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मानव क्लोनिंग से जुड़े नैतिक पक्ष

  • 23 Feb 2019
  • 11 min read

क्या है क्लोन?

  • क्लोन एक ऐसी जैविक रचना है जो एकमात्र जनक (नर या मादा) से गैर-लैंगिक विधि द्वारा उत्पन्न होती है।
  • उत्पादित क्लोन अपने जनक से शारीरिक एवं आनुवंशिक रूप से पूर्णतः समरूप होता है।
  • दरअसल, प्राकृतिक तौर पर नवीन जीवन के जन्म में सामान्यतः नर और मादा से प्राप्त होने वाली विशिष्ट कोशिकाएँ जिन्हें ‘जननिक कोशिकाएँ’ (Reproductive Cells) कहते हैं, भाग लेती हैं।
  • मानव शिशु के मामले में माता और पिता के पक्ष की जब दो अर्द्धसूत्री जननिक कोशिकाएँ आपस में संयोजित होती हैं तो उनके मेल से बनने वाली नई कोशिका में पूरे 46 गुणसूत्र (Chromosomes) होते हैं। इस प्रक्रिया को निषेचन (Fertilisation) कहते हैं तथा जो रचना बनती है उसे ‘युग्मनज’ (Zygote)। यह युग्मनज गर्भ में समय के साथ विकसित और विभाजित होते हुए अन्ततः नए जीव के रूप में जन्म लेता है।
  • इस तरह एक कोशिका से अरबों कोशिकाओं वाले मनुष्य का निर्माण होता है। इससे यह स्पष्ट है कि हर कोशिका में जीव के निर्माण के लिये सभी सूचनाएँ मौजूद रहती हैं।
  • गैर-लैंगिक विधि से सोमैटिक सेल्स (Somatic Cells) द्वारा जीव के जन्म की संभावनाएँ खोजने के प्रयासों की प्रक्रिया में ही क्लोनिंग की तकनीक विकसित हुई।
  • क्लोनिंग को धार्मिक दृष्टि से परखने वाले अनेक धर्मगुरुओं एवं चिंतकों ने इसका विरोध किया है। उनका मानना है कि जीवन की उत्पत्ति की प्रक्रिया अत्यंत पवित्र है एवं मानव क्लोनिंग द्वारा उसमें हस्तक्षेप करके ईश्वरीय प्रकृति चक्र को नियंत्रित करने की अनैतिक चेष्टा ही की जा रही है जिसके परिणाम घातक होंगे।
  • मानव क्लोनिंग को लेकर नैतिक द्वंद्व की स्थिति तब और विकट हो जाती है, जब हम पाते हैं कि क्लोनिंग की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है जिसमें सफलता का प्रतिशत बहुत कम होता है।

क्लोनिंग का नैतिक पक्ष

  • यह माना जा रहा है कि मानव क्लोनिंग चिकित्सीय विश्व में क्रांति कर देगी। मानव क्लोनिंग में न सिर्फ पूरे मानव बल्कि मानव शरीर के किसी विशेष हिस्से को भी क्लोनिंग द्वारा विकसित किया जा सकता है।
  • आमतौर पर अंग प्रत्यारोपण या प्लास्टिक सर्जरी जैसी शल्य-चिकित्साओं के पश्चात् कई बार शरीर आसानी से बाहर से आरोपित अंगों को स्वीकार नहीं करता और इससे बचने के लिये अपनाए गए तरीकों से शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। परंतु क्लोनिंग द्वारा विकसित अंग जैविक संरचना के लिहाज से प्राप्तकर्ता की कोशिकाओं के हू-ब-हू प्रतिरूप होंगे।
  • ऐसे में न सिर्फ दुर्घटना की स्थिति में बल्कि अनेक बीमारियों के दौरान आवश्यक अंग प्रत्यारोपण के लिये अंगों की आपूर्ति हेतु क्लोन्स का उपयोग किया जा सकेगा जिससे न सिर्फ अंगों के अवैध-व्यापार एवं मरीजों के शोषण पर रोक लग सकेगी बल्कि अक्सर शरीर द्वारा प्रत्यारोपित अंग को नकार देने से उपजने वाली समस्याएँ भी नहीं होंगी।
  • इसके अलावा चिकित्सीय शोध के लिये आवश्यक शरीर भी क्लोन के माध्यम से मुहैया कराए जा सकेंगे जो कि शोध के लिये उपयुक्त होंगे। इसका अर्थ यह है कि बीमार कोशिका से विकसित क्लोन बीमारी के सारे लक्षण दर्शाएगा जिससे उस पर शोध करना अधिक फलदायी होगा।

क्लोनिंग का अनैतिक पक्ष

  • यह नहीं भूलना चाहिये कि अणु-विज्ञान के नियम खोजने वाले वैज्ञानिक इसकी संभावनाओं के प्रति अति-उत्साही थे परंतु इसका पहला प्रयोग किसी सृजनात्मक मकसद से नहीं अपितु विध्वंसक ध्येय के लिये हुआ।
  • मानव क्लोनिंग के दौरान जीवित अंगों का विकास करने के पश्चात् उन्हें मातृ-कोशिकाओं से अलग कर दूसरे शरीर में प्रत्यारोपित करने की प्रक्रिया में जिन मातृ कोशिकाओं का नाश होगा या उन्हें विकसित करने की प्रक्रिया में जितनी बार असफलता हाथ मिलने के कारण खराब अंग विकसित होंगे-क्या उसके प्रति किसी की कोई जवाबदेही तय होगी? आखिर वे कोशिकाएँ एवं अंग मशीन अथवा उपकरण नहीं बल्कि जीवन से पूर्ण इकाइयाँ होंगी। इसी प्रकार यह कहना कि क्लोन का उपयोग चिकित्सा में शोध के लिये हो सकता है, इस बात को नज़रअंदाज़ करना है कि क्लोन भी अन्ततः एक जीवित मनुष्य ही होगा, तो फिर ऐसे में किस आधार पर कोई भी समाज शोध के लिये एक जीवित मनुष्य, चाहे उसका जन्म क्लोनिंग पद्धति द्वारा ही हुआ हो, के जीवन के अधिकार का हनन करके उसे शोध हेतु उपयोग में ला सकेगा?
  • मानव क्लोनिंग से विकसित क्लोन की कानूनी एवं राजनीतिक पहचान क्या होगी। क्या क्लोन को मानव माना जा सकेगा,जबकि क्लोन असल में एक प्रतिरूप होगा जिसके स्वतंत्र व्यक्तित्व की गुंजाइश सीमित होगी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह भी होगा कि क्लोन से उसके जनक के हू-ब-हू होने की आशा की जाएगी जो उसे कुंठित करेगी।
  • इस तर्क के आधार पर अगर क्लोन को मानव के बराबर दर्जा एवं अधिकार नहीं दिया गया तो उनके शोषण का रास्ता खुल जाएगा। उन्हें उसी प्रकार महज संपत्ति के समान माना जाएगा जैसे दासों को माना जाता था। किसी भी समाज और विशेषकर आधुनिक समाज में ऐसी स्थिति को नैतिक नहीं माना जा सकता।
  • आमतौर पर लोग अस्पतालों में अपनी जाँच कराने से लेकर अंग दान एवं प्रत्यारोपण तक की प्रक्रिया में अपने शरीर की अनेक कोशिकाओं को जमा करने अथवा दान करते हैं। ऐसे में क्या यह संभावना बहुत सशक्त नहीं है कि किसी भी व्यक्ति की कोशिकाओं से उसका क्लोन उसकी सहमति के बिना ही तैयार कर लिया जाए। क्या कोई ऐसा विस्तृत तंत्र है जो इस संभावना के सच होने की स्थिति में उस पर रोकथाम लगाने का माद्दा रखता हो?
  • मानव क्लोनिंग सहित किसी भी क्लोनिंग तकनीक की अब तक सबसे महत्त्वपूर्ण सीमा जो उभरकर आई है तथा जो इसकी सभी संभावनाओं पर प्रश्नचिह्न लगाती है, वह यह है कि वैज्ञानिक तौर पर वह कोशिका, जिससे क्लोन विकसित किया जाता है, उसकी आयु अपने जनक शरीर जितनी ही होती है, अर्थात् अगर 30 वर्ष के व्यक्ति की कोशिका से क्लोन विकसित होता है तो अपने जन्म की स्थिति में ही वहृ 30 वर्ष की जैविक-आयु समाप्त कर चुका होगा। यहाँ एक नैतिक प्रश्न यह उठता है कि क्या उसकी आयु को 30 वर्ष कम करने की नैतिक ज़िम्मेदारी उस समाज की ही नहीं है जिसने उसे ऐसा जीवन जीने हेतु बाध्य किया।
  • मानव क्लोनिंग से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न इसका परिवार रूपी सामाजिक संस्था पर पड़ने वाला प्रभाव भी है। चूँकि क्लोनिंग के अंतर्गत पुरुष अथवा स्त्री में से कोई भी अपनी ही कोशिका द्वारा संतानोत्पत्ति (हालाँकि क्लोन को संतान कहना उचित नहीं) करने में सक्षम होगा, इसलिये परिवार के जैविक आधार पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लग जाएगा।

निष्कर्ष

  • निष्कर्ष के तौर पर यही कहा जा सकता है कि मानव क्लोनिंग पर उपजा नैतिक विमर्श इस बात को स्पष्ट करता है कि इतनी महत्त्वपूर्ण विधा से जुड़ी आशंकाओं के निराकरण से पहले मानव क्लोनिंग को अनुमति प्रदान करना उचित नहीं होगा।
  • हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं है कि इस क्षेत्र में शोध रोक दिये जाएँ बल्कि इस दिशा में होने वाले शोधों की नैतिक दिशा तय की जाए एवं उसे कानूनी रूप से भी लागू करने हेतु सक्षम व्यवस्था का निर्माण हो।
  • इसके अलावा मानव क्लोनिंग से इतर क्लोनिंग के कई और प्रयोग भी हैं, जिन्हें बढ़ावा दिया जाना चाहिये। उदाहरण के तौर पर लुप्तप्राय या लुप्त हो चुके पशु-पक्षियों हेतु जिनसे पर्यावरणीय संतुलन भी कायम रहे और इससे जुड़ी जानकारियों में भी इजाफा हो।
  • अंततः विज्ञान से जुड़े हर मसले पर होने वाले नैतिक-विमर्श के समान ही मानव क्लोनिंग पर होने वाला विमर्श भी नैतिक एवं वैज्ञानिक तर्कों से ही संचालित होना चाहिये, न कि अति-उत्साह या फिर अकारण भय अथवा रूढि़यों से।
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