जलवायु परिवर्तन और इसका अर्थव्यवस्था एवं कृषि पर प्रभाव | 23 May 2020
जलवायु किसी राष्ट्र विशेष के रहन-सहन, खान-पान कृषि अर्थव्यवस्था आदि के निर्धारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत में लगभग 60 प्रतिशत लोग अपनी आजीविका हेतु कृषि पर निर्भर हैं। वर्तमान में भारत सहित संपूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहा है। पर्यावरण में अनेक परिवर्तन हो रहे हैं यथा तापमान में बढ़ोत्तरी, वर्षा में कमी, हवाओं की दिशा में परितर्वन आदि प्रभाव दृष्टिगोचर हो रहे हैं।
क्या है जलवायु परिवर्तन?
- किसी स्थान विशेष के दीर्घकालीन मौसम संबंधी दशाओं के औसत को जलवायु कहते हैं यथा वायुमंडलीय दबाव, आर्द्रता, तापमान आदि।
- जलवायु सामान्यतः स्थिर रहती है, परंतु वर्तमान में स्थानिक एवं वैश्विक जलवायु में मानवीय एवं प्राकृतिक कारणों से परिवर्तन देखने को मिल रहा है जिसे जलवायु परिवर्तन कहते हैं।
- जलवायु में दिखने वाले ये परिवर्तन लंबे समय का परिणाम है जिसके न केवल क्षेत्रीय एवं वैश्विक प्रभाव देखने को मिल रहे हैं बल्कि संपूर्ण विश्व जलवायु परिवर्तन से प्रभावित हो रहा है।
क्या हैं जलवायु परिवर्तन के साक्ष्य:
- जलवायु परिवर्तन पर अन्तर-सरकारी पैनल (IPCC) के अनुसार, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उत्तरी गोलार्द्ध का औसत तापमान विगत 500 वर्षों की तुलना में काफी अधिक था।
- हिमांकमंडल लगातार सिकुड़ रहा है पिछले दशक में अंटार्कटिका में बर्फ पिघलने की दर तीन गुना हो गई है। विगत शताब्दी में वैश्विक समुद्र स्तर में लगभग 8 इंच की वृद्धि देखी गयी है।
- महासागरों का अम्लीकरण भी इसकी पुष्टि करता है। वस्तुतः महासागरों की ऊपरी परत द्वारा अवशोषित CO2 की मात्रा में प्रति वर्ष लगभग 2 बिलियन टन की बढ़ोत्तरी हो रही है।
- भारत का तापमान वर्ष 1900 से वर्तमान तक लगभग 2°C बढ़ चुका है।
जलवायु परिवर्तन के कारण:
- जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक एवं मानवीय दोनों कारणों से हो रहा है जिसमें मानवीय कारणों का अधिक योगदान है।
- मानवीय कारणों में निम्नलिखित मानवीय गतिविधियों को देखा जा सकता है।
- ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन यथा कार्बनडाई आक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फरडाई ऑक्साइड आदि के उत्सर्जन में वृद्धि पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि का एक प्रमुख कारण है।
- भूमि उपयोग में परिवर्तन भी इसके लिये जिम्मेदार है यथा इससे सतह के एल्बीडो में वृद्धि हुई है।
- इसके अलावा वनोन्मूलन, पशुपालन, कृषि में वृद्धि, नाइट्रोजन उर्वरकों का कृषि में उपयोग आदि क्रियाएँ भी जलवायु परिवर्तन के लिये जिम्मेदार हैं।
- प्राकृतिक कारणों में सौर विकिरण में बदलाव, टेक्टोनिक संचलन, ज्वालामुखी विस्फोट आदि शामिल हैं।
- वस्तुतः जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण भूमंडलीय ऊष्मन है जिसके लिये प्रमुख रूप से ग्रीन हाउस गैसें (GHGs) जिम्मेदार हैं।
कृषि पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
- कृषि को जलवायु परिवर्तन ने व्यापक स्तर पर नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है।
- ध्यातव्य है कि भारत की अधिकांश कृषि वर्षा आधारित है जिस पर मानसून की अनिश्चितता बनी रहती है। जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून और अधिक अनिश्चितता हुआ है। साथ ही वर्षा के असामान्य वितरण से कहीं बाढ़ तो कहीं सूखा जैसी स्थितियाँ दृष्टिबोचर हो रही हैं।
- इसके अलावा पूर्वोत्तर भारत में बाढ़, पूर्वी तटीय क्षेत्रों में चक्रवात, उत्तर-पश्चिम में सूखा, मध्य व उत्तरी क्षेत्रों में गर्म लहरों की बारंबारता एवं तीव्रता में वृद्धि।
- मृदा की नमी में कमी तथा कीटों एवं रोगों के संक्रमण की तीव्रता में वृद्धि।
- वायुमंडल में CO2 की सांद्रता बढ़ने से गेँहू, चावल, सोयाबीन जैसी अधिकांश खाद्यान फसलों में प्रोटीन एवं अन्य आवश्यक तत्त्वों की कमी देखी गई है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म लहरों (Heat waves) की तीव्रता ने न केवल पशुओं की रोगों के प्रति सुभेद्यता बढ़ाई है बल्कि प्रजनन क्षमता व दुग्ध उत्पादन में भी कमी आई है।
- खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, भारत को वर्ष 2015 तक लगभग 125 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन का नुकसान हुआ है।
- एक अनुमान के अनुसार, वर्ष 2100 तक भारतीय ग्रीष्म मानसून की तीव्रता में 10 प्रतिशत तक ही वृद्धि को सकती है।
- भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के अनुसार प्रति 1°C तापमान बढ़ने पर गेहूँ के उत्पादन में 4-5 मिलियन टन की कमी होती है।
- अत्यधिक गर्मी के कारण सिंधु-गंगा के मैदानी क्षेत्रों में होने वाली गेहूँ की उपज में 51 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
- जलवायु परिवर्तन के कारण परागणकारी कीटों यथा तितलियों, मधुमक्खियों की संख्या में कमी से कृषि उत्पादन नकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहा है।
अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
- तापमान में 1°C की वृद्धि मध्यम आय वाले उभरते बाज़ारों के आर्थिक विकास को वर्ष में 0.9% तक घट सकता है।
- जलवायु परिवर्तन का सर्वाधिक प्रभाव मध्यम-निम्न आय वाली अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ेगा।
- एक अनुमान के अनुसार, जलवायु परितर्वन के फलस्वरूप वार्षिक वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 5-20% तक इसके प्रमाण को कम करने में व्यय हो सकता है।
- विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन 15 वर्षों में 45 मिलियन भारतीयों को अत्यधिक निर्धन बना सकता है जिससे आर्थिक प्रगति बाधित हो सकती है।
- समुद्र का बढ़ता तापमान कोरल रीफ के लिये खतरा उत्पन्न कर सकता है।
- गौरतलब है कि कोरल रीफ वस्तु एवं सेवाओं के रूप में अनुमानतः लगभग 375 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष उत्पादन करता है।
- जलवायु परिवर्तन आय असमानता में वृद्धि करेगा, साथ ही इससे राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रवासन में वृद्धि होगी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने एवं इससे बचाव हेतु राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किये गये प्रयासः
- वैश्विक स्तर पर हाल की कुछ पहलें-
- वर्ष 2015 में पेरिस जलवायु समझौता अस्तित्व में आया जिसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-
- तापमान को पूर्व औद्यागिक स्तर में 2°C तक सीमित रखना एवं इसे और आगे 1.5°C तक सीमित रखने का प्रयास करना।
- विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर उपलब्ध कराना।
- यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क ऑन क्लाईमेट चेंज (UNFCCC) के COP-23 में पहली बार एक्शन प्लान को अंगीकार किया गया।
- अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की स्थापना की गयी।
- COP-25 में पेरिस समझौते के प्रावधनों को क्रियान्वित करने की प्रतिबद्धता जताई गई।
- वर्ष 2015 में पेरिस जलवायु समझौता अस्तित्व में आया जिसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित हैं-
- भारत की हरित कार्यवाई-
- वर्ष 2022 के अंत तक भारत द्वारा 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य रखा था जिसे बढ़ाकर 450 गीगावाट करने की घोषणा भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा की गई।
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना के आठ मिशनों का संचालन।
- भारत का अभिप्रेत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (INDC) की घोषणा।
- वर्ष 2030 तक गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित संसाधनों से लगभग 40% विद्युत शक्ति स्थापित क्षमता प्राप्त करना।
- वर्ष 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन CO2 के बराबर का कार्बन सिंक सृजित करना।
- इसके अलावा पर्यावरण प्रभाव आकलन, राष्ट्रीय वनीकरण कार्यक्रम, हरित कौशल विकास कार्यक्रम, जैविक कृषि को बढ़ावा आदि योजनाओं के संचालन द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं।
निष्कर्षः
धारणीय विकास की विधियों व तकनीकों को प्राथमिकता देनी चाहिये।
संबंधित क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा दिये जाने की आवश्यकता है। साथ ही भारत को स्वदेशी हरित प्रौद्योगिकी विकसित करने की भी आवश्यकता है।
हमें पृथ्वी एवं उसके संसाधनों के संरक्षण को व्यवहार में लाकर जीवन शैली का हिस्सा बनाने की जरूरत है। प्रकृति हमारा भरण-पोषण करती है। इसके बदले में हमें प्रकृति की देखभाल व संरक्षण को प्राथमिकता देनी होगी।