मौलिक अधिकार (भाग- 1) | 21 May 2021
परिचय
मौलिक अधिकारों के बारे में:
- संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12-35 तक) में मौलिक अधिकारों का विवरण है।
- संविधान के भाग III को ‘भारत का मैग्नाकार्टा’ की संज्ञा दी गई है।
- ‘मैग्नाकार्टा' अधिकारों का वह प्रपत्र है, जिसे इंग्लैंड के किंग जॉन द्वारा 1215 में सामंतों के दबाव में जारी किया गया था। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित पहला लिखित प्रपत्र था।
- मौलिक अधिकार: भारत का संविधान छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है:
- समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
- धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
- मूलतः संविधान में संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31) भी शामिल था। हालाँकि इसे 44वें संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था।
- इसे संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300 (A) के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
- मौलिक अधिकारों से असंगत विधियाँ: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ शून्य होंगी।
- यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को प्राप्त है।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) में कहा कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर संवैधानिक संशोधन को चुनौती दी जा सकती है।
- यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को प्राप्त है।
- रिट क्षेत्राधिकार: यह न्यायालय द्वारा जारी किया जाने वाला एक कानूनी आदेश है।
- सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226) रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण एवं अधिकार पृच्छा।
मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ:
- संविधान द्वारा संरक्षित: सामान्य कानूनी अधिकारों के विपरीत मौलिक अधिकारों को देश के संविधान द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की गई है।
- कुछ अधिकार सिर्फ नागरिकों के लिये उपलब्ध हैं, जबकि अन्य सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध हैं चाहे वे नागरिक, विदेशी या कानूनी व्यक्ति हों जैसे- परिषद एवं कंपनियाँ।
- ये स्थायी नहीं हैं। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है लेकिन संशोधन अधिनियम के तहत, न कि साधारण विधेयक द्वारा।
- ये असीमित नहीं हैं, लेकिन वाद योग्य हैं।
- राज्य उन पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। हालाँकि कारण उचित है या नहीं इसका निर्णय अदालत करती है।
- ये असीमित नहीं हैं, लेकिन वाद योग्य हैं।
- ये न्यायोचित हैं। जब भी इनका उल्लंघन होता है ये व्यक्तियों को अदालत जाने की अनुमति देते हैं।
- मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है।
- अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 प्रत्याभूत अधिकारों को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है।
- इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 19 में उल्लिखित 6 मौलिक अधिकारों को उस स्थिति में स्थगित किया जा सकता है, जब युद्ध या विदेशी आक्रमण के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो। इन्हें सशस्त्र विद्रोह (आंतरिक आपातकाल) के आधार पर स्थगित नहीं किया जा सकता है।
- सशस्त्र बलों, अर्द्ध-सैनिक बलों, पुलिस बलों, गुप्तचर संस्थाओं और ऐसी ही अन्य सेवाओं के क्रियान्वयन पर संसद प्रतिबंध आरोपित कर सकती है (अनुच्छेद 33)।
- ऐसे इलाकों में भी इनका क्रियान्वयन रोका जा सकता है, जहाँ फौजी कानून का मतलब ‘सैन्य शासन’ से है, जो असामान्य परिस्थितियों में लगाया जाता है।
मौलिक अधिकार (नागरिकों और विदेशियों को प्राप्त अधिकार) (शत्रु देश के लोगों को छोड़कर) |
केवल नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार, जो विदेशियों को प्राप्त नहीं है |
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मौलिक अधिकार:
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 18):
- विधि के समक्ष समता: अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
- प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह देश का नागरिक हो या विदेशी सब पर यह अधिकार लागू होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात् संवैधानिक निगम, कंपनियाँ, पंजीकृत समितियाँ या किसी भी अन्य प्रकार का विधिक व्यक्ति सम्मिलित है।
- अपवाद: अनुच्छेद 361 के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यकाल में किये गए किसी कार्य या लिये गए किसी निर्णय के प्रति देश के किसी भी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगे। राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्यवाही प्रारंभ या चालू नहीं की जा सकती है।
- अनुच्छेद 361-A के अनुसार, कोई भी व्यक्ति यदि संसद या राज्य विधानसभा के दोनों सदनों या दोनों में से किसी एक की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय-वस्तु का प्रकाशन समाचार-पत्र में करता है तो उस पर किसी भी प्रकार का दीवानी या फौजदारी मुकदमा देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकता है।
- अनुच्छेद 105 के अनुसार, संसद या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
- अनुच्छेद 194 के अनुसार, राज्य के विधानमंडल में या उसकी किसी समिति में विधानमंडल के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
- विदेशी संप्रभु (शासक), राजदूत एवं कूटनीतिज्ञ, दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों से मुक्त होंगे।
- भेदभाव पर रोक: अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान है कि राज्य द्वारा किसी नागरिक के प्रति केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान को लेकर विभेद नहीं किया जाएगा।
- अपवाद: महिलाओं, बच्चों, सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों या अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों के उत्थान (जैसे- आरक्षण और मुफ्त शिक्षा तक पहुँच) के लिये कुछ प्रावधान किये जा सकते हैं।
- सार्वजनिक नियोजन के विषय में अवसर की समानता: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समता होगी।
- अपवाद: राज्य नियुक्तियों में आरक्षण का प्रावधान करता है या किसी पद को पिछड़े वर्ग के पक्ष में बना सकता है जिसका कि राज्य में समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
- इसके अतिरिक्त किसी संस्था या इसके कार्यकारी परिषद के सदस्य या किसी भी धार्मिक आधार पर व्यवस्था की जा सकती है।
- अपवाद: राज्य नियुक्तियों में आरक्षण का प्रावधान करता है या किसी पद को पिछड़े वर्ग के पक्ष में बना सकता है जिसका कि राज्य में समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
- अस्पृश्यता का उन्मूलन: अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करने की व्यवस्था और किसी भी रूप में इसका आचरण निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
- अस्पृश्यता के अपराध के दोषी व्यक्ति को संसद या राज्य विधानसभा के लिये चुनाव हेतु अयोग्य घोषित किया जाता है। इन अपराधों में शामिल हैं:
- प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता का प्रचार।
- किसी भी व्यक्ति को किसी भी दुकान, होटल, सार्वजनिक पूजा स्थल और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान में प्रवेश करने से रोकना।
- अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों या छात्रावासों में सार्वजनिक हित के लिये प्रवेश से रोकना।
- पारंपरिक, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधारों पर अस्पृश्यता को उचित ठहराना।
- अस्पृश्यता के आधार पर अनुसूचित जाति के व्यक्ति का अपमान करना।
- अस्पृश्यता के अपराध के दोषी व्यक्ति को संसद या राज्य विधानसभा के लिये चुनाव हेतु अयोग्य घोषित किया जाता है। इन अपराधों में शामिल हैं:
- उपाधियों का उन्मूलन: भारत के संविधान का अनुच्छेद 18 उपाधियों का अंत करता है और इस संबंध में चार प्रावधान करता है:
- यह निषेध करता है कि राज्य सेना या शिक्षा संबंधी सम्मान के अलावा और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
- यह निषेध करता है कि भारत का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।
- कोई विदेशी, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि भारत के राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता है।
- राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता है।
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19, 20, 21 और 22):
- 6 अधिकारों का संरक्षण: अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को स्वतंत्रता के छह अधिकारों की गारंटी देता है:
- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
- यह प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत देने, विश्वास एवं अभियोग लगाने की मौखिक, लिखित, छिपे हुए मामलों पर स्वतंत्रता देता है।
- शांतिपूर्वक सम्मेलन में भाग लेने की स्वतंत्रता का अधिकार
- किसी भी नागरिक को बिना हथियार के शांतिपूर्वक संगठित होने का अधिकार है। इसमें सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन शामिल है। इस स्वतंत्रता का उपयोग केवल सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के किया जा सकता है।
- यह व्यवस्था हिंसा, अव्यवस्था, गलत संगठन एवं सार्वजनिक शांति भंग करने के लिये नहीं है।
- किसी भी नागरिक को बिना हथियार के शांतिपूर्वक संगठित होने का अधिकार है। इसमें सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन शामिल है। इस स्वतंत्रता का उपयोग केवल सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के किया जा सकता है।
- संगम या संघ बनाने का अधिकार
- इसमें राजनीतिक दल बनाने का अधिकार, कंपनी, साझा फर्म, समितियाँ, क्लब, संगठन, व्यापार संगठन या लोगों की अन्य इकाई बनाने का अधिकार शामिल है।
- अबाध संचरण की स्वतंत्रता का अधिकार
- संचरण की स्वतंत्रता के दो भाग हैं- आंतरिक (देश में निर्बाध संचरण), (अनुच्छेद 19) और बाहरी (देश के बाहर घूमने का अधिकार तथा देश में वापस आने का अधिकार), (अनुच्छेद 21)।
- निवास का अधिकार
- जनजातीय क्षेत्रों में उनकी संस्कृति भाषा एवं रिवाज के आधार पर बाहर के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है। देश के कई भागों में जनजातियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु नियम-कानून बनाने का अधिकार है।
- व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता का अधिकार
- इस अधिकार में कोई अनैतिक कृत्य शामिल नहीं है, जैसे- महिलाओं या बच्चों का दुरुपयोग या खतरनाक (हानिकारक औषधियों या विस्फोटक आदि) व्यवसाय।
- वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
- अपराध के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण: अनुच्छेद-20 किसी भी अभियुक्त या दोषी करार दिये गए व्यक्ति, चाहे वह देश का नागरिक हो या या विदेशी या कंपनी व परिषद का कानूनी व्यक्ति हो, को मनमाने और अतिरिक्त दंड से संरक्षण प्रदान करता है। इस संबंध में तीन व्यवस्थाएँ की गई हैं:
- किसी भी व्यक्ति को अपराध के लिये तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि ऐसा कोई कार्य करते समय, (जो व्यक्ति अपराध के रूप में आरोपित है) किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है।
- किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार अभियोजित या दंडित नहीं किया जाएगा।
- किसी भी अपराध के लिये अभियुक्त व्यक्ति को स्वंय अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
- प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता: अनुच्छेद 21 में घोषणा की गई है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। यह अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिये उपलब्ध है।
- प्राण या दैहिक स्वतंत्रता में अधिकार के कई प्रकार है- इसमें ‘प्राण के अधिकार’ को शारीरिक बंधनों में नहीं बाँधा गया है बल्कि इसमें मानवीय सम्मान और इनसे जुड़े अन्य पहलुओं को भी रखा गया है।
- शिक्षा का अधिकार: अनुच्छेद 21(A) में घोषणा की गई है कि राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा।
- यह प्रावधान केवल आवश्यक शिक्षा के एक मौलिक अधिकार के अंतर्गत है, न कि उच्च या व्यावसायिक शिक्षा के संदर्भ में।
- यह प्रावधान 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत किया गया था।
- 86वें संशोधन से पहले भी संविधान में भाग IV के अनुच्छेद 45 के तहत बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान था।
- निरोध (हिरासत) एवं गिरफ्तारी से संरक्षण: अनुच्छेद 22 किसी व्यक्ति को निरोध एवं गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान करता है।
- हिरासत दो तरह की होती है- दंड विषयक और निवारक।
- दंड विषयक हिरासत, एक व्यक्ति, जिसने अपराध स्वीकार कर लिया है और न्यायालय में उसे दोषी ठहराया जा चुका है, को दंड देती है।
- निवारक हिरासत वह है, जिसमें बिना सुनवाई के न्यायालय में दोषी ठहराया जाए।
- अनुच्छेद 22 का पहला भाग साधारण कानूनी मामले से संबंधित है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- गिरफ्तार करने के आधार पर सूचना देने का अधिकार।
- विधि व्यवसायी से परामर्श और प्रतिरक्षा करने का अधिकार।
- दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के सम्मुख 24 घंटे के अंदर, यात्रा के समय को मिलाकर, पेश होने का अधिकार।
- दंडाधिकारी द्वारा बिना अतिरिक्त निरोध के 24 घंटे में रिहा करने का अधिकार।
- अनुच्छेद 22 का दूसरा भाग निवारक हिरासत मामले से संबंधित है। इस अनुच्छेद में नागरिक एवं विदेशी दोनों के लिये सुरक्षा उपलब्ध है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
- किसी व्यक्ति की हिरासत अवधि तीन महीने से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती, जब तक कि सलाहकार बोर्ड (उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश) इस बारे में उचित कारण न बताएँ।
- निरोध का आधार संबंधित व्यक्ति को बताया जाना चाहिये।
- निरोध वाले व्यक्ति को यह अधिकार है कि निरोध के आदेश के विरुद्ध अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करें।
- हिरासत दो तरह की होती है- दंड विषयक और निवारक।