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भारतीय मूर्तिकला (भाग -1)

  • 04 Feb 2019
  • 11 min read
  • प्राचीन विश्व में कला के क्षेत्र में भारत का प्रतिष्ठित स्थान है। जहाँ एक ओर यवन मानव शरीर की दैहिक सुंदरता, मिस्र के लोग अपने पिरामिड की भव्यता और चीनी लोग प्रकृति की सुंदरता को दर्शाने में सर्वोपरि थे, वहीं भारतीय अपने अध्यात्म को मूर्तियों में ढालने का प्रयास करने में अद्वितीय थे; वह अध्यात्म जिसमें लोगों के उच्च आदर्श और मान्यताएँ निहित थीं।
  • पाषाण काल में भी मनुष्य अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर या दबाव तकनीक द्वारा आकार देता था, परंतु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई।

हड़प्पाकालीन मूर्तिकला

  • हड़प्पा सभ्यता में मृणमूर्तियों (मिट्टी की मूर्ति), प्रस्तर मूर्ति तथा धातु मूर्ति तीनों गढ़ी जाती थीं।
  • मिट्टी की मूर्तियाँ लाल मिट्टी एवं क्वार्ट्ज नामक प्रस्तर के चूर्ण से बनाई गई कांचली मिट्टी से बनाई जाती थीं।
  • धातु मूर्तियों के निर्माण के लिये हड़प्पा सभ्यता में मुख्यत: तांबा व काँसा का प्रयोग किया जाता था।
  • सेलखड़ी पत्थर से बनी मोहनजोदड़ो की योगी मूर्ति (अधखुले नेत्र, नाक के अग्रभाग पर टिकी दृष्टि, छोटा मस्तक व सँवरी हुई दाढ़ी) इसकी कलात्मकता का प्रमाण है।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक नर्तकी की धातु मूर्ति (काँसा) भी मूर्तिकला का बेजोड़ नमूना है।
  • हड़प्पाकालीन दायमाबाद (महाराष्ट्र) से प्राप्त बैलगाड़ी को चलाते हुए गाड़ीवान की मूर्ति भी मूर्तिकला का उत्कृष्ट उदाहरण है।
  • मृणमूर्तियों में हड़प्पा काल में मुख्यत: सीटियाँ, झुनझुने, खिलौने और वृषभ आदि बनाए गए।

मौर्यकालीन मूर्तिकला

  • चमकदार पॉलिश (ओप), मूर्तियों की भावाभिव्यक्ति, एकाश्म पत्थर द्वारा निर्मित पाषाण स्तंभ एवं उनके कलात्मक शिखर (शीर्ष) मौर्यकालीन मूर्तिकला की विशेषताएँ हैं।
  • मौर्यकाल में जो मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमें पत्थर व मिट्टी की मूर्ति तो मिली है, किंतु धातु की कोई मूर्ति नहीं मिली है।
  • मौर्यकाल में मूर्तियों का निर्माण चिपकवा विधि (अंगुलियों या चुटकियों का इस्तेमाल करके) या साँचे में ढालकर किया जाता था।
  • मौर्यकालीन मृणमूर्तियों के विषय हैं- पशु-पक्षी, खिलौना और मानव। अर्थात् ये मृणमूर्तियाँ गैर-धार्मिक उद्देश्य वाली मृणमूर्तियाँ हैं।
  • प्रस्तर मूर्तियाँ अधिकांशत: शासकों द्वारा बनवाई गई हैं, फिर भी किसी देवता को अभी प्रस्तर मूर्ति में नहीं ढाला गया है। यानी उद्देश्य सेक्युलर ही है।
  • मौर्यकाल में प्रस्तर मूर्ति निर्माण में चुनार के बलुआ पत्थर और पारखम जगह से प्राप्त मूर्ति में चित्तीदार लाल पत्थर का इस्तेमाल हुआ है।
  • मौर्यकाल की मूर्तियाँ अनेक स्थानों, यथा- पाटलिपुत्र, वैशाली, तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी, अहिच्छत्र, सारनाथ आदि से प्राप्त हुई हैं।
  • कला, सौंदर्य एवं चमकदार पॉलिश की दृष्टि से सम्राट अशोक के कालखण्ड की मूर्तिकारी को सर्वोत्तम माना गया है।
  • पारखम (U.P.) से प्राप्त 7.5 फीट ऊँची पुरुष मूर्ति, दिगंबर प्रतिमा (लोहानीपुर पटना) तथा दीदारगंज (पटना) से प्राप्त यक्षिणी मूर्ति मौर्य कला के विशिष्ट उदाहरण हैं।
  • सारनाथ स्तंभ के शीर्ष पर बने चार सिंहों की आकृतियाँ तथा इसके नीचे की चित्र-वल्लरी अशोककालीन मूर्तिकला का बेहतरीन नमूना है, जो आज हमारा राष्ट्रीय चिह्न है।
  • कुछ विद्वानों के अनुसार मौर्यकालीन मूर्तिकला पर ईरान एवं यूनान की कला का प्रभाव था।

शुंग/कुषाणकालीन मूर्तिकला

  • प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से इस दौर में मूर्तियों के साथ-साथ प्रतिमाओं का भी प्रादुर्भाव हुआ तथा नवीन मूर्तिकला शैली का भी आगमन हुआ।
  • प्रतीकात्मकता इस काल की मूर्तिकला की प्रधान विशेषता है।
  • इसी दौर में गांधार शैली और मथुरा शैली का विकास हुआ।

गांधार शैली

  • यह विशुद्ध रूप से बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिक प्रस्तर मूर्तिकला शैली है।
  • इसका उदय कनिष्क प्रथम (पहली शताब्दी) के समय में हुआ तथा तक्षशिला, कपिशा, पुष्कलावती, बामियान-बेग्राम आदि इसके प्रमुख केन्द्र रहे।
  • गांधार शैली में स्वात घाटी (अफगानिस्तान) के भूरे रंग के पत्थर या काले स्लेटी पत्थर का इस्तेमाल होता था।
  • गांधार शैली के अंतर्गत बुद्ध की मूर्तियाँ या प्रतिमा आसन (बैठे हुए) या स्थानक (खड़े हुए) दोनों मुद्राओं में मिलती हैं।
  • गांधार मूर्तिकला शैली के अंतर्गत भगवान बुद्ध प्राय: वस्त्रयुक्त, घुँघराले बाल व मूँछ सहित, ललाट पर ऊर्णा (भौंरी), सिर के पीछे प्रभामंडल तथा वस्त्र सलवट या चप्पलयुक्त विशेषताओं से परिपूर्ण हैं।
  • गांधार कला शैली में बुद्ध-मूर्ति की जो भव्यता है उससे भारतीय कला पर यूनानी एवं हेलेनिस्टिक प्रभाव पड़ने की बात स्पष्ट होती है।

मथुरा शैली

  • इसका संबंध बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण-हिन्दू धर्म, तीनों से है।
  • मथुरा कला शैली की दीर्घजीविता प्रथम शताब्दी ईस्वी सन् से चतुर्थ शताब्दी ईस्वी सन् तक रही है।
  • मथुरा कला के मुख्य केन्द्र- मथुरा, तक्षशिला, अहिच्छत्र, श्रावस्ती, वाराणसी, कौशाम्बी आदि हैं।
  • मथुरा शैली में सीकरी रूपबल (मध्यकालीन फतेहपुर सीकरी) के लाल चित्तीदार पत्थर या श्वेत चित्तीदार पत्थर का इस्तेमाल होता था।
  • मथुरा मूर्तिकला शैली में भी बुद्ध आसन (बैठे हुए) और स्थानक (खड़े हुए) दोनों स्थितियों में प्रदर्शित किये गए हैं।
  • मथुरा शैली में बुद्ध प्राय: वस्त्ररहित, बालविहीन, मूँछविहीन, अलंकरणविहीन किंतु पीछे प्रभामंडल युक्त प्रदर्शित किये गए हैं।
  • मथुरा कला में बुद्ध समस्त प्रसिद्ध मुद्राओं में प्रदर्शित किये गए हैं, यथा- वरदहस्त मुद्रा, अभय मुद्रा, धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में।
 गांधार, मथुरा व अमरावती कला शैलियों की तुलना
आधार गांधार शैली मथुरा शैली अमरावती शैली
कालखंड मौर्योत्तर काल मौर्योत्तर काल मौर्योत्तर काल
संरक्षण कुषाण शासकों का कुषाण शासकों का सातवाहन राजाओं का
प्रभाव विस्तार उत्तर-पश्चिम सीमांत, आधुनिक कंधार क्षेत्र मथुरा, सोंख, कंकाली टीला और आसपास के क्षेत्रों में। कृष्णा-गोदावरी की निचली घाटी में, अमरावती और नागार्जुनकोंडा में और उसके आसापास के क्षेत्रों में।
बाह्य प्रभाव यूनानी या हेलेनिस्टिक मूर्तिकला का व्यापक प्रभाव यह शैली स्वदेशी प्रभाव लिये हुए है, यहाँ बाह्य प्रभाव नदारद है। यह शैली भी स्वदेशी रूप से विकसित हुई।
धार्मिक संबद्धता ग्रीको-रोमन देवताओं के मंदिरों से प्रभावित मुख्य रूप से बौद्ध चित्रकला उस समय के तीनों धर्मों, यानी हिंदू, जैन और बौद्ध का प्रभाव मुख्य रूप से बौद्ध धर्म का प्रभाव
प्रयुक्त सामग्री प्रारंभिक गांधार शैली में नीले-धूसर बलुआ प्रस्तर का उपयोग, जबकि बाद की अवधि में मिट्टी और प्लास्टर के उपयोग का साक्षी बना। चित्तीदार लाल बलुआ पत्थर का उपयोग सफ़ेद संगमरमर का इस्तेमाल
बुद्ध मूर्ति की विशेषताएँ लहराते घुंघराले बाल, आध्यात्मिक या योगी मुद्रा, आभूषण रहित, जटायुक्त, आधी बंद-आधी खुली आँखें। प्रसन्नचित्त चेहरा, तंग कपड़ा, हृष्ट-पुष्ट शरीर, बालमुंडित सर, पद्मासन मुद्रा और सिर के पीछे प्रभामंडल मूर्तियाँ सामान्यत: बुद्ध के जीवन और जातक कलाओं की कहानियों को दर्शाती हैं।

आयाग-पट्ट

  • मथुरा शैली के अंतर्गत जैन धर्म से संबंधित मूर्तियों को एक चौकोर प्रस्तर पट्टिका पर बनाया गया है जिसे आयाग-पट्ट कहते हैं।
  • कंकाली टीला (मथुरा) के उत्खनन से सैकड़ों आयाग-पट्ट मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें तीर्थंकरों का चित्रण है।
  • समस्त तीर्थंकर प्रतिमाएँ अजानबाहु हैं, इसमें उनकी खुली छाती, उस छाती पर एक त्रिभुज और उस त्रिभुज में कमल का पूल अंकित है जिसे ‘श्रीवत्स चिह्न’ कहते हैं।
  • ब्राह्मण-हिन्दू धर्म से संबंधित सूर्य प्रतिमा, चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा, संकर्षण मूर्ति, मोरालेख आदि की प्राप्ति कचहरी मैदान मथुरा के उत्खनन से हुई है।
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