भारतीय चित्रकला (भाग- 6) | 01 Apr 2019
मध्य भारत और राजस्थानी चित्रकला
- पंथ निरपेक्ष मुगल चित्रकला से भिन्न, मध्य भारत, राजस्थानी और पहाड़ी क्षेत्र आदि की चित्रकलाएँ धर्म आबद्ध, परंपरा संबद्ध तथा भारतीय साहित्य से प्रेरित रहीं।
- यहाँ चौरपंचाशिका शैली की परंपरा पहले से रही है जिसने यहाँ चित्रकला के विकास में सुदृढ़ आधार का काम किया।
- राजस्थानी चित्रकला में चित्र ‘वसली’ (दोहरा कागज) पर बनाए गए हैं।
- मुगल दरबार से आए विभिन्न चित्रकारों ने यहाँ की स्थानीय शैलियों को प्रभावित किया, जिससे यहाँ मेवाड़, किशनगढ़, कोटा-बूंदी, आमेर, बीकानेर आदि चित्रकला केन्द्र उभरे।
- राजस्थानी शैली के चित्रों के विषय में सर्वाधिक प्रधानता प्रेम संबंधी विषयों की है।
- राजस्थानी शैली में भक्ति (कृष्ण भक्ति) का अत्यधिक प्रभाव चित्रों पर दिखता है।
- इस शैली में चित्रकारों ने भारतीय संगीत के रागों और रागिनियों को ध्यान में रखकर रागमाला का भी सुंदर चित्रण किया है।
- राजस्थानी शैली पश्चिमी राजस्थान के इलाकों में अंकुरित हुई और वहीं से यह राजस्थान के बाकी इलाकों में पहुँची।
मालवा
- इसका उद्गम मांडू से माना जाता है।
- इस शैली में गहरे रंगों का प्रयोग हुआ है तथा नीले रंग का प्रयोग बढ़ गया है।
- यहाँ लहँगे पर झीनी साड़ी का अंकन है, बिल्कुल ओढ़नी की तरह।
- मालवा शैली के प्रमुख उदाहरण हैं- रसिक प्रिया की शृंखला (1634), ‘अमरूशतक’ (1652) तथा माधोदास द्वारा चित्रित की गई रागमाला की शृंखला (1680) आदि।
मेवाड़
- इस शैली के प्रमुख केन्द्र उदयपुर, नाथद्वारा और चावंड आदि हैं।
- इस शैली के चित्रकारों ने चमकदार लाल, पीले और केसरिया रंगों का बहुतायत से प्रयोग किया है।
- स्त्रियों की आकृतियाँ अपेक्षाकृत बौनी हैं। इनमें अलंकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
- मेवाड़ चित्रकला के प्रमुख उदाहरण हैं- मिसर्दी द्वारा चित्रित रागमाला की शृंखला (1605), साहिलदीन द्वारा चित्रित रागमाला की शृंखला (1628), अरण्य कांड का सचित्र उदाहरण (1651), रामायण की सातवीं पुस्तक (उत्तर कांड) का चित्रण आदि।
बूंदी-कोटा शैली
- इस शैली में मेवाड़ और मुगल शैली का प्रभाव देखने को मिलता है।
- यहाँ ‘बारहमासा’ चित्रों में बूंदी के लोकजीवन को दर्शाया गया है।
- पेड़ों के पीछे सुनहरा सूर्य, वर्षा वाले आकाश, सघन वनस्पति तथा भैरव रागिनी और रसिकप्रिया की शृंखला, बूंदी शैली के महत्त्वपूर्ण चित्रों में शुमार हैं।
- कोटा शैली में बाघ और भालू के आखेट तथा पर्वतीय जंगल का मनोहारी चित्रण है।
किशनगढ़ शैली
- राजा सावंत सिंह (1748–57 ई.) के संरक्षण में किशनगढ़ शैली का विकास हुआ। इन्हें नागरीदास भी कहा जाता था।
- इस शैली से राजा सावंत सिंह की प्रेमिका ‘बणी-ठणी’ तथा चित्रकार निहालचंद जुड़े थे।
- इस शैली में कुछ चित्रों को छोड़कर समस्त चित्र राधा-कृष्ण के बनाए गए हैं।
- नारी आकृतियों में लंबे चेहरे, ढलवाँ ललाट, तीखी नाक, उभारदार होंठ, भौंहों तक लंबी आँखें, लंबी गर्दन, पतली बाहें और कानों के पास झूलती हुई बालों की लट बनाई गई है।
- ‘बणी-ठणी’ को भारतीय मोनालिसा कहा गया है।
बीकानेर
- 1650 ई. में बीकानेर के राजा कर्ण सिंह ने मुगल कलाकार अली रजा (दिल्ली के उस्ताद) को नियोजित किया।
- बीकानेर के राज दरबार में अन्य कलाकार थे रूकनुद्दीन और उसका पुत्र शाहदीन।
- बीकानेर शैली मुगलों और दक्कनी शैलियों से काफी समानता रखती थी।
- मारवाड़-चित्रकला का प्रमुख उदाहरण है वीरजी द्वारा पाली में चित्रित रागमाला की एक शृंखला।
पहाड़ी शैली
- हिमालय की घाटी में, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू के पहाड़ी इलाकों में विकसित हुई चित्रकला को पहाड़ी चित्रकला कहा जाता है।
- इस कला-शैली में बशोली, कांगड़ा-गढ़वाल और सिख चित्रकला की अलग-अलग शाखाओं का विकास हुआ।
बशोली शैली
- इस चित्रकला का केन्द्र जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले की बशोली तहसील में है।
- इसका प्रभाव चंबा, कुल्लू, मंडी, अरकी, नुरपू और मानकोट रियासत की कलाओं पर देखा गया है।
- इस शैली के विषयों में भागवत पुराण, गीत-गोविंद, रसमंजरी और वैष्णव धर्म रहे हैं।
- यहाँ के चित्रों में मुखाकृतियाँ एकदम मौलिक और स्थानीय लोककला से प्रेरित हैं।
- बशोली शैली के अंतर्गत राजा कृपाल सिंह के संरक्षण में ‘देवीदास’ नामक चित्रकार ने 1694 में रसमंजरी चित्रों के रूप में लघु चित्रकला का निष्पादन किया था।
- कलाकार मनकू द्वारा चित्रित गीत-गोविंद की एक शृंखला बशोली शैली के आगे के विकास को दर्शाती है।
गुलेर शैली
- बशोली शैली के बाद चित्रकलाओं के जम्मू-समूह का उद्भव हुआ।
- इसमें मूल रूप से गुलेर से संबंध रखने वाले और जसरोटा में बस जाने वाले एक कलाकार नैनसुख द्वारा जसरोटा के राजा बलवंत सिंह की प्रतिकृतियाँ शामिल हैं।
- इसमें प्रयुक्त वर्ण कोमल तथा शीतल हैं।
- यह मोहम्मद शाह के समय की मुगल चित्रकला की प्राकृतिक शैली से प्रभावित लगती है।
कांगड़ा चित्रकला
- कांगड़ा शैली का विकास 18वीं शताब्दी के चतुर्थांश में हुआ।
- इसमें गुलेर शैली के आरेखन की कोमलता और प्रकृतिवाद की गुणवत्ता निहित है।
- कांगड़ा राजा संसारचंद की प्रतिकृति की शैली के समान होने के कारण इसे कांगड़ा शैली कहा गया।
- इस शैली में स्त्री चित्रों में अद्भुत सजीवता आ गई।
- यह कांगड़ा, गुलेर, बशोली, चम्बा, जम्मू, नूरपुर, गढ़वाल आदि जगहों में प्रचलित रही।
- कांगड़ा शैली के कुछ पहाड़ी चित्रकारों को पंजाब में महाराजा रणजीत सिंह से संरक्षण मिला।
- कांगड़ा शैली की चित्रकलाओं का श्रेय मुख्य रूप से नैनसुख-परिवार को जाता है।
कुल्लू-मण्डी
- यह कुल्लू-मण्डी क्षेत्र में चित्रकला की एक लोक-शैली है।
- इस शैली की विशेषता मज़बूत एवं प्रभावशाली आरेखन और गाढ़े तथा हल्के रंगों का प्रयोग करना है।
- इसमें भागवत की शृंखला, गोवर्धन को अंगुली पर उठाए कृष्ण, वर्षा का स्पष्ट रेखांकन आदि का लघु चित्र 1794 में श्री भगवान ने खींचा है।
- पतंग उड़ाती दो युवतियों का लघु चित्र भी कुल्लू-मण्डी शैली में विशिष्ट है।