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नीतिशास्त्र

असहमति का अधिकार

  • 23 Jan 2020
  • 9 min read

असहमति को समझना (Understanding Dissent):

  • असहमति से तात्पर्य एक गैर-समझौतावादी दर्शन या मनोभाव अथवा किसी प्रचलित विचार (जैसे- सरकार की नीतियों) या किसी सत्ता/संस्था (जैसे- एक व्यक्ति या राजनीतिक दल जो इस तरह की नीतियों का समर्थन करता/करती है) के प्रति विरोध प्रकट करने से है।
  • कुछ राजनीतिक प्रणालियों में असहमति को औपचारिक रूप से राजनीतिक प्रतिरोध के माध्यम के रूप में व्यक्त किया जाता है, जबकि दमनकारी राजनीतिक शासन व्यवस्था द्वारा किसी भी प्रकार की असहमति को प्रतिबंधित/निषिद्ध किया जा सकता है। इससे अंततः असहमति का दमन और सामाजिक या राजनीतिक सक्रियता (विरोध-प्रदर्शन) को बढ़ावा मिल सकता है।
  • असहमति को प्रायः दो अन्य अवधारणाओं समालोचनात्मक चिंतन (Critical Thinking) और सहिष्णुता से भी जोड़कर देखा जाता है।
  • असहमति, प्रभावी तर्क-वितर्क का एक शक्तिशाली स्रोत है जो स्वयंमेव किसी राज्य/राष्ट्र की संस्थाओं अथवा उसकी कार्यवाहियों के साथ ही किसी समाज के रीति-रिवाज़ एवं प्रथाओं की वैधता को निर्धारित करने के लिये आवश्यक होता हैं।
  • धार्मिक प्रथाओं को लेकर व्यक्त असहमति के प्रति सहिष्णुता किसी राज्य के भीतर समावेशन और सहमति के दायरे का विस्तार करने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

असहमति के अधिकार का महत्त्व:

  • लोकतंत्र की आधारशिला: लोकतंत्र को शासन के सर्वाधिक स्वीकार्य पद्धति के रूप में देखा जाता है क्योंकि यह एक नागरिक को पीड़ित होने के भय के बिना असहमति प्रकट करने का अधिकार प्रदान करता है (जब तक ऐसी असहमति किसी अमानवीय या असंवैधानिक कार्यवाही का कारण नहीं बनती)। असहमति का अधिकार संविधान में निर्दिष्ट वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आता है।
    • लोकतंत्र में असहमति के महत्त्व को रेखांकित करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि “असहमति वस्तुतः लोकतंत्र का सुरक्षा वाल्व है।”
    • विरोध प्रदर्शन किसी भी प्रगतिशील लोकतंत्र के नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। उल्लेखनीय है कि गांधीजी, नेल्सन मंडेला तथा मार्टिन लूथर किंग के शांतिपूर्ण प्रतिरोध ने इन देशों के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने में आमूल-चूल परिवर्तन लाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • एक मौलिक मानवीय गुण के रूप में असहमति: एक दूसरे से असहमत होना एक मूलभूत मानवीय गुण है। कई दार्शनिकों ने यह तर्क दिया है कि एक बालक सार्थक रूप से स्वयं की भावना को तभी ग्रहण करता है जब उसमें मैं और मेरा की अवधारणा का बोध होता है। इसके अलावा जब वह पहली बार नहीं कहना प्रारंभ करता है तब इसे उसके आत्मविकास के अधिकारों के विकास के तौर पर देख जाता है।
    • इसके अतिरिक्त जिस रूप में हमारा समाज और राष्ट्र असहमति को ग्रहण करता है, उससे हमें एक सशक्त पहचान प्राप्त होती है।
  • असहमति से ज्ञान का सृजन: असहमति नवीन ज्ञान और नई समझ के सृजन का मार्ग प्रशस्त करती है। विज्ञान और दर्शन के क्षेत्र में हुई प्रगति असहमति के बिना संभव नहीं होती। क्योंकि इस क्षेत्र में हुआ विकास वस्तुतः दूसरे के विचारों में दोष ढूँढने से ही संभव हो सका। इससे अंततः नवीन ज्ञान का विकास हुआ। इसलिये बुद्ध और महावीर के बारे में कहा जाता है कि वे पहले भिन्न मतावलंबी (Dissenters) थे और उसके बाद दार्शनिक थे।

असहमति के अधिकार से संबंधित विभिन्न न्यायिक निर्णय:

  • मेनका गांधी बनाम भारत संघ वाद (1978): इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। न्यायालय ने यह भी कहा कि सूचना एकत्र करना तथा न केवल भारत बल्कि विदेशों से भी अपने विचारों का विनिमय करना प्रत्येक नागरिक का अधिकार है।
  • श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ वाद (2015): यह एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसमें आईटी अधिनियम की धारा 66A को असंवैधानिक घोषित किया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि लोकतंत्र में विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ऐसा आधारभूत मूल्य है जो हमारी संवैधानिक योजना के तहत सर्वोपरि है।

असहमति के अधिकार की सुरक्षा:

  • विधिक संरचना में सुधार: सरकार को उन सभी विधियों की समीक्षा करने के लिये एक स्वतंत्र आयोग का गठन करना चाहिये जो वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हुए उन्हें अपराध की श्रेणी के अंतर्गत लाते हैं।
  • इसके अतिरिक्त ऐसी विधियों/कानूनों को निरस्त या संशोधित करने तथा उन्हें अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार मानदंडों और संधियों में भारत द्वारा व्यक्त दायित्वों के अनुरूप बनाने के लिये प्रयास करना चाहिये।
  • प्रशासनिक तंत्र को संवेदनशील बनाना: सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिये पुलिस को प्रशिक्षण देने की आवश्यकता है कि वह अनुचित और अप्रासंगिक मामलों को दर्ज न करे। न्यायाधीशों (विशेष रूप से निचली अदालतों के) को शांतिपूर्ण अभिव्यक्ति मानकों के बारे में उन्नत प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे वाक् की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने वाले मामलों को खारिज कर सकें।
  • संचार के मुक्त माध्यमों को उपलब्ध कराना लोकतंत्र हेतु आवश्यक है। अवरुद्ध माध्यम और विकृत सूचना प्रवाह, शासित और शासक दोनों को गंभीर नुकसान पहुँचाते हैं। ऐसे में लोकतंत्र में सिविल सोसाइटी, गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि ये लोगों को तर्क-पूर्ण तरीके से असहमति प्रकट करने का मंच प्रदान करते हैं।

असहमति के संबंध में कुछ प्रसिद्ध कथन:

  • “विज्ञान के तर्कानुसार, हज़ारों व्यक्तियों पर शासन करने वाले प्राधिकरण का विचार, एक अकेले व्यक्ति के विनम्र तर्क जितना मूल्यवान नहीं होता।”- गैलीलियो गैलिली
  • “मुझे सभी स्वतंत्रताओं से परे सूचित होने, बोलने और अपने अंतःकरण के अनुसार स्वतंत्र तर्क करने के लिये स्वतंत्रता दो।”- जॉन मिल्टन
  • “मानव को परमात्मा से जोड़ने वाला यदि कुछ है तो वह अपने सिद्धांतों के साथ खड़े रहने का साहस है, भले ही सभी ने इसे अस्वीकार कर दिया हो।”-अब्राहम लिंकन
  • “अन्यायपूर्ण कानूनों की अवज्ञा करना व्यक्ति की नैतिक ज़िम्मेदारी है।”- मार्टिन लूथर किंग
  • “अपने सामाजिक परिवेश के पूर्वाग्रहों से भिन्न सम्यक मत को अभिव्यक्त करने में बहुत कम लोग सक्षम होते हैं। अधिकांश लोग ऐसे मत सृजित करने में असमर्थ हैं।”- अल्बर्ट आइंस्टीन
  • “सरकार से प्रश्न पूछना प्रत्येक नागरिक का प्रथम दायित्व है।”- बेंजामिन फ्रैंकलिन
  • “मौन तब कायरता बन जाता है जब अवसर संपूर्ण सत्य बोलने और उसके अनुसार कार्य करने की मांग करता है।”- महात्मा गांधी
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