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माँस की बिक्री पर लगाए जा रहे प्रतिबंध

  • 09 Mar 2019
  • 14 min read

पक्ष

  • माँस की बिक्री को लेकर विगत दिनों कई प्रकार के घटनाक्रम प्रकाश में आए।
  • कुछ वर्ग इस तरह के आदेशों को शासन के द्वारा हमारे निजी जीवन में खान-पान पर अंकुश के रूप में देख रहे हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जो इसे धार्मिक सद्भाव कायम रखने का एक कदम बताकर स्वीकारोक्ति भी दे रहे हैं।
  • माँस की बिक्री पर प्रतिबंध के विषय में भी हमें व्यापक दृष्टिकोण के साथ विचार करने की आवश्यकता है।
  • गाय के दूध, घी की उपयोगिता पर तो कोई प्रश्न ही नहीं है परंतु गोमाँस के उत्पादन में यह तर्क दिये जाते हैं कि बूढ़ी गायों के लिये बेहतर विकल्प यही है। इसी प्रकार बैल के संदर्भ में उपयोगिता समाप्त होने पर इसका क्या किया जाए।
  • आज जब कृषि आधुनिक उपकरणों की मदद से की जाती है वहाँ बैलों की उपयोगिता पर प्रश्न उठ रहे हैं। परंतु हमें इतनी आसानी से निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिये। हमारे देश में भूखंडों के छोटे-छोटे टुकड़े होने के कारण कई बार तो ट्रैक्टर से जमीन की जुताई संभव ही नहीं हो पाती। आज भी किसान अपनी पैदावार को गाँवों से मंडियों तक बैलगाडि़यों के माध्यम से लेकर जाता है, क्योंकि उनके गाँवों की कच्ची सड़कों पर गाडि़याँ नहीं आती-जाती।
  • ठीक इसी तरह गाय दूध देना बंद कर दे तब भी वह अनुपयोगी नहीं होती। आज भी कई गाँवों में जहाँ रसोई गैस उपलब्ध नहीं हैं लोग गोबर से बने उपले का प्रयोग ईंधन के रूप में करते हैं। जिनके घर मिट्टी के हैं वे अपने घर-आंगन की लिपाई-पुताई गोबर से करते हैं।
  • गोमूत्र का प्रयोग कई प्रकार की बीमारियों के इलाज के लिये बनाई जाने वाली आयुर्वेदिक औषधियों में होता है और सबसे मुख्य बात यह कि गोबर से या मवेशियों एवं पशुओं के अन्य अपशिष्टों से जैविक खाद (उर्वरक) का निर्माण होता है।
  • मृदा की गुणवत्ता बनी रहे इसलिये किसान प्रत्येक फसल के बाद खेतों में जैविक उर्वरक अनिवार्य रूप से डालते हैं क्योंकि रासायनिक उर्वरक से तात्कालिक रूप से कृषि उत्पादन तो बढ़ता है परंतु दीर्घकाल में यह मृदा की उर्वरता तथा उसके अंदर के जैविक तत्त्वों को खत्म करता है। इसलिये मिट्टी को जैविक कार्बन एवं माइक्रो न्यूट्रिएंट्स मिल सके इसके लिये जैविक खाद का प्रयोग अनिवार्य है।
  • यदि यह तर्क भी मान लें कि अंतिम कुछ वर्षों के लिये गाय-बैल इत्यादि आर्थिक रूप से अनुपयोगी हो जाते हैं तो फिर मानवता क्या कहती है। इसी धरती से शाक्य मुनि, महात्मा बुद्ध से लेकर महावीर व आधुनिक भारत के निर्माता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने सदैव अहिंसा, सत्य, प्रेम, करुणा व वात्सल्य का संदेश संपूर्ण विश्व को प्रसारित किया है।
  • हमारे संविधान का अनुच्छेद 51क(छ) अपने देश के नागरिकों से अन्य जीवों के प्रति दया भाव रखने की अपेक्षा करता है। फिर यह कहाँ तक न्यायोचित या मानवीय है कि जिस प्राणी ने आपके हर कार्य को सिद्ध किया, उसकी हत्या इस तर्क के साथ कर दी जाए कि अब वह अनुपयोगी है।
  • कुछ लोगों के द्वारा यह तर्क दिया जाता है कि माँस एक बड़े तबके के लिये ‘प्रोटीन’ प्राप्त करने का माध्यम है। यह बात भी सही नहीं है। चिकन से लेकर मटन और अन्य माँस के मूल्यों की तुलना की जाए तो उससे कम मूल्य में आप यही ‘प्रोटीन’ दाल और दूध के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं।
  • कहने का सार यह है कि जब हमारे पास बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं तो किसी जीव का वध क्यों? जब हम किसी के लिये प्राण दे नहीं सकते तो लेने का क्या अधिकार है? वैसे भी यदि मानव शरीर की संरचना देखी जाए तो यह शाकाहार के अनुकूल ही प्रतीत होती है। और विभिन्न प्रकार के वैज्ञानिक शोध परिणामों ने यह पुष्टि भी की है कि शाकाहार ही स्वस्थ व लंबी आयु प्रदान कर सकता है। माँसाहारी व्यक्ति को शाकाहारी की तुलना में ज्यादा बीमारी होने के आसार होते हैं।
  • अब यदि धार्मिक आयाम को भी टटोलें तो भारत जैसा विविधतापूर्ण देश जहाँ कुछ धर्म (जैन, बुद्ध) अहिंसा में विश्वास रखते हैं, कोई धर्म गायों के प्रति आस्था रखता है तो कोई ‘पोर्क’ के सेवन को सही नहीं मानता। हम सब सदियों से एक-दूसरे के रहन-सहन का सम्मान करते आए हैं। राजशाही के दौर में भी अकबर से लेकर बहादुर शाह जफ़र तक ने इस गंगा-जमुनी तहजीब को सम्मान दिया। फिर आज अगर एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुए कुछ चीजों का परित्याग ही करना पड़े तो क्या बुराई है। ऐसा करके हम विश्व को अपनी एकता व परस्पर धार्मिक सौहार्द्र से परिचित कराएंगे।

विपक्ष

  • माँस की बिक्री पर लगाए जा रहे प्रतिबंधों पर नागरिक समाज ने त्वरित प्रतिक्रियाएँ दी हैं जिसमें से एक सशक्त बिन्दु यह रहा है कि क्या लोकतंत्र में सरकार द्वारा उठाए गए ये कदम संविधान द्वारा व्यक्ति को दिये गए अधिकारों का हनन नहीं हैं?
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 हर भारतीय को यह अधिकार देता है कि वह अपनी इच्छानुसार अपना व्यवसाय चुन सकता है। राज्य की किसी भी संस्था द्वारा माँस की बिक्री पर लगाया गया प्रतिबंध उन व्यक्तियों के इस मौलिक अधिकार का हनन है जो इसके व्यापार में संलग्न हैं।
  • एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में जहाँ माँस की बिक्री पर प्रतिबंध लगाया गया है, माँस के उत्पादन से लेकर उसके व्यापार, ढुलाई एवं निर्यात से तकरीबन 15 लाख लोग जुड़े हुए हैं।
  • मौलिक अधिकारों में से जीवन का अधिकार जिसे राज्य अनुच्छेद 21 के तहत अक्षुण्ण रखने के लिये वचनबद्ध है- हर भारतीय को गरिमापूर्ण जीवनयापन करने का अधिकार देता है। न केवल इतनी बड़ी संख्या से उसका रोजगार छीनना बल्कि लोगों की अपनी खान-पान की स्वतंत्रता को समाप्त करना, गरिमा से जीवन जीने के इस अधिकार को खंडित करता है।
  • ये प्रतिबंध पशुओं के प्रति संवेदना से या शाकाहार के आग्रह से नहीं अपितु धार्मिक एवं अन्य पूर्वाग्रहों से संचालित है।
  • हिंसा और अहिंसा मानव समाज में सदा सापेक्ष होती हैं। अगर पशुओं की हत्या हिंसा है तो उन्हीं पशुओं को अशक्त होने पर सड़क पर आवारा छोड़ देना भी अगर अधिक नहीं तो उतना ही हिंसक कृत्य है।
  • इसके अलावा कई बार कृषक भी बूढ़े जानवरों को बेचकर ही नए जानवर ला सकने में समर्थ हो पाते हैं। ऐसे में अगर माँस की बिक्री पर प्रतिबंध लगता है तो इन पशुओं को बेचने में अक्षम होने पर जहाँ एक ओर गरीब किसान को आर्थिक समस्याओं से जूझना पड़ेगा वहीं दूसरी ओर अनेक पशुओं को आवारा छोड़ दिया जाएगा जो अत्यंत दयनीय हालत में जीने को विवश होंगे।
  • अगर हम सच में अहिंसा के मूल्यों को बढ़ावा देना चाहते हैं तो पशु-अधिकारों के विमर्श की दिशा में हस्तक्षेप किया जा सकता है, परंतु माँस-बिक्री पर प्रतिबंध जैसे कदम दूर-दूर तक इससे जुड़ा दिखाई नहीं देता।
  • जहाँ तक धार्मिक सद्भाव बनाए रखने के लिये ऐसे कदम उठाने की आवश्यकता की बात है तो समाज में इन मुद्दों पर होते ध्रुवीकरण एवं बढ़ते तनाव से इतना तो स्पष्ट है कि माँस बिक्री पर प्रतिबंध धार्मिक सद्भाव में वृद्धि करने की जगह उसे नुकसान ही पहुँचा रहे हैं। और अगर कोई इतिहास से अकबर या बहादुर शाह जफर के समय के उदाहरण देकर इसे सद्भाव कायम करने का पारंपरिक तरीका बताने की चेष्टा करता है तो उससे भी सजग रहने की ज़रूरत है। समय एवं तंत्र में बदलाव के साथ तरीकों में बदलाव की आवश्यकता होती है।
  • हो सकता है कि राजशाही में एक अल्पसंख्यक समुदाय असहमत या प्रसन्न न होते हुए भी इस प्रकार के प्रतिबंध स्वीकार कर लें तथा दूसरे बहुसंख्यक समुदाय इसके प्रति कृतज्ञ महसूस करें तथा राजतंत्र का समर्थक बन जाएँ, परंतु अन्ततोगत्वा राजशाही न तो जवाबदेह होती है और न ही जनआकांक्षाओं एवं जनसमर्थन द्वारा संचालित जबकि स्वस्थ लोकतंत्र में सरकार बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक किसी एक के समर्थन या विपक्ष द्वारा नहीं संचालित होती बल्कि पूरे समाज को साथ लेकर चलने के लिये प्रतिबद्ध होती है। ऐसे में लोकतंत्र में किसी भी एक पक्ष में जाकर प्रतिबंध लगाना दूसरे पक्ष के मन में सरकार की निरपेक्षता के प्रति संदेह पैदा करेगा जो अन्ततः लोकतंत्र के हित में नहीं होगा।
  • किसी धार्मिक समुदाय की संवेदनाओं को आधार बनाकर जब कोई प्रतिबंध लगाया जाता है तो यह सहज ही मान लिया जाता है कि पूरे समुदाय के विचार या भावनाएँ बिल्कुल एक समान ही होंगी जबकि असल सामुदायिक एवं धार्मिक विश्वासों का निर्माण अनेक कारकों से प्रभावित होता है। उदाहरण के तौर पर उत्तरी भारत के हिन्दू और मुसलमान सांस्कृतिक तौर पर क्रमशः दक्षिण भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों के मुकाबले अधिक समान हैं। परंतु प्रतिबंधों की राजनीति सभी को बिल्कुल एक समान कर समरूपीकरण की कोशिशें करती है। इससे लघुकालिक राजनीतिक लाभ तो शायद मिले परंतु विविधता में एकता की संस्कृति खंडित होती है।
  • एक विचार, एक आचार और एक पहचान थोपने की प्रक्रिया में सामुदायिक चेतना वर्तमान की आवश्यकताओं की जगह भूतकाल के प्रतीकों से संचालित होने लगती है जिससे समाज जड़ता की तरफ अग्रसर होता है।
  • अगर चिंता सच में ही पर्यावरण या अहिंसा के मूल्यों की है तो उचित विमर्श के पश्चात् एक राष्ट्रव्यापी नीति बननी चाहिये ताकि ऐसे नियमन समाज को विभाजन की ओर न ले जाकर एक अधिक उदार एवं सशक्त राष्ट्र के उद्भव में अपना योगदान दे सके।

निष्कर्ष

  • निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि एक ओर जहाँ धार्मिक भावनाओं को आदर के साथ देखा जाना चाहिये, वहीं दूसरी ओर सरकारों एवं न्यायिक व्यवस्था को लोगों के निजी खान-पान जैसे मुद्दों पर हस्तक्षेप से बचना चाहिये।
  • एक बेहतर रास्ता यह हो सकता है कि समाज के विभिन्न तबकों में सामुदायिक स्तर पर विचारों के आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया जाए जिससे एक-दूसरे की संस्कृति का आदर करने का प्राचीन भाव फिर से सशक्त हो सके। इस प्रकार जहाँ कुछ मौकों पर ज़रूरी होने पर एक धार्मिक समुदाय स्वयं ही दूसरे समुदाय के प्रति सम्मान दिखाने हेतु कुछ बातों से परहेज करे, वहीं दूसरी ओर दूसरा समुदाय भी इस सम्मान के प्रति कृतज्ञता ज़ाहिर करे और इस परहेज़ से होने वाले आर्थिक नुकसान की भरपाई की पेशकश करे।
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