इंदौर शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 11 नवंबर से शुरू   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 11 Jun, 2020
  • 74 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट

प्रीलिम्स के लिये:

अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट, अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग, विशेष चिंता वाले देश (CPC), विशेष निगरानी सूची (SWL)

मेन्स के लिये:

भारत में धार्मिक स्वतंत्रता

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'अमेरिकी विदेश विभाग' (U.S. State Department) ने विश्व के विभिन्न देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की स्थिति को दर्शाने वाली 'अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता' (International Religious Freedom- IRF) रिपोर्ट, अमेरिकी संसद को प्रस्तुत की है।

प्रमुख बिंदु:

  • वर्ष 2020 की वार्षिक रिपोर्ट में जनवरी 2019 से लेकर दिसंबर 2019 तक के मामले शामिल किये गए हैं, हालाँकि कुछ मामलों में इस समयावधि के पहले और बाद की  घटनाओं को भी शामिल किया गया है।
  • यह रिपोर्ट अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग’ (U. S. Commission on International Religious Freedom- USCIRF) द्वारा जारी की जाती है। 

‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग’ (USCIRF):

  • USCIRF 'अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम' (International Religious Freedom Act-IRFA)- 1998 के तहत स्थापित एक स्वतंत्र, द्विदलीय अमेरिकी संघीय आयोग है।
  • USCIRF अंतर्राष्ट्रीय मानकों के आधार पर वैश्विक स्तर पर धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन की निगरानी करता है तथा अमेरिकी राष्ट्रपति, विदेश मंत्री एवं अमेरिकी संसद को आवश्यक नीतियाँ बनाने की सिफारिश करता है।
  • यह धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के आधार पर देशों को विशेष चिंता वाले देश (Countries of Particular Concern- CPC) तथा विशेष निगरानी सूची (Special Watch List- SWL) में नामित कटने को अमेरिकी विदेश विभाग के सचिव की सिफारिश करता है। 

विशेष चिंता वाले देश (CPC):

  • जब किसी देश को 'विशेष चिंता वाले देश’ (CPC) के रूप में नामित किया जाता है तो इसका तात्पर्य है उस देश में धार्मिक स्वतंत्रता का वर्तमान में व्यवस्थित तरीके से व्यापक पैमाने पर उल्लंघन किया जा रहा है। 
  • CPC के रूप में नामित देशों में धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघनों को संबोधित करने के लिये IRFA अमेरिकी विदेश सचिव को विशिष्ट तथा लचीले नीतिगत निर्णय लेने की शक्तियाँ प्रदान करता है। इसमें प्रतिबंध लगाना, देशों को प्रदान की जाने वाली छूट को समाप्त करना आदि शामिल है।
  • USCIRF निम्नलिखित 14 देशों को 2020 के लिये CPC के रूप में नामित किये जाने की सिफारिश की है: 
    • म्यांमार, चीन, इरिट्रिया, भारत, ईरान, नाइजीरिया, उत्तर कोरिया, पाकिस्तान, रूस, सऊदी अरब, सीरिया, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और वियतनाम।

विशेष निगरानी सूची (Special Watch List- SWL):

  • USCIRF किसी भी देश को CPC सूची में जोड़ने से पूर्व अमेरिकी विदेश विभाग की विशेष निगरानी सूची (Special Watch List- SWL) में जोड़ने की भी सिफारिश करता है। 
  • SWL सूची में उन देशों को शामिल किया जाता है, जिन देशों की सरकारों द्वारा गंभीर रूप से धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन किया जाता है या ऐसा करने के आरोप हैं। हालाँकि इन देशों में अभी तक CPC  सूची में शामिल देशों के स्तर पर धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं किया जा रहा है। 
  • SWL में उन देशों को शामिल किया जाता है जिसने धार्मिक स्वतंत्रता के तीन मानदंडों में से दो का उल्लंघन किया हो। हालाँकि पिछली वार्षिक रिपोर्टों में किसी देश द्वारा तीन मे केवल एक मानदंड का उल्लंघन करने पर SWL में शामिल किया गया था।
  • USCIRF वर्ष 2020 में SWL के लिये 15 देशों अफगानिस्तान, अल्जीरिया, अज़रबैजान, बहरीन, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, क्यूबा, मिस्र, इंडोनेशिया, इराक, कजाकिस्तान, मलेशिया, निकारागुआ, सूडान, तुर्की और उज़्बेकिस्तान की सिफारिश करता है।

USCIRF द्वारा  भारत से संबंध में की गई अनुशंसाएँ:

  • भारत को IRFA के तहत CPC के रूप में सूचीबद्ध करने की सिफारिश की गई है।
  • ज़िम्मेदार भारतीय सरकारी एजेंसियों तथा अधिकारियों पर अमेरिका में प्रवेश पर प्रतिबंध जैसी कार्यवाही की जाए।

भारत को CPC के रूप में सूचीबद्ध करने का कारण:

  • भारत में धार्मिक स्वतंत्रता को दर्शाने वाली रिपोर्ट में मुख्यत: ‘जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति’, 'नागरिकता (संशोधन) अधिनियम’, (Citizenship (Amendment) Act- CAA), ‘राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर’ (National Register of Citizens- NRC), ‘मॉब लींचिंग’, ‘धर्मांतरण विरोधी कानून’ (Anti-Conversion Laws) तथा संबंधित मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की गई है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, भारत में धार्मिक रूप से प्रेरित ‘मॉब लिंचिंग’ के मामलों तथा सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित मामलों को कानूनविदों द्वारा कई बार अनदेखा किया गया है। हिंदू-बहुसंख्यक दलों के कुछ कार्यकर्त्ताओं द्वारा, अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ सार्वजनिक टिप्पणी या सोशल मीडिया पोस्ट करने का आरोप है। 
  • रिपोर्ट में गौ-रक्षा के नाम पर की जाने वाली भीड़- हिंसा की घटनाओं जैसे- झारखंड में तबरेज़ अंसारी पर हमला आदि का विस्तृत विवरण दिया गया है।
  • रिपोर्ट में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बाबरी मस्जिद के संबंध में दिये गए निर्णय तथा वर्ष 2018 में सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के मंदिर प्रवेश के संबंध में दिये गए निर्णय आदि का उल्लेख किया गया है।

अमेरिकी सरकार द्वारा उठाए गए कदम:

  • USCIRF ने अप्रैल, 2020 में भारत को CPC सूची में शामिल करने की सिफारिश की थी। हालाँकि अमेरिकी विदेश सचिव USCIRF की अनुशंसा को स्वीकार करने के लिये बाध्य नहीं है।
  • कानून के अनुसार, IRF रिपोर्ट के प्रकाशन के 90 दिनों के बाद किसी देश CPC तथा SWL में शामिल नहीं किया जा सकता है। 
  • अमेरिकी विदेश सचिव ने रिपोर्ट के आधार पर देशों को वर्गों में रखा है। देश जिन्होंने धार्मिक स्वतंत्रता की दिशा में सकारात्मक कार्य किया है। दूसरे नकारात्मक रूप से सूचीबद्ध देश। 
  • निकारागुआ, नाइजीरिया और चीन को नकारात्मक उदाहरण के रूप में उद्धृत किया गया है। भारत को किसी भी सूची में उद्धृत नहीं किया गया है। 

USCIRF और विदेश विभाग की कार्यवाही के बीच अंतर:

  • USCIRF और अमेरिकी विदेश विभाग दोनों ही अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता पर वार्षिक रिपोर्ट जारी करते हैं, लेकिन प्रत्येक के अलग-अलग उद्देश्य हैं। विदेश विभाग की रिपोर्ट दुनिया के प्रत्येक देश में धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन का दस्तावेज़ है जबकि USCIRF की वार्षिक रिपोर्ट में क़ानून द्वारा विभिन्न देशों को 'विशेष चिंता वाले देशों' के रूप में नामित करने की सिफारिश की जाती है, जिस पर संबंधित कार्यकारी शाखा विचार करती है।

निष्कर्ष:

  • अप्रैल, 2020 में जब USCIRF ने भारत को CPC के रूप में नामित करने की सिफारिश की थी तब भारत सरकार ने रिपोर्ट पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इसे ‘पक्षपातपूर्ण’ करार दिया था, साथ ही इसके अवलोकनों को खारिज कर दिया था। भारत के इसी दबाव के कारण ‘अमेरिकी विदेश विभाग’ ने भारत को अभी तक किसी भी सूची में उद्धृत नहीं किया गया है।

स्रोत: द हिंदू


भूगोल

‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना: समग्र विश्लेषण

प्रीलिम्स के लिये

‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना से संबंधित विभिन्न तथ्य

मेन्स के लिये 

आम लोगों के जनजीवन और पर्यावरण पर इस परियोजना का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

भारी जन विरोध के बीच केरल सरकार ने त्रिशूर ज़िले में चालक्कुडी नदी (Chalakudy River) पर प्रस्तावित विवादास्पद ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ (Athirappally Hydel Power) परियोजना पर फिर से आगे बढ़ने का निर्णय लिया है। 

प्रमुख बिंदु

  • ध्यातव्य है कि ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना के लिये पहले से प्राप्त पर्यावरणीय मंज़ूरी और तकनीकी-आर्थिक मंज़ूरी समेत सभी वैधानिक मंज़ूरियों की अवधि समाप्त हो चुकी थीं।
  • ऐसे में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने राज्य सरकार को पत्र लिखते हुए परियोजना पर आगे बढ़ने और केंद्र सरकार से नए सिरे से पर्यावरणीय मंज़ूरी प्राप्त करने की बात कही थी।
  • केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) द्वारा किये गए आग्रह पर विचार करते हुए केरल सरकार ने केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को आगामी 7 वर्षों की अवधि के लिये अनापत्ति प्रमाण पत्र (No-Objection Certificate-NOC) जारी किया है।

‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना

  • 163 मेगावाट की स्थापित क्षमता वाली इस परियोजना को केरल के त्रिशूर ज़िले में पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील चलक्कुडी नदी पर स्थापित करने की योजना सर्वप्रथम वर्ष 1979 में बनाई गई थी। 
  • इस परियोजना के तहत 23 मीटर ऊँचाई और 311 मीटर लंबाई का एक गुरुत्वाकर्षण बांध (Gravity Dam) प्रस्तावित किया गया था। 
  • उल्लेखनीय है कि चलक्कुडी नदी पर पहले से ही जल विद्युत से संबंधित छह बाँध और सिंचाई से संबंधित एक बाँध निर्मित किया गया है।

चालक्कुडी नदी (Chalakudy River) 

  • चालक्कुडी नदी केरल की चौथी सबसे लंबी नदी है। 
  • इस नदी का कुल बेसिन क्षेत्र तकरीबन 1704 किलोमीटर लंबा है, जिसमें से 1404 किलोमीटर का हिस्सा केरल में पड़ता है और शेष 300 किलोमीटर का हिस्सा तमिलनाडु में पड़ता है।
  • यह नदी केरल के पलक्कड़, त्रिशूर और एर्नाकुलम ज़िलों से होकर निकलती है।

काफी समय से रुकी हुई है ‘अथिरापल्ली जल विद्युत’ परियोजना

  • इस परियोजना का विचार सर्वप्रथम वर्ष 1979 में सामने आया था, जिसके बाद वर्ष 1982 में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने इस संबंध में एक औपचारिक प्रस्ताव पेश किया।
  • उस समय इस परियोजना को विभिन्न एजेंसियों से मंज़ूरी प्राप्त करने में सात वर्ष से अधिक समय लगा, किंतु सार्वजनिक विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र इस परियोजना को रोक दिया गया।
  • वर्ष 1998 में केरल सरकार ने इस परियोजना को नई लीज़ (Lease) प्रदान कर दी। साथ ही कुछ समय पश्चात् इस परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (Ministry of Environment and Forests- MoEF) से भी मंज़ूरी मिल गई।
  • हालाँकि, कुछ ही समय में पर्यावरण कार्यकर्त्ताओं ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर दी और न्यायालय ने वर्ष 2001 में केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) को सभी आवश्यक मंज़ूरी प्राप्त करने से संबंधित अनिवार्य प्रक्रिया का पालन करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2005 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) ने एक सार्वजनिक उपक्रम द्वारा तैयार की गई पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट के आधार पर एक बार पुनः इस परियोजना को अपनी मंज़ूरी दे दी। हालाँकि पर्यावरण कार्यकर्त्ताओं ने फिर से उच्च न्यायालय का रुख किया और न्यायालय ने मंत्रालय की मंज़ूरी को रद्द कर दिया।
  • वर्ष 2007 में केरल सरकार ने इस परियोजना से संबंधित एक नया प्रस्ताव पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) के समक्ष प्रस्तुत किया, किंतु परियोजना के कारण क्षेत्र की परिस्थितिकी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को देखते हुए मंत्रालय ने इस प्रस्ताव को मंज़ूरी नहीं दी।
  • इस बीच, माधव गाडगिल के नेतृत्त्व में गठित वेस्टर्न घाट इकोलॉजी एक्सपर्ट पैनल (Western Ghats Ecology Experts Panel) ने अथिरापल्ली समेत संपूर्ण पश्चिमी घाट क्षेत्र को पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया और इस क्षेत्र में खनन, उत्खनन, थर्मल पावर प्लांट समेत सभी बड़ी परियोजनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • हालाँकि, पश्चिमी घाट पर कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट ने इस बिजली परियोजना को शुरू करने के लिये केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को सशर्त मंज़ूरी प्रदान कर दी।
  • कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट के साथ केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (MoEF) के समक्ष एक नया प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
  • इस बार मंत्रालय ने केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को वर्ष 2017 तक के लिये ‘ग्रीन क्लीयरेंस’ (Green Clearance) प्रदान कर दिया।

परियोजना का प्रभाव

  • एक अनुमान के अनुसार, 19 पंचायतों और दो नगर पालिकाओं के कम-से-कम पाँच लाख लोग आजीविका, सिंचाई और पीने के पानी के लिये नदी पर निर्भर हैं। इस परियोजना के आलोचकों का मानना है कि इस परियोजना के परिणामस्वरूप नदी का प्रवाह अवरुद्ध होगा और प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इन लाखों लोगों का  दैनिक जीवन प्रभावित होगा।
  • स्थानिक जनजाति ‘कादर’ (Kadar) से संबंधित तमाम आदिवासी लोगों ने इस नदी के बेसिन में अपना घर बनाया है, जो कि सैकड़ों वर्षों से यहाँ रह रहे हैं। इस परियोजना के कारण इन आदिवासियों का जीवन काफी अधिक प्रभावित होगा और इन्हें विस्थापित होना पड़ेगा।
  • इस परियोजना में क्षेत्र विशिष्ट के दो प्रमुख झरने (अथिरापल्ली झरना और वझाचल झरना) शामिल हैं, जहाँ प्रतिवर्ष 6 लाख से अधिक लोग घूमने आते हैं, ऐसे में यह क्षेत्र विशिष्ट की अर्थव्यवस्था के लिये आय का प्रमुख स्रोत हैं, किंतु इस परियोजना के कारण यह क्षेत्र एक पर्यटक स्थल के रूप में बचा नहीं रह पाएगा। यह स्थानीय अर्थव्यवस्था और केरल के पर्यटन उद्योग के लिये काफी नुकसानदायक होगा।
  • इस परियोजना के लिये प्रयोग किया जा रहा कुछ क्षेत्र वझाचल वन प्रभाग (Vazhachal Forest Division) का हिस्सा है और यहाँ विलुप्ति की कगार पर खड़े कई जानवर पाए जाते हैं, ऐसे में इस परियोजना के कार्यान्वयन से इस क्षेत्र के जानवरों पर काफी प्रभाव पड़ेगा।
  • परियोजना के तहत बाँध निर्माण के लिये लगभग 138.60 हेक्टेयर वन भूमि केरल राज्य विद्युत बोर्ड (KSEB) को हस्तांतरित की जाएगी , जो कि इस क्षेत्र की जैव विविधता के लिये काफी बड़ा नुकसान होगा।

आगे की राह

  • इस परियोजना की शुरुआत वर्ष 1979 में हुई थी और अब तक इसके कार्यान्वयन पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है, यह स्थिति भारतीय प्रशासनिक तंत्र में होने वाली देरी को इंगित करती है।
  • यह मुद्दा पर्यावरण और विकास के मध्य हो रहे संघर्ष का है, ऐसे में आवश्यक है कि इस परियोजना से संबंधित सभी हितधारक एक मंच पर आकर संतुलित उपाय खोजने का प्रयास करें, ताकि राज्य की बिजली संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करते हुए क्षेत्र विशिष्ट की जैव विविधता को सुरक्षित रखा जा सके।

स्रोत: डाउन टू अर्थ


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

सऊदी अरब ने की तेल की कीमतों में वृद्धि

प्रीलिम्स के लिये

ओपेक (OPEC)

मेन्स के लिये

अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार पर प्राइज़ वॉर का प्रभाव, कोरोना वायरस (COVID-19) का अंतर्राष्ट्रीय तेल बाज़ार पर प्रभाव

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सऊदी अरब ने कच्चे तेल (Crude Oil) के निर्यात के लिये कीमतों में कम-से-कम बीते दो दशकों में सर्वाधिक वृद्धि की है। 

प्रमुख बिंदु

  • उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व ‘पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन’ (Organization of the Petroleum Exporting Countries-OPEC) और रूस समेत इसके अन्य सहयोगी देशों ने जुलाई माह के अंत तक कच्चे तेल के उत्पादन में रिकॉर्ड कटौती जारी रखने का निर्णय लिया था। 

तेल की कीमतों में वृद्धि के निहितार्थ

  • सऊदी अरब के इस निर्णय का प्रभाव एशिया (Asia) के निर्यात पर देखने को मिलेगा, क्योंकि यह सऊदी अरब के प्रमुख उत्पादक सऊदी अरामको (Saudi Aramco) के सबसे बड़े क्षेत्रीय बाज़ारों में से एक है।
  • कीमतों में इतनी अधिक वृद्धि यह बताती है कि सऊदी अरब अप्रैल माह में कच्चे तेल की कीमतों में हुई तेज़ गिरावट के बाद तेल बाज़ार को चालू करने के लिये अपने सभी उपकरणों का उपयोग कर रहा है।
  • उल्लेखनीय है कि मध्य पूर्व में एक कीमत निर्धारक के रूप में सऊदी अरब द्वारा की गई आधिकारिक मूल्य वृद्धि क्षेत्र के अन्य उत्पादकों को भी इस ओर प्रेरित करेगी।
  • हालाँकि कई तेल शोधनकर्त्ताओं (Oil Refiners) ने सऊदी अरब द्वारा बढाई गई कीमतों के कारण ईंधन में कच्चे तेल की प्रोसेसिंग से होने वाले मुनाफे पर प्रभाव पड़ने को लेकर चिंता ज़ाहिर की है।

उत्पादन में कटौती

  • सउदी और रूस के नेतृत्त्व में कच्चे तेल के उत्पादन में अभूतपूर्व कटौती ने मई माह में कीमतों को बढ़ाने और कोरोना वायरस (COVID-19) के कारण प्रभावित तेल बाज़ार को पुनः पटरी पर लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
  • इसे देखते हुए ओपेक (OPEC) और रूस समेत अन्य सहयोगी देशों ने जुलाई माह में भी कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती जारी रखने का निर्णय लिया है।
  • उल्लेखनीय है कि वैश्विक स्तर पर जारी लॉकडाउन में विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा धीरे-धीरे छूट दी जा रही है, जिससे जुलाई माह में तेल की मांग बढ़ने की उम्मीद की जा सकती है, किंतु ओपेक (OPEC) के समक्ष अभी एक बड़ी चुनौती मार्च माह में जमा हुए अतिरिक्त 1 बिलियन बैरल तेल को समाप्त करना है।
  • कई विश्लेषकों का मानना है कि ओपेक (OPEC) और उसके सहयोगी देशों द्वारा तेल के उत्पादन में कटौती करने का निर्णय ओपेक (OPEC) देशों को अपने अतिरिक्त तेल भंडार को समाप्त करने में मदद करेगा।

‘पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन’ 

(Organization of the Petroleum Exporting Countries-OPEC)

  • OPEC एक स्थायी, अंतर-सरकारी संगठन है, जिसका गठन 10-14 सितंबर, 1960 को आयोजित बगदाद सम्मेलन में ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेनेज़ुएला ने किया था।
  • इन पाँच संस्थापक सदस्यों के बाद इसमें कुछ अन्य सदस्यों को शामिल किया गया, ये देश हैं-
  • कतर (1961), इंडोनेशिया (1962), लीबिया (1962), संयुक्त अरब अमीरात (1967), अल्जीरिया (1969), नाइजीरिया (1971), इक्वाडोर (1973), अंगोला (2007), गैबन (1975), इक्वेटोरियल गिनी (2017) और कांगो (2018)
  • वर्तमान में इस संगठन में सदस्य देशों की संख्या 13 है।
  • इस संगठन का उद्देश्य अपने सदस्य देशों की पेट्रोलियम नीतियों का समन्वय और  एकीकरण करना तथा उपभोक्ता को पेट्रोलियम की कुशल, आर्थिक और नियमित आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये तेल बाज़ारों का स्थिरीकरण सुनिश्चित करना है। 

स्रोत: द हिंदू


भारतीय राजनीति

वंशधारा नदी जल विवाद

प्रीलिम्स के लिये:

वंशधारा नदी की भौगोलिक अवस्थिति 

मेन्स के लिये:

भारत में विभिन्न अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद

चर्चा में क्यों?

वर्ष 2009 से  आंध्रप्रदेश तथा ओडिशा राज्य के मध्य उत्पन्न  ‘वंशधारा जल विवाद’ (Vamsadhara Water Dispute) के समाधान को लेकर शीघ्र ही आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा ओडिशा सरकार से वार्ता की बात की गई है।

Vamsadhra-River

प्रमुख बिंदु:

  • वर्तमान आंध्रप्रदेश सरकार द्वारा शीघ्र ही वंशधारा और नागावल्ली नदी की इंटर-लिंकिंग को भी पूरा किया जाना तथा ‘मड्डुवालासा परियोजना’ (Madduvalasa Project) का भी विस्तार किये जाने की योजना बनायी जा रही है।
  • मड्डुवालासा परियोजना आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम ज़िले में एक मध्यम सिंचाई परियोजना है।
  • इस परियोजना का जलग्रहण क्षेत्र श्रीकाकुलम और विजयनगरम दो ज़िलों में फैला हुआ है। 
  • इस परियोजना के जलाशय के लिये पानी का मुख्य स्रोत सुवर्णमुखी नदी की सहायक नदी नागवल्ली नदी में एक इंटरलिंक बनाकर की जा रही है।

विवाद की पृष्ठभूमि:

  • ओडिशा राज्‍य सरकार द्वारा फरवरी, 2009 में ‘अंतरराज्‍यीय नदी जल विवाद’ (ISRWD) अधिनियम,1956 की धारा 3 के अंतर्गत वंशधारा नदी जल विवाद के समाधान के लिये अतंर्राज्यीय जल विवाद अधिकरण के गठन के लिये केंद्र सरकार को एक शिकायत दर्ज़ की गई थी।
  • ओडिशा सरकार का पक्ष था कि आंध्र प्रदेश के कटरागार में वंशधारा नदी पर निर्मित तेज़ बहाव वाली नहर के निर्माण के कारण नदी का विद्यमान तल सूख जाएगा जिसके परिणामस्‍वरूप भूजल और नदी का बहाव प्रभावित होगा।
  • दोनों राज्यों के मध्य उत्पन्न इस विवाद को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2009 में केंद्र सरकार को जल विवाद अधिकरण को गठित करने के निर्देश दिया अतः सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2010 में एक ‘जल विवाद अधिकरण’ का गठन किया गया।
  • अधिकरण द्वारा दिया गया निर्णय के विरुद्ध वर्ष 2013 ओडिशा सरकार द्वारा सर्वोच्च न्‍यायालय में याचिका दायर की गई जो अभी लंबित है।

नदी जल विवाद संबंधित संवैधानिक प्रावधान:

  • सविधान का अनुच्छेद- 262 अंतर्राज्यीय जल विवादों के न्यायनिर्णयन से संबंधित है। 
  • इस अनुच्छेद के अंतर्गत संसद द्वारा दो कानून पारित किये गए हैं-
  • नदी बोर्ड अधिनयम (1956) तथा अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनयम(1956)
  • अंतर्राज्यीय जल विवाद अधिनयम, केंद्र सरकार को अंतर्राज्यीय नदियों और नदी घाटियों के जल के प्रयोग, बँटवारे तथा नियंत्रण से संबंधित दो अथवा दो से अधिक राज्यों के मध्य  किसी विवाद के न्यायनिर्णय हेतु एक अस्थायी न्यायाधिकरण के गठन की शक्ति प्रदान करता है। गठित न्यायाधिकरण का निर्णय अंतिम होगा जो सभी पक्षों के लिये मान्य होगा।

वंशधारा नदी: 

  • यह नदी ओडिशा तथा आंध्र प्रदेश राज्यों के बीच प्रवाहित होती है।
  • नदी का उद्गम ओडिशा के कालाहांडी ज़िले के थुआमुल रामपुर से होता है। 
  • लगभग 254 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद यह आंध्र प्रदेश के कालापटनम ज़िले से बंगाल की खाड़ी में प्रवेश कर जाती है।
  • इस नदी के बेसिन का कुल जलग्रहण क्षेत्र लगभग 10,830 वर्ग किलोमीटर है।

आगे की राह:

  • विवाद के समाधान के लिये दोनों ही राज्यों को पहल करनी होगी तथा गठित जल विवाद न्यायाधिकरण एवं  सर्वोच्च न्यायलय द्वारा दिए गए अंतिम निर्णय को स्वीकार करना चाहिए।
  • इसके अतिरिक्त दोनों ही पक्षों को वंशधारा परियोजना के चरण-II के लाभ को भी समझना होगा जिसके चलते कम-से-कम दो लाख एकड़ भूमि को सिंचित किया गया है। राज्यों के आर्थिक विकास को पर्यावरण एवं किसानों के हित से भी जोड़ा जाना आवश्यक है।

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

ई-कूटनीति

प्रीलिम्स के लिये:

ई-कूटनीति

मेन्स के लिये:

ई-कूटनीति

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रथम ‘भारत-ऑस्ट्रेलिया आभासी शिखर सम्मेलन’ (Virtual Leaders’ Summit) आयोजित किया गया था, जिसमें महत्त्वपूर्ण रणनीतिक निर्णय लिये गए थे।

प्रमुख बिंदु:

  • COVID-19 महामारी द्वारा उत्पन्न खतरों से बचने के लिये विभिन्न देश पारंपरिक शिखर सम्मेलनों के माध्यम से की जाने वाली कूटनीति के स्थान पर डिजिटल तरीकों को अपना रहे हैं।
  • भारतीय प्रधानमंत्री ने COVID-19 महामारी के बाद अनेक द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय सम्मेलनों में आभासी माध्यमों से भाग लेकर ई-कूटनीति को आगे बढ़ाया है। 

ई-कूटनीति (e-Diplomacy):

  • ई-कूटनीति (e-Diplomacy) अर्थात इलेक्ट्रॉनिक कूटनीति का तात्पर्य राजनयिक लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिये विभिन्न देशों द्वारा प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने से है।
  • ई- कूटनीति के माध्यम से निम्नलिखित कार्यों को संपन्न किया जा सकता है:
    • देश का प्रतिनिधित्व और संवर्द्धन; 
    • देशों के द्विपक्षीय तथा बहुपक्षीय संबंधों को बढ़ावा देना;
    • राजनयिक सेवाओं में वृद्धि; 
    • सामाजिक जुड़ाव स्थापित करना।

ई-कूटनीति का महत्त्व:

  • महामारी के दौरान 'सामाजिक दूरी' के नियमों का पालन करना होता है, अत: ‘ई-कूटनीति’ नेताओं के लिये शारीरिक रूप से सुरक्षित है क्योंकि इसमें किसी के साथ शारीरिक संपर्क में आने की आवश्यकता नहीं होती है।
  • प्रक्रिया में समय की बचत होती है क्योंकि नेताओं को शारीरिक रूप से किसी कार्यक्रम स्थल या अन्य देश में पहुँचने की आवश्यकता नहीं होती है तथा वे अपने कार्यालयों से ही शिखर सम्मेलनों में भाग ले सकते हैं।
  • इससे यात्राओं तथा कार्यक्रम प्रबंधन पर होने वाले खर्चों में बचत होती है, अत: इसकी आर्थिक व्यवहारिकता है।

ई-कूटनीति के साथ जुड़ी चुनौतियाँ:

  • इस बात को लेकर संशय है कि ई-कूटनीति के माध्यम से उन समझौतों तथा निर्णयों को लागू किया जा सकता है जिन्हें लागू करने के लिये के लिये नेताओं को निश्चित प्रोटोकॉल तथा संवाद प्रक्रिया को पूरा करने की आवश्यकता होती है।
  • साइबर सुरक्षा संबंधी मुद्दे:
    • ई-कूटनीति में महत्त्वपूर्ण सामग्री की हैकिंग किये जाने की संभावना रहती है।
    • इसमें व्यक्ति की संवाद करने में सहजता तथा खुलापन कम हो सकता है।
    • विदेश नीति से जुड़ी संवेदनशील सामग्री की जासूसी अथवा लीक किया जा सकता है।
  • ब्रिटिश विद्वान अर्नेस्ट सैटॉव (Ernest Satow) ने सम्मेलनों को 'राजनयिक स्थलाकृति की एक स्थायी विशेषता' के रूप में उल्लिखित किया है। शिखर वार्ता के दौरान औपचारिक बातचीत, बंद दरवाजे में होने वाले सत्र, फोटो-ऑप्स मोमेंट, मेजबान देशों के दर्शक आदि सभी सम्मेलनों का एक आवश्यक हिस्सा है।
  • आभासी सम्मेलन कुछ भागीदार देशों को कृत्रिम तथा असंतोषजनक लग सकते हैं। 

बहुपक्षीय ई-कूटनीतिक पहल:

  • COVID-19 महामारी के बाद भारत ने ऑस्ट्रेलिया के साथ आभासी शिखर सम्मेलन के अलावा निम्नलिखित  बहुपक्षीय ई-कूटनीतिक पहल प्रारंभ की हैं।
  • सार्क नेताओं का आभासी सम्मेलन:
    • 15 मार्च, 2020 को भारतीय प्रधानमंत्री के आग्रह पर COVID-19 की चुनौती से निपटने की रणनीति पर विचार-विमर्श के लिये सार्क समूह के सदस्य देशों के बीच वीडियो कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया गया। 
    • कॉन्फ्रेंस में भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा COVID- 19 महामारी की चुनौती से निपटने के लिये ‘सार्क COVID- 19 आपातकालीन निधि’ स्थापित किये जाने का प्रस्ताव रखा गया।
  • G-20 आभासी सम्मेलन:
    • हाल ही में G- 20 समूह के राष्ट्रीय नेताओं द्वारा COVID-19 महामारी से निपटने की दिशा में एक वीडियो सम्मेलन आयोजित किया गया।
    • भारतीय प्रधानमंत्री की पहल पर  G-20 आभासी नेतृत्त्व शिखर सम्मेलन (Virtual Leadership Summit) किया गया था।
  • NAM संपर्क समूह शिखर सम्मेलन:
    • हाल में COVID-19 महामारी के प्रबंधन में सहयोग की दिशा में ‘गुट निरपेक्ष आंदोलन’ (Non-Aligned Movement- NAM) समूह द्वारा 'NAM संपर्क समूह शिखर सम्मेलन' (NAM Contact Group Summit- NAM CGS) का आयोजन किया गया।
    • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा वर्ष 2014 में सत्ता संभालने के बाद पहली बार ‘गुट निरपेक्ष आंदोलन’ को संबोधित किया गया।

आगे की राह:

  • पारंपरिक व्यक्ति-व्यक्ति शिखर सम्मेलनों (In-Person Summits) का अपना महत्त्व है, अत: COVID-19 महामारी की समाप्ति के बाद इनको पुनः आरंभ किया जाएगा। लेकिन वर्तमान में महामारी के दौरान कूटनीतिक संबंधों को बनाए रखने में ई-कूटनीति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड

प्रीलिम्स के लिये:

दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड, दौलत बेग ओल्डी (DBO)

मेन्स के लिये:

दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी रोड

चर्चा में क्यों?

'दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी' (Darbuk-Shyok-Daulat Beg Oldie- DSDBO) सड़क का निर्माण कार्य  लगभग दो दशकों के बाद वर्ष 2020 तक पूरा होने की उम्मीद है।

प्रमुख बिंदु:

  • DSDBO लद्दाख में भारतीय क्षेत्र का सबसे उत्तरी इलाका है, जिसे सेना के बीच सब-सेक्टर नॉर्थ (Sub-Sector North) के नाम से जाना जाता है।
  • भारत-चीन के बीच जब भी स्टैंड-ऑफ की रिपोर्टिंग होती है, दरबूक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (Darbuk-Shyok-Daulat Beg Oldie- DSDBO) सड़क प्राय: चर्चा में रहती है।

'दारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी' (DSDBO) सड़क:

  • यह सड़क दारबुक (Darbuk) से अंतिम भारतीय ग्राम श्योक (Shyok) तक लगभग 255 किमी. लंबी सड़क है।
  • यह सड़क  भारत-चीन  LAC के लगभग समानांतर है जो 13,000 फुट से 16,000 फुट के बीच की विभिन्न  बीच ऊँचाई से होकर जाती है।
  • यह सड़क लेह को काराकोरम दर्रे से जोड़ती है तथा चीन के शिनजियांग (Xinjiang) प्रांत से लद्दाख को अलग करती है।
  • श्योक तथा काराकोरम दर्रे के बीच दौलत बेग ओल्डी (DBO) 16,000 फीट से अधिक की ऊँचाई पर स्थित एक पठार है। यह अवस्थिति वायुसेना के लिये बहुत अधिक सामरिक महत्त्व रखती है क्योंकि यह अवस्थिति  वायु सेना के लिये आपूर्ति सामग्री गिराने के लिये उन्नत लैंडिंग ग्राउंड (Advanced Landing Ground- ALG) है।

दौलत बेग ओल्डी (DBO):

  • DBO दुनिया की सबसे ऊँचाई पर स्थित हवाई पट्टी थी, जिसे मूल रूप से 1962 के युद्ध के दौरान बनाया गया था। लेकिन वर्ष 2008 तक इसका रखरखाव नहीं किया गया। वर्ष 20O8 में भारतीय वायु सेना (Indian Air Force- IAF) द्वारा इसे पुन: प्रारंभ किया गया ताकि LAC के पास इसका उन्नत लैंडिंग ग्राउंड्स (Advanced Landing Grounds-ALGs) के रूप में उपयोग किया जा सके।  वर्ष 2008 एंटोनोव एन-32 (Antonov An-32) सैन्य विमान तथा अगस्त 2013 में परिवहन विमान C-130J-30 की की लैंडिंग कराई गई।

Daulat-Beg-Oldi

सड़क निर्माण की पृष्ठभूमि:

  • इस सड़क का निर्माण कार्य वर्ष 2000 में शुरू किया गया था जिसे वर्ष 2012 तक पूरा किया जाना था। सड़क निर्माण का कार्य 'प्रधान मंत्री कार्यालय' (Prime Minister’s Office- PMO) की निगरानी में 320 करोड़ रुपए की लागत से पूरा किया जाना था।
  • हालाँकि निर्माण कार्य को समय पर पूरा नहीं किया जा सका क्योंकि श्योक नदी घाटी में बनाई गई सड़क ग्रीष्मकाल में बाढ़ के कारण क्षतिग्रस्त हो जाती थी। बाद में  सड़क के प्रमुख हिस्सों को नदी से दूर रखते हुए पुन: निर्माण किया गया।
  • अक्टूबर,  2019 में श्योक नदी के ऊपर 430 मीटर लंबे कर्नल चेवांग रिनचेन सेतु (Colonel Chewang Rinchen Setu) का उद्घाटन किया गया, जो पूर्वी लद्दाख में दारबुक (Darbuk) से दौलत बेग ओल्डी (DBO) को जोड़ता है।
  • इसके साथ ही लद्दाख के सियाचिन ग्लेशियर क्षेत्र को भारत सरकार द्वारा पर्यटकों के लिये खोल दिया गया। 

सड़क का सामरिक महत्त्व:

  • भारत-चीन सीमा पर विभिन्न टकरावों तथा आपत्तियों के बावजूद भारत ने ‘वास्तविक नियंत्रण रेखा’ (Line of Actual Control- LAC) पर अवसंरचनात्मक कार्यों को लगातार जारी रखने का निर्णय लिया है। DSDBO सड़क निर्माण कार्य इसी दिशा में एक पहल है।
  • DBO चीन के साथ LAC से केवल 9 किमी. की दूरी पर अवस्थित है।  यह सड़क अंतर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्र, अक्साई चिन, चिप चाप नदी (Chip Chap River) और जीवान नाला (Jiwan Nalla) से सटे क्षेत्रों का प्रबंधन करने में मदद करेगी।
  • वर्तमान समय में यहाँ पहुंचने का एकमात्र तरीका सैन्य हवाई पट्टी है, अत: सड़क से सैन्य सामान पहुँचाना आसान है। 
  • चीन ने गैल्वान नदी घाटी क्षेत्र के साथ-साथ निर्माण कार्य किया है अत: DSDBO सड़क को चीन से सीधा खतरा है।
  • DBO के पश्चिम में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (China-Pakistan Economic Corridor- CPEC) का निर्माण कार्य किया जा रहा है। 

आगे की राह:

  • वुहान (2018) तथा महाबलीपुरम (2019) में होने वाले ‘भारत-चीन अनौपचारिक शिखर सम्मेलन’ में दोनों ने सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति व्यवस्था सुनिश्चित करने के प्रयासों को बढ़ाने पर सहमति व्यक्त की थी।  
  • 1 अप्रैल, 2020 को ‘भारत- चीन राजनयिक संबंधों को 70 वर्ष’ पूरे हुए हैं। दोनों देशों ने पिछले चार दशकों में शांति से सीमा मुद्दों को हल किया है, जिससे उन्हें उम्मीद है कि वर्तमान सीमा-तनाव भी जल्द ही हल कर लिया जाएगा।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक, 2019-20

प्रीलिम्स के लिये: 

FSSAI,  ‘राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक,

मेन्स के लिये:

 खाद्य सुरक्षा से संबंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण’ (Food Safety and Standards Authority of India- FSSAI) द्वारा ‘राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक, 2019-20’ (State Food Safety Index, 2019-20) जारी किया गया है।

प्रमुख बिंदु:

  • वर्ष 2019-20 के खाद्य सुरक्षा सूचकांक में देश के बड़े राज्यों में गुजरात, तमिलनाडु और महाराष्ट्र शीर्ष पर रहे। 
  • इस सूचकांक में छोटे राज्यों में गोवा पहले जबकि मणिपुर और मेघालय क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे।
  • केंद्र शासित प्रदेशों की सूची में चंडीगढ़ को पहला स्थान प्राप्त हुआ जबकि इसी श्रेणी में दिल्ली और अंडमान द्वीप समूह को क्रमशः दूसरा और तीसरा स्थान प्राप्त हुआ। 
  • इस सूचकांक को 7 जून, 2020 को ‘विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस’ के अवसर पर एक वेबिनार के माध्यम से जारी किया गया था। 
  • इस आयोजन का विषय ‘खाद्य सुरक्षा सभी का सरोकार’ (Food Safety is Everyone's Business) रखा गया था।  

खाद्य सुरक्षा पर FSSAI के प्रयास: 

  • इस अवसर पर FSSAI द्वारा ‘ईट राइट ड्यूरिंग COVID-19’ (Eat Right during COVID-19) शीर्षक से एक हैंडबुक जारी की गई।  
  • इसमें नियमित रूप से पालन की जाने वाली खाद्य सुरक्षा की आदतों को रेखांकित किया गया है और स्वास्थ्य तथा पोषण के संबंध में आवश्यक सुझाव भी दिये गए हैं।
  • वर्तमान में COVID-19 महामारी के बीच खाद्य पदार्थों की निर्बाध आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिये FSSAI द्वारा महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं।
  • इस वेबिनार के माध्यम से FSSAI द्वारा ‘COVID-19 महामारी के दौरान खाद्य व्यवसायों के लिये खाद्य स्वच्छता और सुरक्षा दिशा-निर्देश’ (Food Hygiene and Safety Guidelines for Food Businesses during the COVID-19 pandemic) नामक एक अद्यतन विस्तृत मार्गदर्शन नोट जारी किया गया।
  • इस दस्तावेज़ में खाद्य आपूर्ति श्रृंखला में COVID-19 के प्रसार को रोकने के लिये स्वच्छता और सफाई की आवश्यकताओं, प्रबंधन की ज़िम्मेदारी और क्षेत्र विशिष्ट की ज़रूरतों को रेखांकित किया गया है।

राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक:

  • राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक को ‘भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण’ द्वारा जारी किया जाता है। 
  • इस सूचकांक में खाद्य सुरक्षा के पाँच मानकों के आधार पर राज्यों के प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जाता है:
    1. मानव संसाधन और संस्थागत डेटा
    2. अनुपालन 
    3. खाद्य परीक्षण सुविधा
    4. प्रशिक्षण
    5. उपभोक्ता संरक्षण के लिये क्षमता निर्माण
  • ‘राज्य खाद्य सुरक्षा सूचकांक, 2019-20’ FSSAI के द्वारा दूसरी बार जारी किया गया है। 
    • ध्यातव्य है कि इस सूचकांक की शरुआत वर्ष 2019 में पहले ‘विश्व खाद्य सुरक्षा दिवस’ के अवसर पर की गई थी।

भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण’

(Food Safety and Standards Authority of India- FSSAI):

  • FSSAI की स्थापना खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006 (Food Safety and Standards Act, 2006) के तहत वर्ष 2008 में की गई थी।
  • FSSAI की स्थापना केंद्रीय स्‍वास्‍थ्‍य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत की गई है।
  • इसका मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
  • FSSAI पौष्टिक खाद्य पदार्थों के उत्पादन, भंडारण, वितरण, बिक्री और आयात के संदर्भ में आवश्यक दिशा-निर्देश जारी करने का कार्य करता है।
  • साथ ही FSSAI खाद्य सुरक्षा और खाद्य मानकों के बारे में सामान्य जागरूकता को बढ़ावा देने का कार्य करता है। 

स्रोत: इकोनॉमिक टाइम्स


जैव विविधता और पर्यावरण

एशियाई शेरों की संख्या में वृद्धि

प्रीलिम्स के लिये:

‘एशियाई शेर’, कैनाइन डिस्टेंपर वायरस

मेन्स के लिये:

वन्य जीव संरक्षण, संरक्षण और विकास 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में गुजरात राज्य के वन विभाग के अनुसार, राज्य में गिर के जंगलों और सौराष्ट्र के अन्य कुछ हिस्सों में पाए जाने वाले ‘एशियाई शेरों’ (Asiatic Lion) संख्या में वृद्धि दर्ज़ की गई है।  

प्रमुख बिंदु:

  • गुजरात वन विभाग द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2015 में की गई गणना की तुलना में राज्य में एशियाई शेरों की संख्या में लगभग 29% वृद्धि हुई है। 
  • वन विभाग द्वारा नवीन जनगणना के अनुसार, वर्तमान में राज्य में एशियाई शेरों की कुल संख्या 674 बताई गई है, जबकि वर्ष 2015 में यह संख्या मात्र 523 ही थी।
  • वर्तमान में राज्य के कुल 674 एशियाई शेरों में 260 मादा, 161 नर, 45 नर उप-वयस्क, 49 मादा उप-वयस्क, 22 (अज्ञात लिंग) और 137 शावक हैं।
  • साथ ही इस दौरान राज्य में एशियाई शेरों के प्रवास क्षेत्रफल में भी 36% वृद्धि हुई है, वर्तमान में राज्य में एशियाई शेरों का प्रवास क्षेत्रफल वर्ष 2015 के 22,000 वर्ग किमी. से बढ़कर 30,000 वर्ग किमी. तक पहुँच गया है।
    • हालिया जनगणना में वर्ष 2015 में एशियाई शेरों के प्रवास के रूप में चिह्नित क्षेत्रों के अलावा राज्य के दो अन्य ज़िलों (सुरेंद्रनगर और मोरबी) को भी शामिल किया गया था।

एशियाई शेर (Asiatic lion):

  • एशियाई शेर का वैज्ञानिक नाम पैंथेरा लियो पर्सिका (Panthera Leo Persica) है।
  • ये मुख्यतः गिर के जंगलों और जूनागढ़, अमरेली तथा भावनगर ज़िलों में फैले कुछ अन्य संरक्षित क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
  • एशियाई शेर को ‘भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972’ के तहत अनुसूची-I में रखा गया है।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) की रेड लिस्ट में एशियाई शेर को संकटग्रस्त (Endangered) श्रेणी में रखा गया है। 

जनगणना प्रक्रिया:

  • इस वर्ष राज्य में एशियाई शेरों की संख्या का अनुमान जनगणना से नहीं, बल्कि ‘पूनम अवलोकन (Poonam Avlokan) नामक एक निगरानी प्रक्रिया के माध्यम से लगाया गया था।
  • पूनम अवलोकन:
    • पूनम अवलोकन, शेरों की गणना के लिये प्रत्येक माह में पूर्णिमा (Full Moon) की तिथि को आयोजित किया जाने वाला एक कार्यक्रम है।

    • इस कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2014 में वन विभाग द्वारा वर्ष 2015 की ‘शेर जनगणना’ (Lion Census) की तैयारियों के तहत की गई थी।  
    • इसके तहत निर्धारित तिथि को वन विभाग के अधिकारी और क्षेत्रीय कर्मचारी 24 घंटे के दौरान अपने कार्यक्षेत्र में शेरों की संख्या और उनकी अवस्थिति के आँकड़े दर्ज़ करते हैं।

सामान्य शेर जनगणना और ‘पूनम अवलोकन’ में अंतर: 

  • पूनम अवलोकन की तुलना में सामान्य शेर जनगणना में अधिक कर्मचारी शामिल होते हैं, जो इस प्रक्रिया को ज़्यादा विश्वसनीय बनाती है।   
  • वर्ष 2015 की जनगणना में लगभग 2000 अधिकारी, विशेषज्ञ और स्वयं सेवकों ने भाग लिया था जबकि इस माह आयोजित पूनम अवलोकन में लगभग 1400 अधिकारियों और कुछ विशेषज्ञों को शामिल किया गया था।
  • सामान्यतः शेर जनगणना दो से अधिक दिनों तक चलती है, जिसके तहत एक प्राथमिक जनगणना (Primary  Census) और एक मुख्य/अंतिम जनगणना (Final Census) का कार्य पूरा किया जाता है।
  • इस प्रक्रिया में ‘ब्लॉक गणना विधि’ (Block Counting Method) का प्रयोग किया जाता है, जिसके तहत जनगणना प्रगणक किसी दिए गए ब्लॉक में जल स्रोतों पर तैनात किये जाते हैं और ये प्रगणक उस ब्लॉक में 24 घंटे के दौरान जल स्रोतों पर देखे गए शेरों की गणना करते हैं।  
  • वहीं ‘पूनम अवलोकन’ की प्रक्रिया में सामान्यतः केवल वन विभाग के अधिकारी ही शामिल होते हैं और इसकी कार्यप्रणाली भी भिन्न है।
  • इसके तहत प्रगणक दल जल स्रोत पर स्थिर रहने की बजाय अपने निर्धारित क्षेत्र में चलता रहता है और इस दौरान ‘लायन  ट्रैकर्स’ (Lion Trackers) से प्राप्त इनपुट और देखे गए शेरों के आधार पर उनकी कुल संख्या का आकलन किया जाता है।   

शेरों की जनगणना की शुरुआत:

  • प्रथम शेर जनगणना वर्ष 1936 में जूनागढ़ के तत्कालीन नवाब द्वारा कराई गई थी। 
  • वर्ष 1965 से वन विभाग नियमित रूप से हर पाँच वर्ष पर शेरों की जनगणना करता रहा है।
  • इससे पहले 6वीं, 8वीं और 11वीं जनगणना का आयोजन विभिन्न कारणों से एक वर्ष की देरी से हुआ था।       

जनगणना रद्द किये जाने का कारण:

  • हर पाँचवें वर्ष नियमित रूप से होने वाली यह जनगणना इस वर्ष देश में फैली COVID-19 महामारी के कारण निर्धारित तिथि पर नहीं आयोजित की जा सकी थी।
  • 25 मार्च को प्रधानमंत्री द्वारा देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा के बाद वन विभाग के लगभग 1500 से अधिक वन रक्षक, रेंज वन अधिकारी और कुछ अन्य कर्मचारियों को लॉकडाउन को सही तरह से लागू कराने के लिये तैनात कर दिया गया था।

वर्ष 2020 की जनगणना का महत्त्व:

  • वर्ष 2015 की जनगणना में एशियाई शेरों की संख्या 411 (वर्ष 2010) से बढ़कर 523 तक पहुँच गई थी।
  • परंतु इस जनगणना के एक माह बाद ही अमरेली (गुजरात) में अचानक आई तीव्र बाढ़ में 12 शेरों की मृत्यु हो गई थी।
  • इसके बाद वर्ष 2018 में ‘कैनाइन डिस्टेंपर वायरस’ (Canine Distemper Virus-CDV) और ‘बबेसिओसिस’ (Babesiosis)  के प्रकोप के कारण 20 से अधिक शेरों की मृत्यु हो गई थी।
  • इस वर्ष के ग्रीष्मकाल में भी गिर के जंगलों में ‘बबेसिओसिस’ के प्रकोप की सूचनाएँ मिली थी और लगभग 23 एशियाई शेरों की मृत्यु हो गई थी।

एशियाई शेरों की संख्या में हुई वृद्धि के कारण:

  • हाल के कुछ वर्षों में गिर के जंगलों में एशियाई शेरों की आबादी में लगातार वृद्धि देखी गई है।
  • वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार, एशियाई शेरों के संरक्षण के लिये विभाग द्वारा तकनीकी के प्रयोग और अन्य महत्त्वपूर्ण प्रयासों के माध्यम से प्रवास प्रबंधन, शिकार और भोजन की व्यवस्था तथा मानव-पशु संघर्ष को कम किया गया है।
  • साथ ही ‘कैनाइन डिस्टेंपर वायरस’ से निपटने के लिये वैक्सीन का आयात भी किया गया था।    
  • वर्ष 2018 में ‘केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय’ (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) द्वारा ‘एशियाई शेर संरक्षण परियोजना’ (Asiatic Lion Conservation Project) की शुरुआअत की गई थी।  

आगे की राह:

  • हाल के वर्षों में प्राकृतिक और मानव-पशु संघर्षों के कारण एशियाई शेरों की असमय मृत्यु की कई घटनाओं के बीच उनकी आबादी में वृद्धि, सरकार द्वारा चलाए जा रहे संरक्षण के प्रयासों के लिये एक बड़ी उपलब्धि है। 
  • अधिकांश वन्य जीवों की असमय मृत्यु का प्रमुख कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं, ऐसे में सरकार द्वारा वन्य जीवों के प्रवास के संरक्षण के साथ मानव-पशु संघर्षों को कम करने के लिये आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिये। 
  • साथ ही हाल के वर्षों में वन्य जीवों में अज्ञात संक्रामक रोगों के बढ़ते मामलों को देखते हुए देश में इसके उपचार के प्रबंध और शोध पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।  

स्रोत:  द इंडियन एक्सप्रेस


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों का विरोध

प्रीलिम्स के लिये:

जीएम-सीड्स एवं जेनेटिक इंजीनियरिंग, बीटी कॉटन 

मेन्स के लिये:

वर्तमान समय में आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज का पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में शेतकारी संगठन (Shetkari Sanghatana) नामक किसान संगठन द्वारा उन किसानों के खिलाफ एक आंदोलन चलाने की बात कही गई है जो चालू खरीफ के मौसम में बिना प्रशासनिक अनुमति के आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों (Genetically modified seeds/GM- seeds) का प्रयोग करने जा रहे हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • शेतकारी संगठन का मानना है कि चालू खरीफ ऋतु में, किसान बिना किसी अनुमति के बड़े पैमाने पर मक्का, सोयाबीन, सरसों, बैगन और शाकनाशी सहिष्णु कपास ( Herbicide Tolerant Cotton) के लिये  जीएम बीजों की बुवाई करेंगे।
    • शाकनाशी सहिष्णु कपास ( Herbicide Tolerant Cotton) में खरपतवार के प्रति अधिक प्रतिरोधक क्षमता होती है।
  • संगठन का कहना है कि यदि किसान इस तरह के विभिन्न प्रकार के बीज़ अपने खेतों में प्रयोग करना चाहते हैं तो उन्हें फसल की जीएम प्रकृति की घोषणा करते हुए खेतों में बोर्ड लगाना होगा ताकि खेतों में आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों के प्रयोग के लिये नवीनतम प्रौद्योगिकीयों को अपनाया जा सके।

आनुवंशिक रूप से संशोधित बीज़ ?

  • ये ऐसे बीज होते है जिनके आनुवंशिक पदार्थ को वैज्ञानिक तरीके से रूपांतरित किया गया है।
  • ऐसा इसलिये किया जाता है ताकि फसल की उत्पादकता में वृद्धि हो सके तथा फसल को कीट प्रतिरोधी अथवा सुखा रोधी बनाया जा सके।
  • जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा वांछित प्रभाव प्राप्त करने के लिये टिश्यू कल्चर, म्युटेशन अर्थात् उत्परिवर्तन एवं सूक्ष्म जीवों की मदद से पौधों में नए जीनों का प्रवेश कराया जाता है।
  • इस तरह की एक बहुत ही सामान्य प्रक्रिया में पौधे को एग्रोबेक्टेरियम ट्यूमेफेशियंस (Agrobacterium Tumefaciens) नामक सूक्ष्मजीव से संकरण कराया जाता है। इस  सूक्ष्मजीव को टी-डीएनए (Transfer-DNA) नामक एक विशिष्ट जीन से संकरण कराकर पौधे में डीएनए का प्रवेश कराया जाता है।
  • इस एग्रोबेक्टेरियम ट्यूमेफेशियंस के टी-डीएनए को वांछित जीन से सावधानीपूर्वक प्रतिस्थापित किया जाता है, जो कीट प्रतिरोधक होता है। इस प्रकार पौधे के जीनोम में बदलाव लाकर वांछित गुणों वाली फसल प्राप्त की जाती है।
  • भारत में बीटी कपास, एकमात्र अनुमति प्राप्त जीएम फसल है, जिसमें मिट्टी में मौज़ूद बेसिलस थुरिंगिनेसिस (बीटी) जीवाणु के साथ दो विदेशी जीन (Alien Genes) के संकरण से प्राप्त किया जाता है।
  • ये जीन कपास की फसल को सामान्य पिंक बॉलवॅर्म (Pink Bollworm) नामक कीट से बचाव के लिये एक विषाक्त प्रोटीन के स्रावण में सहायता करते हैं। 
  • शाकनाशी सहिष्णु कपास एक अतिरिक्त जीन एवं अन्य मिट्टी के जीवाणु को साथ संकरण कराने से प्राप्त की गई  है, जो पौधे को सामान्य हर्बिसाइड ग्लाइफोसेट (Herbicide Glyphosate) जो कि एक कीटनाशक है, के कम प्रयोग करने को बढ़ावा देती है।

भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों की कानूनी स्थिति:

  • भारत में, ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति’ (Genetic Engineering Appraisal Committee -GEAC) पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत स्थापित सांविधिक निकाय है जो जीएम फसलों के वाणिज्यिक उत्पादन के लिये अनुमति प्रदान करता है।
  • वर्ष 2002 में, GEAC ने बीटी कॉटन के वाणिज्यिक उत्पादन की अनुमति दी थी। तब से अब तक देश का 95% से अधिक कपास क्षेत्र तब से बीटी कपास के अंतर्गत आ गया है। 
  • गैर कानूनी रूप से जीएम संस्करण फसलों/बीज़ों का उपयोग करने पर पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत 5 वर्ष की जेल की सज़ा तथा 1 लाख रुपये का जुर्माना आरोपित किया जा सकता है।

किसानों द्वारा जीएम- फसलों फसलों की बुआई करने का कारण:

  • किसानों का ऐसा कहना है कि बीटी कपास का प्रयोग करने से कीटनाशकों एवं इसकी निराई पर आने वाली लागत को कम किया जा सकता है।
  • जीएम फसलें सूखा-रोधी और बाढ़-रोधी होने के साथ कीट प्रतिरोधी भी होती हैं।
  • शाकनाशी सहिष्णु कपास का प्रयोग करने से इसमें मौज़ूद हर्बिसाइड ग्लाइफोसेट के कारण खरपतवार हटाने पर लगने वाले खर्च में कमी आती है।
  • हरियाणा जैसे राज्यों में बीटी बैंगन का क्षेत्र काफी अधिक है जिसका मुख्य कारण इस पर आने वाली लागत तथा कीटनाशकों पर लगने वाले खर्च का कम होना है।
  • ये बीज साधारण बीज से अधिक उपज प्रदान करते है।

पर्यावरणविदों का तर्क:

  • मानव स्वास्थ्य एवं पर्यावरण पर जीएम फसलों के प्रभाव को देखते हुए पर्यावरणविदों का तर्क है कि अभी इन पर और अध्ययन की आवश्यकता है उसके बाद ही इनके व्यावसायिक उत्पादन को मंज़ूरी दी जानी चाहिए। 
  • लंबे समय तक आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का प्रयोग मनुष्यों के लिये हानिकारक सिद्ध हो सकता  हैं।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


विविध

Rapid Fire (करेंट अफेयर्स): 11 जून, 2020

जावेद इकबाल वानी

हाल ही में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कश्मीर के प्रतिष्ठित वकील जावेद इकबाल वानी को केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर और केंद्रशासित प्रदेश लद्दाख के संयुक्त उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया है। उल्लेखनीय है कि बीते सात वर्षों में यह पहली बार हुआ है जब कश्मीर के किसी वकील को जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है। इससे पूर्व कश्मीर के वकील, न्यायाधीश अली मुहम्मद मागरे को वर्ष 2013 में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया था। ध्यातव्य है कि भारत के न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रणाली को कॉलेजियम व्यवस्था (Collegium System) कहा जाता है। इस व्यवस्था का निर्माण सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णयों के बाद हुआ है। कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य‍ न्यायाधीश के नेतृत्त्व में बनी वरिष्ठ न्यायाधीशों की समिति न्यायाधीश के नाम तथा नियुक्ति का निर्णय करती है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा हस्तांतरण का निर्णय भी कॉलेजियम व्यवस्था के तहत ही किया जाता है। साथ ही उच्च न्यायालय के कौन से न्यायाधीश पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह निर्णय भी कॉलेजियम व्यवस्था के तहत ही लिया जाता है। ज्ञात हो कि कॉलेजियम व्य‍वस्था का उल्लेख न तो मूल संविधान में है और न ही उसके किसी संशोधित प्रावधान में, जिसके कारण इस प्रणाली की वैधता पर प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं। इस व्यवस्था में अस्पष्टता, पारदर्शिता की कमी के साथ ही परिवारवाद की संभावना भी व्यक्त की जाती रही है।

आयुष्मान भारत के दायरे में प्रवासी श्रमिक

केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस (COVID-19) संकट के मद्देनज़र आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (Ayushman Bharat Pradhan Mantri Jan Arogya Yojana) को प्रवासी श्रमिकों तक विस्तारित करने का निर्णय लिया है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण (The National Health Authority- NHA) के अनुसार, नई घोषणा के तहत पात्र लाभार्थियों की पहचान करने के लिये राज्य सरकारों के साथ समन्वयित रूप से कार्य किया जा रहा है। इस कदम का उद्देश्य मौजूदा महामारी के दौरान वंचितों के लिये स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करना है। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व सरकार ने आयुष्मान भारत के लाभार्थियों को मुफ्त COVID-19 परीक्षण की सुविधा प्रदान करने की घोषणा की थी। ध्यातव्य है कि वर्ष 2018 में शुभारंभ के बाद से ही आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना भारत सरकार की प्रमुख स्वास्थ्य बीमा योजना बनी हुई है। इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार को प्रति वर्ष दिये जा रहे 5 लाख रुपए के स्वास्थ्य कवर के माध्यम से गरीब और वंचित भारतीयों को अस्पताल में किफायती स्वास्थ्य उपचार उपलब्ध कराया जा रहा है। इसका उद्देश्य देश में 10.74 करोड़ से अधिक गरीबों और संवेदनशील परिवारों के लिये वित्तीय जोखिम से सुरक्षा सुनिश्चित करना है। प्रवासी श्रमिकों के लिये आयुष्मान भारत योजना के चयन का एक कारण यह भी है कि इस योजना के कुल लाभार्थियों में तकरीबन 80 प्रतिशत लोग ग्रामीण हैं।

रेमन मैग्सेसे पुरस्कार

भारत समेत विश्व के तमाम देशों में कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी का संकट गहराता जा रहा है, ऐसे में वैश्विक समाज के समक्ष परिस्थितियाँ और भी गंभीर होती जा रही हैं। ध्यातव्य है कि महामारी के मद्देनज़र एशिया के नोबेल पुरस्कार के रूप में पहचाने जाने वाले रेमन मैग्सेसे पुरस्कार (Ramon Magsaysay Awards) को रद्द कर दिया गया है। गौरतलब है कि यह तीसरी बार हुआ है, जब रेमन मैग्सेसे पुरस्कार को रद्द किया गया है, इससे पूर्व वर्ष 1970 में आर्थिक संकट के दौर में और वर्ष 1990 में फिलीपींस में आए भयानक भूकंप के कारण यह पुरस्कार रद्द किया गया था। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2019 में भारतीय पत्रकार रवीश कुमार को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इससे पूर्व अरविंद केजरीवाल, अरुणा रॉय और संजीव चतुर्वेदी सहित कई अन्य लोगों को भी यह पुरस्कार मिल चुका है। एशिया का नोबेल माना जाने वाला यह पुरस्कार एशिया में साहसिक और परिवर्तनकारी नेतृत्त्व के लिये दिया जाता है। यह पुरस्कार फिलीपींस के तीसरे राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे की स्मृति में दिया जाता है। रॉकफेलर ब्रदर्स फंड के ट्रस्टियों द्वारा यह पुरस्कार वर्ष 1957 में स्थापित किया गया था। यह पुरस्कार मुख्यतः 5 श्रेणियों में दिया जाता है। 

संयुक्त अरब अमीरात का पहला मंगल मिशन

संयुक्त अरब अमीरात (United Arab Emirates-UAE) ने घोषणा की है कि वह 14 जुलाई को अपने ‘होप मार्स मिशन’ (Hope Mars Mission) को लॉन्च करेगा। ध्यातव्य है कि इस लॉन्च के साथ ही संयुक्त अरब अमीरात (UAE) मंगल ग्रह पर इस प्रकार का मिशन लॉन्च करने वाला पहला अरब देश बन जाएगा। विशेषज्ञों का मत है कि यह मिशन सिर्फ संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के लिये ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह संपूर्ण अरब क्षेत्र के लिये भी काफी महत्त्वपूर्ण है। यह मिशन आगामी 14 जुलाई को अपनी यात्रा शुरू करेगा और संभवतः फरवरी 2021 में मंगल ग्रह तक पहुँच जाएगा। इस कार्यक्रम का वित्तपोषण ‘संयुक्त अरब अमीरात अंतरिक्ष एजेंसी’ (UAE Space Agency) द्वारा किया जा रहा है। गौरतलब है कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE) की इस अंतरिक्ष परियोजना की शुरुआत आधिकारिक तौर पर वर्ष 2014 में हुई थी। UAE के अंतरिक्ष यान (Spacecraft) को जापान से लॉन्च किया जाएगा। उल्लेखनीय है कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के अनुसार, इस मिशन से मंगल ग्रह को लेकर जो भी जानकारी प्राप्त की जाएगी, वह सार्वजनिक मंच पर उपलब्ध होगी और उसका प्रयोग विभिन्न संस्थाओं द्वारा भविष्य के अध्ययन के लिये किया जा सकेगा।


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2