से बलात्कार को कानूनों के दायरे से बाहर रखा गया है, दोनों ही यौन हिंसा का कारण बन सकते हैं।
    • संयुक्त राष्ट्र ने देशों से कानूनों में व्याप्त खामियों को दूर करके वैवाहिक बलात्कार को समाप्त करने का आग्रह करते हुए कहा है कि "घर महिलाओं के लिये सबसे खतरनाक जगहों में से एक है"। 
  • वैवाहिक बलात्कार की अनुमति देने वाले देश: 
    • घाना, भारत, इंडोनेशिया, जॉर्डन, लेसोथो, नाइजीरिया, ओमान, सिंगापुर, श्रीलंका और तंजानिया स्पष्ट रूप से किसी महिला के पति को  वैवाहिक बलात्कार की अनुमति देते हैं।
  • वैवाहिक बलात्कार की शिकायत दर्ज करने की अनुमति देने वाले देश:
    • जहांँ 74 देश महिलाओं को अपने पति के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने की अनुमति देते हैं, वहीं 185 में से 34 देशों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। लगभग एक दर्जन देश बलात्कारियों द्वारा पीड़ितों से शादी करके अभियोजन से बचने की अनुमति देते हैं।

वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानने से संबंधित मुद्दे:

  • महिलाओं के मूल अधिकारों के खिलाफ:  
    • वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानना अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार) तथा अनुच्छेद 14 (समता का अधिकार) जैसे मौलिक अधिकारों में निहित व्यक्तिगत स्वायत्तता, गरिमा व लैंगिक समानता के संवैधानिक लक्ष्यों का तिरस्कार है। 
      • यह महिलाओं को अपने शरीर से संबंधित निर्णय लेने से दूर करता है और उन्हें एक साधन के रूप में प्रस्तुत करता है।
  • न्यायिक प्रणाली की निराशाजनक स्थिति: 
    • भारत में वैवाहिक बलात्कार के मामलों में अभियोजन की कम दर के कुछ कारणों में शामिल हैं:
      • सोशल कंडीशनिंग और कानूनी जागरूकता के अभाव के कारण अपराधों की कम रिपोर्टिंग।
      • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) के आंँकड़ों के संग्रह का गलत तरीका।
      • न्याय की लंबी प्रक्रिया/स्वीकार्य प्रमाण की कमी के कारण न्यायालयके बाहर समझौता।

आगे की राह

  • भारतीय कानून अब पतियों और पत्नियों को अलग एवं स्वतंत्र कानूनी पहचान प्रदान करता है तथा आधुनिक युग में न्यायशास्त्र स्पष्ट रूप से महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित है। 
  • अत:, यह उचित समय है कि विधायिका को इस कानूनी दुर्बलता का संज्ञान लेना चाहिये और आईपीसी की धारा 375 (अपवाद 2) को समाप्त करके वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार कानूनों के दायरे में लाना चाहिये।

स्रोत: द हिंदू  


शासन व्यवस्था

स्थानीय सरकार

प्रिलिम्स के लिये:

स्थानीय सरकारें, 73वाँ संविधान संशोधन, 74वाँ संशोधन अधिनियम (1992)।

मेन्स के लिये:

पंचायती राज संस्थान, शहरी स्थानीय निकाय।

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि देश भर के राज्य चुनाव आयोगों द्वारा हर पाँच वर्ष में स्थानीय निकायों के चुनाव कराने के अपने संवैधानिक दायित्वों को अच्छे से निभाना चाहिये।

  • चुनाव आयोग चुनाव कराने की जल्दबाज़ी के कारण परिसीमन की प्रक्रिया या नए वार्डों के गठन जैसे आधारों को रद्द नहीं कर सकता है
  • न्यायालय ने पाया कि 23,000 ग्रामीण स्थानीय निकायों के अलावा मध्य प्रदेश में 321 शहरी स्थानीय निकायों में 2019-2020 के बाद से चुनाव नहीं हुए।

स्थानीय सरकार: 

  • परिचय: 
    • स्थानीय स्वशासन ऐसे स्थानीय निकायों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन है जिसके सदस्य  स्थानीय लोगों द्वारा चुने जाते हैं।
    • स्थानीय स्वशासन में ग्रामीण और शहरी दोनों सरकारें शामिल हैं।
    • यह सरकार का तीसरा स्तर है।
    • स्थानीय सरकारें 2 प्रकार की होती हैं - ग्रामीण क्षेत्रों में पंचायतें और शहरी क्षेत्रों में नगर पालिकाएँ
  • ग्रामीण स्थानीय निकाय:
    • पंचायती राज संस्था (PRIs) भारत में ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की एक प्रणाली है।
    • पीआरआई को 73वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 के माध्यम से ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को साकार करने के लिये संवैधानिक दर्ज़ा प्रदान किया गया और इसे देश में ग्रामीण विकास का कार्य सौंपा गया।
      • इस अधिनियम ने भारत के संविधान में एक नया भाग-IX जोड़ा है। इस भाग में  'पंचायतों' के लिये किये (अनुच्छेद 243 से 243-O तक) गए प्रावधान शामिल हैं।
      • इसके अलावा अधिनियम ने संविधान में एक नई ग्यारहवीं अनुसूची भी जोड़ी है। इस अनुसूची में पंचायतों की 29 कार्यात्मक मदें शामिल हैं। यह अनुच्छेद 243-G से संबंधित है।
    • अपने वर्तमान स्वरूप और संरचना में PRIs ने अपने अस्तित्व के 30 वर्ष पूरे कर लिये हैं। हालाँकि ज़मीनी स्तर पर विकेंद्रीकरण और लोकतंत्र को मजबूत करने के लिये आगे बहुत कुछ किया जाना बाकी है। 
  • 'शहरी स्थानीय निकाय: 
    • शहरी स्थानीय निकायों की स्थापना लोकतांत्रिक वेकेंद्रीकरण के उद्देश्य से की गई है।
    • भारत में आठ प्रकार के शहरी स्थानीय निकाय विद्यमान हैं- नगर निगम, नगर पालिका, अधिसूचित क्षेत्र समिति, नगर क्षेत्र समिति, छावनी बोर्ड, टाउनशिप, बंदरगाह ट्रस्ट, विशेष प्रयोजन एजेंसी।  
    • केंद्रीय स्तर पर 'नगरीय स्थानीय शासन या निकाय' का विषय निम्नलिखित तीन मंत्रालयों द्वारा देखा जाता है।
      • वर्ष 1985 में शहरी विकास मंत्रालय (अब आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय) को एक अलग मंत्रालय के रूप में बनाया गया था।
      • छावनी बोर्डों के मामले में रक्षा मंत्रालय।
      • केंद्रशासित प्रदेशों के मामले में गृह मंत्रालय। 
    • वर्ष 1992 में शहरी स्थानीय सरकार से संबंधित 74वांँ संशोधन अधिनियम पी.वी. नरसिम्हा राव की सरकार द्वारा प्रस्तुत किया गया जो 1 जून, 1993 को लागू हुआ।
      • इसके द्वारा सविधान में भाग IX-A को जोड़ा गया जिसमें अनुच्छेद 243-P से 243-ZG तक के प्रावधान शामिल हैं।
      • जोड़ा गया भाग IX-A और इसमें अनुच्छेद 243-P से 243-ZG तक के प्रावधान शामिल हैं।
      • संविधान में 12वीं अनुसूची जोड़ी गई। इसमें नगर पालिकाओं से संबंधित 18 विषय शामिल हैं तथा ये अनुच्छेद 243-W से संबंधित हैं।

73वें संविधान संशोधन की मुख्य विशेषताएंँ:

  • अनिवार्य प्रावधान:
    • ग्राम सभाओं का गठन
    • ज़िला, ब्लॉक और ग्राम स्तर पर त्रिस्तरीय पंचायती राज संरचना का निर्माण
    • लगभग सभी पद, सभी स्तरों पर प्रत्यक्ष चुनाव द्वारा भरे जाएंगे
    • पंचायती राज संस्थाओं का चुनाव लड़ने हेतु न्यूनतम आयु 21वर्ष होनी चाहिये
    • ज़िला एवं प्रखंड स्तर पर अध्यक्ष का पद अप्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरा जाना चाहिये।
    • पंचायतों में अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिये उनकी जनसंख्या के अनुपात में और पंचायतों में महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटें आरक्षित होनी चाहिये
    • पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने के लिये प्रत्येक राज्य में राज्य चुनाव आयोग का गठन किया जाएगा
    • पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल पांँच वर्ष है, यदि इन्हें पहले भंग कर दिया जाता है, तो छह महीने के भीतर नए चुनाव कराने होंगे
    • प्रत्येक पांँच वर्ष में प्रत्येक राज्य में एक राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाना।
  • स्वैच्छिक प्रावधान:
    • इन निकायों में केंद्र और राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को मतदान का अधिकार देना
    • पंचायती राज संस्थाओं को कर, शुल्क आदि के संबंध में वित्तीय अधिकार दिये जाने चाहिये तथा पंचायतों को स्वायत्त निकाय बनाने का प्रयास किया जाएगा।

74वें संशोधन अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ:

  • अनिवार्य: 
    • छोटे, बड़े और बहुत बड़े शहरी क्षेत्रों में क्रमशः नगर पंचायतों, नगर परिषदों व नगर निगमों का गठन।
    • अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के लिये शहरी स्थानीय निकायों में सीटों का आरक्षण मोटे तौर पर उनकी आबादी के अनुपात में।
    • एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित;
    • पंचायती राज निकायों में चुनाव कराने के लिये गठित राज्य निर्वाचन आयोग (73वाँ संशोधन) शहरी स्थानीय स्वशासी निकायों के लिये भी चुनाव कराएगा।
    • पंचायती राज निकायों के वित्तीय मामलों से निपटने के लिये गठित राज्य वित्त आयोग स्थानीय शहरी स्वशासी निकायों के वित्तीय मामलों को भी देखता है।
    • शहरी स्थानीय स्वशासी निकायों का कार्यकाल पाँच वर्ष निर्धारित किया गया है और पहले विघटन के मामले में छह महीने के भीतर नए चुनाव होते हैं।
  • स्वैच्छिक: 
    • इन निकायों में संघ और राज्य विधानमंडलों के सदस्यों को मतदान का अधिकार देना।
    • पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण प्रदान करना।
    • करों, शुल्कों, टोल और शुल्कों आदि के संबंध में वित्तीय अधिकार देना।
    • नगर निकायों को स्वायत्त बनाना और इन निकायों को इस अधिनियम के माध्यम से संविधान में जोड़ी गई बारहवीं अनुसूची में शामिल कुछ या सभी कार्यों को करने और/या आर्थिक विकास के लिये योजनाएँ तैयार करने की शक्तियाँ प्रदान करना।

प्रश्न. स्थानीय स्वशासन किस गुण की सर्वाधिक सटीक व्याख्या करता है? (2017) 

(a) संघवाद
(b) लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण
(c) प्रशासनिक प्रतिनिधिमंडल
(d) प्रत्यक्ष लोकतंत्र

उत्तर: (b) 

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजव्यवस्था

न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली

प्रिलिम्स के लिये:

कॉलेजियम प्रणाली, भारत के मुख्य न्यायाधीश।

मेन्स के लिये:

कॉलेजियम प्रणाली का विकास और इसकी आलोचना। 

चर्चा में क्यों? 

सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम ने उच्च न्यायालयों में पाँच नए मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिशें की है।

कॉलेजियम प्रणाली और इसका विकास:

  • यह न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण की प्रणाली है, जो संसद के किसी अधिनियम या संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के माध्यम से विकसित हुई है।
  • कॉलेजियम प्रणाली का विकास:
    • प्रथम न्यायाधीश मामला (1981): 
      • इसने यह निर्धारित किया कि न्यायिक नियुक्तियों और तबादलों पर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के सुझाव की "प्रधानता" को "ठोस कारणों" से अस्वीकार किया जा सकता है।
      • इस निर्णय ने अगले 12 वर्षों के लिये न्यायिक नियुक्तियों में न्यायपालिका पर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित कर दी है।
    • दूसरा न्यायाधीश मामला (1993):
      • सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट करते हुए कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की कि "परामर्श" का अर्थ वास्तव में "सहमति" है। 
      • इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि यह CJI की व्यक्तिगत राय नहीं होगी, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से ली गई एक संस्थागत राय होगी।
    • तीसरा न्यायाधीश मामला (1998):
      • राष्ट्रपति द्वारा जारी एक प्रेज़िडेंशियल रेफरेंस (Presidential Reference) के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच सदस्यीय निकाय के रूप में कॉलेजियम का विस्तार किया, जिसमें CJI और उनके चार वरिष्ठतम सहयोगी शामिल होंगे।

कॉलेजियम प्रणाली का प्रमुख:

  • सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम की अध्यक्षता CJI द्वारा की जाती है और इसमें सर्वोच्च न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं।
  • एक उच्च न्यायालय के कॉलेजियम का नेतृत्व उसके मुख्य न्यायाधीश और उस न्यायालय के चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश करते हैं।
    • उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा नियुक्ति के लिये अनुशंसित नाम CJI और सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के अनुमोदन के बाद ही सरकार तक पहुँचते है।
  • उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से ही की जाती है और इस प्रक्रिया में सरकार की भूमिका कॉलेजियम द्वारा नाम तय किये जाने के बाद की प्रक्रिया में ही होती है।

विभिन्न न्यायिक नियुक्तियों के लिये निर्धारित प्रक्रिया:

  • भारत का मुख्य न्यायाधीश (CJI):
    • CJI और सर्वोच्च न्यायालय के अन्य जजों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
    • अगले CJI के संदर्भ में निवर्तमान CJI अपने उत्तराधिकारी के नाम की सिफारिश करता है।
    • हालाँकि वर्ष 1970 के दशक के अतिलंघन विवाद के बाद से व्यावहारिक रूप से इसके लिये वरिष्ठता के आधार का पालन किया जाता है। 
  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश:
    • सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों के लिये नामों के चयन का प्रस्ताव CJI द्वारा शुरू किया जाता है।
    • CJI कॉलेजियम के बाकी सदस्यों के साथ-साथ उस उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश से भी परामर्श करता है, जिससे न्यायाधीश पद के लिये अनुशंसित व्यक्ति संबंधित होता है।   
    • निर्धारित प्रक्रिया के तहत परामर्शदाताओं को लिखित रूप में अपनी राय दर्ज करानी होती है और इसे फाइल का हिस्सा बनाया जाना चाहिये।
    • इसके पश्चात् कॉलेजियम केंद्रीय कानून मंत्री को अपनी सिफारिश भेजता है, जिसके माध्यम से  इसे राष्ट्रपति को सलाह देने हेतु प्रधानमंत्री को भेजा जाता है।
  • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के लिये:
    • उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति इस आधार पर की जाती है कि मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने वाला व्यक्ति संबंधित राज्य से न होकर किसी अन्य राज्य से होगा।
    • यद्यपि चयन का निर्णय कॉलेजियम द्वारा लिया जाता है।  
    • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सिफारिश CJI और दो वरिष्ठतम न्यायाधीशों वाले एक कॉलेजियम द्वारा की जाती है। 
    • हालाँकि इसके लिये प्रस्ताव को संबंधित उच्च न्यायालय के निवर्तमान मुख्य न्यायाधीश द्वारा अपने दो वरिष्ठतम सहयोगियों से परामर्श के बाद पेश किया जाता है।
    • यह सिफारिश मुख्यमंत्री को भेजी जाती है, जो इस प्रस्ताव को केंद्रीय कानून मंत्री को भेजने के लिये राज्यपाल को सलाह देता है।
  • कॉलेजियम प्रणाली की आलोचना:
    • स्पष्टता एवं पारदर्शिता की कमी।
    • भाई-भतीजावाद जैसी विसंगतियों की संभावना।
    • सार्वजनिक विवादों में उलझना।
    • कई प्रतिभाशाली कनिष्ठ न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की अनदेखी।

नियुक्ति प्रणाली में सुधार के प्रयास:

  • 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग' (99वें संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से) द्वारा इसे प्रतिस्थापित करने के प्रयास को वर्ष 2015 में न्यायालय ने इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये खतरा है।

आगे की राह

  • कार्यपालिका और न्यायपालिका को शामिल करते हुए रिक्तियों को भरना एक सतत् व सहयोगी प्रक्रिया है तथा इसके लिये कोई समय-सीमा नहीं हो सकती है। हालांँकि यह एक स्थायी, स्वतंत्र निकाय के बारे में सोचने का समय है जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने हेतु पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ प्रक्रिया को संस्थागत बनाने के लिये न्यायिक प्रधानता की गारंटी देता है लेकिन न्यायिक विशिष्टता की नहीं।
  • इसे स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी चाहिये, विविधता को प्रतिबिंबित करना चाहिये, पेशेवर क्षमता और अखंडता का प्रदर्शन करना चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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