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डेली न्यूज़

  • 06 Oct, 2021
  • 29 min read
भारतीय राजव्यवस्था

दलबदल कानून

प्रिलिम्स के लिये:

दलबदल कानून

मेन्स के लिये:

दलबदल कानून से संबंधित मुद्दे   

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल विधानसभा अध्यक्ष को एक विधानसभा सदस्य से जुड़े दलबदल मामले में निर्धारित समय सीमा के भीतर आदेश पारित करने का निर्देश दिया है।

  • झारखंड और राजस्थान जैसे अन्य राज्यों में भी दलबदल विरोधी कार्यवाही चल रही है।

प्रमुख बिंदु 

  • दल-बदल विरोधी कानून के बारे में:
    • दल-बदल विरोधी कानून संसद/विधान सभा सदस्यों को एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने पर दंडित करता है। 
    • संसद ने इसे 1985 में दसवीं अनुसूची के रूप में संविधान में जोड़ा। इसका उद्देश्य दल बदलने वाले विधायकों को हतोत्साहित कर सरकारों में स्थिरता लाना था।
      • दसवीं अनुसूची: जिसे दलबदल विरोधी अधिनियम के रूप में जाना जाता है, को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था और यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दलबदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के लिये प्रावधान निर्धारित करता है।
    • हालाँकि यह सांसद/विधायकों के एक समूह को दलबदल के लिये दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (अर्थात् विलय) की अनुमति देता है। इस प्रकार यह दलबदल करने वाले विधायकों को प्रोत्साहित करने या स्वीकार करने के लिये राजनीतिक दलों को दंडित नहीं करता है। 
      • 1985 के अधिनियम के अनुसार, एक राजनीतिक दल के निर्वाचित सदस्यों के एक-तिहाई सदस्यों द्वारा 'दलबदल' को 'विलय' माना जाता था।
      • 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के अनुसार, दलबदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है, बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई सदस्य विलय के पक्ष में हों।
    • इस प्रकार इस कानून के तहत एक बार अयोग्य सदस्य उसी सदन की किसी सीट पर किसी भी राजनीतिक दल से चुनाव लड़ सकते हैं।
    • दलबदल के आधार पर अयोग्यता संबंधी प्रश्नों पर निर्णय के लिये मामले को सदन के सभापति या अध्यक्ष के पास भेजा जाता है, जो कि 'न्यायिक समीक्षा' के अधीन होता है।
      • हालाँकि कानून एक समय-सीमा प्रदान नहीं करता है जिसके भीतर पीठासीन अधिकारी को दलबदल के मामले का फैसला करना होता है।
  • अयोग्यता का आधार:
    • यदि एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता को छोड़ देता है। 
    • यदि वह पूर्व अनुमति प्राप्त किये बिना अपने राजनीतिक दल या ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा जारी किसी भी निर्देश के विपरीत सदन में मतदान करता है या मतदान से दूर रहता है।
      • उसकी अयोग्यता के लिये पूर्व शर्त के रूप में ऐसी घटना के 15 दिनों के भीतर उसकी पार्टी या अधिकृत व्यक्ति द्वारा मतदान से मना नहीं किया जाना चाहिये।
    • यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
    • यदि छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
  • संबंधित मुद्दे:
    • प्रतिनिधि और संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना:
      • दलबदल विरोधी कानून के लागू होने के पश्चात् सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करना होता है।
      • यह उन्हें किसी भी मुद्दे पर अपने निर्णय के अनुरूप वोट देने की स्वतंत्रता नहीं देता है जिससे प्रतिनिधि लोकतंत्र कमज़ोर होता है।
    • अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका: 
      • कई उदाहरणों में अध्यक्ष (आमतौर पर सत्ताधारी दल से) ने अयोग्यता पर निर्णय लेने में देरी की है।
    • विभाजन की कोई मान्यता नहीं: 
      • 91वें संवैधानिक संशोधन 2004 के कारण दलबदल विरोधी कानून ने दलबदल विरोधी शासन को एक अपवाद बनाया।
      • हालाँकि यह संशोधन किसी पार्टी में 'विभाजन' को मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाय 'विलय' को मान्यता देता है।
    • चुनावी जनादेश का उल्लंघन: 
      • दलबदल उन विधायकों द्वारा चुनावी जनादेश का अपमान है जो एक पार्टी के टिकट पर चुने जाते हैं, लेकिन फिर मंत्री पद या वित्तीय लाभ के लालच के चलते दूसरे में स्थानांतरित होना सुविधाजनक समझते हैं।
    • सरकार के सामान्य कामकाज पर प्रभाव: 
      • 1960 के दशक में विधायकों द्वारा लगातार दलबदल की पृष्ठभूमि के खिलाफ कुख्यात "आया राम, गया राम" का नारा गढ़ा गया था। दलबदल के कारण सरकार में अस्थिरता पैदा होती है और प्रशासन प्रभावित होता है।
    • हॉर्स-ट्रेडिंग को बढ़ावा: 
      • दलबदल विधायकों के खरीद-फरोख्त को भी बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ माना जाता है।
  • सुझाव:
    • चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि दलबदल के मामलों में इसे निर्णायक प्राधिकारी होना चाहिये।
    • दूसरों ने तर्क दिया है कि राष्ट्रपति और राज्यपालों को दलबदल याचिकाओं पर सुनवाई करनी चाहिये।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि संसद को उच्च न्यायपालिका के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में स्वतंत्र न्यायाधिकरण का गठन करना चाहिये ताकि दलबदल के मामलों में तेज़ी और निष्पक्ष रूप से फैसला किया जा सके।
    • कुछ टिप्पणीकारों ने कहा है कि यह कानून विफल हो गया है और इसे हटाने की सिफारिश की है। पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने सुझाव दिया है कि यह केवल अविश्वास प्रस्ताव में सरकारों को बचाने के लिये लागू होता है। 

आगे की राह  

  • यद्यपि सरकार की स्थिरता एक मुद्दा है इसके लिये पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र को मज़बूत करना होगा जिससे पार्टी विखंडन की घटनाओं को रोका जा सके। 
  • भारत में राजनीतिक दलों को नियंत्रित करने वाले कानून की प्रबल आवश्यकता है। इस तरह के कानून में राजनीतिक दलों को आरटीआई के तहत लाया जाना चाहिये, साथ ही पार्टी के भीतर लोकतंत्र को मज़बूत करना चाहिये।
  • सदन के अध्यक्ष का दलबदल के मामले में अंतिम प्राधिकारी होना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को प्रभावित करता है। इस संदर्भ में शक्ति को उच्च न्यायपालिका या चुनाव आयोग (दूसरी एआरसी रिपोर्ट द्वारा अनुशंसित) को हस्तांतरित करने से दल-बदल के खतरे को रोका जा सकता है।
  • प्रतिनिधि लोकतंत्र को दल-बदल विरोधी कानून के हानिकारक प्रभाव से बचाने के लिये कानून का दायरा केवल उन कानूनों तक सीमित किया जा सकता है, जहाँ सरकार की हार से विश्वास की हानि हो सकती है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


भारतीय इतिहास

प्राचीन भारत में गणराज्य

प्रिलिम्स के लिये:

सभा, विदथ, समिति  

मेन्स के लिये:

प्राचीन भारत में गणराज्य का स्वरुप

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक बात कही कि भारत न केवल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, बल्कि लोकतंत्र की जननी भी है।

  • प्राचीन भारत में लोकतंत्र और गणतंत्रवाद के आद्य रूपों के अस्तित्व का प्रमाण है।

प्रमुख बिंदु:

  • वैदिक शासन: वेद गणतांत्रिक शासन व्यवस्था में दो प्रकार की शासन व्यवस्थाएँ विद्यमान थीं:
    • राजशाही: इसमें राजा निर्वाचित होता था। इसे लोकतंत्र का प्रारंभ माना जाता है।
    • गणतंत्र: इसमें राजा या सम्राट के बजाय शक्ति संकेंद्रण एक परिषद या सभा में निहित होती थी।
      • इस सभा की सदस्यता जन्म के बजाय कर्म सिद्धांत पर आधारित थी और इसमें ऐसे लोग शामिल होते थे जिन्होंने अपने कार्यों से खुद को प्रतिष्ठित किया था।
      • यहाँ तक ​​कि विधायिकाओं की आधुनिक द्विसदनीय प्रणाली का भी एक संकेत प्राचीन संस्था सभा के रूप में प्रतिष्ठित थी जिसमें सामान्य लोगों का प्रतिनिधित्व होता था।
      • नीति, सैन्य मामलों और सभी को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करने के लिये विदथ का उल्लेख ऋग्वेद में सौ से अधिक बार किया गया है। इन चर्चाओं में महिलाएँ और पुरुष दोनों हिस्सा लेते थे। 
  • महाभारत:
    • महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 107/108 में भारत में गणराज्यों (जिन्हें गण कहा जाता है) की विशेषताओं के बारे में विस्तृत वर्णन है।
      • इसमें कहा गया है कि जब एक गणतंत्र के लोगों में एकता होती है तो गणतंत्र शक्तिशाली हो जाता है और उसके लोग समृद्ध हो जाते हैं तथा आंतरिक संघर्षों की स्थिति में वे नष्ट हो जाते हैं।
    • इससे पता चलता है कि प्राचीन भारत में न केवल हस्तिनापुर और इंद्रप्रस्थ जैसे राज्य थे बल्कि ऐसे क्षेत्र भी थे जहाँ कोई राजा नहीं था बल्कि एक गणतंत्र था।
  • बौद्ध सिद्धांत:
    • बौद्ध कैनन अर्थात् संस्कृत (जिसमें अधिकांश महायान बौद्ध साहित्य लिखा गया था) और पाली (जिसमें हीनयान साहित्य का अधिकांश भाग लिखा गया था) में भारत के प्राचीन गणराज्यों की व्यवस्था का व्यापक संदर्भ मिलता है। जैसे- वैशाली के लिच्छवी।
      • बौद्ध सिद्धांत वैशाली की मगध के साथ प्रतिद्वंद्विता का भी विस्तार से वर्णन करता है, जो एक राजतंत्र था। यदि लिच्छवियों की जीत होती तो उपमहाद्वीप में शासन की गति गैर-राजशाही व्यवस्था का और विकास होता।
    • महानिब्बाना सुत्त (पाली बौद्ध कृति) और अवदान शतक (दूसरी शताब्दी ईस्वी का एक संस्कृत बौद्ध पाठ) में भी उल्लेख है कि कुछ क्षेत्र सरकार के गणतंत्रात्मक रूप के अधीन थे।
    • बौद्ध और जैन ग्रंथों में तात्कालिक 16 शक्तिशाली राज्यों या महाजनपदों की सूची मिलती  है।

The-Mahajanapadas

  • ग्रीक रिकॉर्ड्स:
    • ग्रीक इतिहासकार डियोडोरस सिकुलस के अनुसार, सिकंदर के आक्रमण (326 ईसा पूर्व) के समय उत्तर पश्चिम भारत के अधिकांश शहरों में सरकार के लोकतांत्रिक रूप थे (हालाँकि कुछ क्षेत्र आम्भी और पोरस जैसे राजाओं के अधीन थे) तथा इसका उल्लेख इतिहासकार एरियन द्वारा भी किया गया था।
    • सिकंदर की सेना को इन गणराज्यों की सेनाओं से भयंकर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उदाहरणस्वरुप मल्लों आदि से भारी हानि झेलने के बाद सिकंदर को जीत हासिल हुई थी।
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र:
    • लोकतंत्रात्मक स्वरुप के अन्य स्रोत पाणिनि की अष्टाध्यायी, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि हैं।
    • कौटिल्य द्वारा राज्य के तत्त्व: किसी भी राज्य को सात तत्त्वों से बना माना जाता है। पहले तीन स्वामी या राजा, अमात्य या मंत्री (प्रशासन) और जनपद या प्रजा हैं।
      • राजा को प्रजा की भलाई के लिये अमात्यों की सलाह पर कार्य करना चाहिये।
      • मंत्रियों को लोगों के बीच से नियुक्त किया जाता है (अर्थशास्त्र में प्रवेश परीक्षा का भी उल्लेख है)।
      • अर्थशास्त्र के अनुसार, प्रजा के सुख और लाभ में राजा का सुख और लाभ निहित है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

आधार-सक्षम भुगतान में खामियाँ

प्रिलिम्स के लिये:

आधार-सक्षम भुगतान, NPCI 

मेन्स के लिये:

आधार-सक्षम भुगतान का महत्त्व और चुनौतियाँ 

चर्चा में क्यों?

हाल के घोटालों की एक शृंखला ने आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (AEPS) की कमज़ोरियों को उजागर किया है।

प्रमुख बिंदु

  • आधार-सक्षम भुगतान प्रणाली (AEPS):
    • AEPS एक बैंक के नेतृत्व वाला मॉडल है जो आधार प्रमाणीकरण का उपयोग करके किसी भी बैंक के बिज़नेस कॉरेस्पोंडेंट (BC)/बैंक मित्र के माध्यम से POS (प्वाइंट ऑफ सेल/माइक्रो एटीएम) पर ऑनलाइन इंटरऑपरेबल वित्तीय लेन-देन की अनुमति देता है।
    • यह प्रणाली वित्तीय लेन-देन में एक और सुरक्षा व्यवस्था है क्योंकि इन लेन-देन को करते समय बैंक विवरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होती है।
    • इसका परिचालन भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) और भारतीय बैंक संघ (IBA) की एक संयुक्त पहल भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (NPCI) द्वारा किया जाता है।
  • AEPS के लाभ:
    • बैंकों की भीड़ कम करना: अन्य माइक्रो-एटीएम प्रणालियों की तरह इसने बैंकों की भीड़भाड़ को कम करने में मदद की है। यह उन प्रवासी कामगारों के लिये विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है जिनके पास एटीएम की सुविधा नहीं है।
    • सामाजिक सुरक्षा को मज़बूत करना: यह सरकारों से कमज़ोर नागरिकों तक नकद हस्तांतरण योजनाओं के प्रसार के बाद सामाजिक सेवाओं को मज़बूत करने में मदद करेगा।
    • लास्ट-माइल सर्विस को सक्षम करना: यह उन भुगतानों को आसान करेगा जो लंबी लेन-देन प्रक्रिया के बजाय त्वरित ढंग से किये जाएंगे।
      • इंटरऑपरेबल सिस्टम यह सुनिश्चित करता है कि ग्राहक एक बैंक के BC से बंधा नहीं है।
    • बिचौलियों को हटाना: गरीबों और अनपढ़ों का शोषण करने वाले बिचौलियों को हटाया जा सकेगा।
  • मौजूदा खामियाँ:
    • भ्रष्ट BC: कभी-कभी BC लोगों की वित्तीय निरक्षरता का लाभ उठाते हुए उपभोक्ता को कम पैसा प्रदान करता है और खाते में अधिक धन निकासी दर्ज करता है।
      • कई बार BC गरीब लोगों को मांग करने पर रसीद देने से इनकार करते हैं।
      • भ्रष्ट BC एक निरक्षर ग्राहकों को बिना पैसे दिये किसी बहाने पीओएस मशीन में डिजिटल हस्ताक्षर करा लेते हैं ।
    • धोखाधड़ी वाले लेन-देन का कोई लेखा-जोखा नहीं: AEPS के पास धोखाधड़ी वाले BC का कोई रिकॉर्ड नहीं है, यह केवल लेन-देन रिकॉर्ड दिखाता है।
      • यह गरीब लोगों को और अधिक असुरक्षित बनाता है, जो पहले से ही धन की कमी का सामना कर रहे हैं।
    • प्रणालीगत मुद्दे: बायोमेट्रिक बेमेल, खराब कनेक्टिविटी या कुछ बैंकिंग भागीदारों की कमज़ोर प्रणाली के कारण लेन-देन में विफलता भी AEPS को प्रभावित करती है।

आगे की राह:

  • वित्तीय साक्षरता प्रदान करने से धोखाधड़ी करने वाले BC के मामलों में कमी लाने में मदद मिलेगी।
  • रोमिंग BC पर कम-से-कम डिजिटल साक्षरता स्तर वाले राज्यों में प्रतिबंध लगाया जाना चाहिये।
  • AEPS धोखाधड़ी के पीड़ितों को बेहतर शिकायत निवारण सुविधाएँ उपलब्ध कराई जानी चाहिये।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


शासन व्यवस्था

भारतीय नागरिकता त्यागने संबंधी प्रकिया का सरलीकरण

प्रिलिम्स के लिये

संघ सूची, संविधान का भाग- 2

मेन्स के लिये 

नागरिकता का अधिग्रहण और नागरिकता त्यागने संबंधी प्रावधान

चर्चा में क्यों?

गृह मंत्रालय (MHA) ने अपनी नागरिकता को त्यागने के इच्छुक भारतीयों के लिये प्रक्रिया को और अधिक सरल बना दिया है।

  • इससे पूर्व केंद्र सरकार ने पाँच राज्यों के अधिकारियों को मौजूदा नियमों के तहत नागरिकता आवेदनों से संबंधित शक्तियाँ प्रदान करते हुए एक अधिसूचना जारी की थी।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • नागरिकता त्यागने संबंधी इस नई प्रकिया के तहत आवेदकों को ऑनलाइन दस्तावेज़ अपलोड करने की सुविधा दी जाएगी और साथ ही इस समस्त प्रकिया को 60 दिनों के भीतर पूरा करने का प्रावधान है।
    • ज्ञात हो कि वर्ष 2015-19 के बीच 6.7 लाख से अधिक भारतीयों ने अपनी नागरिकता त्याग दी थी।
    • वर्ष 2018 में गृह मंत्रालय ने आवेदन फॉर्म में ‘परिस्थितियों/कारणों’ का भी एक कॉलम शामिल किया था, जिसके तहत आवेदकों को विदेशी नागरिकता प्राप्त करने और भारतीय नागरिकता त्यागने के कारणों का भी उल्लेख करना था। 
  • नागरिकता:
    • सवैधानिक प्रावधान:
      • नागरिकता को संविधान के तहत ‘संघ सूची में सूचीबद्ध किया गया है और इस प्रकार यह संसद के अनन्य अधिकार क्षेत्र में है।
      • संविधान 'नागरिक' शब्द को परिभाषित नहीं करता है, लेकिन नागरिकता के लिये पात्र व्यक्तियों की विभिन्न श्रेणियों का विवरण भाग 2 (अनुच्छेद 5 से 11) में दिया गया है।
        • संविधान के अन्य प्रावधानों के विपरीत 26 जनवरी, 1950 को अस्तित्व में आए इन अनुच्छेदों को संविधान को अपनाते हुए 26 नवंबर, 1949 को ही लागू कर दिया गया था।
    • भारतीय नागरिकता का अधिग्रहण:
      • वर्ष 1955 का नागरिकता अधिनियम, नागरिकता प्राप्त करने के पाँच तरीकों का उल्लेख करता है, जिसमें जन्म, वंश, पंजीकरण, देशीयकरण और क्षेत्र का समावेश शामिल है।
    • नागरिकता (संशोधन) अधिनियम, 2019:
      • इस अधिनियम के माध्यम से वर्ष 2015 से पूर्व भारत में प्रवेश करने वाले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों के लिये नागरिकता अधिग्रहण प्रकिया में तेज़ी लाने हेतु मूल कानून में संशोधन किया गया है।
      • अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिये भारतीय नागरिकता हेतु आवेदन करने से पूर्व कम-से-कम 11 वर्ष तक भारत में रहने की आवश्यकता को घटाकर पाँच वर्ष (देशीयकरण द्वारा) कर दिया गया है।
  • भारत में नागरिकता त्यागने की विधियाँ:
    • स्वैच्छिक त्याग:
      • एक भारतीय नागरिक, जो पूर्ण आयु और क्षमता का है, अपनी इच्छा से भारत की नागरिकता त्याग सकता है।
      • जब कोई व्यक्ति अपनी नागरिकता त्याग देता है, तो उस व्यक्ति का प्रत्येक नाबालिग बच्चा भी अपनी भारतीय नागरिकता खो देता है। हालाँकि जब वह बच्चा 18 वर्ष की आयु प्राप्त करता है, तो भारतीय नागरिकता फिर से प्राप्त कर सकता है।
    • बर्खास्तगी द्वारा
      • भारतीय संविधान एकल नागरिकता प्रदान करता है। इसका अर्थ है कि एक व्यक्ति एक समय में केवल एक ही देश का नागरिक हो सकता है।
      • इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति, किसी दूसरे देश की नागरिकता लेता है तो उसकी भारतीय नागरिकता स्वयं ही समाप्त हो जाती है। हालाँकि यह प्रावधान तब लागू नहीं होता जब भारत युद्ध का सामना कर रहा हो।
    • सरकार द्वारा वंचित किया जाना
      • भारत सरकार निम्नलिखित स्थितियों में किसी भी भारतीय नागरिक की नागरिकता समाप्त कर सकती है;
        • यदि नागरिक संविधान का अपमान करता है।
        • यदि नागरिकता फर्जी तरीके से प्राप्त की गई हो।
        • नागरिक ने युद्ध के दौरान दुश्मन के साथ अवैध रूप से व्यापार या संचार किया है।
        • पंजीकरण या देशीयकरण के माध्यम से प्राप्त नागरिकता के पाँच वर्ष के दौरान नागरिक को किसी देश में दो वर्ष की कैद हुई हो।
        • नागरिक 7 वर्षों से लगातार भारत से बाहर रह रहा हो।

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

इंडियाज़ पाथ टू पावर: विदेश नीति

प्रिलिम्स के लिये:

यूरोपीय संघ, भारत-प्रशांत क्षेत्र

मेन्स के लिये:

भारतीय विदेश नीति की नवीन चुनौतियाँ और दृष्टिकोण   

चर्चा में क्यों?

हाल ही में "इंडियाज़ पाथ टू पावर: स्ट्रैटेजी इन ए वर्ल्ड एड्रिफ्ट" शीर्षक वाली एक रिपोर्ट ने वर्तमान संदर्भ में भारत के लिये कई पूर्व नीति सिफारिशों पर प्रकाश डाला।

इसने रेखांकित किया कि रणनीतिक स्वायत्तता, खुलापन और समावेशी आर्थिक विकास प्रमुख मार्गदर्शक सिद्धांत हैं।

प्रमुख बिंदु:

  • वैश्विक अर्थव्यवस्था का बदलाव: चीन और भारत के उदय तथा यूरोपीय संघ एवं  अमेरिका के आधिपत्य की समानांतर गिरावट के साथ शक्ति का वैश्विक संतुलन एशिया की ओर बढ़ रहा है।
  • बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था को सुदृढ़ करना: एशिया और विश्व में बहुध्रुवीयता की ओर रुझान बढ़ रहा है। इस प्रवृत्ति को सुदृढ़ करना भारत के हित में है।
    • इस संदर्भ में भारत को अपनी विदेश नीति को उन विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं की दिशा में फिर से उन्मुख करना चाहिये, जिनके साथ उसके अभिसरण हित हैं।
    • इस तरह के हितों को बहुपक्षीय संस्थाओं और प्रक्रियाओं को मज़बूत करके आगे बढ़ाया जाना चाहिये।
  • सामरिक स्वायत्तता बनाए रखना: अमेरिका, जापान तथा यूरोप के साथ सामरिक स्वायत्तता की साझेदारी को और मज़बूत करने पर ध्यान दिया जाना चाहिये, जो भारत की सुरक्षा चिंताओं और विकास संभावनाओं को साझा करते हैं।
    • साथ ही इस क्षेत्र में मुद्दों से निपटने और वैश्विक चुनौतियों का जवाब देने हेतु भारत-रूस संबंध को प्रासंगिक बनाए रखना होगा।
  • वैश्वीकरण का समर्थन: भले ही कुछ मामलों में वैश्वीकरण प्रभावित हुआ है लेकिन अतीत और आने वाले भविष्य में यह तेज़ी से तकनीकी प्रगति से प्रेरित होगा।
    • इसलिये अपनी आर्थिक संभावनाओं को बढ़ाने और लोगों के कल्याण में सुधार के लिये भारत को अपनी अर्थव्यवस्था का एक बाहरी अभिविन्यास बनाए रखना चाहिये।
  • पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध: यदि भारत एक विस्तारित क्षेत्रीय और वैश्विक भूमिका निभाना चाहता है और एक शुद्ध सुरक्षा प्रदाता (Net Security Provider) बनना चाहता है, तो उसे पड़ोसी देशों से उत्पन्न होने वाले खतरों और अवसरों का बेहतर प्रबंधन करने की आवश्यकता है।
    • ऐसे में भारत को चीन की चुनौती से निपटना होगा।
      • ऐसा इसलिये है क्योंकि चीन यह स्वीकार करता है कि भारत ही ऐसा देश है, जिसके पास बराबर क्षेत्रफल, जनसंख्या, इतिहास, जनशक्ति और वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षमताएँ हैं, जो इससे आगे निकल सकता है।
    • इसने यह भी कहा कि चीन-पाकिस्तान की मिलीभगत से भारत को राजनीतिक रूप से निर्देशित रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।
  • विदेश नीति को प्रभावित करने वाली घरेलू राजनीति को रोकना: ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ कई देशों ने भारत की विभिन्न घरेलू नीतियों के लिये आरक्षण का हवाला दिया है। नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 इसका उदाहरण है।
    • इस संदर्भ में घरेलू नीतियों में समावेशिता, असमानताओं को कम करना और अपने सभी नागरिकों को स्वास्थ्य, शिक्षा तथा  सार्वजनिक सुरक्षा की मुख्य जिम्मेदारियाँ प्रदान करना शामिल होना चाहिये।
    • साथ ही यह महसूस करने की आवश्यकता है कि भारत का जन्मजात सर्वदेशीयवाद इसकी असाधारण विविधता से उत्पन्न हुआ है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


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