मानदंडक नीतिशास्त्र सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य एक नैतिक संस्था को परिभाषित करने एवं उसका समर्थन करने के लिये सेवा प्रदान करना है, अर्थात् नैतिक (एवं अनैतिक) व्यवहार को निर्धारित करने के लिये उचित तथा विश्वसनीय सिद्धांत प्रदान करना है।
मानदंडक सिद्धांत में नैतिक मानकों को प्राप्त करना शामिल है जो सही एवं गलत आचरण को नियंत्रित करते हैं। दूसरे शब्दों में यह उचित व्यवहार की खोज के लिये एक आदर्श परीक्षण है।
गोल्डन रूल मानदंडक सिद्धांत का एक उदाहरण है जो एकल सिद्धांत स्थापित करता है, इससे हम सभी कार्यों का परीक्षण करते हैं। अन्य मानदंडक सिद्धांत मूलभूत सिद्धांतों के एक समूह अथवा अच्छे चरित्र के लक्षणों के एक समूह पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
मानदंडक सिद्धांत कार्रवाई संबंधी निर्देश और व्यावहारिक प्रश्न का उत्तर देने के लिये प्रक्रियाएँ (मुझे क्या करना चाहिये?) प्रदान करने का प्रयास करते हैं।
मानदंडक सिद्धांत में मुख्य धारणा यह है कि नैतिक आचरण का केवल एक अंतिम मानदंड होता है, चाहे वह एक नियम हो अथवा सिद्धांतों का एक समूह।
सामान्य नैतिक सिद्धांतों को तीन मुख्य समूहों में वर्गीकृत किया गया है- टेलीओलॉजिकल, कर्तव्यशास्त्र और गुण नैतिक सिद्धांत।
इस प्रकार के सिद्धांत इस बात में भिन्न होते हैं कि वे किसी कार्य के नैतिक मूल्य को कैसे निर्धारित करते हैं, क्या कोई कार्य नैतिक रूप से सही, गलत, स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य है?
टेलीओलॉजिकल नीतिशास्त्र
(Teleological Ethics)
टेलीओलॉजी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द ‘Telos’ जिसका अर्थ ‘अंत’ होता है एवं ‘logos’ जिसका अर्थ ‘विज्ञान’ होता है, से हुई है।
टेलीओलॉजिकल दृष्टिकोण को "परिणामवाद" भी कहा जाता है। यह किसी कार्य के प्रभावों अथवा परिणामों द्वारा उस कार्य के नैतिक मूल्य को निर्धारित करता है।
इस सिद्धांत के अनुसार, कोई कार्य अच्छा है यदि इसके परिणाम अच्छे हैं; कोई कार्य गलत है यदि इसके परिणाम अच्छे नहीं हैं।
अतः किसी कार्य को नैतिक रूप से परखने के लिये हमें इसके वास्तविक अथवा संभावित परिणामों पर विचार करना होगा। नैतिक अहंवाद एवं उपयोगितावाद, परिणामवाद के अंतर्गत आते हैं।
टेलीओलॉजिकल नैतिक सिद्धांत हमारे स्वयं के व्यावहारिक परिणामों को स्थापित करते हैं, न कि समग्र व्यवहार में नैतिक अच्छाइयाँ स्थापित करते हैं।
टेलीओलॉजिकल (परिणामवाद) नैतिक सिद्धांत के अनुसार, सभी तर्कसंगत मानवीय कार्य इस अर्थ में परिणामवादी होते हैं क्योंकि हम कुछ निश्चित लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधनों के बारे में विचार करते हैं। अतः नैतिक व्यवहार लक्ष्य-निर्देशित होता है।
उदाहरण: एक परिणामवादी दृष्टिकोण में चोरी को संदर्भ एवं अंतर्निहित परिणाम से स्वतंत्र रखकर गलत अथवा सही के रूप में नहीं आँका जा सकता है। जैसे मान लीजिये कि कोई व्यक्ति अपने पड़ोस की किराने की दुकान से एक ब्रेड का पैकेट चोरी करने का विचार कर रहा है। कई नैतिक सिद्धांतकारों का तर्क होगा कि नैतिकता के लिये किसी के उद्देश्यों (या इरादे) के विश्लेषण की आवश्यकता होती है जो व्यक्ति के उस व्यवहार के लिये ज़िम्मेदार है।
हालाँकि टेलीओलॉजिकल दृष्टिकोण से किये गए कार्य के उद्देश्यों का वास्तव में सही अथवा गलत से कोई लेना-देना नहीं होता है। इस सिद्धांत के अनुसार, अल्पकालिक एवं दीर्घकालिक परिणामों में संभावित कष्ट एवं सुख मायने रखते हैं।
यदि चोरी करने वाले व्यक्ति के बच्चे भूख से त्रस्त थे और यदि चोरी किया गया ब्रेड उन्हें तात्क्षणिक भूख से राहत प्रदान करता है तो इस कार्य को नैतिक कहा जा सकता है।
टेलीओलॉजिकल नैतिकता का उत्कृष्ट उदाहरण उपयोगितावाद है।
टेलीओलॉजिकल नैतिकता के रूप में उपयोगितावाद
(Utilitarianism as Teleological Ethics)
उपयोगितावाद में किसी कार्य के परिणाम को पहले से जानने के लिये नैतिक घटक की आवश्यकता होती है। किसी भी स्थिति में व्यक्ति को कार्य के उपलब्ध विकल्पों पर विचार करना होता है एवं उस विकल्प का चयन करना होता है जिसके परिणामस्वरूप अधिकतम उपयोगिता अथवा न्यूनतम अनुपयोगिता प्रदर्शित होगी।
उपयोगितावाद के परिणामी सिद्धांत का आधुनिक रूप 19वीं सदी के ब्रिटिश दार्शनिकों जैसे-जेरेमी बेंथम एवं जॉन स्टुअर्ट मिल के विचारों से उत्पन्न हुआ है।
'ग्रेटेस्ट हैप्पीनेस प्रिंसिपल'- व्यक्तिगत कल्याण को अधिकतम करने के बजाय उपयोगितावाद सामूहिक कल्याण पर ध्यान केंद्रित करता है एवं बड़ी संख्या में लोगों के लिये अधिकतम कल्याण सुनिश्चित करता है।
अतः अधिकतम लोगों के लिये अधिकतम लाभ सुनिश्चित करने में लाभ का शुद्ध मूल्यांकन किया जाता है वहीं उपयोगिता लाभ एवं हानि अथवा लागत का शुद्ध परिणाम है।
उपयोगितावाद ने एक महत्त्वपूर्ण मात्रात्मक अवधारणा के रूप में आधुनिक अर्थशास्त्र में जगह बनाई है।
समझौताकारी समन्वयन की अवधारणा को विशेष रूप से सामाजिक एवं पर्यावरणीय लागत-लाभ विश्लेषण एवं किसी कार्य की अच्छाई का आकलन करने के लिये स्पष्ट उपयोगितावादी उपकरण के रूप में अपनाया गया है ।
किसी निर्णय की समग्र उपयोगिता का आकलन करने के लिये लागत एवं लाभों की एक सरल बैलेंस शीट तैयार की जा सकती है।
कर्तव्यशास्त्र:
(Deontology):
‘डिआन्टोलॉजी’ शब्द ग्रीक शब्द "डीऑन" से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है 'कर्तव्य,' अथवा 'दायित्व,' या जो नैतिक रूप से आवश्यक होता है।
कर्तव्यशास्त्र का दृष्टिकोण इस बात को खारिज करता है कि किसी भी कार्य का नैतिक मूल्य उसके परिणामों पर निर्भर करता है।
कर्तव्यशास्त्र का नैतिक दृष्टिकोण यह मानता है कि नैतिक घटकों के परिणामों को ध्यान में रखे बिना नैतिक कर्तव्यों अथवा दायित्वों को दृढ़ता से पूरा किया जाना चाहिये।
नैतिक घटकों को मानवाधिकारों का ध्यान रखना होता है एवं एक इष्टतम मूल्य पर नैतिक दायित्वों को पूरा करना होता है।
कर्तव्यशास्त्र का तर्क है कि किसी कार्य का नैतिक मूल्य इसके परिणामों पर निर्भर नहीं करता है, लेकिन यह कि एक अलग मानदंड का उपयोग किया जाना चाहिये।
एक डिआन्टोलॉजिक नैतिक सिद्धांत यह मानता है कि चरित्र हनन गलत एवं अमानवीय है, भले ही इसके परिणाम अच्छे हों।
उदाहरण: उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में दास प्रथा विरोधी आंदोलन के कई सदस्यों ने तर्क दिया कि दास प्रथा गलत थी, भले ही सामान्य रूप से दास, मालिक एवं दक्षिणी अमेरिकी समाज इससे आर्थिक रूप से लाभान्वित हुए हों।
दास मालिक दासों को उस इच्छानुकूल अवस्था में ला सकते थे जहाँ दास स्वयं दास प्रथा से संतुष्ट होते। एक परिणामवादी दृष्टिकोण से, दासता एक आदर्श आर्थिक संस्था प्रतीत हो सकती है जहाँ हर कोई संतुष्ट एवं खुश है। परंतु एक डिआन्टोलॉजिस्ट का तर्क होगा कि भले ही अमेरिकी सरकार ने दास प्रथा का विस्तृत लागत/लाभ विश्लेषण किया हो एवं यह निर्णय लिया हो कि यह समाज के लिये कष्टप्रद से अधिक लाभप्रद है (बहुसंख्यकों के लिये लाभकारी) लेकिन यह तब भी गलत होगी।
अतः दास प्रथा गलत है, जो इसके नकारात्मक परिणामों के कारण नहीं बल्कि इसलिये कि यह एक नैतिक नियम का उल्लंघन करती है।
इस सिद्धांत के अनुसार, कुछ कार्य अपने परिणामों से निरपेक्षतः नैतिक रूप से बाध्यकारी होते हैं।
ऐतिहासिक रूप से डिआन्टोलॉजी का सबसे प्रभावशाली नैतिक सिद्धांत जर्मन दार्शनिक इमैनुअल कांट (1724-1804) द्वारा विकसित किया गया था।
कांट का निरपवाद कर्तव्यादेश:
इमैनुअल कांट ने उपयोगितावाद के बारे में जो कुछ भी सुना वह उससे सहमत नहीं था और उसने माना कि नैतिकता का शायद ही खुशी से कोई लेना-देना था।
कांट का मानना है कि नैतिक जीवन में भावना, मनोभाव अथवा संवेदना के लिये कोई स्थान नहीं है।
नैतिक जीवन एक तर्कसंगत जीवन होता है। उसने इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसा क्या है जो एक नैतिक कार्य को एक गैर-नैतिक कार्य से अलग करता है।
उसने निष्कर्ष निकाला कि एक नैतिक कार्य वह है जो कर्तव्य की भावना से किया जाता है, न कि अपने व्यक्तिगत झुकाव अथवा इच्छा के अनुरूप।
कांट सिर्फ एक भावना को मान्यता प्रदान करता है और वह है-नैतिक नियमों में विश्वास। लेकिन यह वास्तव में यह भावना नहीं है। वह हर भावना को अनैतिक मानता है।
कांट का कर्तव्यशास्त्र ‘निरपवाद कर्तव्यादेश’ अवधारणा को दर्शाता है।
यह एक नैतिक नियम है जो सभी के लिये शर्तहीन अथवा निरपेक्ष होता है, जिसकी वैधता किसी भी प्रयोजन अथवा लक्ष्य पर निर्भर नहीं करती है।
कांट के लिये इस विश्व में केवल एक चीज़ जो बिना किसी शर्त के अच्छी है, वह है स्व-लाभ की परवाह किये बिना नैतिक नियम का पालन करने की इच्छाशक्ति।
उसके लिये केवल एक ऐसा ‘निरपवाद कर्तव्यादेश’ है, जिसे उसने विभिन्न तरीकों से तैयार किया है। इसके अनुसार, केवल उस सिद्धांत (नियम) के अनुसार कार्य करना चाहिये जो आपके अनुसार सर्व सामान्य नियम हो।
इसका तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति के लिये जो सही है वह सभी के लिये सही है और जो किसी के लिये गलत है वह सभी के लिये गलत है। यदि आप सभी के लिये इसे सही बनाने हेतु अपने कार्य को सर्व सामान्य नहीं बना सकते हैं, तो यह आपके लिये भी गलत है।