नीतिशास्त्र
गर्भपात का अधिकार
- 07 Jun 2019
- 8 min read
संदर्भ
भारत में गर्भपात वास्तविक अर्थों में कानूनी अधिकार नहीं है। कोई महिला डॉक्टर के पास जाकर यह नहीं कह सकती कि वह गर्भपात करवाना चाहती है। सुरक्षित कानूनी गर्भपात उसी स्थिति में हो सकता है अगर डॉक्टर कहे कि ऐसा करना ज़रूरी है।
- शांतिलाल शाह समिति (1964) की सिफारिशों पर आधारित गर्भ का चिकित्सकीय समापन कानून 1971 कुछ आधारों को परिभाषित करता है जिन पर गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है। ये आधार हैं-
धारा 3: जब पंजीकृत चिकित्सक गर्भपात कर सकता है।
- भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) (1860 का 45) के अनुसार कोई भी पंजीकृत चिकित्सक उस संहिता या किसी अन्य लागू कानून के अनुसार अपराधी नहीं करार दिया जा सकता अगर वह इस कानून के प्रावधानों के अनुसार गर्भपात करता है।
- इससे यह स्पष्ट होता है कि जहाँ तक गर्भपात का सवाल है, गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम (Medical Termination of Pregnancy- MTP Act) के प्रावधान, भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों का दमन करते हैं। धारा 3 की उप-धारा (2), उप-धारा (4) के प्रावधानों के अनुसार कोई पंजीकृत डॉक्टर गर्भपात कर सकता है। यदि -
a. गर्भावस्था की अवधि 12 सप्ताह से अधिक की नही है
b. गर्भावस्था की अवधि 12 सप्ताह से अधिक है लेकिन 20 सप्ताह से अधिक नहीं है तो गर्भ उसी स्थिति में हो सकता है जब दो डॉक्टर ऐसा मानते हैं किः
1. गर्भपात नहीं किया गया तो गर्भवती महिला का जीवन खतरे में पड़ सकता है, या
2. अगर गर्भवती महिला के शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पहुँचने की आशंका हो, या
3. अगर गर्भाधान का कारण बलात्कार हो, या
4. इस बात का पर्याप्त खतरा हो कि अगर बच्चे का जन्म होता है तो वह शारीरिक या मानसिक विकारों का शिकार हो सकता है जिससे उसके गंभीर रूप से विकलांग होने की आशंका है, या
5. बच्चों की संख्या को सीमित रखने के उद्देश्य से वैवाहिक दंपति ने जो गर्भ निरोधक हो या तरीका अपनाया हो वह विफल हो जाए, या
6. गर्भवती महिला के स्वास्थ्य को उसके वास्तविक या बिल्कुल आप-पास के वातावरण के कारण खतरा हो। यह कानून 20 सप्ताह के बाद गर्भपात की अनुमति नहीं देता। निश्चित तौर पर ‘मेडिकल ओपिनियन’ ‘गुड फेथ’ में दिया जाना चाहिये। गुड फेथ शब्द को इस कानून में परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन भारतीय दंड संहिता की धारा 52 गुड फेथ को पर्याप्त सावधानी के साथ किये गए कार्य के रूप में परिभाषित करती है।
गर्भपात के लिये सहमति
MTPA की धारा 3 (4) यह स्पष्ट करती है कि गर्भपात के लिये किसकी सहमति ज़रूरी होगी।
a. कोई भी युवती जिसकी आयु 18 वर्ष नहीं है या वह 18 वर्ष की तो हो लेकिन मानसिक तौर पर बीमार हो तो गर्भपात के लिये उसके अभिभावक की लिखित सहमति लेनी होगी।
b. कोई भी गर्भपात महिला की सहमति के बगैर नहीं किया जा सकता।
गर्भ का चिकित्सकीय समापना (संशोधन) विधेयक, 2014
(Medical Termination of Pregnancy- MTP Act)
- इसके क्रियान्वयन के क्षेत्र को विस्तार देने और कुछ और संस्थाओं को मेडिकल गर्भपात के काम में लगाने के लिये केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रलय ने MTP अधिनियम, 1971 में कुछ प्रमुख संशोधन प्रस्तावित किये हैं। प्रस्तावित संशोधन विधेयक 20 सप्ताह के बाद MTP की अनुमति देता है। इसके अलावा, अगर गर्भावस्था की वजह से महिला के जीवन को शारीरक या मानसिक तौर पर आघात लगने की संभावना हो या फिर इससे अजन्मे बच्चे को खतरा हो तो यह संशोधन गर्भपात की अवधि को गर्भ धारण के 24 सप्ताह से अधिक नहीं ले जाने की बात करता है।
- इसके अलावा संशोधित कानून इस आधार पर 24 सप्ताह वाले MTP की बात करता है कि बलात्कार या गर्भनिरोधक पद्धति की विफलता को गर्भवती महिला के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा आघात समझा जाता है। यह कहता है कि 20 सप्ताह से 24 सप्ताह के बाद होने वाले किसी भ्रूण संबंधी असामान्यता के लिये MTP पर विचार किया जा सकता है।
अजन्मे बच्चे का अधिकार
- तत्कालीन केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने कहा था कि गर्भवती महिला को इस बात की जानकारी दे दी जानी चाहिये कि उसकी कोख में पल रही संतान का लिंग क्या है। चूँकि गर्भधारण पूर्व और प्रसवपूर्व निदान-तकनीक (लिंग चयन प्रतिषेध) अधिनियम (Pre-Conception and Pre-Natal Diagnostic Techniques- PCPNDT) का उल्लंघन कर माता-पिता को उनके अजन्मे शिशु के लिंग के संबंध में जानकारी देने वाले प्रत्येक अल्ट्रा साउंड तकनीशियन को पकड़ने की जद्दोजहद वास्तव में संभव नहीं है। ऐसे में क्यों न इससे संबंधित रणनीति को ही बदल दिया जाए? जैसे ही कोई महिला गर्भ धारण करे, हमें उसकी आने वाली संतान के लिंग से संबंधित जानकारी प्राप्त कर उसे बता देना चाहिये और सार्वजनिक रिकार्ड में उस जानकारी को अंकित कर देना चाहिये। “सोनोग्राफरों को सजा देने की बजाय, यह कन्या भ्रूण हत्या को रोकने का बेहतर मार्ग है।” अगर यह प्रस्ताव स्वीकार कर उसे लागू कर दिया जाता है तो वह गर्भवती महिला की निजता के अधिकारों के साथ-साथ गर्भपात करवाने के उनके अधिकार का भी अतिक्रमण होगा।
लिंग निर्धारण को अनिवार्य करना और सभी गर्भ-धारकों को निगरानी का विषय बनाना, संविधान के 19वें अनुच्छेद का उल्लंघन होगा, जहाँ से हमें निजता का अधिकार हासिल हुआ है और किसी भी महिला को यह हक दिया गया है कि वह इस बात को तय करे कि गर्भवती बनना है या नही, अथवा अपने गर्भ को कायम रखना है या नहीं। सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने 1992 में नीरा माथुर बनाम भारतीय जीवन बीमा निगम मामले में यह निर्णय दिया था कि गर्भ-धारण को निजी रखना, निजता के अधिकार का मामला है।