भारतीय चित्रकला (भाग-3) | 10 Mar 2019
दक्षिण भारतीय भित्ति चित्रकारी
- दक्षिण भारत में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भित्ति चित्र तंजौर (तमिलनाडु) के राजराजेश्वर मंदिर की दीवारों पर नृत्य करती आकृतियाँ तथा तंजावुर के वृहदेश्वर मंदिर की दीवारों पर नृत्य करती युवती का है।
- भारत में भित्तिचित्र की अंतिम श्रृंखला हिंदपुर के निकट लेपाक्षी मंदिर अनंतपुर (आंन्ध्र प्रदेश) में पाई जाती है, जो 16वीं शताब्दी की है।
- यहाँ शैव एवं धर्मनिरपेक्ष विषयों को चित्रवल्लरी में चित्रित किया गया है।
भित्ति चित्रकारी की तकनीक
- इस बारे में पाँचवीं-छठी शताब्दी के एक संस्कृत पाठ ‘विष्णुधर्मोत्तरम्’ में चर्चा की गई है।
- इनका एकमात्र अपवाद तंजावुर का राजराजेश्वर मंदिर है, जहाँ वास्तविक भित्तिचित्र शैली के दर्शन होते हैं।
- विष्णुधर्मोत्तरम् के अनुसार सतह पर चूना पलस्तर की एक अत्यधिक पतली परत से लेप किया जाता था और ऊपर जलरंगों (Water Colour) से चित्र बनाए जाते थे।
- ‘कूची’ को बकरी, ऊँट, नेवला आदि पशुओं के बालों से तैयार किया जाता था।
- कलाकार द्वारा लाल रंग से अपनी प्रथम योजना बनाने के पश्चात् अर्द्ध-पारदर्शी एकवर्णीय पक्की मिट्टी लगाई जाती थी ताकि उस कांच से चित्र की रूपरेखा को देखा जा सके।
- इसमें मुख्यत: गैरिक लाल, चटकीला लाल (सिंदूरी), गैरिक पीला, जम्बुकी नीला, लाजवर्द, काजल, चाक, एकवर्ण और हरे रंग का प्रयोग किया गया था।
पालकालीन चित्रकला
- इस शैली की चित्रकला को बंगाल के पाल शासकों ने प्रश्रय दिया, जो बौद्ध धर्म के संरक्षक थे।
- पालों का शासन 750 ई. से 1175 ई. तक चला, जिसमें नालंदा, ओदंतपुरी, विक्रमशिला और सोमापुर के बौद्ध महाविहार बौद्ध शिक्षा तथा कला के महान केन्द्र बने।
- पाल चित्रकला की विशेषता इसकी चाकदार रेखा और वर्ण की हल्की आभाएँ हैं।
- यह एक प्राकृतिक शैली है, जो समकालीन कांस्य पाषाण मूर्तिकला के आदर्श रूपों से मिलती है।
- पाल चित्रकला अजंता की शास्त्रीय कला के कुछ भावों को प्रतिबिम्बित करती है।
- इस शैली के चित्र ताड़-पत्र पर बनाए जाते थे जिसमें बीचों-बीच महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित चित्र सजाए जाते थे और दोनों किनारों पर बड़े और सुन्दर अक्षरों में लिखा जाता था।
- इन चित्रों में बौद्ध धर्म की शाखा तंत्रयान का प्रभाव भी दिखाई देता है।
पश्चिम भारतीय शैली
- चित्रकला की पश्चिम भारतीय शैली गुजरात, राजस्थान और मालवा क्षेत्र में प्रचलित थी।
- पश्चिमी भारत में कलात्मक क्रियाकलापों का प्रेरक बल जैनवाद (Jainism) था।
- इसे चालुक्य वंश के राजाओं का संरक्षण प्राप्त था जिन्होंने 961 ई. से 13वीं शताब्दी के अंत तक गुजरात, राजस्थान तथा मालवा के कुछ हिस्सों पर शासन किया था।
- इस शैली में नाक-नक्शे की कोणीयता सहित आकृतियाँ सपाट हैं और नेत्र आकाश की ओर बाहर निकले हुए हैं।
- इस शैली के चित्र ताड़-पत्रों, कपड़ों और कागज़ पर बनाए गए हैं।
- जैनग्रंथ ‘कल्पसूत्र’ की कालकाचार्य कथा को बार-बार लिखा गया था और चित्रकलाओं के माध्यम से सचित्र बनाया गया।
भारत में प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थल | |
जैन तीर्थस्थल | राज्य |
श्रवण बेलगोला/ चंद्रगिरी पर्वत | कर्नाटक |
दिलवाड़ा जैन मंदिर, माउंट आबू | राजस्थान |
शत्रुंजय पहाड़ियाँ, अकोटा, पालिताना | गुजरात |
ग्वालियर, चंदेरी और खजुराहो | मध्य प्रदेश |
ग्वालियर, चंदेरी और खजुराहो मध्य प्रदेशराजगीर, वैशाली | बिहार |
उदयगिरि और खंडागिरी की गुफाएँ | ओडिशा |
अन्य प्रकार की शैलियाँ
- 15वीं शताब्दी के दौरान चित्रकला की फारसी शैली ने पश्चिम भारतीय शैली को प्रभावित करना शुरू कर दिया था, जैसे- पांडुलिपियों में गहरे नीले और सुनहरे रंगों का प्रयोग।
- बुस्तान शैली मालवा के सुल्तान नादिरशाह खिलजी के लिये हाजी महमूद (चित्रकार) तथा शहसवार द्वारा निष्पादित की गई।
- इंडियन ऑफिस लाइब्रेरी, लन्दन में उपलब्ध ‘निमतनामा’ (पाक कला की पुस्तक) मालवा चित्रकला का एक सचित्र उदाहरण है।
- इस दौर का प्रतिनिधित्व लघु चित्रकला के एक समूह द्वारा किया जाता है जिसे सामान्यत: ‘कुल्हाकदार समूह’ कहते हैं।
- इस समूह में चौरपंचाशिका चित्रकला की शुद्ध स्वदेशी शैली (मेवाड़ से) है, जबकि ‘लाउरचंदा’ (मुल्ला दाउद की रचना) में फारसी और भारतीय शैलियों का मिश्रण है।
- इस युग की दो अन्य महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ ‘मृगावती’ और ‘महापुराण’ हैं जो कि एक जैन ग्रंथ हैं।
- इन लघु चित्रकलाओं की विशेषता चटकीले विषम वर्ण, प्रभावशाली और कोणीय आरेखन, पारदर्शी वस्त्रों का प्रयोग तथा ऐसी शंकुरूप टोपियों ‘कुलहा’ का प्रकट होना है जिन पर पुरुष आकृतियाँ पगड़ी पहनती हैं।