6 Solved Questions with Answers
-
2024
इस अभिमत का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये कि भारत की सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं के बीच एक गहरा सहसंबंध है।
हल करने का दृष्टिकोण
- भारत की सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं पर स्थित लोगों के साथ उसके सहसंबंध की जाँच कीजिये।
- सीमांतताओं पर स्थित समूहों के सामने आने वाली चुनौतियों और ऊपर की ओर बढ़ने के अवसरों पर प्रकाश डालिये।
परिचय
भारत की सांस्कृतिक विविधता, जिसमें विभिन्न भाषाएँ, धर्म और परंपराएँ सामाजिक-आर्थिक कारकों से जुड़ी हुई है, जिसके परिणामस्वरूप कुछ समुदायों को आय, शिक्षा और सामाजिक स्थिति में लगातार अलाभ का सामना करना पड़ रहा है।
मुख्य भाग:
सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतताओं के बीच सहसंबंध
- ऐतिहासिक स्तरीकरण :
- जाति व्यवस्था ने दलितों और आदिवासियों को व्यवस्थित रूप से सीमांतता पर धकेल दिया है, उन्हें शिक्षा, नौकरियों और सामाजिक गतिशीलता से वंचित रखा है। वर्ष 2011 की जनगणना से ज्ञात होता है कि अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) में अन्य की तुलना में गरीबी दर काफी अधिक है। इसी तरह, सच्चर समिति (वर्ष 2006) ने इस बात पर प्रकाश डाला कि मुसलमान शैक्षिक और आर्थिक अभाव से पीड़ित हैं, उनकी साक्षरता दर कम है और सरकारी नौकरियों तक उनकी पहुँच भी कम है।
- क्षेत्रीय एवं जातीय विषमताएँ :
- मध्य भारत में जनजातीय समुदाय और पूर्वोत्तर में जातीय समूह खनन, बुनियादी ढाँचे और औद्योगिक परियोजनाओं के कारण अल्पविकास और विस्थापन का सामना कर रहे हैं। उदाहरण के लिये, नर्मदा बाँध के कारण अधिक पैमाने पर विस्थापन ने आदिवासी आबादी को असंगत रूप से प्रभावित किया।
- भाषाई सीमांतता:
- अ-हिंदी भाषी राज्य, विशेषकर दक्षिण के राज्य, प्राय: केंद्र सरकार के हिंदी पर ध्यान केंद्रित करने पर चिंता व्यक्त करते हैं, क्योंकि उनका तर्क है कि इससे संसाधनों के वितरण में असमानता पैदा होती है और क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षा होती है।
- लैंगिक और अंतःविषयकता :
- दलित महिलाओं की तरह सीमांत स्थिति पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और रोज़गार में कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तथा उन्हें जाति और लैंगिक-आधारित भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
विपक्ष में तर्क
- आर्थिक संरचनाएँ :
- वैश्वीकरण, नवउदारवादी नीतियाँ और कृषि संकट जैसी आर्थिक शक्तियाँ भी गरीबी की स्थिति में वृद्धि करती हैं, जिससे सीमांतता की स्थिति पर रहने वाले और गैर-सीमांतता की स्थिति में रहने वाले दोनों समुदाय प्रभावित होते हैं।
- नीति और शासन विफलताएँ :
- मनरेगा जैसी योजनाओं का खराब क्रियान्वयन और सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गड़बड़ी के कारण वंचित समूह और अधिक सीमांतता की स्थिति में पहुँच गए हैं, जिससे यह बात उजागर हुई है कि सांस्कृतिक पहचान से परे शासन एक प्रमुख कारक है।
निष्कर्ष
सांस्कृतिक विविधता और सामाजिक-आर्थिक सीमांतता पर होने के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध है, लेकिन व्यापक आर्थिक कारक और शासन संबंधी मुद्दे भी इसमें योगदान करते हैं। भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय प्राप्त करने के लिये सांस्कृतिक और संरचनात्मक असमानताओं को संबोधित करना आवश्यक है।
स्रोत:
https://link.springer.com/article/10.1007/s12115-023-00833-0
-
2024
वैश्वीकरण ने विभिन्न वर्गों की कुशल, युवा, अविवाहित महिलाओं द्वारा शहरी प्रवास में वृद्धि की है। इस प्रवृत्ति ने उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार के साथ संबंधों पर क्या प्रभाव डाला है?
हल करने का दृष्टिकोण:
- वैश्वीकरण को परिभाषित कीजिये और कुशल महिलाओं के शहरी प्रवास में इसकी भूमिका बताइये।
- पारिवारिक गतिशीलता में बदलाव और परंपरा एवं आधुनिकता के बीच संतुलन के साथ-साथ प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
- महिलाओं के पूर्ण लाभ हेतु चुनौतियों का समाधान करने की आवश्यकता पर बल दीजिये।
परिचय
वैश्वीकरण से तात्पर्य व्यापार, प्रौद्योगिकी, निवेश और वर्गों एवं सूचनाओं के आवागमन के माध्यम से अर्थव्यवस्थाओं, संस्कृतियों और आबादी की बढ़ती निर्भरता से है। इन साझेदारियों ने आधुनिक दैनिक जीवन को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया है।
वैश्वीकरण और कुशल युवा महिलाओं का शहरी प्रवास-
- आर्थिक अवसर: स्वास्थ्य सेवा, खुदरा और आईटी जैसे उद्योग कुशल, अविवाहित महिलाओं को प्राथमिकता देते हैं, जो सतत् विकास लक्ष्य 5 और 8 का समर्थन करते हैं।
- शैक्षिक आकांक्षाएँ: वैश्विक संपर्क और शिक्षा तक पहुँच छोटे शहरों की महिलाओं को शहरी अवसरों का लाभ उठाने, विश्वविद्यालय में नामांकन बढ़ाने और सतत् विकास लक्ष्य 4: गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का समर्थन करने के लिये सशक्त बनाती है।
- सामाजिक गतिशीलता: प्रवासन, युवा महिलाओं को सामाजिक गतिशीलता प्राप्त करने और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार करने में सक्षम बनाता है, जो सतत् विकास लक्ष्य 8: सभ्य कार्य और आर्थिक विकास के साथ संरेखित है।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता और परिवार के साथ संबंधों पर प्रभाव
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता: शहरी आईटी और बीपीओ जैसी नौकरियाँ महिलाओं को वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान करती हैं, जिससे उन्हें पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं को चुनौती देने का मौका मिलता है। हालाँकि शहरी परिवेश में उन्हें उत्पीड़न और हिंसा का भी सामना करना पड़ता है, क्योंकि समर्थन प्रणाली अपर्याप्त होती है।
- महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती अपराध दर (NCRB डेटा 2014-2022) सशक्तीकरण के साथ-साथ बेहतर सुरक्षा की आवश्यकता पर बल देती है।
- पारंपरिक पारिवारिक संरचनाओं पर दबाव: प्रवासन, परिवारों को संयुक्त से एकल संरचनाओं में हस्तांतरित करता है, जिससे महिलाओं को साथी के चयन और विवाह के समय में अधिक स्वायत्तता मिलती है, जो अक्सर पारंपरिक पारिवारिक अपेक्षाओं के साथ मतभेद उत्पन्न करता है।
- सांस्कृतिक परिवर्तन: महिलाएँ शहरी जीवन शैली और पारंपरिक मूल्यों के बीच तालमेल बिठाती हैं, शहरी कार्यस्थलों में सफलता के माध्यम से लैंगिक भूमिकाओं को पुनः परिभाषित करती हैं। ये व्यक्तिगत आकांक्षाओं को वित्तीय ज़िम्मेदारियों के साथ संतुलित करती हैं, जिससे परस्पर निर्भर पारिवारिक गतिशीलता का निर्माण होता है।
निष्कर्ष
आर्थिक विकास और व्यक्तिगत विकास के लिये शहरी प्रवास आवश्यक है। हालाँकि महिलाओं को इन अवसरों से पूर्ण रूप से लाभ मिल सके, यह सुनिश्चित करने के लिये नकारात्मक प्रभावों को संबोधित किया जाना आवश्यक है।
स्रोत:
https://www.piie.com/microsites/globalization/what-is-globalization
https://www.iied.org/sites/default/files/pdfs/migrate/11020IIED.pdf
-
2024
समानता और सामाजिक न्याय की व्यापक नीतियों के बावजूद, अभी तक वंचित वर्गों को संविधान द्वारा परिकल्पित सकारात्मक कार्रवाहियों का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। टिप्पणी कीजिये। (उत्तर 250 शब्दों में दीजिये)
हल करने का दृष्टिकोण:
- सकारात्मक कार्रवाई और उसके महत्त्व को परिभाषित कीजिये।
- भारत में विद्यमान सकारात्मक नीतियों पर चर्चा कीजिये।
- इसके प्रभावी कार्यान्वयन के लिये प्रमुख चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
- सकारात्मक कार्रवाई की प्रभावशीलता में सुधार हेतु उपाय सुझाइये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
सकारात्मक कार्रवाई से तात्पर्य नीतियों और प्रथाओं के एक समूह से है जिसका उद्देश्य शिक्षा, रोज़गार तथा राजनीति समेत विभिन्न क्षेत्रों में ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों का प्रतिनिधित्व एवं अवसरों में वृद्धि करना है।
मुख्य भाग:
भारत में सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीतियाँ:
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व:
- अनुच्छेद 330, 332 और 243D क्रमशः संसद, राज्य विधानसभाओं और पंचायतों में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिये सीटें आरक्षित करते हैं।
- शिक्षा एवं रोज़गार के अवसर:
- अनुच्छेद 15(4) और 16(4) वंचित समूहों के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण की अनुमति देते हैं।
- शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निशुल्क, अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करता है, जिससे वंचित वर्गों के लिये बाधाएँ कम होती हैं।
- समग्र विकास:
- राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) कमज़ोर आबादी के लिये सब्सिडी वाले खाद्यान्न तक पहुँच सुनिश्चित करता है।
- प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत शहरी और ग्रामीण गरीबों के लिये किफायती आवास उपलब्ध कराए जाते हैं।
- कौशल भारत मिशन वंचित पृष्ठभूमि के युवाओं की रोज़गार क्षमता को बढ़ाता है।
प्रमुख चुनौतियाँ:
- अभिजात वर्ग का कब्ज़ा: आरक्षित श्रेणियों में धनी व्यक्तियों का प्रभुत्व वंचित वर्गों के लिये लाभ को सीमित करता है।
- जाति आधारित राजनीति: आरक्षण के राजनीतिकरण के प्रति संघर्ष एक प्रमुख कारण बन सकता है और कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
- भ्रष्टाचार: कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार लाभ को इच्छित प्राप्तकर्त्ताओं से दूर ले जाते हैं।
- जागरूकता: आरक्षण लाभों के बारे में जानकारी का अभाव इसके लाभों का कम उपयोग करने की ओर ले जाता है।
- सामाजिक कलंक: निरंतर पूर्वाग्रह वंचित समुदायों के एकीकरण में बाधा डालते हैं।
- प्रतिरोध: आलोचकों का तर्क है कि आरक्षण से योग्यता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे प्रतिकूल प्रतिक्रिया और सामाजिक तनाव उत्पन्न होता है।
संभावित सुधार:
- आरक्षण मानदंडों का पालन न करने पर दंड के प्रावधान को लागू करना।
- आर्थिक रूप से वंचित लोगों को लाभ पहुँचाने के लिये आय संबंधी मानदंड लागू करना।
- राज्य 15% कोटे के अंतर्गत अनुसूचित जातियों को उप-वर्गीकृत कर सकते हैं।
- समावेशन और भेदभाव पर जागरूकता अभियान चलाना।
- समान प्रदायगी हेतु सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति पर विचार करना।
- सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीतियों में धार्मिक अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और विकलांगों को शामिल करना।
निष्कर्ष:
सकारात्मक कार्रवाई संबंधी नीति भारत में एक सुदृढ़ और समावेशी समाज को बढ़ावा देने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण के रूप में कार्य करती है, लेकिन इसकी प्रभावशीलता समाज के अति वंचित वर्गों के वास्तविक उत्थान की क्षमता पर निर्भर करती है।
-
2024
विकास के सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से निपटने में सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच किस प्रकार का सहयोग सर्वाधिक उपयोगी होगा?
हल करने का दृष्टिकोण
- अंतर-क्षेत्रीय सहयोग की आवश्यकता को दर्शाते हुए परिचय दीजिये।
- उदाहरणों की सहायता से सहयोग की संभावित रूपरेखा बताइये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
सरकार, गैर-सरकारी संगठनों और निजी क्षेत्र के बीच बहु-हितधारक सहभागिता वाला एक सहयोगात्मक मॉडल भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2047 तक भारत को एक विकसित राष्ट्र बनाना है।
मुख्य भाग:
सामाजिक-आर्थिक मुद्दों से निपटने के लिये सहयोगात्मक मॉडल:
- सरकारी और निजी क्षेत्र:
- वित्तपोषण, तकनीकी विशेषज्ञता और नवाचार: सरकार और निजी क्षेत्र के बीच सहयोग वित्तपोषण और तकनीकी विशेषज्ञता प्रदान करता है, जिससे विकास प्रयासों में दक्षता बढ़ती है, उदाहरण के लिये, दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारा (पीपीपी), डिजिटल इंडिया कार्यक्रम, स्मार्ट सिटी मिशन।
- नियामक निरीक्षण: यह सहयोग सुनिश्चित करता है कि परियोजनाएँ कानूनी मानकों का अनुपालन करें और विभिन्न चुनौतियों का समाधान करके सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूरा करें।
- गैर-सरकारी संगठन और सरकार:
- ज़मीनी स्तर पर सहभागिता: गैर-सरकारी संगठनों के साथ सरकार की सहभागिता ज़मीनी स्तर की चुनौतियों से बेहतर ढंग से निपटने को सुनिश्चित करती है, उदाहरण के लिये, भारत में स्वरोज़गार महिला संघ (SEWA) व्यावसायिक प्रशिक्षण और माइक्रोफाइनेंस के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाता है।
- जागरूकता और वकालत: एचआईवी/एड्स के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये दिल्ली नेटवर्क ऑफ पॉज़िटिव पीपुल (DNP+) जैसे, गैर-सरकारी संगठन।
- निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठन:
- कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) के माध्यम से सामाजिक विकास में योगदान करते हुए, इंफोसिस ने स्कूली बच्चों को मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने के लिये अक्षय पात्र के साथ सहयोग किया है।
निष्कर्ष:
सामूहिक प्रभाव के लिये सहयोग, सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्रभावी ढंग से प्राप्त करने के लिये विविध मॉडलों का उपयोग करता है, साथ ही विश्वास और पारदर्शिता को बढ़ावा देता है, जिससे यह देश के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिये आवश्यक हो जाता है।
-
2024
समान सामाजिक-आर्थिक पक्ष वाली जातियों के बीच अंतर-जातीय विवाह कुछ हद तक बढ़े हैं, किंतु अंतर-धार्मिक विवाहों के बारे में यह कम सच है। विवेचना कीजिये।
हल करने का दृष्टिकोण
- एक परिचय से शुरुआत कीजिये जो प्रश्न का संदर्भ निर्धारित करता है।
- सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों के बीच अंतर-जातीय विवाहों में वृद्धि के कारणों का अन्वेषण कीजिये।
- अंतर-धार्मिक विवाहों की कम स्वीकृति के कारण लिखिये।
- तद्नुसार निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में अंतर-जातीय विवाहों में कुछ वृद्धि देखी गई है, विशेष रूप से सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों में, जबकि विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों के कारण अंतर-धार्मिक विवाह अपेक्षाकृत दुर्लभ बने हुए हैं।
मुख्य भाग:
- सामाजिक-आर्थिक समानता वाली जातियों में अंतर-जातीय विवाहों में वृद्धि के कारण:
- शहरीकरण और शिक्षा: शहरी संस्कृति के उदय और बेहतर शिक्षा के कारण अंतर-जातीय विवाहों की सामाजिक स्वीकृति बढ़ गई है तथा युवा लोग जाति की अपेक्षा अनुकूलता को प्राथमिकता दे रहे हैं।
- वर्ष 2023 में, कर्नाटक में सभी अंतर-जातीय विवाहों में से 17.8% विवाह बंगलुरु में हुए।
- कानूनी सहायता और सरकारी उपाय:
- हालिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विवाह का अधिकार अनुच्छेद 21 के तहत निजता के क्षेत्र में आता है।
- केंद्र सरकार की डॉ. अंबेडकर सामाजिक एकीकरण योजना और राजस्थान की अंतर-जातीय विवाह प्रोत्साहन योजना जैसी योजनाएँ वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करके अंतर-जातीय विवाह को बढ़ावा देती हैं।
अंतर-धार्मिक विवाहों पर प्रतिबंध:
- कम सामाजिक स्वीकृति: SARI (भारत के लिये सामाजिक दृष्टिकोण अनुसंधान) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, अंतर-जातीय विवाहों की तुलना में अंतर-धार्मिक विवाहों का अधिक विरोध होता है।
- बलपूर्वक धर्म परिवर्तन: उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों ने धर्मांतरण विरोधी कानून बनाए हुए हैं, जो ऐसे विवाहों में कानूनी बाधाएँ उत्पन्न करते हैं।
- विशेष विवाह अधिनियम की कमियाँ: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने SMA, 1954 के तहत एक अंतर-धार्मिक जोड़े को संरक्षण देने के विरुद्ध निर्णय सुनाया, जिसमें कहा गया कि मुस्लिम पर्सनल लॉ एक मुस्लिम पुरुष और एक हिंदू महिला के बीच विवाह को अवैध मानता है।
निष्कर्ष:
भारत में अंतर-जातीय विवाह के मामले बढ़ रहे हैं, लेकिन अंतर-धार्मिक विवाहों को अभी भी कारकों की जटिलता के कारण बहुत-सी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो अधिक स्वीकृति और सहिष्णुता की आवश्यकता को दर्शाता है।
……………………………………………..
स्रोत:
https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/Still-frowning-upon-intermarriages/article16955131.ece
https://www.drishtiias.com/daily-news-editorials/the-concerns-over-interfaith-marriages
-
2024
लैंगिक समानता, लैंगिक निष्पक्षता एवं महिला सशक्तीकरण के बीच अंतर को स्पष्ट कीजिये। कार्यक्रम की परिकल्पना और कार्यान्वयन में लैंगिक सरोकारों को ध्यान में रखना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
हल करने का दृष्टिकोण:
- लैंगिक समानता, लैंगिक निष्पक्षता एवं महिला सशक्तीकरण के बीच संबंध का संक्षिप्त विवरण देते हुए उत्तर की शुरुआत कीजिये।
- अवधारणाओं को विस्तार से समझाइये और बताइये कि लिंग-संबंधी चिंताओं से किस प्रकार कार्यक्रम की परिकल्पना में सुधार हो सकता है।
- इन अवधारणाओं के महत्त्व का सारांश बताते हुए निष्कर्ष लिखिये तथा यह भी समझाइये कि कार्यक्रम की परिकल्पना और उसके क्रियान्वयन के समय इन पर किस प्रकार विचार किया जाना चाहिये।
परिचय:
सामाजिक न्याय और संधारणीय विकास की प्राप्ति के लिये लैंगिक मुद्दे महत्त्वपूर्ण हैं। लैंगिक असमानता सूचकांक (GII) 2022 में भारत की रैंकिंग 108 (198 देशों में से) है, अतः हमारे लिये आगे की राह बहुत लंबी है।
मुख्य भाग:
अंतर
अवधारणा
परिभाषा
केंद्र
लैंगिक समानता
सभी व्यक्तियों के अधिकार, उत्तरदायित्व और अवसर समान हैं।
संसाधनों और उपचार तक समान पहुँच।
लैंगिक निष्पक्षता
विभिन्न लैंगिक आवश्यकताओं और चुनौतियों को स्वीकार करता है।
समान परिणामों के लिये निष्पक्ष व्यवहार और अनुरूप अवसर।
महिला सशक्तीकरण
विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के सामर्थ्य को बढ़ाने का प्रयास।
आत्मविश्वास और संसाधनों के माध्यम से अपने जीवन पर नियंत्रण।
कार्यक्रम की परिकल्पना और कार्यान्वयन में लैंगिक आधार:
- समानता: लिंग-विशिष्ट कार्यक्रम संसाधनों के वितरण और सामाजिक विकास में समानता सुनिश्चित करते हैं।
- अनुकूलित समाधान: लैंगिक भेदभाव को ध्यान में रखते हुए कार्यक्रमों की पारिकल्पना को सुनिश्चित करता है ताकि समाधान 'सभी के लिये एक जैसा' न हो, बल्कि विशिष्ट समूहों को ध्यान में रखकर हो।
- न्यून अपव्यय/धन का केंद्रित वितरण: लिंग-विशिष्ट कार्यक्रम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि धन का उपयोग उन विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिये किया जाए, जिनके लिये उसकी आवश्यकता है।
- दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित करना: विश्व बैंक के आँकड़ों के अनुसार विशेष रूप से महिलाओं पर निवेश करने से समाज में अधिक योगदान मिला है।
निष्कर्ष:
समानता, निष्पक्षता और महिला सशक्तीकरण की ये तीन अवधारणाएँ समावेशी कार्यक्रम की पारिकल्पना में आधारभूत हैं। कार्यक्रम की परिकल्पना में लिंग संबंधी चिंताओं को शामिल करने से न केवल निष्पक्षता सुनिश्चित होती है बल्कि पहलों की प्रभावशीलता और संधारणीयता में भी वृद्धि होती है।