मध्यकाल में चित्रकलाओं का स्वरूप लघु चित्रकारी ही था जिसको परंपरागत तकनीक से बनाया जाता था।
पहले खाके को लाल या काले रंग से स्वतंत्र रूप से बनाया जाता था, फिर उस पर सफेद रंग लगाकर बार-बार चमकाया जाता था ताकि बहिर्रेखा स्पष्ट रूप से दिखाई पड़े।
फिर नई कूची की सहायता से दूसरी बहिर्रेखा खींची जाती थी और पहले वाले खाके को बिल्कुल स्पष्ट और दृष्टिगोचर कर दिया जाता था।
चित्रकलाओं में प्रयुक्त रंग खनिजों और गेरूए से लिये गए थे।
‘पेओरि’ गायों के मूत्र से निकाला गया पीला रंग था।
बबूल गोंद और नीम गोंद का प्रयोग बंधनकारी माध्यम (चिपकाने) में होता था।
पशु के बाल से कूची बनाई जाती थी जिसमें गिलहरी के बाल से बनी कूची सर्वश्रेष्ठ होती थी।
चित्रकला सामग्री के रूप में ताड़ के पत्ते, कागज, काष्ठ और वस्त्र का प्रयोग होता था।
चित्रकला के पश्चिमी वर्णों और तकनीक के प्रभाव के कारण भारतीय चित्रकला की परंपरागत शैलियाँ उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंतत: समाप्त हो गई थीं।
आधुनिक काल में चित्रकला
भारत की सत्ता की चाबी अंग्रेज़ों के हाथों में जाने के बाद पहले से ही कमज़ोर हो चली राजस्थानी, मुगल और पहाड़ी शैली की चित्रकला अपने मुहाने पर पहुँच गई।
फिर भी देश के अलग-अलग क्षेत्रों में स्थानीय शैलियाँ यथा-कालीघाट (कलकत्ता) और ओडिशा के पटचित्र, नाथद्वारा (राजस्थान) के पट्टचित्र, तंजौर (तमिलनाडु) की चित्रकला व आंध्र प्रदेश की कलमकारी आदि का विकास हुआ।
इनमें सर्वाधिक यश कमाया पटना की कंपनी शैली, मधुबनी पेंटिंग और आंध्र प्रदेश के कलमकारी शैली ने।
पटना की कंपनी शैली
मुगल कला और यूरोपीय कला के सम्मिश्रण से पटना में बनाए गए चित्र को पटना या कंपनी शैली का कहा गया।
इन चित्रों में छाया के माध्यम से वास्तविकता लाने का प्रयास किया गया है।
प्रकृति का यथार्थवादी चित्रण है साथ ही, अलंकारिता का प्रयोग भी किया गया है।
इसमें ब्रिटिश जल रंग पद्धति को अपनाया गया है। इस शैली को अंग्रेज़ों ने खूब प्रोत्साहित किया।
मधुबनी पेंटिंग्स
यह बिहार के मिथिलांचल इलाके मधुबनी, दरभंगा और नेपाल के कुछ इलाकों में प्रचलित शैली है।
इसे प्रकाश में लाने का श्रेय डब्ल्यू जी आर्चर को है जिन्होंने 1934 में बिहार में भूकंप निरीक्षण के दौरान इस शैली को देखा था।
इस शैली के विषय मुख्यत: धार्मिक हैं और प्राय: इनमें चटख रंगों का प्रयोग किया जाता है।
मुखाकृतियों की आँखें काफी बड़ी बनाई जाती हैं और चित्र में खाली जगह भरने हेतु पूल-पत्तियाँ, चिह्न आदि बनाए जाते हैं।
मधुबनी पेंटिंग्स की प्रसिद्ध महिला चित्रकार हैं- सीता देवी, गोदावरी दत्त, भारती दयाल, बुला देवी आदि।
कलमकारी चित्रकला
दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश में प्रचलित हस्त निर्मित यह चित्रकला सूती कपड़े पर रंगीन ब्लॉक से छापकर बनाई जाती है। इसमें सब्जियों के रंगों से धार्मिक चित्र बनाए जाते हैं।
कलमकारी चित्र कहानी को कहते हैं। इनको बनाने वालों में अधिकतर महिलाएँ हैं। यह कला मुख्यतया भारत और ईरान में प्रचलित है।
भारत में कलमकारी के मुख्यत: दो रूप विकसित हुए हैं-प्रथम मछलीपट्टनम कलमकारी एवं द्वितीय श्रीकला हस्ति कलमकारी (आंध्र प्रदेश)।
इसमें सर्वप्रथम वस्त्र को रातभर गाय के गोबर के घोल में डुबोकर रखा जाता है। अगले दिन इसे धूप में सुखाकर दूध और माँड़ के घोल में डुबाया जाता है। बाद में अच्छी तरह सुखाकर इसे नरम करने के लिये लकड़ी के दस्ते से कूटा जाता है। इस पर चित्रकारी करने के लिये विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक पौधों, पत्तियों, पेड़ों की छाल, तनों आदि का प्रयोग किया जाता है।