20 Solved Questions with Answers
-
भारतीय समाज
इस अभिमत का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये कि भारत की सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं के बीच एक गहरा सहसंबंध है।
हल करने का दृष्टिकोण
- भारत की सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं पर स्थित लोगों के साथ उसके सहसंबंध की जाँच कीजिये।
- सीमांतताओं पर स्थित समूहों के सामने आने वाली चुनौतियों और ऊपर की ओर बढ़ने के अवसरों पर प्रकाश डालिये।
परिचय
भारत की सांस्कृतिक विविधता, जिसमें विभिन्न भाषाएँ, धर्म और परंपराएँ सामाजिक-आर्थिक कारकों से जुड़ी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ समुदायों को आय, शिक्षा और सामाजिक स्थिति में लगातार अलाभ का सामना करना पड़ रहा है।
मुख्य भाग:
सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं के बीच सहसंबंध
- ऐतिहासिक स्तरीकरण :
- जाति व्यवस्था ने दलितों और आदिवासियों को व्यवस्थित रूप से सीमांतता पर धकेल दिया है, उन्हें शिक्षा, नौकरियों और सामाजिक गतिशीलता से वंचित रखा है। वर्ष 2011 की जनगणना से ज्ञात होता है कि अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) में अन्य की तुलना में गरीबी दर काफी अधिक है। इसी तरह, सच्चर समिति (वर्ष 2006) ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मुसलमान शैक्षिक और आर्थिक अभाव से पीड़ित हैं, उनकी साक्षरता दर कम है और सरकारी नौकरियों तक उनकी पहुँच भी कम है।
- क्षेत्रीय एवं जातीय विषमताएँ :
- मध्य भारत में जनजातीय समुदाय और पूर्वोत्तर में जातीय समूह खनन, बुनियादी ढाँचे और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण अल्पविकास और विस्थापन का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लिये, नर्मदा बाँध के कारण अधिक पैमाने पर विस्थापन ने आदिवासी आबादी को असंगत रूप से प्रभावित किया।
- भाषाई सीमांतता:
- अ-हिंदी भाषी राज्य, विशेषकर दक्षिण के राज्य, प्राय: केंद्र सरकार के हिंदी पर ध्यान केंद्रित करने पर चिंता व्यक्त करते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि इससे संसाधनों के वितरण में असमानता पैदा होती है और क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा होती है।
- लैंगिक और अंतःविषयकता :
- दलित महिलाओं की तरह सीमांत स्थिति पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और रोज़गार में कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तथा उन्हें जाति और लैंगिक-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
विपक्ष में तर्क
- आर्थिक संरचनाएँ :
- वैश्वीकरण, नवउदारवादी नीतियाँ और कृषि संकट जैसी आर्थिक शक्तियाँ भी गरीबी की स्थिति में वृद्धि करती हैं, जिससे सीमांतता की स्थिति पर रहने वाले और गैर-सीमांतता की स्थिति में रहने वाले दोनों समुदाय प्रभावित होते हैं।
- नीति और शासन विफलताएँ :
- मनरेगा जैसी योजनाओं का खराब क्रियान्वयन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गड़बड़ी के कारण वंचित समूह और अधिक सीमांतता की स्थिति में पहुँच गए हैं, जिससे यह बात उजागर हुई है कि सांस्कृतिक पहचान से परे शासन एक प्रमुख कारक है।
निष्कर्ष
सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतता पर होने के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध है, लेकिन व्यापक आर्थिक कारक और शासन संबंधी मुद्दे भी इसमें योगदान करते हैं। भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिये सांस्कृतिक और संरचनात्मक असमानताओं को संबोधित करना आवश्यक है।
स्रोत:
https://link.springer.com/article/10.1007/s12115-023-00833-0
-
भारतीय समाज
वैश्वीकरण ने विभिन्न वर्गों की कुशल, युवा, अविवाहित महिलाओं द्वारा शहरी प्रवास में वृद्धि की है। इस प्रवृत्ति ने उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार के साथ संबंधों पर क्या प्रभाव डाला है?
हल करने का दृष्टिकोण:
- वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिये और कुशल महिलाओं के शहरी प्रवास में इसकी भूमिका बताइये।
- पारिवारिक गतिशीलता में बदलाव और परंपरा एवं आधुनिकता के बीच संतुलन के साथ-साथ प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
- महिलाओं के पूर्ण लाभ हेतु चुनौतियों का समाधान करने की आवश्यकता पर बल दीजिये।
परिचय
वैश्वीकरण से तात्पर्य व्यापार, प्रौद्योगिकी, निवेश और वर्गों एवं सूचनाओं के आवागमन के माध्यम से अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृतियों और आबादी की बढ़ती निर्भरता से है। इन साझेदारियों ने आधुनिक दैनिक जीवन को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया है।
वैश्वीकरण और कुशल युवा महिलाओं का शहरी प्रवास-
- आर्थिक अवसर: स्वास्थ्य सेवा, खुदरा और आईटी जैसे उद्योग कुशल, अविवाहित महिलाओं को प्राथमिकता देते हैं, जो सतत् विकास लक्ष्य 5 और 8 का समर्थन करते हैं।
- शैक्षिक आकांक्षाएँ: वैश्विक संपर्क और शिक्षा तक पहुँच छोटे शहरों की महिलाओं को शहरी अवसरों का लाभ उठाने, विश्वविद्यालय में नामांकन बढ़ाने और सतत् विकास लक्ष्य 4: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समर्थन करने के लिये सशक्त बनाती है।
- सामाजिक गतिशीलता: प्रवासन, युवा महिलाओं को सामाजिक गतिशीलता प्राप्त करने और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करने में सक्षम बनाता है, जो सतत् विकास लक्ष्य 8: सभ्य कार्य और आर्थिक विकास के साथ संरेखित है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार के साथ संबंधों पर प्रभाव
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता: शहरी आईटी और बीपीओ जैसी नौकरियाँ महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान करती हैं, जिससे उन्हें पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने का मौका मिलता है। हालाँकि शहरी परिवेश में उन्हें उत्पीड़न और हिंसा का भी सामना करना पड़ता है, क्योंकि समर्थन प्रणाली अपर्याप्त होती है।
- महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती अपराध दर (NCRB डेटा 2014-2022) सशक्तीकरण के साथ-साथ बेहतर सुरक्षा की आवश्यकता पर बल देती है।
- पारंपरिक पारिवारिक संरचनाओं पर दबाव: प्रवासन, परिवारों को संयुक्त से एकल संरचनाओं में हस्तांतरित करता है, जिससे महिलाओं को साथी के चयन और विवाह के समय में अधिक स्वायत्तता मिलती है, जो अक्सर पारंपरिक पारिवारिक अपेक्षाओं के साथ मतभेद उत्पन्न करता है।
- सांस्कृतिक परिवर्तन: महिलाएँ शहरी जीवन शैली और पारंपरिक मूल्यों के बीच तालमेल बिठाती हैं, शहरी कार्यस्थलों में सफलता के माध्यम से लैंगिक भूमिकाओं को पुनः परिभाषित करती हैं। ये व्यक्तिगत आकांक्षाओं को वित्तीय ज़िम्मेदारियों के साथ संतुलित करती हैं, जिससे परस्पर निर्भर पारिवारिक गतिशीलता का निर्माण होता है।
निष्कर्ष
आर्थिक विकास और व्यक्तिगत विकास के लिये शहरी प्रवास आवश्यक है। हालाँकि महिलाओं को इन अवसरों से पूर्ण रूप से लाभ मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिये नकारात्मक प्रभावों को संबोधित किया जाना आवश्यक है।
स्रोत:
https://www.piie.com/microsites/globalization/what-is-globalization
https://www.iied.org/sites/default/files/pdfs/migrate/11020IIED.pdf
-
भूगोल
ट्विस्टर क्या है? मेक्सिको की खाड़ी के आस-पास के क्षेत्रों में अधिकांश ट्विस्टर क्यों देखे जाते हैं? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- ट्विस्टर्स को परिभाषित करते हुए उत्तर लिखिये।
- मेक्सिको की खाड़ी में बार-बार आने वाले ट्विस्टर के कारणों का उल्लेख कीजिये।
- मुख्य बिंदुओं का सारांश देते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
ट्विस्टर एक गंभीर चक्रवात है जिसमें घुमावदार, कीप के आकार के मेघ होते हैं। इसमें पवन का एक घूमावदार स्तंभ निर्मित होता है, जो भू-पृष्ठ को कपासी वर्षी मेघ या कतिपय कपासी मेघ से जोड़ता है। ये वैश्विक स्तर पर हो सकते हैं लेकिन मेक्सिको की खाड़ी क्षेत्र में ये अधिक सामान्य हैं।
मुख्य भाग:
- मेक्सिको की खाड़ी में ट्विस्टर की होने वाली घटनाओं के लिये ज़िम्मेदार कारक:
- उष्ण, आर्द्र पवन: मेक्सिको की खाड़ी उष्ण,आर्द्र पवन प्रदान करती है जो ऊपर उठती है, जिससे चक्रवर्तीय परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं।
- शीत, शुष्क पवन: रॉकी पर्वत या कनाडा से शीत, शुष्क पवन दक्षिण की ओर बढ़ती है, जो उष्ण, आर्द्र पवनों से टकराती है और वायुमंडलीय अस्थिरता उत्पन्न करती है।
- तीक्ष्ण पवनें: विभिन्न ऊँचाइयों पर पवन की गति और दिशा में बदलाव के कारण तीव्र पवनें उत्पन्न होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप क्षैतिज घूर्णन प्रभाव उत्पन्न होता है, जो ट्विस्टर के निर्माण के लिये आवश्यक है।
- भौगोलिक विशेषताएँ: ग्रेट प्लेन और मिसिसिपी नदी घाटी का समतल भूभाग तीव्रता के साथ गर्म होता है, जिससे ट्विस्टर के लिये आदर्श परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं।
- उष्णकटिबंधीय चक्रवात और हरिकेन: खाड़ी उष्णकटिबंधीय चक्रवात और हरिकेन से ग्रस्त है, जिससे भूस्खलन के बाद ट्विस्टर उत्पन्न होने की संभावना होती है।
निष्कर्ष:
इस प्रकार ट्विस्टर, पवन के घूर्णित स्तंभों से निर्मित होने वाले भीषण चक्रवात हैं। मेक्सिको की खाड़ी के क्षेत्र में ऊष्ण, आर्द्र पवन और शीत, शुष्क पवनों के टकराव के साथ-साथ अनुकूल भूगोल तथा मौसमी पैटर्न के कारण प्रायः ट्विस्टर आते हैं।
https://www.ncert.nic.in/ncerts/l/kegy210.pdf
https://www.britannica.com/science/tornado/Occurrence-in-the-United-States
-
भारतीय समाज
समानता और सामाजिक न्याय की व्यापक नीतियों के बावजूद, अभी तक वंचित वर्गों को संविधान द्वारा परिकल्पित सकारात्मक कार्रवाहियों का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। टिप्पणी कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- सकारात्मक कार्रवाई और उसके महत्त्व को परिभाषित कीजिये।
- भारत में विद्यमान सकारात्मक नीतियों पर चर्चा कीजिये।
- इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिये प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
- सकारात्मक कार्रवाई की प्रभावशीलता में सुधार हेतु उपाय सुझाइये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
सकारात्मक कार्रवाई से तात्पर्य नीतियों और प्रथाओं के एक समूह से है जिसका उद्देश्य शिक्षा, रोज़गार तथा राजनीति समेत विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों का प्रतिनिधित्व एवं अवसरों में वृद्धि करना है।
मुख्य भाग:
भारत में सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीतियाँ:
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
- अनुच्छेद 330, 332 और 243D क्रमशः संसद, राज्य विधानसभाओं और पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटें आरक्षित करते हैं।
- शिक्षा एवं रोज़गार के अवसर:
- अनुच्छेद 15(4) और 16(4) वंचित समूहों के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अनुमति देते हैं।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निशुल्क, अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करता है, जिससे वंचित वर्गों के लिये बाधाएँ कम होती हैं।
- समग्र विकास:
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) कमज़ोर आबादी के लिये सब्सिडी वाले खाद्यान्न तक पहुँच सुनिश्चित करता है।
- प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत शहरी और ग्रामीण गरीबों के लिये किफायती आवास उपलब्ध कराए जाते हैं।
- कौशल भारत मिशन वंचित पृष्ठभूमि के युवाओं की रोज़गार क्षमता को बढ़ाता है।
प्रमुख चुनौतियाँ:
- अभिजात वर्ग का कब्ज़ा: आरक्षित श्रेणियों में धनी व्यक्तियों का प्रभुत्व वंचित वर्गों के लिये लाभ को सीमित करता है।
- जाति आधारित राजनीति: आरक्षण के राजनीतिकरण के प्रति संघर्ष एक प्रमुख कारण बन सकता है और कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
- भ्रष्टाचार: कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार लाभ को इच्छित प्राप्तकर्त्ताओं से दूर ले जाते हैं।
- जागरूकता: आरक्षण लाभों के बारे में जानकारी का अभाव इसके लाभों का कम उपयोग करने की ओर ले जाता है।
- सामाजिक कलंक: निरंतर पूर्वाग्रह वंचित समुदायों के एकीकरण में बाधा डालते हैं।
- प्रतिरोध: आलोचकों का तर्क है कि आरक्षण से योग्यता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे प्रतिकूल प्रतिक्रिया और सामाजिक तनाव उत्पन्न होता है।
संभावित सुधार:
- आरक्षण मानदंडों का पालन न करने पर दंड के प्रावधान को लागू करना।
- आर्थिक रूप से वंचित लोगों को लाभ पहुँचाने के लिये आय संबंधी मानदंड लागू करना।
- राज्य 15% कोटे के अंतर्गत अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
- समावेशन और भेदभाव पर जागरूकता अभियान चलाना।
- समान प्रदायगी हेतु सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति पर विचार करना।
- सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीतियों में धार्मिक अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और विकलांगों को शामिल करना।
निष्कर्ष:
सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीति भारत में एक सुदृढ़ और समावेशी समाज को बढ़ावा देने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करती है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता समाज के अति वंचित वर्गों के वास्तविक उत्थान की क्षमता पर निर्भर करती है।
-
भूगोल
क्षेत्रीय असमानता क्या है? यह विविधता से किस प्रकार भिन्न है? भारत में क्षेत्रीय असमानता का मुद्दा कितना गंभीर है? (250 शब्द)
हल करने का दृष्टिकोण:
- क्षेत्रीय असमानता और विविधता को परिभाषित कीजिये।
- क्षेत्रीय असमानता और विविधता के मध्य अंतर पर प्रकाश डालिये।
- भारत में क्षेत्रीय असमानता के मुद्दे पर चर्चा कीजिये।
- अंत में, क्षेत्रीय असमानता के मुद्दों के समाधान हेतु उपाय सुझाइये।
परिचय:
क्षेत्रीय असमानता का तात्पर्य किसी देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक संसाधनों, विकास, बुनियादी ढाँचे और अवसरों के असमान वितरण से है। विविधता का तात्पर्य किसी आबादी या क्षेत्र में मौजूद सांस्कृतिक, भाषाई, भौगोलिक और सामाजिक विशेषताओं की विविधता से है।
मुख्य भाग:
क्षेत्रीय असमानता और विविधता के बीच मुख्य अंतर:
पहलू
क्षेत्रीय असमानता
क्षेत्रीय विविधता
केंद्र
आर्थिक एवं विकासात्मक असमानताएँ (आय, शिक्षा, बुनियादी ढाँचा)
सांस्कृतिक, जातीय और सामाजिक विविधताएँ
कारण
औपनिवेशिक विरासत, संसाधन वितरण, नीतिगत पूर्वाग्रह।
समुदायों का प्राकृतिक विकास, प्रवासन, व्यापार
प्रभाव
सामाजिक-आर्थिक चुनौतियाँ (गरीबी, बेरोज़गारी, सेवाओं की कमी) उत्पन्न होती हैं।
रचनात्मकता, सामाजिक सामंजस्य और नवाचार को बढ़ाता है।
भारत में क्षेत्रीय असमानता की गंभीरता:
- आर्थिक असंतुलन: भारत के पाँच सबसे विकसित राज्यों की प्रति व्यक्ति आय सबसे गरीब राज्यों की तुलना में लगभग 338% अधिक है।
- शैक्षिक असमानता: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, केरल की साक्षरता दर 96.2% है, जबकि बिहार की साक्षरता दर केवल 61.8% है।
- स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच: ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति एक लाख लोगों पर केवल 0.36 के अनुपात में अस्पताल हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह दर प्रति एक लाख लोगों पर अस्पताल 3.6 के अनुपात में है।
- परिवहन और कनेक्टिविटी: विकसित क्षेत्रों में बेहतर परिवहन नेटवर्क और कनेक्टिविटी होती है, जिससे व्यापार तथा गतिशीलता में सुविधा होती है।
- डिजिटल डिवाइड: एनएसएसओ के आँकड़ों के अनुसार, ग्रामीण भारतीय परिवारों में से केवल 24% के पास इंटरनेट तक पहुँच है, जबकि शहरों में यह पहुँच 66% है।
- प्रवासन पर विषम प्रभाव: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र और दिल्ली अंतर्राज्यीय प्रवासियों को प्राप्त करने वाले शीर्ष राज्य थे, जबकि उत्तर प्रदेश तथा बिहार अंतर्राज्यीय प्रवासियों के मुख्य स्रोत थे।
निष्कर्ष:
सरकार ने भारत में क्षेत्रीय असमानता को दूर करने के लिये कई पहल लागू की हैं, जिनमें पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना और राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन शामिल हैं। यह सुनिश्चित करने के लिये कि सभी क्षेत्र आर्थिक प्रगति और अवसरों से लाभान्वित हो सकें, यह आवश्यक है कि संतुलित विकास को बढ़ावा देने के लिये इन असमानताओं को दूर किया जाए।
-
भूगोल
ऑरोरा ऑस्ट्रालिस और ऑरोरा बोरियालिस क्या हैं? ये कैसे सक्रिय होते हैं? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये) 15 अंक
हल करने का दृष्टिकोण:
- ऑरोरा को स्पष्ट कीजिये
- विभिन्न प्रकार के ऑरोरा का वर्णन कीजिये तथा स्पष्ट कीजिये कि वे कैसे उत्पन्न होते हैं।
- निष्कर्ष लिखिये
परिचय:
ऑरोरा चमकदार और रंगीन प्रकाश है। इन्हें केवल रात्रि में ही देखा जा सकता है तथा ये आमतौर पर निचले ध्रुवीय क्षेत्रों तक ही सीमित रहते हैं। ऑरोरा मुख्य रूप से पूरे वर्ष उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के ध्रुवों के पास दिखाई देते हैं, लेकिन कभी-कभी वे निचले अक्षांशों तक भी विस्तृत होते हैं।
मुख्य भाग:
ऑरोरा के प्रकार:
- ऑरोरा ऑस्ट्रालिस (दक्षिणी प्रकाश): दक्षिणी गोलार्द्ध में विशेष रूप से अंटार्कटिक सर्कल के आस-पास ऑस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड,अंटार्कटिका और दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी भागों जैसे देशों में दिखाई देता है।
- ऑरोरा बोरियालिस (उत्तरी प्रकाश): आर्कटिक सर्कल के पास देखा जाता है, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र और वायुमंडल के साथ सौर कणों के संपर्क के कारण होता है। यह नॉर्वे,स्वीडन,फिनलैंड,आइसलैंड, कनाडा और अलास्का जैसे देशों में हरे,लाल और बैंगनी रंग की प्रकाश दिखाता है।
ऑरोरा को क्या प्रेरित करता है:
- सौर पवनें: सूर्य द्वारा उत्पन्न सौर पवन कणों की पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के साथ अंतःक्रिया से ध्रुवीय ज्योति उत्पन्न होती है।
- कोरोनल मास इजेक्शन (Coronal Mass Ejection- CME): CME कोरोनल प्लाज़्मा के विशाल बुलबुले होते हैं जो तीव्र चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं से घिरे होते हैं और कई घंटों के दौरान सूर्य से बाहर निकलते हैं। ये पृथ्वी पर पहुँचने वाले आवेशित कणों की संख्या बढ़ाकर ऑरोरल गतिविधि को बढ़ा सकते हैं।
- मैग्नेटोस्फीयर में अशांति: यह ऑरोरा को प्रेरित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब सौर पवनें, जिसमें सूर्य से प्राप्त आवेशित कण होते हैं, पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से संपर्क करती है,तब यह मैग्नेटोस्फीयर में अशांति उत्पन्न करती है।
- वायुमंडलीय अंतःक्रिया: आवेशित कण,मुख्य रूप से इलेक्ट्रॉन और प्रोटॉन,पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र द्वारा ध्रुवीय क्षेत्रों की ओर निर्देशित होते हैं। जब ये कण ऊपरी वायुमंडल में गैसों से टकराते हैं और साथ ही इन गैसों को उत्प्रेरित करते हैं,जिसके परिणामस्वरूप प्रकाश का उत्सर्जन होता है।
निष्कर्ष:
पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र तथा सौर गतिविधि गतिशील रूप से परस्पर क्रिया करते हैं,जैसा कि ऑरोरा द्वारा प्रदर्शित होता है,जो जटिल अंतरिक्ष मौसम की घटनाओं का परिणाम है। इसका सबसे हालिया प्रकटीकरण,ऑरोरा बोरियालिस,लद्दाख के हनले गाँव के समीप देखा गया था।
स्रोत:
-
भूगोल
गंगा घाटी की भूजल क्षमता में गंभीर गिरावट आ रही है। यह भारत की खाद्य सुरक्षा पर कैसे प्रभावित कर सकती है?
हल करने का दृष्टिकोण:
- समस्या का संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- भूजल स्तर में गिरावट के कारणों को सूचीबद्ध कीजिये तथा बताइये कि भूजल उपलब्धता में गिरावट से खाद्य सुरक्षा किस प्रकार बाधित होगी।
- इस मुद्दे को कैसे संबोधित किया जाए, इस संदर्भ में निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
गंगा घाटी, अपनी उपजाऊ जलोढ़ मृदा और प्रचुर जल आपूर्ति के साथ सहस्राब्दियों से सघन आबादी का समर्थन करने के साथ-साथ सभ्यताओं तथा संस्कृतियों को बढ़ावा देती रही है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार इस क्षेत्र में भूजल स्तर प्रतिवर्ष 0.5 से 1 मीटर की खतरनाक दर से घट रहा है।
मुख्य भाग:
भूजल स्तर में गिरावट के कारण:
- तीव्र शहरीकरण: मांग में वृद्धि के कारण भूजल का अत्यधिक दोहन हो रहा है। बोरवेल की अनियमित ड्रिलिंग इसका एक प्रमुख कारण है।
- अति-सिंचाई: यह बहुतायत लोगों की समस्या है, इससे मृदा स्वास्थ्य भी बिगड़ता है।
- अपर्याप्त वर्षा जल संचयन: मानसून के दौरान भूजल की आपूर्ति होने के स्थान पर वर्षा जल नष्ट हो जाता है।
- जलवायु परिवर्तन और अनियमित वर्षा: अनियमित वर्षा पैटर्न, लंबे समय तक शुष्कता और तापमान वृद्धि के कारण वाष्पीकरण में वृद्धि भूजल पुनर्भरण में बाधा डालती है।
संकट के बीच खाद्य सुरक्षा:
- फसल उत्पादन में कमी: भूजल की उपलब्धता कम होने से किसानों को सिंचाई के लिये जल की कमी का सामना करना पड़ेगा, विशेष रूप से शुष्क मौसम के दौरान।
- इससे चावल और गेहूँ जैसी अधिक जल की आवश्यकता वाली फसलों की उपज कम हो सकती है, जो भारत में मुख्य खाद्यान्न हैं।
- वर्षा पर निर्भरता में वृद्धि: जैसे-जैसे भूजल स्तर गिरता जाएगा, किसानों की अप्रत्याशित मानसून पर निर्भरता बढ़ती जाएगी।
- इससे कृषि क्षेत्र शुष्क और अनियमित वर्षा के प्रति अधिक संवेदनशील हो गया है, जिसके परिणामस्वरूप खाद्य उत्पादन अस्थिर हो गया है।
- उत्पादन की उच्च लागत: किसानों को अधिक गहरे कुएँ खोदने पड़ सकते हैं या जल निष्कर्षण की अधिक महँगी विधियों में निवेश करना पड़ सकता है, जिससे कृषि की लागत बढ़ सकती है।
- इससे भोजन महँगा हो जाएगा और उसकी उपलब्धता कम हो जाएगी, जिससे उसके सामर्थ्य पर प्रभाव पड़ेगा।
- आजीविका का नुकसान: भूजल स्तर में गिरावट छोटे और सीमांत किसानों को कृषि छोड़ने के लिये विवश कर सकती है, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आएगी तथा ग्रामीण आजीविका को खतरा होगा, जिससे खाद्य सुरक्षा और अधिक प्रभावित होगी।
भूजल में आई कमी को न्यूनतम करना:
- ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी कुशल सिंचाई तकनीकों को बढ़ावा देना।
- भूजल स्तर की पुनःआपूर्ति के लिये शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षा जल संचयन प्रणाली लागू करना।
- चावल और गन्ना जैसी अधिक जल की खपत वाली फसलों से दूरी बनाना।
- निर्माण हेतु जल कुशल और तकनीकी रूप से उन्नत विधियों को प्रोत्साहित करना।
- किसानों को जल-कुशल प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों को अपनाने के लिये वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करने जैसे नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- कृत्रिम पुनर्भरण संरचनाओं के साथ-साथ नमामि गंगे जैसे नदी पुनर्जीवन कार्यक्रमों के उचित कार्यान्वयन से भूजल पुनर्भरण में सहायता मिल सकती है।
निष्कर्ष:
गंगा घाटी में घटते भूजल स्तर से भारत की खाद्य सुरक्षा को खतरा है। देश की दीर्घकालिक खाद्य आपूर्ति को सुरक्षित करने के लिये सतत् भूजल प्रबंधन और कृषि पद्धतियों को अपनाने के लिये तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।
-
विश्व इतिहास
भारत में हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के ह्रास के लिये इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति कहाँ तक उत्तरदायी थी?
हल करने का दृष्टिकोण:
- इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति का संक्षिप्त परिचय देकर आरंभ कीजिये तथा बताएँ कि उसने अपने उपनिवेशों के संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया।
- ब्रिटिशों द्वारा भारतीय उद्योग के शोषण की व्याख्या कीजिये।
- तर्कों का सारांश देकर निष्कर्ष लिखिये।
18वीं सदी के अंत में ब्रिटेन में आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति, तीव्र औद्योगिकीकरण का दौर था, जिसके कारण कारखाने, मशीनीकृत उत्पादन और भाप इंजन का विकास हुआ, जिससे वस्तुओं का बड़े पैमाने पर उत्पादन हुआ। ब्रिटिश उपनिवेश इन वस्तुओं के लिये बाज़ार और संसाधन भंडार दोनों के रूप में काम करते थे, जिनमें कपास, नील तथा अन्य संसाधन शामिल थे।
औद्योगिक क्रांति और हस्तशिल्प एवं कुटीर उद्योग में गिरावट:
- हस्त निर्मित बनाम मशीन निर्मित उत्पाद: बड़े पैमाने पर उत्पादित मशीन निर्मित उत्पादों के सब्सिडीयुक्त प्रवाह से हस्तनिर्मित और महँगे भारतीय सामान बाज़ार से बाहर हो गए।
- भेदभावपूर्ण नीतियाँ: ब्रिटिश ने अहस्तक्षेप की नीति लागू की, जिसके तहत इंग्लैंड को निर्यात किये जाने वाले भारतीय सामानों पर उच्च शुल्क लगाया गया, जबकि सस्ते ब्रिटिश सामानों को न्यूनतम शुल्क के साथ भारत में प्रवेश की अनुमति दी गई।
- बेरोज़गारी और कृषि की ओर रुझान: स्थानीय बाज़ारों के पतन से कलाकारों की आजीविका प्रभावित हुई और उनमें से कई ने धनी और शक्तिशाली लोगों का संरक्षण खो दिया।
- बेरोज़गार कार्यबल को जीवित रहने के लिये अपना काम छोड़कर कृषि या अन्य निचले स्तर के कार्य करने के लिये मजबूर होना पड़ा।
- शोषणकारी खेती: बड़े पैमाने पर भूमि वाले लोगों को नकदी फसल के रूप में विशिष्ट फसलों की खेती करने के लिये मजबूर किया जाता था, जो ब्रिटिश उद्योगों के लिये आवश्यक थीं। उदाहरण के लिये, नील की खेती।
- नवप्रवर्तन में अंततः गिरावट: सस्ते मशीन-निर्मित उत्पादों के प्रचलन से हस्तनिर्मित वस्तुओं की मांग कम हो गई, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन और गुणवत्ता में कमी आई, क्योंकि कारीगर नवप्रवर्तन करने में असमर्थ थे।
भारतीय परिप्रेक्ष्य
- धन की निकासी: दादाभाई नौरोजी के सिद्धांत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि किस प्रकार ब्रिटिश शोषण ने भारत के धन की निकासी की, जिससे औद्योगिक वृद्धि और विकास में बाधा उत्पन्न हुई।
- स्वदेशी आंदोलन: महात्मा गांधी ने इस बात पर बल दिया कि ब्रिटिश औद्योगीकरण भारतीयों की आजीविका की कीमत पर आया था और उन्होंने भारतीयों से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने का आग्रह किया।
- जवाहरलाल नेहरू: अपनी पुस्तक 'द डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में उन्होंने तर्क दिया कि ब्रिटिश नीतियों ने भारत को औद्योगिकीकरण से वंचित कर दिया, तथा इसे विनिर्माण केंद्र से कच्चे माल के आपूर्तिकर्ता में बदल दिया।
निष्कर्ष
औद्योगिक क्रांति के कारण भारतीय समाज को जो संरचनात्मक क्षति हुई, वह आज भी बनी हुई है। हालाँकि, हमारे संविधान निर्माताओं ने भारत जैसे देश के लिये कुटीर उद्योग की ताकत को समझा और इसलिये अनुच्छेद 43 में स्पष्ट रूप से देश को उन्हें स्थापित करने के लिये प्रेरित किया
-
विश्व इतिहास
यह कहना कहाँ तक उचित है कि प्रथम विश्वयुद्ध मूलतः शक्ति-संतुलन को बनाए रखने के लिये लड़ा गया था? (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- उत्तर के प्रारंभ में प्रथम विश्व युद्ध के बारे में संक्षेप में बताइये।
- प्रथम विश्व युद्ध के कारणों को 'शक्ति संतुलन के संरक्षण' तथा अन्य कारकों पर ध्यान केंद्रित करते हुए बताइये।
- तद्नुसार यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
प्रथम विश्व युद्ध (WW I), जुलाई 1914 से नवंबर 1918 तक चला, मित्र राष्ट्रों और केंद्रीय शक्तियों के बीच लड़ा गया था। जबकि अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि यूरोप में शक्ति संतुलन को बनाए रखने के लिये युद्ध हुआ था, यह दृष्टिकोण केवल आंशिक रूप से उन जटिल परिस्थितियों की व्याख्या करता है जिनके कारण संघर्ष हुआ।
मुख्य भाग:
एक कारण के रूप में शक्ति संतुलन:
- यूरोपीय गठबंधन: एक दूसरे की शक्ति को संतुलित करने का लक्ष्य।
- ट्रिपल एंटेंटे: इसमें फ्राँस, रूस और यूनाइटेड किंगडम शामिल हैं।
- त्रिपक्षीय गठबंधन: इसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी और इटली शामिल थे जो यूरोप में अपना प्रभुत्व बनाए रखना चाहते थे।
- बदलती शक्ति गतिशीलता:
- जर्मनी का उदय: जर्मनी के तीव्र औद्योगीकरण और सैन्य विस्तार को अन्य शक्तियों द्वारा खतरे के रूप में देखा गया।
- युद्ध के बाद, विजेता ने जर्मनों को आर्थिक और प्रादेशिक दोनों रूप से कमज़ोर कर दिया तथा अपने कमज़ोर प्रतिद्वंद्वी फ्राँस को मज़बूत कर दिया।
- साम्राज्यों का पतन: ओटोमन और ऑस्ट्रो-हंगेरियन साम्राज्यों के कमज़ोर होने के कारण शक्ति शून्यता एवं अस्थिरता का निर्माण हुआ।
- जर्मनी का उदय: जर्मनी के तीव्र औद्योगीकरण और सैन्य विस्तार को अन्य शक्तियों द्वारा खतरे के रूप में देखा गया।
अन्य कारक:
- प्रतिस्पर्द्धी साम्राज्यवाद: प्रथम विश्व युद्ध से पहले, अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्से अपने कच्चे माल के कारण यूरोपीय देशों के बीच विवाद का विषय बने हुए थे।
- बाज़ार (अफ्रीका) के लिये बढ़ती प्रतिस्पर्द्धा और बड़े साम्राज्यों की इच्छा के कारण टकराव में वृद्धि हुई, जिसने विश्व को प्रथम विश्व युद्ध में धकेलने में मदद की।
- राष्ट्र की ताकत के रूप में सैन्य लामबंदी: वर्ष 1914 तक जर्मनी में सैन्य निर्माण में सबसे अधिक वृद्धि हुई। ग्रेट ब्रिटेन और जर्मनी दोनों ने इस समयावधि में अपनी नौ-सेनाओं में काफी वृद्धि की।
- सैन्यवाद में इस वृद्धि ने राष्ट्र की ताकत के रूप में जन-आंदोलन के विचार को बढ़ावा दिया, जिससे देश युद्ध की ओर अग्रसर हुए। उदाहरण: रूसी सीमा की ओर जर्मन जन-आंदोलन ने रूस को जर्मनी के खिलाफ भड़का दिया।
- राष्ट्रवाद: यूरोप भर में राष्ट्रवादी भावनाओं (राष्ट्र के आधार के रूप में नस्ल/नृजातीयता) के उदय ने तनाव और क्षेत्रीय विवादों को बढ़ावा दिया। उदाहरण: बोस्निया और हर्जेगोविना में रहने वाले स्लाविक लोग ऑस्ट्रिया-हंगरी का हिस्सा नहीं बना रहना चाहते थे।
निष्कर्ष:
प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने में शक्ति संतुलन का संरक्षण एक महत्त्वपूर्ण कारक था, लेकिन यह एकमात्र कारण नहीं था। राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, आर्थिक प्रतिद्वंद्विता और घरेलू दबावों ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
-
कला एवं संस्कृति
“हालाँकि महान चोल शासक अभी मौजूद नहीं हैं लेकिन उनकी कला व वास्तुकला के क्षेत्र में उत्कृष्ट उपलब्धियों के कारण अभी भी उन्हें बहुत गर्व के साथ याद किया जाता है।” टिप्पणी कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- महान चोलों का संक्षिप्त परिचय देकर उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- कला और वास्तुकला के क्षेत्र में उनकी उत्कृष्ट उपलब्धियों का उल्लेख कीजिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
चोलों (8-12वीं शताब्दी ईस्वी) को भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले राजवंशों में से एक के रूप में याद किया जाता है। यह शासन पाँच शताब्दियों से भी अधिक समय तक चला, जहाँ चोल कला ने द्रविड़ मंदिर कला की पराकाष्ठा देखी, जिसके परिणामस्वरूप सबसे परिष्कृत इमारतों का निर्माण हुआ।
मुख्य भाग:
चोलकालीन मंदिरों की विशिष्टता:
- मंदिरों की ऊँची चारदीवारी तथा ऊँचा प्रवेशद्वार (गोपुरम)
- गोलाकार और वर्गाकार गर्भगृह
- चरणबद्ध पिरामिड संरचना (विमान)
- अष्टकोणीय आकार में शीर्ष शिखर
- मंदिरों की दीवारों पर जटिल मूर्तियाँ और शिलालेख।
- मंदिर परिसर के अंदर एक जल कुंड की उपस्थिति
- अर्द्धमंडप, जैसे- स्तंभयुक्त मंडप।
मंदिर विकास में चोलों का योगदान:
- बृहदेश्वर मंदिर जैसी अधिक विस्तृत संरचनाएँ।
- चोल काल में मंदिर बनाने के लिये ईंटों के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया जाता था।
- गोपुरम नक्काशी और मूर्तियों की शृंखला के साथ अधिक उत्कृष्ट तथा सुव्यवस्थित संरचनाओं के रूप में विकसित हुए।
- चोलों ने मंदिर वास्तुकला में परिपक्वता और भव्यता लाकर विस्तृत पिरामिडनुमा मंज़िलें बनवाईं। उदाहरणार्थ, तंजावुर का शिव मंदिर।
- मंदिरों के शीर्ष पर सुंदर शिखर होते हैं जिन पर विस्तृत नक्काशी की जाती है। उदाहरणार्थ- गंगईकोण्डचोलपुरम मंदिर।
- पल्लवों द्वारा शुरू किये गए मंडप के प्रवेश द्वार पर द्वारपाल, चोलकालीन मंदिरों की एक अनूठी विशेषता बन गए।
- मंदिरों को कलात्मक पत्थर के खंभों से सजाया गया था, जिनमें लंबी शाखाएँ और पॉलिश की गई विशेषताएँ थीं। उदाहरण: ऐरावतेश्वर मंदिर में पहियेदार रथ की नक्काशी।
चोलकालीन मूर्तिकला:
- चोलकालीन काँस्य मूर्तियाँ, जो अपनी असाधारण मूर्तिकला के लिये जानी जाती हैं, लुप्त मोम तकनीक का उपयोग करके बनाई गई थीं। उदाहरण के लिये, तांडव मुद्रा में नटराज की मूर्ति।
- उत्तर चोलकाल में मूर्तिकला में भूदेवी (पृथ्वी देवी) को भगवान विष्णु की छोटी पत्नी के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
- चोलकालीन मंदिर मूर्तियों में आकर्षक अलंकरण, सुंदर सजावट देखने को मिलती है। उदाहरणार्थ, बृहदीश्वर मंदिर, तंजावुर।
- पार्वती चित्रण की स्वतंत्र मूर्तियों में उन्हें सुंदर त्रिभंगा मुद्रा में दर्शाया गया है।
निष्कर्ष:
चोल राजवंश के संरक्षण, भव्य मंदिरों, वास्तुशिल्प नवाचारों और मूर्तिकला कला को समर्थन के कारण यूनेस्को ने उनके मंदिरों को विश्व धरोहर स्थल के रूप में मान्यता प्रदान की है।
…………………………………..
स्रोत:
https://www.drittiias.com/daily-updates/daily-news-analyse/chola-dynasty-1
https://www.drittiias.com/mains-practice-question/question-7873
-
भारतीय समाज
विकास के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से निपटने में सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच किस प्रकार का सहयोग सर्वाधिक उपयोगी होगा?
हल करने का दृष्टिकोण
- अंतर-क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता को दर्शाते हुए परिचय दीजिये।
- उदाहरणों की सहायता से सहयोग की संभावित रूपरेखा बताइये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच बहु-हितधारक सहभागिता वाला एक सहयोगात्मक मॉडल भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है।
मुख्य भाग:
सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से निपटने के लिये सहयोगात्मक मॉडल:
- सरकारी और निजी क्षेत्र:
- वित्तपोषण, तकनीकी विशेषज्ञता और नवाचार: सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग वित्तपोषण और तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करता है, जिससे विकास प्रयासों में दक्षता बढ़ती है, उदाहरण के लिये, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा (पीपीपी), डिजिटल इंडिया कार्यक्रम, स्मार्ट सिटी मिशन।
- नियामक निरीक्षण: यह सहयोग सुनिश्चित करता है कि परियोजनाएँ कानूनी मानकों का अनुपालन करें और विभिन्न चुनौतियों का समाधान करके सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करें।
- गैर-सरकारी संगठन और सरकार:
- ज़मीनी स्तर पर सहभागिता: गैर-सरकारी संगठनों के साथ सरकार की सहभागिता ज़मीनी स्तर की चुनौतियों से बेहतर ढंग से निपटने को सुनिश्चित करती है, उदाहरण के लिये, भारत में स्वरोज़गार महिला संघ (SEWA) व्यावसायिक प्रशिक्षण और माइक्रोफाइनेंस के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाता है।
- जागरूकता और वकालत: एचआईवी/एड्स के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉज़िटिव पीपुल (DNP+) जैसे, गैर-सरकारी संगठन।
- निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठन:
- कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के माध्यम से सामाजिक विकास में योगदान करते हुए, इंफोसिस ने स्कूली बच्चों को मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने के लिये अक्षय पात्र के साथ सहयोग किया है।
निष्कर्ष:
सामूहिक प्रभाव के लिये सहयोग, सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिये विविध मॉडलों का उपयोग करता है, साथ ही विश्वास और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है, जिससे यह देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये आवश्यक हो जाता है।
-
भारतीय समाज
समान सामाजिक-आर्थिक पक्ष वाली जातियों के बीच अंतर-जातीय विवाह कुछ हद तक बढ़े हैं, किंतु अंतर-धार्मिक विवाहों के बारे में यह कम सच है। विवेचना कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण
- एक परिचय से शुरुआत कीजिये जो प्रश्न का संदर्भ निर्धारित करता है।
- सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों के बीच अंतर-जातीय विवाहों में वृद्धि के कारणों का अन्वेषण कीजिये।
- अंतर-धार्मिक विवाहों की कम स्वीकृति के कारण लिखिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में अंतर-जातीय विवाहों में कुछ वृद्धि देखी गई है, विशेष रूप से सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों में, जबकि विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के कारण अंतर-धार्मिक विवाह अपेक्षाकृत दुर्लभ बने हुए हैं।
मुख्य भाग:
- सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों में अंतर-जातीय विवाहों में वृद्धि के कारण:
- शहरीकरण और शिक्षा: शहरी संस्कृति के उदय और बेहतर शिक्षा के कारण अंतर-जातीय विवाहों की सामाजिक स्वीकृति बढ़ गई है तथा युवा लोग जाति की अपेक्षा अनुकूलता को प्राथमिकता दे रहे हैं।
- वर्ष 2023 में, कर्नाटक में सभी अंतर-जातीय विवाहों में से 17.8% विवाह बंगलुरु में हुए।
- कानूनी सहायता और सरकारी उपाय:
- हालिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विवाह का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत निजता के क्षेत्र में आता है।
- केंद्र सरकार की डॉ. अंबेडकर सामाजिक एकीकरण योजना और राजस्थान की अंतर-जातीय विवाह प्रोत्साहन योजना जैसी योजनाएँ वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करके अंतर-जातीय विवाह को बढ़ावा देती हैं।
अंतर-धार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध:
- कम सामाजिक स्वीकृति: SARI (भारत के लिये सामाजिक दृष्टिकोण अनुसंधान) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, अंतर-जातीय विवाहों की तुलना में अंतर-धार्मिक विवाहों का अधिक विरोध होता है।
- बलपूर्वक धर्म परिवर्तन: उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए हुए हैं, जो ऐसे विवाहों में कानूनी बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
- विशेष विवाह अधिनियम की कमियाँ: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने SMA, 1954 के तहत एक अंतर-धार्मिक जोड़े को संरक्षण देने के विरुद्ध निर्णय सुनाया, जिसमें कहा गया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ एक मुस्लिम पुरुष और एक हिंदू महिला के बीच विवाह को अवैध मानता है।
निष्कर्ष:
भारत में अंतर-जातीय विवाह के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन अंतर-धार्मिक विवाहों को अभी भी कारकों की जटिलता के कारण बहुत-सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो अधिक स्वीकृति और सहिष्णुता की आवश्यकता को दर्शाता है।
……………………………………………..
स्रोत:
https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/Still-frowning-upon-intermarriages/article16955131.ece
https://www.drishtiias.com/daily-news-editorials/the-concerns-over-interfaith-marriages
-
भारतीय समाज
लैंगिक समानता, लैंगिक निष्पक्षता एवं महिला सशक्तीकरण के बीच अंतर को स्पष्ट कीजिये। कार्यक्रम की परिकल्पना और कार्यान्वयन में लैंगिक सरोकारों को ध्यान में रखना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
हल करने का दृष्टिकोण:
- लैंगिक समानता, लैंगिक निष्पक्षता एवं महिला सशक्तीकरण के बीच संबंध का संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- अवधारणाओं को विस्तार से समझाइये और बताइये कि लिंग-संबंधी चिंताओं से किस प्रकार कार्यक्रम की परिकल्पना में सुधार हो सकता है।
- इन अवधारणाओं के महत्त्व का सारांश बताते हुए निष्कर्ष लिखिये तथा यह भी समझाइये कि कार्यक्रम की परिकल्पना और उसके क्रियान्वयन के समय इन पर किस प्रकार विचार किया जाना चाहिये।
परिचय:
सामाजिक न्याय और संधारणीय विकास की प्राप्ति के लिये लैंगिक मुद्दे महत्त्वपूर्ण हैं। लैंगिक असमानता सूचकांक (GII) 2022 में भारत की रैंकिंग 108 (198 देशों में से) है, अतः हमारे लिये आगे की राह बहुत लंबी है।
मुख्य भाग:
अंतर
अवधारणा
परिभाषा
केंद्र
लैंगिक समानता
सभी व्यक्तियों के अधिकार, उत्तरदायित्व और अवसर समान हैं।
संसाधनों और उपचार तक समान पहुँच।
लैंगिक निष्पक्षता
विभिन्न लैंगिक आवश्यकताओं और चुनौतियों को स्वीकार करता है।
समान परिणामों के लिये निष्पक्ष व्यवहार और अनुरूप अवसर।
महिला सशक्तीकरण
विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के सामर्थ्य को बढ़ाने का प्रयास।
आत्मविश्वास और संसाधनों के माध्यम से अपने जीवन पर नियंत्रण।
कार्यक्रम की परिकल्पना और कार्यान्वयन में लैंगिक आधार:
- समानता: लिंग-विशिष्ट कार्यक्रम संसाधनों के वितरण और सामाजिक विकास में समानता सुनिश्चित करते हैं।
- अनुकूलित समाधान: लैंगिक भेदभाव को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रमों की पारिकल्पना को सुनिश्चित करता है ताकि समाधान 'सभी के लिये एक जैसा' न हो, बल्कि विशिष्ट समूहों को ध्यान में रखकर हो।
- न्यून अपव्यय/धन का केंद्रित वितरण: लिंग-विशिष्ट कार्यक्रम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि धन का उपयोग उन विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाए, जिनके लिये उसकी आवश्यकता है।
- दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित करना: विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार विशेष रूप से महिलाओं पर निवेश करने से समाज में अधिक योगदान मिला है।
निष्कर्ष:
समानता, निष्पक्षता और महिला सशक्तीकरण की ये तीन अवधारणाएँ समावेशी कार्यक्रम की पारिकल्पना में आधारभूत हैं। कार्यक्रम की परिकल्पना में लिंग संबंधी चिंताओं को शामिल करने से न केवल निष्पक्षता सुनिश्चित होती है बल्कि पहलों की प्रभावशीलता और संधारणीयता में भी वृद्धि होती है।
-
भूगोल
जनसांख्यिकीय शीत (डेमोग्राफिक विंटर) की अवधारणा क्या है? क्या यह दुनिया ऐसी स्थिति की ओर अग्रसर है? विस्तार से बताइये।
हल करने का दृष्टिकोण:
- जनसांख्यिकीय शीत को परिभाषित करते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- जनसांख्यिकीय शीत की अवधारणा को समझाइये तथा इसके कारणों पर प्रकाश डालिये।
- इसके प्रभाव को बताते हुए इससे निपटने की विधियों पर संक्षिप्त जानकारी दीजिये और निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
"जनसांख्यिकीय शीत" शब्द से तात्पर्य जन्म दर में उल्लेखनीय कमी, साथ-ही-साथ वृद्ध होती आबादी और घटती हुई कामकाजी आयु वाली आबादी से है। यह प्रवृत्ति विभिन्न देशों में देखने को मिलती है।
मुख्य भाग:
जनसांख्यिकीय शीत के कारण:
- न्यून प्रजनन दर: वर्ष 1960 से वर्ष 2021के बीच वैश्विक प्रजनन दर, प्रति महिला लगभग 5 बच्चों से घटकर लगभग 2.3 हो गई है।
- विभिन्न विकसित देशों की प्रजनन दर प्रतिस्थापन स्तर (2.1) से नीचे चली गई है।
- जापान (1.26), दक्षिण कोरिया (0.78) और इटली (1.24) जैसे देशों में प्रजनन दर विश्व में सबसे कम है।
- वृद्ध होती जनसंख्या: यह वर्ष 2020 तक वैश्विक जनसंख्या का लगभग 9% थी, जो 65 वर्ष या उससे अधिक आयु की होगा, जिसका वर्ष 2050 तक लगभग 16% तक बढ़ने का अनुमान है।
- यूरोप में 20% से अधिक जनसंख्या पहले से ही 65 वर्ष से अधिक आयु की है।
- परिवर्तित पारिवारिक संरचना: सामाजिक बदलाव, जिसमें विवाह और बच्चे पैदा करने में विलंब तथा एकल-व्यक्ति परिवारों में वृद्धि शामिल है, जन्म दर में कमी लाने में योगदान करते हैं।
- आर्थिक दबाव: उच्च जीवन-यापन लागत, आवास की कीमतें और रोज़गार की असुरक्षा परिवारों को अधिक बच्चे पैदा करने से हतोत्साहित करती हैं।
निष्कर्ष:
विकसित क्षेत्रों में जनसांख्यिकीय शीत के लिये आर्थिक विकास और सामाजिक प्रणालियों को बनाए रखने के लिये पारिवारिक समर्थन, कार्यबल भागीदारी तथा बढ़े हुए आव्रजन पर व्यापक नीतियों की आवश्यकता है।
-
भूगोल
‘बादल फटने’ की परिघटना क्या है? व्याख्या कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में दीजिये) 10
हल करने का दृष्टिकोण
- ‘बादल फटने’ की परिघटना का हाल ही के उदाहरणों के साथ परिचय दीजिये।
- ‘बादल फटने’ की क्रियाविधि और प्रभावों का उल्लेख कीजिये।
- तद्नुसार यथोचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
‘बादल फटने’ की परिघटना तीव्र वर्षण की स्थिति है, जो 20-30 वर्ग किलोमीटर के छोटे क्षेत्र में 100 मिमी./घंटा से अधिक होती हैं। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पर्वतीय क्षेत्रों में हाल ही में बादल फटने की घटनाओं के कारण यह परिघटना चर्चा में है।
मुख्य भाग:
बादल फटने का तंत्र:
‘बादल फटने’ की परिघटना तब होती है जब गर्म, आर्द्र वायु विभिन्न कारकों के कारण आरोहण होता है:
- पर्वतीय उन्नयन: आर्द्र वायु को पर्वतों या पहाड़ियों के सहारे ऊपर की ओर उठाता है, जिससे वह शीघ्र ही ठंडी हो जाती है और संघनित होकर भारी वर्षा में परिवर्तित हो जाती है।
- संवहनीय प्रक्रियाएँ: सतह के पास की गर्म वायु का तापमान के अंतर के कारण आरोहण होता है और कपासी वर्षा मेघ निर्मित करती है।
- यदि अधिक ऊँचाई पर वायु तीव्र रूप से ठंडी हो जाए तो वह नमी को रोक सकती है, जिससे अचानक भारी वर्षा हो सकती है।
- यदि वायु तीव्र रूप से ठंडी हो जाए तो अधिक ऊँचाई पर आर्द्रता निर्मित होती है, जिसके परिणामस्वरूप अचानक तीव्र वर्षण होता है।
जब इन बादलों में आर्द्रता बहुत अधिक हो जाती है, तो कम समय के लिये तीव्र वर्षण की स्थिति उत्पन्न होती है, जिसके साथ प्राय: गड़गड़ाहट और बिजली भी चमकती है।
प्रभाव:
- आकस्मिक बाढ़: अचानक जल प्रवाह से नदियाँ उफान पर आ जाती हैं, जिससे समुदाय में संकट उत्पन्न होता है।
- भूस्खलन: पहाड़ी क्षेत्रों में वर्षण से भूस्खलन होता है।
- बुनियादी ढाँचे की क्षति: सड़कें, पुल और इमारतें गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो जाती हैं।
- जीवन की हानि: बादल फटने से, विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में, मृत्यु हो सकती है।
निष्कर्ष:
भारत में बादल फटने की घटनाओं में विशेषकर हिमालय और तटीय शहरों जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में वृद्धि देखी गई है। इन आपदाओं को कम करने के लिये बेहतर मौसम निगरानी और जलवायु अनुकूलन योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है।
स्रोत:
https://www.drittiias.com/daily-updates/daily-news-analyse/cloudbursts-in-himachal-praदेश
-
भूगोल
छोटे शहरों की तुलना में बड़े शहर अधिक प्रवासियों को क्यों आकर्षित करते हैं? विकासशील देशों की स्थितियों के आलोक में इसकी विवेचना कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण
- प्रवासन को कुछ आँकड़ों के साथ परिभाषित कीजिये।
- उन कारकों का उल्लेख कीजिये, जो प्रवासियों को बड़े शहरों की ओर आकर्षित करते हैं।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
प्रवासन, लोगों का एक स्थान से दूसरे स्थान पर बेहतर रोज़गार के अवसरों और रहने की स्थिति की तलाश में स्थानांतरण की प्रक्रिया है। आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के अनुसार, भारत में कुल आंतरिक प्रवास में ग्रामीण से शहरी प्रवास का भाग 18.9% है।
मुख्य भाग:
बड़े शहरों की ओर प्रवासियों को आकर्षित करने वाले कारक
बुनियादी ढाँचा और सेवाएँ: बड़े शहर परिवहन, आवास और उपयोगिताओं समेत बेहतर बुनियादी ढाँचा प्रदान करते हैं, जिससे वे प्रवासियों के लिये अधिक आकर्षक बन जाते हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल: शहरी क्षेत्रों में आमतौर पर बेहतर शैक्षणिक संस्थान और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएँ होती हैं, जो बेहतर सेवाओं तथा जीवन की गुणवत्ता की तलाश करने वाले परिवारों को आकर्षित करती हैं।
उदाहरण के लिये, बिहार और झारखंड के लोग बेहतर शिक्षा एवं स्वास्थ्य सेवा के अवसरों की खोज में दिल्ली तथा कोलकाता जैसे राज्यों में प्रवास करते हैं।
आर्थिक अवसर: छोटे शहरों की तुलना में बड़े शहर बेहतर कार्य के अवसर प्रदान करते हैं, जैसे- उच्च वेतन तथा विविध रोज़गार क्षेत्र आदि।
भारत में प्रवासन सर्वेक्षण (2020-21) से ज्ञात होता है कि लगभग 22% आंतरिक प्रवासी आर्थिक कारणों से उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से क्रमशः महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल चले गए।
सांस्कृतिक और सामाजिक सुविधाएँ: शहरों में सांस्कृतिक, मनोरंजक और सामाजिक सुविधाओं की उपलब्धता जैसे इंटरनेट तथा सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग से समग्र जीवन अनुभव में वृद्धि होती है, जिससे शहरी क्षेत्र अधिक आकर्षक बनते हैं।
निष्कर्ष:
प्रवासन में प्रभाव का क्षेत्र उन भौगोलिक क्षेत्रों को परिभाषित करता है, जो प्रवासियों को विशिष्ट गंतव्यों तक पहुँचाते हैं। इन क्षेत्रों को पहचानने से नीति-निर्माताओं को प्रवासन संबंधी चुनौतियों से निपटने और अधिक संतुलित क्षेत्रीय रणनीति बनाने में सहायता मिलती है।
स्रोत: https://www.sciencedirect.com/topics/social-sciences/rural-to-urban-migration
https://www.drittiias.com/daily-updates/daily-news-analyse/india-s-internal-migration
-
भूगोल
समुद्र सतह के तापमान में वृद्धि क्या है? यह उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण को कैसे प्रभावित करता है? (150 शब्द)
हल करने का दृष्टिकोण :
- समुद्र सतह तापमान (SST) को परिभाषित कीजिये।
- उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण में SST वृद्धि की भूमिका को समझाइये।
- समुद्र सतह के बढ़ते तापमान के लिये सुरक्षा तंत्र का सुझाव दीजिये।
परिचय:
समुद्र सतह का तापमान (SST) समुद्र की सबसे ऊपरी परत के तापमान के रूप में परिभाषित किया जाता है। समुद्र सतह के तापमान में वृद्धि मुख्य रूप से मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण होती है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का बहुत बड़ा योगदान है। SST मौसम के पैटर्न को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, विशेषकर उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण में।
मुख्य भाग:
उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण पर SST वृद्धि का प्रभाव:
- ऊर्जा स्रोत: समुद्र सतह का बढ़ता तापमान आवश्यक ऊष्मा और नमी प्रदान करता है, जो उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण और प्रबलता के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- संवहन: उच्च समुद्र तल तापमान संवहन प्रक्रियाओं को बढ़ाता है, जिससे उष्णकटिबंधीय चक्रवातों का विकास होता है।
- विकास सीमा: यदि समुद्र सतह तापमान 26°C सीमा से नीचे है, तो चक्रवात विकास के लिये उपलब्ध ऊर्जा अपर्याप्त होती है।
- तीव्रता: गर्म समुद्र-तटीय पवनें न केवल चक्रवातों के निर्माण को आरंभ करती हैं, बल्कि मौजूदा तूफानों की तीव्रता में भी योगदान देती हैं, जिससे संभावित रूप से उनकी वायु गति और विनाशकारी क्षमता बढ़ जाती है।
- आवृत्ति: वैश्विक तापमान में वृद्धि से समुद्री सतह का तापमान बढ़ने से उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ सकती है।
- मार्ग में परिवर्तन: जैसे-जैसे वैश्विक स्तर पर समुद्री सतह तापमान में वृद्धि हो रही है, उष्णकटिबंधीय चक्रवात नए क्षेत्रों में बन सकते हैं या अपना मार्ग बदल सकते हैं, जिससे पूर्व में अप्रभावित रहे क्षेत्र भी प्रभावित हो सकते हैं।
निष्कर्ष:
समुद्री सतह के बढ़ते तापमान से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिये ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करना और जलवायु-अनुकूल अवसंरचना विकसित करना आवश्यक है। साथ ही, संधारणीय प्रथाओं के माध्यम से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण और पूर्वानुमान क्षमताओं में सुधार करने से चरम मौसम की घटनाओं के प्रति क्षेत्र की सुभेद्यता कम होगी।
-
आधुनिक इतिहास
वे कौन-सी घटनाएँ थीं जिनके कारण भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ? इसके परिणामों को स्पष्ट कीजिये। (उत्तर 150 शब्द में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत छोड़ो आंदोलन का संक्षिप्त विवरण दीजिये।
- भारत छोड़ो आंदोलन हेतु उत्तरदायी घटनाओं पर चर्चा कीजिये।
- भारत छोड़ो आंदोलन के परिणामों पर प्रकाश डालिये।
- इस आंदोलन को ब्रिटिश शासन के ताबूत में अंतिम कील के रूप में संदर्भित करते हुए निष्कर्ष लिखिये।
परिचय :
8 अगस्त 1942 को शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन (QIM) भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त करने की दिशा में किया गया व्यापक विरोध प्रदर्शन था, जो संवैधानिक सुधारों की पूर्व की मांगों से एक बदलाव का संकेत था।
मुख्य भाग:
QIM हेतु उत्तरदायी घटनाएँ:
- द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की सहमति के बिना भागीदारी: ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से परामर्श किये बिना भारत को द्वितीय विश्व युद्ध में भागीदार के रूप में घोषित कर दिया।
- क्रिप्स मिशन की विफलता (1942): इसके प्रस्तावों में स्वायत्तता के बारे में अस्पष्ट दृष्टिकोण के साथ केवल डोमिनियन स्टेटस देना निर्धारित किया गया था।
- असंतोष को बढ़ावा: युद्ध के दौरान भारत को अत्यधिक मुद्रास्फीति एवं खाद्यान्न की कमी के साथ भुखमरी जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
- जन-आंदोलन की प्रेरणा: असहयोग आंदोलन (1920) और सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) जैसे पूर्व के आंदोलनों से व्यापक जन-आंदोलन का मज़बूत आधार तैयार हुआ।
- तत्काल स्वतंत्रता का आह्वान: महात्मा गांधी की "करो या मरो" की घोषणा से इस आंदोलन की आधिकारिक शुरुआत हुई।
QIM के परिणाम:
- व्यापक भागीदारी: इसमें छात्रों, महिलाओं, श्रमिकों एवं कृषकों सहित समाज के सभी वर्गों ने भागीदारी की।
- भूमिगत गतिविधियाँ: इस दौरान जयप्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली जैसे नेताओं ने भूमिगत गतिविधियों को अपनाया।
- औपनिवेशिक शासन का कमज़ोर होना: इस आंदोलन से ब्रिटिश प्रभाव में कमी के साथ भारतीयों द्वारा औपनिवेशिक शासन को अस्वीकार करने के संकल्प पर प्रकाश पड़ा।
- इस दौरान स्थानीय लोगों ने स्वतंत्रता की घोषणा करने के साथ समानांतर सरकारें (जैसा कि बलिया और तामलुक में हुआ) गठित की।
निष्कर्ष:
भारत छोड़ो आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासन के ताबूत में अंतिम कील था क्योंकि इससे न केवल पूर्ण स्वतंत्रता की मांग को बल मिला बल्कि इसका प्रभाव वर्ष 1946 की कैबिनेट मिशन योजना पर भी देखा गया, जिससे अंततः वर्ष 1947 की भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
-
कला एवं संस्कृति
दक्षिण भारत में कला व साहित्य के विकास में काँची के पल्लवों के योगदान का मूल्यांकन कीजिये। (उत्तर 150 शब्दों में दीजिये)
हल कने का दृष्टिकोण:
- दक्षिण भारत में पल्लवों के शासनकाल का उल्लेख करते हुए इसका परिचय दीजिये।
- मंदिर कला, वास्तुकला और मूर्तिकला में पल्लवों के योगदान पर चर्चा कीजिये। साहित्य में पल्लवों के योगदान का भी उल्लेख कीजिये।
- तद्नुसार उचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
पल्लवों ने तीसरी से 9वीं शताब्दी ई. तक शासन किया और वे सातवाहनों के सामंत थे। पल्लव राजा दक्षिण भारतीय कला, वास्तुकला और साहित्य के महान संरक्षक थे।
कला में पल्लवों का योगदान:
- मंदिर वास्तुकला: पल्लवों ने चट्टान काटकर बनाए गए मंदिरों की शुरुआत की और वास्तुकला की द्रविड़ शैली की शुरुआत की, जो गुफा मंदिरों से लेकर अखंड रथों और अंततः संरचनात्मक मंदिरों तक विकसित हुई, जिनका विकास चार चरणों में हुआ।
- महेंद्रवर्मन प्रथम ने चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों की शुरुआत की।
- मामल्लपुरम में अखंड रथ और मंडप, जिसका श्रेय नरसिंहवर्मन प्रथम को दिया जाता है, जैसे- पंचपनाडव रथ।
- राजसिम्हा ने नरम बलुआ पत्थर से निर्मित संरचनात्मक मंदिरों की शुरुआत की। उदाहरण के लिये, काँची में कैलाशनाथ मंदिर।
- बाद के पल्लवों द्वारा निर्मित संरचनात्मक मंदिर। उदाहरण के लिये, वैकुंडपेरुमल मंदिर।
- मूर्तिकला: पल्लवों ने मामल्लपुरम में ओपन आर्ट गैलरी और गंगा अवतरण जैसी मूर्तिकला को काफी उन्नत किया।
- सित्तन्नवसाल की गुफाओं में उत्कीर्णित चित्रकारी उन्हीं की थी।
साहित्य में पल्लवों का योगदान:
- पल्लव राजा महेंद्रवर्मन प्रथम ने संस्कृत साहित्य के संरक्षक के रूप में ‘मत्तविलासप्रहसन’ नाटक की रचना की।
- नयनार और अलवारों के योगदान से तमिल साहित्य का विकास हुआ।
- पेरुन्देवनार ने नंदीवर्मन द्वितीय के अधीन महाभारत का तमिल में ‘भारतवेणवा’ के रूप में अनुवाद किया।
निष्कर्ष:
काँची के पल्लवों ने स्थापत्य, मूर्तिकला और साहित्य में अपने योगदान के माध्यम से एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत स्थापित की। मंदिर स्थापत्य में उनके नवाचारों और साहित्य के संरक्षण ने न केवल दक्षिण भारतीय कला को प्रभावित किया, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक इतिहास पर भी एक स्थायी प्रभाव डाला।
-
प्राचीन इतिहास
ऋग्वैदिक से उत्तर-वैदिक काल तक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में घटित परिवर्तनों को रेखांकित कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण
- परिचय: इस अवधि के दौरान खानाबदोश जनजाति से लेकर स्थायी जीवन शैली के रूप में बदलती प्रकृति के बारे में बताइये।
- मुख्य भाग: ऋग्वैदिक से उत्तर-वैदिक काल तक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में घटित परिवर्तनों को बताइये।
- निष्कर्ष: उचित निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:ऋग्वैदिक (1500-1000 ईसा पूर्व) से उत्तर-वैदिक (1000-500 ईसा पूर्व) काल की अवधि में खानाबदोश जीवन शैली से लेकर स्थायी कृषि समाज के रूप में बदलाव देखा गया, जिससे सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ आजीविका में व्यापक परिवर्तनों का मार्ग प्रशस्त हुआ।
मुख्य भाग
पहलू
ऋग्वैदिक काल
उत्तर-वैदिक काल
वर्ण व्यवस्था
लचीली, व्यवसाय आधारित, जनजातीय एवं समतावादी समाज।
कठोर, पदानुक्रमित, चार अलग-अलग वर्ण: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
महिलाओं की स्थिति
महिलाएँ अनुष्ठानों में भाग लेती थीं।
सती प्रथा और बाल विवाह का उदय हुआ।
पितृसत्ता
पितृसत्ता का लचीला होना, जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता (जैसे- स्वयंवर)।
महिलाएँ घरेलू कार्यों तक ही सीमित थीं।
वैदिक शिक्षा
महिलाओं और पुरुष दोनों को ही वैदिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था।
उच्च जातियों तक ही सीमित।
धन का प्रतीक
धन का प्रमुख प्रतीक मवेशी थे (जैसे- गविष्ठी)।
भूमि स्वामित्व और कृषि उत्पादकता धन के मुख्य प्रतीक बन गए।
कृषि का विस्तार
ग्रामीण और अर्द्ध खानाबदोश अर्थव्यवस्था।
अर्थव्यवस्था का आधार कृषि बन गई। विस्तृत कृषि (शतपथ ब्राह्मण)
व्यापार और वाणिज्य
व्यापार सीमित (मुख्यतः वस्तु-विनिमय आधारित) था।
व्यापार और वाणिज्य का विस्तार, सिक्कों (निष्क) का प्रचलन तथा श्रेणियों (गिल्ड) का उदय।
शिल्प और व्यवसाय
शिल्पकला सरल थी। व्यवसाय वंशानुगत नहीं थे।
विशिष्ट शिल्पों का उदय, वंशानुगत व्यवसाय।
निष्कर्ष:
ऋग्वेद के खानाबदोश, समतावादी समाज से उत्तर-वैदिक काल में उदित कठोर जातिगत संरचना एवं कृषि अर्थव्यवस्था में परिवर्तन से गंगा घाटी में शहरीकरण (उदाहरण के लिये, महाजनपद) को बढ़ावा मिला।