भारतीय इतिहास
कर्नाटक युद्ध
- 11 Jan 2021
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ब्रिटिश एवं फ्राँसीसी व्यापारिक उद्देश्यों के लिये भारत आए लेकिन वे अंततः भारत में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने में लिप्त हो गए।
- दोनों की दृष्टि इस क्षेत्र में राजनीतिक शक्ति स्थापित करने पर थी।
- भारत में एंग्लो-फ्रेंच प्रतिद्वंद्विता ने इतिहास में इंग्लैंड एवं फ्राँस की पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता को प्रतिबिंबित किया।
- विशेष रूप से भारत में तीन कर्नाटक युद्धों के रूप में एंग्लो-फ्रेंच प्रतिद्वंद्विता ने एक बार फिर तय कर लिया कि संपूर्ण भारत में शासन स्थापित करने के लिये फ्राँसीसी अंग्रेज़ों से अधिक उपयुक्त नहीं थे।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1740-48)
पृष्ठभूमि:
- कोरोमंडल तट एवं इसके आतंरिक इलाकों को ‘कर्नाटक’ नाम यूरोपियों द्वारा दिया गया था।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध यूरोप के एंग्लो-फ्राँसीसी युद्ध का विस्तार था जो ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के लिये हुआ था।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध को सेंट थोम (St. Thome) के युद्ध के रूप में जाना जाता है, जो फ्राँसीसी सेनाओं एवं कर्नाटक के नवाब अनवर-उद-दीन (Anwar-ud-din) की सेनाओं के मध्य लड़ा गया था, अनवर-उद-दीन से अंग्रेज़ों ने सहायता की अपील की थी।
ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के लिये युद्ध
- वर्ष 1740-1748 के मध्य यूरोप की अधिकांश महान शक्तियाँ मारिया थेरेसा (Maria Theresa’s) के ऑस्ट्रियाई हैब्सबर्ग (Austrian Habsburg) राजवंश के उत्तराधिकार के मुद्दे के कारण संघर्षरत थीं।
- इस युद्ध में फ्राँस, प्रशिया, स्पेन, बवेरिया के साथ पूरा यूरोप शामिल था और सैक्सनी ने ऑस्ट्रिया और ब्रिटेन के खिलाफ प्रदर्शन किया।
- प्रथम साइलेशियन युद्ध (1740–42) एवं द्वितीय साइलेशियन युद्ध (1744–45) युद्ध की ये दो शृंखलाएँ ऑस्ट्रिया एवं प्रशिया के आसपास केंद्रित थीं।
- तीसरा युद्ध भारत एवं उत्तरी अमेरिका में औपनिवेशिक अधिकारों के लिये फ्राँस तथा ब्रिटेन के मध्य चल रहे संघर्ष पर केंद्रित था।
- युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेनाओं ने अपनी सैन्य दक्षता को सिद्ध किया।
- अक्तूबर 1748 में हस्ताक्षरित ऐक्स-ला-चैपल (Aix-la-Chapelle) की शांति संधि के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ।
- इस संधि के तहत फ्राँस ने लुईसबर्ग पर अपने अधिकार के बदले में ऑस्ट्रियाई नीदरलैंड पर अधिकार छोड़ने तथा ब्रिटेन को मद्रास वापस देने पर सहमति व्यक्त की।
- मारिया थेरेसा को भी ऑस्ट्रिया के शासक के रूप में मान्यता मिल गई थी।
युद्ध के कारण:
- यद्यपि फ्राँस, भारत में अपनी अपेक्षाकृत कमजोर स्थिति के प्रति सचेत था, उसने भारत में युद्ध के विस्तार का समर्थन नहीं किया लेकिन कमोडोर कर्टिस बेनेट (Commodore Curtis Bennett) के नेतृत्व में अंग्रेज़ी नौ-सेना ने फ्राँस को उकसाने के लिये कुछ फ्राँसीसी जहाज़ों को ज़ब्त कर लिया।
- फ्राँसीसी गवर्नर जनरल मार्क्विस जोसेफ-फ्राँस्वा डुप्लेक्स ने कर्नाटक के नवाब से सुरक्षा की अपील की और बदले में कर्नाटक के नवाब ने अंग्रेज़ों को चेतावनी दी कि उसका राज्य तटस्थ है और फ्राँसीसी अधिकृत क्षेत्र पर किसी भी हमले को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा।
- इसके बदले में फ्राँस ने मॉरीशस के फ्राँसीसी गवर्नर एडमिरल ला बोरडोनाइस के नेतृत्व में मॉरीशस के जहाज़ी बेड़े, फ्राँस के टापू (Isle of France) की मदद से वर्ष 1746 में मद्रास पर कब्ज़ा कर लिया।
- मद्रास पर कब्ज़ा करने से डुप्लेक्स एवं ला बोरडोनाइस के मध्य एक गंभीर वाद-विवाद शुरू हो गया।
- डुप्लेक्स नवाब की तटस्थता के आदेश की अवहेलना के लिये मुआवज़े के रूप में शहर को नवाब को सौंपना चाहता था, जबकि ला बोरडोनाइस (La Bourdonnais) शहर को पुनः अंग्रेज़ों को सौंपना चाहता था।
- यह विवाद लंबे समय तक चलता रहा, अंततः अनवर-उद-दीन ने हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया। उसने मद्रास में फ्राँसीसियों को घेरने के लिये अपने पुत्र महफूज़ खान (Mahfuzz Khan) के नेतृत्व में 10,000 सैनिकों की एक सेना भेजी।
- मद्रास पर कब्ज़ा करने से डुप्लेक्स एवं ला बोरडोनाइस के मध्य एक गंभीर वाद-विवाद शुरू हो गया।
परिणाम:
- सेनापति पैराडाइज़ (Captain Paradise) के नेतृत्व वाली एक छोटी फ्राँसीसी सेना ने अड्यार नदी (River Adyar) के तट पर सेंट थोम में महफूज़ खान के नेतृत्व वाली मज़बूत भारतीय सेना को हरा दिया।
- ऐक्स-ला-चैपल की शांति संधि पर हस्ताक्षर होने के बाद ऑस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध को एक निष्कर्ष तक लाने के पश्चात् प्रथम कर्नाटक युद्ध वर्ष 1748 में समाप्त हो गया।
- इस संधि की शर्तों के तहत मद्रास को पुनः अंग्रेज़ों को सौंप दिया गया और बदले में फ्राँसीसियों को उत्तरी अमेरिका में अपने क्षेत्र पुनः प्राप्त हो गए।
महत्त्व:
- इस युद्ध ने भारत में यूरोपियों की आँख खोल दी: इस युद्ध ने स्पष्ट कर दिया कि एक छोटी अनुशासित सेना भी बहुत बड़ी भारतीय सेना को आसानी से पराजित कर सकती है।
- इसके अतिरिक्त इस युद्ध ने दक्कन में एंग्लो-फ्राँसीसी संघर्ष में नौ-सेना बल के महत्त्व को उजागर कर दिया।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-54)
पृष्ठभूमि:
- द्वितीय कर्नाटक युद्ध की नींव भारत में एंग्लो-फ्रेंच प्रतिद्वंद्विता के कारण रखी गई थी।
- प्रथम कर्नाटक युद्ध की समाप्ति के पश्चात् भी भारत में दीर्घावधि तक शांति नहीं रही।
- वर्ष 1748 में दक्कन के मुगल गवर्नर एवं हैदराबाद के अर्द्ध-स्वतंत्र नवाब निज़ाम-उल-मुल्क की मृत्यु हो गई।
- निज़ाम की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकार के लिये संघर्ष आरंभ हो गया तथा ब्रिटिश एवं फ्राँसीसी दोनों ने इस पर अपनी उम्मीदवारी प्रस्तुत की जो कि विवाद का कारण बन गया।
- फ्राँसीसी गवर्नर डुप्लेक्स जो कि प्रथम कर्नाटक युद्ध में सफलतापूर्वक फ्राँसीसी सेना का नेतृत्व कर चुका था, ने अंग्रेज़ों को हराने के लिये स्थानीय राजवंशीय विवादों में दखल देकर दक्षिण भारत में अपनी शक्ति एवं फ्राँसीसी राजनीतिक प्रभाव बढ़ाने का प्रयास किया।
- परिणामस्वरूप द्वितीय कर्नाटक युद्ध वर्ष 1749 से 1754 तक चला एवं अंग्रेज़ों ने दक्षिण भारत में अपनी स्थिति मज़बूत की।
युद्ध के कारण:
- यह अवसर वर्ष 1748 में हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य के संस्थापक निज़ाम-उल-मुल्क की मृत्यु एवं उसी वर्ष कर्नाटक के नवाब दोस्त अली के दामाद चंदा साहिब की मराठाओं द्वारा रिहाई से उत्पन्न हुआ।
- हैदराबाद में निज़ाम के पुत्र नासिर जंग को हैदराबाद की राजगद्दी पर बैठाने का नवाब के प्रपौत्र मुज़फ्फर जंग ने विरोध किया था, उसने यह कहते हुए हैदराबाद की राजगद्दी पर अपना दावा पेश किया कि मुगल सम्राट ने उसे हैदराबाद के गवर्नर के रूप में नियुक्त किया था।
- इसके अतिरिक्त दक्षिण में कर्नाटक के नवाब पद के दो उम्मीदवार थे, यह एक सहायक पद था जो आधिकारिक रूप से निज़ाम पर निर्भर था।
- निज़ाम-उल-मुल्क को प्रांत में व्यवस्था बहाल करने के लिये हस्तक्षेप करने हेतु बाध्य करने के पश्चात् अनवर-उद-दीन को वर्ष 1743 में कर्नाटक का नवाब नियुक्त किया गया था।
- अनवर-उद-दीन निज़ाम के अधिकारियों में से एक था।
- अनवर-उद-दीन की नियुक्ति पर चंदा साहब को नाराज़गी थी।
- चंदा साहब कर्नाटक के एक पूर्व नवाब, दोस्त अली (1732-39) का दामाद था।
- वर्ष 1741 में मराठों द्वारा त्रिचिनोपोली (Trichinopoly) में घेर लिये जाने से पहले वह फ्राँसीसियों का एक प्रभावी सहयोगी था।
- फ्राँसीसियों ने दक्कन एवं कर्नाटक में क्रमशः मुजफ्फर जंग तथा चंदा साहिब के दावों का समर्थन किया, जबकि अंग्रेज़ों ने नासिर जंग व अनवर-उद-दीन का साथ दिया।
युद्ध का परिणाम:
- मुज़फ्फर जंग, चंदा साहिब एवं फ्राँसीसियों की संयुक्त सेना ने वर्ष 1749 में अंबूर के युद्ध (वेल्लोर के पास) में अनवर-उद-दीन को पराजित कर उसकी हत्या कर दी।
- नवाब युद्ध में मारा गया और अपने पुत्र मोहम्मद अली को नवाब की दावेदारी हेतु वारिस के रूप में छोड़ गया।
- मुज़फ्फर जंग को हैदराबाद के निज़ाम एवं दक्कन के सूबेदार के रूप में पदारूढ़ किया गया तथा डुप्लेक्स को कृष्णा नदी के दक्षिण में स्थित सभी मुगल क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त किया गया।
- पुद्दुचेरी के आस-पास के क्षेत्र एवं उड़ीसा तट (मसूलीपत्तनम सहित) पर भी कुछ क्षेत्र फ्राँसीसियों को सुपुर्द किये गए।
- हालाँकि कुछ महीने बाद मुज़फ्फर जंग की हत्या कर दी गई एवं फ्राँसीसियों ने मुज़फ्फर जंग के चाचा सलाबत जंग को नए निज़ाम के रूप में पदारूढ़ कर दिया।
- ईस्ट इंडिया कंपनी के रॉबर्ट क्लाइव ने (बंगाल प्रेसीडेंसी के प्रथम ब्रिटिश प्रशासक) त्रिचिनोपोली में मोहम्मद अली को प्रभावी सहायता प्रदान करने में विफल रहने के पश्चात् उसके समक्ष मद्रास के गवर्नर सॉन्डर्स पर डायवर्जन आक्रमण (Diversionary Attack) करने का प्रस्ताव रखा।
- उसने त्रिचिनोपोली पर सैन्य दबाव को हटाने के लिये अर्कोट (कर्नाटक की राजधानी) पर अचानक छापामार आक्रमण का सुझाव दिया जिसमें अंग्रेज़ जीत गए।
- कई युद्ध लड़ने के पश्चात् मोहम्मद अली ने चंदा साहिब की हत्या कर दी और बाद में कर्नाटक का नवाब बना।
परिणाम:
- डुप्लेक्स की नीति के कारण फ्राँसीसी प्राधिकारी भारी वित्तीय घाटे के चलते परेशान थे, अतः वर्ष 1754 में उसे वापस बुलाने का निर्णय लिया गया।
- भारत में फ्राँसीसी गवर्नर-जनरल के रूप में चार्ल्स रॉबर्ट गोदेहेउ (Charles Robert Godeheu) ने डुप्लेक्स का स्थान ग्रहण किया।
- गोदेहेउ ने अंग्रेज़ों के साथ बातचीत की नीति अपनाई और उनके साथ पुद्दुचेरी संधि पर हस्ताक्षर किये, जिसके तहत अंग्रेज़ एवं फ्राँसीसी देशी रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने पर सहमत हुए।
- इसके अतिरिक्त प्रत्येक पक्ष द्वारा संधि के समय के अपने अधिकृत क्षेत्रों की स्थिति बहाल की गई थी।
निहितार्थ:
- यह स्पष्ट हो गया कि यूरोपीय सफलता के लिये भारतीय सत्ता का सहयोग आवश्यक नहीं था बल्कि भारतीय सत्ता स्वयं यूरोपीय समर्थन पर निर्भर होती जा रही थी।
- कर्नाटक में मोहम्मद अली एवं हैदराबाद में सलाबत जंग एक-दूसरे के संरक्षक के बजाय प्रतिद्वंदी बन गए।
तृतीय कर्नाटक युद्ध अथवा वांडिवाश का युद्ध (1758-63)
पृष्ठभूमि:
- यूरोप में जब ऑस्ट्रिया ने वर्ष 1756 में सिलेसिया को पुनर्प्राप्त करना चाहा तो सप्तवर्षीय युद्ध (1756-63) शुरू हो गया।
- ब्रिटेन एवं फ्राँस पुनः एक-दूसरे के आमने-सामने आ गए।
भारत में युद्ध का क्रम:
- वर्ष 1758 में फ्राँसीसी जनरल, काउंट थॉमस आर्थर डी लैली के नेतृत्व में फ्राँसीसी सेना ने अंग्रेजों के किलों, सेंट डेविड एवं विजयनगरम पर कब्ज़ा कर लिया।
- अंग्रेज़ काफी आक्रामक हो गए थे एवं उन्होंने मसूलीपत्तनम में एडमिरल डीएच (Admiral D’Ache) के नेतृत्व में फ्राँसीसी बेड़े (French Fleet) को भारी नुकसान पहुँचाया।
वांडिवाश का युद्ध:
- तीसरे कर्नाटक युद्ध का निर्णायक युद्ध 22 जनवरी, 1760 को तमिलनाडु के वांडिवाश (या वांडावासी) में अंग्रेज़ों द्वारा जीता गया था।
- अंग्रेज़ जनरल आइरे कोटे (General Eyre Coote) ने काउंट डी लैली (Count de Lally) के नेतृत्व वाली फ्राँसीसी सेना को बुरी तरह पराजित कर दिया एवं मार्क्विस डी बुसी (Marquis de Bussy) को बंदी बना लिया।
- 16 जनवरी, 1761 को आत्मसमर्पण किये जाने से पूर्व आठ महीने तक लैली द्वारा वीरतापूर्वक पुद्दुचेरी की रक्षा की गई थी।
- पुद्दुचेरी, जिंजी (Gingee) और माहे पर अपना वर्चस्व खो देने के पश्चात् भारत में फ्राँसीसी शक्ति अपने निम्नतम स्तर पर पहुँच गई थी।
- लैली को युद्धबंदी के रूप में लंदन ले जाने के पश्चात् फ्राँस के सुपुर्द कर दिया गया जहाँ उसे कैद किया गया एवं वर्ष 1766 में मृत्युदंड दे दिया गया।
परिणाम एवं महत्त्व:
- तृतीय कर्नाटक युद्ध निर्णायक साबित हुआ।
- तृतीय युद्ध पेरिस शांति संधि (1763) के साथ समाप्त हुआ, जिसके तहत पुद्दुचेरी एवं चंदन नगर पुनः फ्राँस को सुपुर्द किये गए लेकिन वह उन क्षेत्रों में केवल व्यापारिक गतिविधियाँ ही कर सकते थे।
- हालाँकि संधि ने भारत में फ्राँसीसी कारखानों को बहाल कर दिया, लेकिन युद्ध के बाद फ्राँसीसी राजनीतिक प्रभाव समाप्त हो गया।
- इसके पश्चात् फ्राँसीसी, भारत में अपने समकक्षों पुर्तगाली एवं डच की तरह छोटे परिक्षेत्रों तथा वाणिज्य तक ही सीमित रहे।
- भारतीय उपमहाद्वीप में ब्रिटिश सर्वोच्च यूरोपीय शक्ति बन गई।
निष्कर्ष
- वांडिवाश की विजय के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में कोई यूरोपीय प्रतिद्वंद्वी नहीं रहा। इस प्रकार वे संपूर्ण देश पर शासन करने के लिये तैयार थे।
- गौरतलब है कि वांडिवाश के युद्ध में दोनों सेनाओं में भारतीय लोगों ने सिपाहियों के रूप में अपनी सेवाएँ दीं।
- इससे पता चलता है कि चाहे जो भी पक्ष जीता हो, यूरोपीय आक्रमणकारियों द्वारा भारत का पतन अवश्यंभावी था।
अंग्रेज़ों की विजय एवं फ्राँसीसियों की हार के कारण
- ब्रिटिश पक्ष पर कम सरकारी नियंत्रण: ईस्ट इंडिया कंपनी एक निजी उद्यम थी।
- इससे लोगों में उत्साह एवं आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न हुई।
- इस पर कम सरकारी नियंत्रण होने के कारण कंपनी सरकार के अनुमोदन की प्रतीक्षा किये बिना तत्काल निर्णय ले सकती थी।
- वहीं फ्राँसीसी कंपनी राज्य की एक व्यापारिक संस्था थी।
- इसे फ्राँसीसी सरकार द्वारा नियंत्रित एवं विनियमित किया जाता था व सरकार की नीतियों और निर्णय लेने में देरी के कारण इसे क्षति हुई।
- इससे लोगों में उत्साह एवं आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न हुई।
- बेहतर ब्रिटिश नौसेना एवं बड़े शहरों में ब्रिटिश नियंत्रण: अंग्रेज़ी नौसेना फ्राँसीसी नौसेना से बेहतर थी, इसने फ्राँस एवं भारत में फ्राँसीसी क्षेत्रों के मध्य महत्त्वपूर्ण समुद्री मार्गों को रोकने में सहायता की।
- अंग्रेज़ों के आधिपत्य में तीन महत्त्वपूर्ण स्थान कलकत्ता, बॉम्बे एवं मद्रास थे, जबकि फ्राँसीसियों के पास केवल पुद्दुचेरी था।
- ब्रिटिश आर्थिक रूप से शक्तिशाली थे: फ्राँसीसियों ने क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा के लिये अपने वाणिज्यिक हितों को गौण कर दिया, जिससे फ्राँसीसी कंपनी के समक्ष वित्तीय अभाव की स्थिति उत्पन्न हुई।
- अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों के बावज़ूद, अंग्रेज़ों ने कभी भी अपने वाणिज्यिक हितों की उपेक्षा नहीं की।
- ब्रिटिशों की हमेशा से उनके प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ युद्ध में महत्त्वपूर्ण रूप से मदद करने के लिये धन एवं अच्छी वित्तीय स्थिति थी।
- अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों के बावज़ूद, अंग्रेज़ों ने कभी भी अपने वाणिज्यिक हितों की उपेक्षा नहीं की।
- श्रेष्ठतर ब्रिटिश कमांडर: भारत में अंग्रेज़ों की सफलता का एक प्रमुख कारण ब्रिटिश कैंप में कमांडरों की श्रेष्ठता थी।
- अंग्रेज़ी पक्ष में नेताओं की लंबी सूची सर आइरे कूट, मेजर स्ट्रिंगर लॉरेंस, रॉबर्ट क्लाइव एवं कई अन्य की तुलना में फ्राँसीसी पक्ष में केवल डुप्लेक्स था।