शैल चित्र प्राचीन कला शैली है, यह मानव द्वारा निर्मित चिह्नों/चित्रों/मूर्तियों की प्राकृतिक पत्थर पर अंकित एक प्रकार की छाप है।
शैल चित्रों में शिलाखंड (Boulders) और चबूतरों (Platform) पर चित्रों, रेखाचित्रों के उत्कीर्णन, स्टेंसिल (Stencils), छपाई, आवास-स्थलों पर नक्काशी, शैलाश्रयों और गुफाओं के आँकड़े आदि शामिल हैं।
सबसे अधिक और सुंदर शैल चित्र मध्य प्रदेश में विंध्याचल की शृंखलाओं और उत्तर प्रदेश में कैमूर की पहाड़ियों में मिले हैं।
प्रागैतिहासिक शैल चित्र, गुफाओं की रॉक-कट वास्तुकला (Rock-Cut Architecture) और चट्टान से बने मंदिर और मूर्तियाँ भारत में शैल चित्र के कुछ उदाहरण हैं।
इसे सामान्यतः तीन रूपों में विभाजित किया जाता है:
शैलोत्कीर्ण (Petroglyphs): जो चट्टान की सतह पर खुदे हुए हैं।
चित्रलिपि (Pictographs): जिन्हें सतह पर चित्रित किया गया है।
अल्पना/रंगोली/अर्थ फीगर्स (Earth Figures): जो ज़मीन पर बने हुए हैं।
शैल चित्रों का महत्त्व
आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत: शैल चित्र मानव जाति की समृद्ध आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को दर्शाते हैं और इन शैल चित्रों का इनके रचनाकारों तथा वंशजों के लिये काफी अधिक महत्त्व है।
आमतौर पर मानवता के लिये इनका बहुत महत्त्व है। इनकी सुंदरता, प्रतीकात्मकता और इसकी समृद्ध इतिहास (Rich Narrative) का अर्थ है कि यह अंतर्राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर व्यापक रूप से सराहनीय और बहुमूल्य है।
विविध सांस्कृतिक परंपराएँ: इनकी निरंतर मौजूदगी वैश्विक समुदायों को विविध सांस्कृतिक परंपराओं, उनके उद्गम और बनाए गए परिदृश्यों को पहचानने और जानने में मदद करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
आदिवासी समुदाय के लोग शैलों पर उत्कीर्ण चित्रों का अनुकरण कर अपने रीति-रिवाज़ों का पालन करते हैं।
इतिहास का स्रोत: रॉक पेंटिंग/शैल चित्रकला, शिकार की विधि एवं स्थानीय समुदायों के जीवन जीने के तरीकों का एक ‘ऐतिहासिक रिकॉर्ड’ के रूप में विवरण प्रस्तुत करती है।
प्रागैतिहासिक शैल चित्र
प्रागैतिहासिक: अत्यंत प्राचीन, अतीत यानी बीते हुए काल जिसके लिये न तो कोई पुस्तक और न ही कोई लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध है, को प्रागैतिहासिक (Prehistoric) कहा जाता है।
प्रागैतिहासिक चित्रों को आमतौर पर चट्टानों पर बनाया जाता था और इन शैल उत्कीर्णन को शैलोत्कीर्ण (Petroglyphs) कहा जाता है।
भारत में खोज: भारत में शैल चित्रों की सर्वप्रथम खोज वर्ष 1867–68 में एक पुरातत्त्वविद् आर्किबोल्ड कार्लाइल (Archibold Carlleyle) द्वारा की गई थी।
शैल चित्रों के अवशेष वर्तमान में मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तराखंड और बिहार के कई ज़िलों में स्थित गुफाओं की दीवारों पर पाए गए हैं।
प्रमुख चरण: प्रागैतिहासिक चित्रों के तीन प्रमुख चरण हैं:
उत्तर पुरापाषाण युगीन चित्रकला
मध्यपाषाण युगीन चित्रकला
ताम्रपाषाणयुगीन चित्रकला
शैलोत्कीर्ण:
शिकार के दृश्यों, जानवरों के समूहों और नृत्य करती मानव आकृतियों वाले शैलोत्कीर्ण (Petroglyphs) जम्मू-कश्मीर की शैल चित्र कला के मुख्य विषय हैं।
उत्तराखंड में कुमाऊँ की पहाड़ियों में भी कुछ शैल चित्र पाए गए हैं।
शैलोत्कीर्ण कर्नाटक में भी देखे जाते हैं, जहाँ पत्थर पर मवेशियों, हिरणों और शिकार के दृश्यों जैसी आकृतियों को दर्शाया गया है।
उत्तर पुरापाषाणकालीन चित्र
उत्तर पुरापाषाण युग: लगभग 40,000 वर्ष पूर्व के काल को उत्तर पुरापाषाण युग माना जाता है।
इस युग में आदिम मानव ने सबसे अधिक सांस्कृतिक प्रगति की। हड्डी, दाँत और सींग से बने उपकरणों के साथ क्षेत्रीय पत्थरों के औज़ार उद्योगों का उद्भव इस युग की विशेषता थी।
भारत में इन स्थलों को आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश के मध्य भाग में (Central Madhya Pradesh), महाराष्ट्र, दक्षिणी उत्तर प्रदेश और दक्षिण बिहार के पठार में खोजा गया था।
चित्रकला तकनीक: उत्तर पुरापाषाण युग के चित्र हरी और गहरी लाल रेखाओं से बनाए गए हैं।
शैलाश्रयों गुफाओं की दीवारें क्वार्टज़ाइट (Quartzite) से बनाई गई थीं।
रंग और रंजक द्रव्य विभिन्न पत्थरों तथा खनिजों को कूट-पीस कर तैयार किये जाते थे।
लाल रंग हिमरच (जिसे गेरू भी कहा जाता है) से बनाया जाता था। हरा रंग कैल्सेडोनी नामक पत्थर की हरी किस्म से तैयार किया जाता था तथा सफेद रंग संभवतः चुना पत्थर से बनाया जाता था।
उन्होंने लाल, सफेद, पीले और हरे आदि रंगों को बनाने के लिये विभिन्न खनिजों का उपयोग किया।
बड़े जानवरों को चित्रित करने के लिये सफेद, गहरे लाल और हरे रंग का उपयोग किया गया था।
लाल रंग का उपयोग शिकारियों के चित्रण के लिये और हरे रंग का प्रयोग नर्तकियों के चित्रण के लिये किया जाता था।
जानवरों का चित्रण: इन चित्रों में मुख्य रूप से विशाल जानवरों की आकृतियाँ जैसे कि बाइसन, हाथी, बाघ, गैंडे और छड़ी जैसी मानव आकृतियाँ शामिल हैं।
मध्यपाषाण चित्रकला
मध्यपाषाण काल: इस युग में विशिष्ट संस्कृतियों का वर्णन किया गया है यह पुरापाषाण और नवपाषाण काल के बीच की अवधि है।
जबकि मध्यपाषाण युग की शुरुआत और समाप्ति की तारीख भौगोलिक क्षेत्र से भिन्न होती है, यह लगभग 10,000 ईसा पूर्व से 8,000 ईसा पूर्व के बीच मानी जाती है।
इस युग में मुख्य रूप से लाल रंग का उपयोग देखा गया है।
इस अवधि के दौरान विभिन्न विषयों की संख्या कई गुना बढ़ गई, मगर चित्रों का आकार छोटा हो गया।
चित्रों के विषय: इस युग में शिकार के दृश्य प्रमुख हैं। चित्रों में दर्शाए गए कुछ दृश्य निम्नलिखित है:
समूहों में शिकार करते लोग।
काँटेदार भाले, नोकदार डंडे, तीर-कमान लेकर जानवरों का शिकार करते लोग।
कुछ चित्रों में आदिमानवों को जाल-फंदे लेकर या गड्ढे आदि खोदकर जानवरों को पकड़ने की कोशिश करते लोग।
जानवरों का चित्रण: मध्यपाषाण युग के कलाकार जानवरों को चित्रित करना अधिक पसंद करते थे।
कुछ चित्रों में हाथी, जंगली सॉंड, बाघ, शेर, सूअर, बारहसिंगा, हिरन, तेंदुआ, चीता, गैंडा, मछली, मेढक, छिपकली, गिलहरी जैसे छोटे-बड़े जानवरों और पक्षियों को भी चित्रित किया गया है।
सामाजिक जीवन: इन चित्रों में युवा, बूढ़े, बच्चे और महिलाओं को समान रूप से स्थान दिया गया है।
अनेक शैलाश्रयों में हम हाथ और मुट्ठी की छाप पाते हैं तो कुछ में उँगलियों के सिरों से बने निशान।
भीमबेटका शैल चित्र
स्थान: यह मध्य प्रदेश के विंध्यन रेंज (Vidhyan Ranges) में भोपाल के दक्षिण में स्थित है, जहाँ 500 से अधिक शैल चित्र हैं।
भीमबेटका की गुफाओं की खोज वर्ष 1957-58 में डॉ. वी.एस. वाकणकर द्वारा की गई थी।
वर्ष 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया था।
समय-सीमा: सबसे पुराना चित्र लगभग 30,000 वर्ष पुराना होने का अनुमान है जो गुफाओं में होने के कारण सुरक्षित है।
भीमबेटका में कुछ स्थानों पर चित्रों की 20 परतें तक हैं, जो एक-दूसरे के ऊपर बनाए गए हैं।
भीमबेटका के चित्र उत्तर पुरापाषाण, मध्यपाषाण, ताम्रपाषाणयुगीन, प्रारंभिक ऐतिहासिक और मध्यकालीन युग के हैं।
हालाँकि अधिकांश चित्रकारी मध्यपाषाण युग की है।
चित्रकारी तकनीक: प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त लाल, बैंगनी, भूरा, सफेद, पीला और हरा जैसे विभिन्न रंगों का उपयोग किया जाता था।
लाल रंग और सफेद रंग संभवतः चूना पत्थर से बनाया जाता था।
हरा रंग कैल्सेडोनी (Chalcedony) नामक पत्थर की हरी किस्म से तैयार किया जाता था।
पेड़ की पतली रेशेदार टहनियों से बने ब्रश का प्रयोग कर चित्र आदि बनाए जाते थे।
चित्रों के विषय: प्रागैतिहासिक काल के पुरुषों ने अपने रोजमर्रा के जीवन के दृश्य-अभिलेखों के लिये कई चित्र बनाए थे तथा इसमें मनुष्यों को छड़ी जैसे रूप में दिखाया गया है।
इनमें हाथी, बाइसन, हिरण, मोर और साँप जैसे विभिन्न जानवरों को चित्रित किया गया है।
सशस्त्र पुरुषों के साथ शिकार के दृश्य और युद्ध के दृश्य भी चित्रित किये गए थे।
सरल ज्यामितीय आकृतियाँ और प्रतीक भी बनाए जाते थे।
ताम्रपाषाणकालीन चित्र
ताम्रपाषाण युग: नवपाषाण और प्रारंभिक कांस्य युग के बीच की अवधि, जिसके दौरान मानव समाज ने धातु के औज़ारों के साथ प्रयोग करना शुरू किया और धीरे-धीरे अपने समाजों को पुनर्गठित किया, ताम्रपाषाण युग कहा जाता है।
ताम्रपाषाण युग में हरे और पीले रंग का उपयोग करते हुए चित्रों की संख्या में वृद्धि देखी गई।
इस अवधि के चित्रों का समूह महाराष्ट्र के नरसिंहगढ़ में है।
महाराष्ट्र के नरसिंहगढ़ गुफाओं के चित्रों में चितकबरे हिरणों की खालों को सूखता हुआ दिखाया गया है।
हज़ारों वर्ष पहले हड़प्पा सभ्यता की मुहरों पर पहले से ही चित्र और रेखाचित्र दिखाई दिये थे।
सर्वाधिक विषय: अधिकांश चित्र युद्ध के दृश्यों को चित्रित करने पर केंद्रित हैं।
तीर-कमान लेकर चलने वाले पुरुषों के साथ घोड़ों और हाथियों की सवारी करने वाले पुरुषों के कई चित्र हैं, जो झड़पों (Skirmishes) की तैयारियों का संकेत देते हैं।
इस अवधि के चित्रों में भी वीणा की तरह अन्य वाद्य यंत्रों का चित्रण किया गया है।
कुछ चित्रों में सर्पिल रेखा (Spiral), विषमकोण (Rhomboid) और वृत्त (Circle) जैसी जटिल ज्यामितीय आकृतियाँ हैं।
छत्तीसगढ़ की चित्रकारी: छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले में विभिन्न प्रकार की गुफाएँ मौजूद हैं, जैसे कि उडकुडा, गरगोड़ी, खापरखेड़ा, गोटिटोला, कुलगाँव आदि में मानव मूर्तियों, जानवरों, हथेलियों (Palms), ठप्पा (Print), बैलगाड़ियों आदि का चित्रण है।
बाद की अवधि के कुछ चित्र छत्तीसगढ़ के सरगुजा ज़िले में रामगढ़ पहाड़ियों के जोगीमारा गुफाओं में पाए गए।
जोगीमारा गुफा के चित्र अजंता और बाग की गुफाओं के शैल चित्रों से भी पुराने हैं और इनका संबंध बुद्ध (Buddha) से पूर्व की गुफाओं से है।
इसे 1000 ईसा पूर्व के आस-पास चित्रित किया गया है।
इसी तरह के चित्रों को कोरिया ज़िले के घोडासर (Ghodasar) और कोहबर शैल कला स्थलों (Kohabaur Rock Art Sites) में देखा जा सकता है।
एक और मनोरम स्थल चितवा डोंगरी (दुर्ग ज़िले) में है जहाँ गधे पर सवार एक चीनी व्यक्ति, ड्रैगन और कृषि वैज्ञानिकों के चित्र मिले हैं।