भारतीय इतिहास
औपनिवेशिक भारत में शिक्षा का विकास
- 25 Jan 2020
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अंग्रेज़ों से पूर्व भारतीय शिक्षा:
- 1830 के दशक में तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने बिहार तथा बंगाल की स्कूली शिक्षा व्यवस्था के अध्ययन हेतु एक ईसाई प्रचारक और शिक्षाविद् विलियम एडम (William Adam) को नियुक्त किया। एडम ने तीन रिपोर्टें प्रस्तुत कीं जिसके निष्कर्ष निम्नलिखित थे:
- ब्रिटिश अधीनता से पूर्व भारत की शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित थी। आधुनिक विद्यालयों के विपरीत उस समय छोटी-छोटी पाठशालाएँ होती थीं जहाँ स्थानीय शिक्षक या गुरु द्वारा बच्चों को संस्कृत, व्याकरण, प्रायोगिक गणित, महाजनी खाता आदि के बारे में पढ़ाया जाता था।
- ये पाठशालाएँ प्रायः किसी मंदिर, दुकान, किसी शिक्षक के घर, किसी वृक्ष के नीचे या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर चलती थीं। पाठशालाओं में कुल 10-20 विद्यार्थी ही होते थे और फसलों की कटाई के मौसम में पाठशालाएँ बंद रहती थीं ताकि बच्चे अपने घर के कामों में मदद कर सकें।
- शिक्षक या गुरु की फीस निर्धारित नहीं थी। गरीब बच्चों से कम तथा आर्थिक रूप से सक्षम छात्रों से अधिक फीस ली जाती थी। उस समय अलग-अलग कक्षाएँ नहीं चलती थीं बल्कि सभी छात्र एक ही जगह साथ-साथ बैठते थे और विभिन्न स्तर के विद्यार्थियों को शिक्षक अलग-अलग पढ़ाते थे।
प्राच्यवादी तथा पाश्चात्यवादी विवाद:
- ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में शिक्षा के प्रसार हेतु प्रारंभ में कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई लेकिन भारत में बढ़ते साम्राज्य तथा राजनीतिक शक्ति के कारण उसे एक ऐसे वर्ग की आवश्यकता हुई जो कि प्रशासन और व्यापार के कार्यों में उसकी सहायता कर सके।
- इसके लिये वर्ष 1813 में ब्रिटेन की संसद द्वारा पारित चार्टर अधिनियम में भारत में शिक्षा के विकास हेतु प्रतिवर्ष 1 लाख रुपए के अनुदान का प्रावधान किया गया।
- चार्टर अधिनियम, 1813 (Charter Act, 1813) द्वारा निर्दिष्ट शिक्षा हेतु अनुदान के विषय पर कंपनी प्रशासन में मतभेद उत्पन्न हुआ कि भारत में शिक्षा का प्रारूप तथा माध्यम कैसा हो? इस मतभेद में दो पक्ष थे।
- एक पक्ष प्राच्यवादियों (Orientalist) का था जो मानते थे कि भारत में पारंपरिक शिक्षा व ज्ञान को प्रोत्साहन देना चाहिये एवं शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषाएँ होनी चाहिये, जबकि दूसरा पक्ष पाश्चात्यवादियों (Anglicist) का था जो मानता था कि शिक्षा व्यावहारिक तथा उपयोगी होनी चाहिये और शिक्षा का माध्यम इंग्लिश होना चाहिये।
- प्राच्यवादियों में विलियम जोन्स, जेम्स प्रिंसेप, चार्ल्स विल्किंस, एचएच विल्सन आदि शामिल थे, जबकि पाश्चात्यवादी शिक्षा के समर्थन में टीबी मैकाले, जेम्स मिल, चार्ल्स ग्रांट, विलियम विल्बरफोर्स आदि शामिल थे।
- जेम्स मिल उपयोगितावादी विचारक था तथा उसका मानना था कि अंग्रेज़ों को भारतीय जनता को खुश करने या उनकी भावनाओं को ध्यान में रख कर शिक्षा नहीं देनी चाहिये बल्कि शिक्षा के माध्यम से उन्हें उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान देना चाहिये जिसमें पश्चिमी विज्ञान, तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा शामिल हो।
- टीबी मैकाले प्राच्य शिक्षा का घोर विरोधी था और प्राच्य शिक्षा के बारे में उसका कथन था कि “एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय का केवल एक शेल्फ ही भारत और अरब के समूचे साहित्य के बराबर है।”
- हालाँकि इस विवाद के बावजूद पाश्चात्यवादी शिक्षा के समर्थकों की बात भारत परिषद ने स्वीकार की तथा अंग्रेज़ी शिक्षा अधिनियम, 1835 (English Education Act, 1835) पारित किया। इसके बाद भारत में अंग्रेज़ी को शिक्षा के माध्यम हेतु औपचारिक तौर पर स्वीकार किया गया।
मैकाले का स्मरण-पत्र (Macaulay’s Minute):
- लॉर्ड मैकाले वर्ष 1834 में भारत आया तथा उसे गवर्नर जनरल की कार्यकारी परिषद के विधि सदस्य के तौर पर नियुक्त किया गया था। उसकी नियुक्ति सार्वजनिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष पद पर कर दी गई जिसका कार्य प्राच्यवादी तथा पाश्चात्यवादी विवाद पर मध्यस्थता करना था।
- वर्ष 1835 में लॉर्ड मैकाले ने अपना प्रसिद्ध स्मरण-पत्र (Minute) गवर्नर जनरल की परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया जिसे लॉर्ड विलियम बैंटिक ने स्वीकार करते हुए अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम, 1835 पारित किया।
- मैकाले के स्मरण-पत्र के मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे:
- इसके तहत पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेज़ी में अध्यापन हेतु किया जाए।
- सरकार स्कूल तथा कॉलेज स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी करे तथा इसके विकास के लिये कई प्राथमिक विद्यालयों के स्थान पर कुछ स्कूल तथा कॉलेज खोले जाएँ।
- मैकाले ने इसके तहत ‘अधोगामी निस्पंदन का सिद्धांत’ (Downward Filtration Theory) दिया जिसके तहत भारत के उच्च तथा मध्यम वर्ग के एक छोटे से हिस्से को शिक्षित करना था ताकि एक ऐसा वर्ग तैयार हो जो रंग और खून से भारतीय हो लेकिन विचारों, नैतिकता तथा बुद्धिमत्ता में ब्रिटिश हो। यह वर्ग सरकार तथा आम जनता के मध्य एक कड़ी का कार्य कर सके और इनके माध्यम से उनमें भी पाश्चात्य शिक्षा के प्रति रुचि उत्पन्न हो।
जेम्स थॉमसन के प्रयास (1843-53):
- ब्रिटिश भारत के पश्चिमोत्तर प्रांत (North-Western Provinces) के लेफ्टिनेंट गवर्नर जेम्स थॉमसन ने स्थानीय भाषा में ग्रामीण शिक्षा के विकास हेतु एक व्यापक योजना लागू की।
- इसके तहत मुख्य रूप से प्रायोगिक विषयों जैसे- क्षेत्रमिति, कृषि विज्ञान आदि पढ़ाया जाता था।
- जेम्स थॉमसन के प्रयासों का मुख्य उद्देश्य नए स्थापित हुए राजस्व तथा लोक निर्माण विभाग हेतु कर्मचारियों की आवश्यकता को पूरा करना था।
वुड्स डिस्पैच, 1854 (Wood’s Dispatch):
चार्ल्स वुड ईस्ट इंडिया कंपनी के बोर्ड ऑफ कंट्रोल (Board of Control) के अध्यक्ष थे। भारत में शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु उन्होंने एक विस्तृत योजना तैयार की जिसे तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा लागू किया गया।
- इसके तहत प्रावधान किया गया कि जनसामान्य तक शिक्षा के प्रसार की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की होगी। इसके माध्यम से अधोगामी निस्पंदन के सिद्धांत का विरोध किया गया।
- इसने देश में विद्यमान शिक्षा पद्धति को सुव्यवस्थित करते हुए प्राथमिक शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा को, माध्यमिक शिक्षा हेतु एंग्लो-वर्नाकुलर (अर्द्ध-अंग्रेज़ी) भाषा तथा उच्च शिक्षा हेतु अंग्रेज़ी को माध्यम बनाया।
- इसने पहली बार महिला शिक्षा हेतु प्रयास किया।
- इसके द्वारा व्यावसायिक शिक्षा तथा शिक्षकों के प्रशिक्षण हेतु प्रावधान किये गए।
- इसके द्वारा यह निर्धारित किया गया कि सरकारी संस्थानों में दी जाने वाली शिक्षा धर्म-निरपेक्ष हो।
- इसके तहत निजी विद्यालयों को प्रोत्साहन देने हेतु अनुदान (Grant-in-aid) का प्रावधान भी किया गया।
- इसके तहत भारत के सभी राज्यों में शिक्षा विभाग की स्थापना का निर्देश दिया गया।
- इस अधिनियम के परिणामस्वरूप देश के तीनों प्रेसीडेंसियों (बंगाल, मद्रास तथा बॉम्बे) में एक-एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।
हंटर आयोग, 1882-83 (Hunter Commission):
- हालाँकि वुड्स डिस्पैच ने देश के उच्च शिक्षा के लिये प्रयास किये लेकिन प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के विकास पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया।
- प्रत्येक राज्य में शिक्षा विभाग की स्थापना से प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा की ज़िम्मेदारी भी राज्यों पर आ गई जिसके लिये उनके पास संसाधनों की कमी थी।
- वर्ष 1882 में सरकार ने डब्लूडब्लू हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया जिसका कार्य वुड्स डिस्पैच के बाद देश में शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति का मूल्यांकन करना था। हंटर आयोग के मुख्य सुझाव प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा से संबंधित थे जो कि इस प्रकार थे:
- इसके तहत इस बात पर ज़ोर दिया गया कि राज्य प्राथमिक शिक्षा के विस्तार तथा विकास हेतु विशेष कार्य करे और प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषा हो।
- इसके द्वारा यह अनुशंसा की गई कि प्राथमिक शिक्षा का नियंत्रण नए स्थापित ज़िला तथा नगरपालिका बोर्डों को दिया जाए।
- इसकी अनुशंसा थी कि माध्यमिक शिक्षा के अंतर्गत दो शाखाएँ हों:
- साहित्यिक (Literary), जिसके बाद विद्यार्थी विश्वविद्यालयी शिक्षा की तरफ जाएँ।
- व्यावसायिक (Vocational), जिसके बाद विद्यार्थी रोज़गार प्राप्त करें।
- इसके माध्यम से तत्कालीन समय में महिला शिक्षा में विद्यमान अवसंरचनात्मक कमियों को उजागर किया गया तथा उसकी भरपाई हेतु व्यापक प्रयास के सुझाव प्रस्तुत किये गए।
- हंटर आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद अगले दो दशक तक देश में शिक्षा का उल्लेखनीय विकास हुआ तथा पंजाब विश्वविद्यालय (1882) और इलाहाबाद विश्वविद्यालय (1887) की स्थापना हुई।
भारतीय विश्वविद्यालय आयोग, 1904 (Indian Universities Act, 1904):
- 20वीं शताब्दी के उदय के बाद देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल व्याप्त था। प्रशासन का मानना था कि निजी प्रबंधन की वजह से शिक्षा के स्तर में गिरावट आई तथा उच्च शैक्षणिक संस्थान राजनीतिक क्रांतिकारियों के उत्पादक बन गए हैं।
- इसके विपरीत राष्ट्रवादी राजनीतिज्ञों का मानना था कि सरकार देश में निरक्षरता को कम करने तथा शिक्षा के विकास हेतु कोई प्रयास नहीं कर रही है।
- वर्ष 1902 में सरकार ने रैले आयोग (Raleigh Commission) का गठन किया जिसका कार्य भारत के विश्वविद्यालयों की दशा का अध्ययन करना तथा उनकी स्थिति में सुधार हेतु सुझाव देना था।
- रैले आयोग की अनुशंसा के आधार पर सरकार ने भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 (Indian University Act, 1904) पारित किया। अधिनियम की मुख्य प्रावधान निम्नलिखित थे:
- विश्वविद्यालयों में शिक्षा तथा शोध पर अधिक बल दिया जाए।
- विश्वविद्यालयों में शोधार्थियों की संख्या तथा उनके कार्यकाल को कम किया गया। अधिकांश शोधार्थियों को सरकार द्वारा नामित किया जाने लगा।
- सरकार को विश्वविद्यालयों के सीनेट के विनियमों को वीटो करने का अधिकार प्राप्त हो गया और सरकार उनके द्वारा बनाए गए नियमों को बदल सकती थी या स्वयं द्वारा निर्मित नियम लागू कर सकती थी।
- विश्वविद्यालयों से निजी कॉलेजों को संबंधित करने की प्रक्रिया को कठिन कर दिया गया।
- उच्च शिक्षा तथा विश्वविद्यालयों के विकास हेतु प्रतिवर्ष 5 लाख रुपए के हिसाब से पाँच वर्षों तक अनुदान देने का प्रावधान किया गया।
- इस समय भारत का वायसराय लॉर्ड कर्ज़न था। उसने गुणवत्ता तथा दक्षता बढ़ाने के नाम पर विश्वविद्यालयों पर कड़ा नियंत्रण स्थापित कर दिया।
सैडलर विश्वविद्यालय आयोग, 1917-19 (Saddler University Commission):
सैडलर आयोग का गठन कलकत्ता विश्वविद्यालय की समस्याओं के अध्ययन तथा उस पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये किया गया था लेकिन इसके सुझाव देश के सभी विश्वविद्यालयों पर लागू हुए थे।
इसके मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे:
- स्कूली पाठ्यक्रम 12 वर्षों का होना चाहिये। विश्वविद्यालयों में इंटरमीडिएट स्तर के बाद विद्यार्थी प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं। विश्वविद्यालय में डिग्री पाठ्यक्रम तीन वर्षों का होने चाहिये। ऐसा करने के निम्नलिखित उद्देश्य थे:
- विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा हेतु विद्यार्थियों को तैयार करना।
- स्कूलों में इंटरमीडिएट स्तर की शिक्षा देने से विश्वविद्यालयों को राहत देना।
- उन विद्यार्थियों को कॉलेज की शिक्षा प्रदान करना जो कि विश्वविद्यालयों में नहीं जाना चाहते।
- विश्वविद्यालय के विनियमों के निर्माण में लचीलापन बनाए रखना।
- विश्वविद्यालय को एक केंद्रीकृत, आवासीय शिक्षण प्रदान करने के लिये स्वायत्त निकाय के तौर पर बनाया जाए, न कि कई कॉलेजों को संबंद्ध कर विस्तृत किया जाए।
- महिला शिक्षा, प्रायोगिक विज्ञान, तकनीकी शिक्षा तथा अध्यापकों के प्रशिक्षण हेतु प्रयास किये जाएँ।
वर्ष 1916 से वर्ष 1921 के दौरान भारत में सात नए विश्वविद्यालयों (मैसूर, पटना, बनारस, अलीगढ़, ढाका, लखनऊ तथा ओस्मानिया विश्वविद्यालय) की स्थापना हुई।
हर्टोग समिति, 1929 (Hartog Committee):
- हर्टोग समिति का गठन विभिन्न स्कूलों तथा कॉलेजों द्वारा शिक्षा के मानकों का पालन न करने के कारण किया गया था तथा इसका कार्य शिक्षा के विकास पर रिपोर्ट तैयार करना था।
- इसकी प्रमुख अनुशंसाएँ निम्नलिखित थीं:
- प्राथमिक शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाए लेकिन इसके लिये जल्दबाज़ी में इसका विस्तार तथा अनिवार्यता न बनाई जाए।
- ऐसी व्यवस्था बनाई जाए ताकि केवल पात्र विद्यार्थी ही हाईस्कूल तथा इंटरमीडिएट में प्रवेश लें, जबकि औसत विद्यार्थी व्यावसायिक शिक्षा में प्रवेश प्राप्त करें।
- विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तर उठाने के लिये आवश्यक है कि विश्वविद्यालयों में प्रवेश को नियंत्रित किया जाए।
शिक्षा पर सार्जेंट योजना, 1944 (Sergeant Plan on Education):
सार्जेंट योजना (सर जॉन सार्जेंट सरकार के शैक्षिक सलाहकार थे) का निर्माण वर्ष 1944 में सेंट्रल एडवाइज़री बोर्ड ऑफ एजुकेशन (Central Board of Education) ने किया था। इसके मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे:
- 3-6 वर्ष के आयु समूह के लिये पूर्व-प्राथमिक शिक्षा।
- 6-11 वर्ष के आयु वर्ग के लिए नि:शुल्क, सार्वभौमिक और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा।
- 11-17 वर्ष आयु समूह के कुछ चयनित बच्चों के लिये हाईस्कूल शिक्षा और उच्च माध्यमिक के बाद 3 वर्ष का विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रम।
- हाईस्कूल स्तर की शिक्षा दो प्रकार की होती:
- शैक्षणिक (Academic)
- तकनीकी और व्यावसायिक (Technical and Vocational)
- तकनीकी, वाणिज्यिक और कला संबंधी शिक्षा को पर्याप्त प्रोत्साहन।
- इंटरमीडिएट का उन्मूलन।
- 20 वर्षों में वयस्क निरक्षरता को समाप्त करना।
- शारीरिक और मानसिक रूप से विकलांगों के लिये शिक्षकों के प्रशिक्षण, शारीरिक शिक्षा, शिक्षा पर ज़ोर देना।
सार्जेंट योजना का उद्देश्य आगामी 40 वर्षों के अंदर ब्रिटेन में प्रचलित शिक्षा स्तर को भारत में लागू करना था। हालाँकि यह एक विस्तृत योजना थीं लेकिन इसके क्रियान्वयन हेतु कोई योजना नहीं बनाई गई थी। इसके अलावा इस योजना को लागू करने के लिये ब्रिटेन की तुलना में भारतीय परिस्थितियाँ भिन्न थीं।