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भारतीय समाज

सांप्रदायिकता

  • 26 Feb 2020
  • 15 min read

यदि हम भारतीय परिप्रेक्ष्य में सांप्रदायिकता पर दृष्टिपात करें तो यह आधुनिक राजनीति के उद्भव का ही परिणाम है। हालाँकि इससे पूर्व भी भारतीय इतिहास में हमें ऐसे कुछ उदाहरण मिलते हैं जो सांप्रदायिकता की भावना को बढ़ावा देते हैं लेकिन वे सब घटनाएँ अपवाद स्वरूप ही रही हैं। उनका प्रभाव समाज एवं राजनीति पर व्यापक स्तर पर नहीं दिखता। वर्तमान संदर्भ में सांप्रदायिकता का मुद्दा न केवल भारत में अपितु विश्व स्तर पर भी चिंता का विषय बना हुआ है।

Communalism

सांप्रदायिकता की अवधारणा:

  • सांप्रदायिकता एक विचारधारा है जिसके अनुसार कोई समाज भिन्न-भिन्न हितों से युक्त विभिन्न धार्मिक समुदायों में विभाजित होता है।
  • सांप्रदायिकता से तात्पर्य उस संकीर्ण मनोवृत्ति से है, जो धर्म और संप्रदाय के नाम पर पूरे समाज तथा राष्ट्र के व्यापक हितों के विरुद्ध व्यक्ति को केवल अपने व्यक्तिगत धर्म के हितों को प्रोत्साहित करने तथा उन्हें संरक्षण देने की भावना को महत्त्व देती है।
  • एक समुदाय या धर्म के लोगों द्वारा दूसरे समुदाय या धर्म के विरुद्ध किये गए शत्रुभाव को सांप्रदायकिता के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है।
  • यह एक ऐसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसमें सांप्रदायिकता को आधार बनाकर राजनीतिक हितों की पूर्ति की जाती है और जिसमें सांप्रदायिक विचारधारा के विशेष परिणाम के रूप में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ होती हैं।
  • सांप्रदायिकता में नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही पक्ष विद्यमान होते हैं।
  • सांप्रदायिकता का सकारात्मक पक्ष, किसी व्यक्ति द्वारा अपने समुदाय के उत्थान के लिये किये गए सामाजिक और आर्थिक प्रयासों को शामिल करता है।
  • वहीं दूसरी तरफ इसके नकारात्मक पक्ष को एक विचारधारा के रूप में देखा जाता है जो अन्य समूहों से अलग एक धार्मिक पहचान पर ज़ोर देता है, जिसमें दूसरे समूहों के हितों को नज़रअंदाज़ कर पहले अपने स्वयं के हितों की पूर्ति करने की प्रवृत्ति देखी जाती है।

भारतीय संदर्भ में सांप्रदायिकता का विकास

  • निश्चित तौर पर प्राचीन काल में समाज विभिन्न वर्गों एवं धर्मों में विभक्त था, बावजूद इसके हमें भारतीय समाज में सांप्रदायिकता के आधार पर हुई हिंसा के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है।
  • मौर्य काल में भी अशोक के शिलालेखों में धार्मिकता, सहिष्णुता के बारे में जानकारी मिलती है जिसमें उसकी धम्म नीति की चर्चा विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
  • मध्यकाल में अकबर द्वारा ‘दीन -ए इलाही’ की स्थापना भी सभी धर्मों को समान भाव से देखने से ही संबंधित थी।
  • हालाँकि औरंगज़ेब द्वारा कुछ ऐसे कार्य किये गए जिन्हें धार्मिक दृष्टि से असहिष्णु कहा जा सकता है, जैसे-मंदिरों को तोड़ना, ज़बरन धर्मांतरण, सिख गुरु की हत्या आदि लेकिन ये सभी घटनाएँ सामान्य तौर पर घटित न होकर अपवाद स्वरूप ही थीं। हिंदू एवं मुस्लिम दोनों अपने आर्थिक हितों को साझा करते थे तथा दोनों ही शांतिपूर्वक सह-अस्तित्व में विश्वास रखते थे।
  • भारत में सांप्रदायिकता के वर्तमान स्वरूप की जड़ें अंग्रेजों के आगमन के साथ ही भारतीय समाज में स्थापित हुई। यह उपनिवेशवाद का प्रभाव तथा इसके खिलाफ उत्पन्न संघर्ष की आवश्यकता का प्रतिफल थीं।
  • हालाँकि 1857 के विद्रोह के समय भी हिंदू-मुस्लिम एकजुट होकर सामने आए परंतु इसके बाद स्थितियों में परिवर्तन आया तथा अंग्रेज़ों द्वारा ‘फूट डालो राज करो’ की नीति के माध्यम से भारत में अपने हितों की पूर्ति की गई। इसके लिये उनके द्वारा समय-समय पर ‘सांप्रदायिक कार्ड’ का प्रयोग किया गया।
  • वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन का कारण बेशक प्रशासनिक असुविधा को बताया गया परंतु इसे सांप्रदायिकता को आधार बनाकर ही पूरा किया गया।
  • वर्ष 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को आधार बनाकर की गई।
  • वर्ष 1909 का मार्ले-मिंटो सुधार/ भारत शासन अधिनियम, जिसमें मुस्लिम वर्ग के लिये पृथक निर्वाचन मंडल की बात की गई, हिंदू-मुस्लिम एकता को कमज़ोर करने तथा दोनों वर्गों के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न करने के लिये ही लाया गया था।
  • वर्ष 1932 में ‘कम्यूनल अवॉर्ड’ की घोषणा विभिन्न समुदायों को संतुष्ट करने के लिये की गई। इससे सांप्रदायिक राजनीति को और अधिक बढ़ावा मिला।
  • वर्ष 1940 के लाहौर अधिवेशन में पृथक राज्य के रूप में एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र पाकिस्तान की मांग करना सांप्रदायिकता की भावना से ही प्रेरित थी।
  • वर्ष 1947 में भारत का विभाजन हुआ । हालाँकि यह विभाजन स्वतंत्रता के बाद हुआ परंतु इसका आधार तैयार करने में जहाँ सामाजिक, राजनीतिक कारण मुख्य रूप से उत्तरदायी थे तो वहीं सांप्रदायिक कारण भी समानांतर विद्यमान थे।
  • सांप्रदायिकता के आधार पर राजनीति का यह क्रम यही पर नहीं रुका बल्कि आज़ादी के बाद भी आज तक भारतीय समाज एवं राजनीति में उपस्थित है।

सांप्रदायिकता के कारण:

वर्तमान परिदृश्य में सांप्रदायिकता की उत्पत्ति के लिये किसी एक कारण को पूर्णत: ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता बल्कि यह विभिन्न कारणों का एक मिला-जुला रूप बन गया है। सांप्रदायिकता के लिये ज़िम्मेदार कुछ महत्त्वपूर्ण कारण इस प्रकार हैं-

राजनीतिक कारण:

  • वर्तमान समय में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा अपने राजनीतिक लाभों की पूर्ति के लिये सांप्रदायिकता का सहारा लिया जाता है।
  • एक प्रक्रिया के रूप में राजनीति का सांप्रदायिकरण भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ देश में सांप्रदायिक हिंसा की तीव्रता को बढ़ाता है।

आर्थिक कारण:

  • विकास का असमान स्तर, वर्ग विभाजन, गरीबी और बेरोज़गारी आदि कारक सामान्य लोगों में असुरक्षा का भाव उत्पन्न करते हैं।
  • असुरक्षा की भावना के चलते लोगों का सरकार पर विश्वास कम हो जाता है परिणामस्वरूप अपनी ज़रूरतों/हितों को पूरा करने के लिये लोगों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दलों, जिनका गठन सांप्रदायिक आधार पर हुआ है, का सहारा लिया जाता है।

प्रशासनिक कारण:

पुलिस एवं अन्य प्रशासनिक इकाइयों के बीच समन्वय की कमी।

कभी-कभी पुलिस कर्मियों को उचित प्रशिक्षण प्राप्त न होना, पुलिस ज़्यादती इत्यादि भी सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देने वाले कारकों में शामिल होते हैं।

मनोवैज्ञानिक कारण:

  • दो समुदायों के बीच विश्वास और आपसी समझ की कमी या एक समुदाय द्वारा दूसरे समुदाय के सदस्यों का उत्पीड़न,आदि के कारण उनमें भय, शंका और खतरे का भाव उत्पन्न होता है।
  • इस मनोवैज्ञानिक भय के कारण लोगों के बीच विवाद, एक-दूसरे के प्रति नफरत, क्रोध और भय का माहौल पैदा होता है।

मीडिया संबंधी कारण:

  • मिडिया द्वारा अक्सर सनसनीखेज आरोप लगाना तथा अफवाहों को समाचार के रूप में प्रसारित करना।
  • इसका परिणाम कभी-कभी प्रतिद्वंद्वी धार्मिक समूहों के बीच तनाव और दंगों के रूप में देखने को मिलता है।
  • वहीं सोशल मीडिया भी देश के किसी भी हिस्से में सांप्रदायिक तनाव या दंगों से संबंधित संदेश को फैलाने का एक सशक्त माध्यम बन गया है।

देश में सांप्रदायिकता से संबंधित कुछ प्रमुख घटनाएँ:

भारत में सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति उत्पन्न करने और उसे प्रोत्साहित करने में विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक,आर्थिक और प्रशासनिक कारण सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार रहे हैं।

इन सामूहिक कारणों की परिणति हमें सांप्रदायिक हिंसा के रूप में समय-समय पर देखने को मिलती है। देश में सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित कुछ घटनाएँ इस प्रकार हैं-

  • वर्ष 1947 में भारत का विभाजन
  • वर्ष 1984 में सिख विरोधी दंगे
  • वर्ष 1989 में घाटी से कश्मीरी पंडितों का निष्कासन
  • वर्ष 1992 में बाबरी मस्ज़िद विवाद
  • वर्ष 2002 में गुजरात में दंगे
  • वर्ष 2013 में मुज़फ्फरनगर में दंगे इत्यादि।

सांप्रदायिक का परिणाम:

  • देश में बार-बार होने वाली सांप्रदायिक हिंसा धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देने वाले संवैधानिक मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगता है।
  • सांप्रदायिक हिंसा में पीड़ित परिवारों को इसका सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ता है, उन्हें अपना घर, प्रियजनों यहाँ तक कि जीविका के साधनों से भी हाथ धोना पड़ता है।
  • सांप्रदायिकता समाज को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करती है।
  • सांप्रदायिक हिंसा की स्थिति में अल्पसंख्यक वर्ग को समाज में संदेह की दृष्टि से देखा जाता है और इससे देश की एकता एवं अखंडता के लिये खतरा उत्पन्न होता है।
  • सांप्रदायिकता देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये भी चुनौती प्रस्तुत करती है क्योकि सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने वाले एवं उससे पीड़ित होने वाले दोनों ही पक्षों में देश के ही नागरिक शामिल होते हैं।

समाधान:

  • वर्तमान आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार करने के साथ-साथ, शीघ्र परीक्षणों और पीड़ितों को पर्याप्त मुआवज़ा दिये जाने की आवश्यकता है, जो पीड़ितों के लिये निवारक के रूप में कार्य कर सके।
  • शांति, अहिंसा, करुणा, धर्मनिरपेक्षता और मानवतावाद के मूल्यों के साथ-साथ वैज्ञानिकता (एक मौलिक कर्त्तव्य के रूप में निहित) और तर्कसंगतता के आधार पर स्कूलों और कॉलेजों / विश्वविद्यालयों में बच्चों के उत्कृष्ट मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करने, के मूल्य-उन्मुख शिक्षा पर जोर देने की आवश्यकता है जो सांप्रदायिक भावनाओं को रोकने में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकते हैं।
  • सांप्रदायिक दंगों को रोकने हेतु प्रशासन के लिये संहिताबद्ध दिशा-निर्देश जारी कर तथा, पुलिस बल के लिये विशेष प्रशिक्षण साथ ही, जाँच और अभियोजन एजेंसियों का गठन कर ​सांप्रदायिकता के कारण होने वाली हिंसक घटनाओं में कमी की जा सकती है।
  • सरकार, नागरिक समाज और गैर-सरकारी संगठनों को सांप्रदायिकता के खिलाफ जागरूकता के प्रसार में मदद करने वाली परियोजनाओं को चलाने के लिये उन्हें प्रोत्साहन और समर्थन प्रदान कर सकती है, ताकि आने वाली पीढ़ियों में मजबूत सांप्रदायिक सद्भाव के मूल्यों का निर्माण किया जा सके और इस प्रकार एक बेहतर समाज का निर्माण करने में मदद मिल सकती है ।
  • सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये मज़बूत कानून की आवश्यकता होती है।अत: सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005 को मज़बूती के साथ लागू करने की आवश्यकता है।
  • साथ ही बिना किसी भेदभाव के युवाओं की शिक्षा एवं बेरोज़गारी की समस्या का उन्मूलन किये जाने की आवश्यकता है ताकि एक आदर्श समाज की स्थापना की जा सके।

निष्कर्ष:

वर्तमान समय में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएँ भारत के साथ-साथ विश्व स्तर पर भी देखी जा रही हैं। धर्म, राजनीति, क्षेत्रवाद, नस्लीयता या फिर किसी भी आधार पर होने वाली सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये ज़रूरी है कि हम सब मिलकर सामूहिक प्रयास करें और अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन ईमानदारी एवं सच्ची निष्ठा के साथ करें। यदि हम ऐसा करने में सफल हो पाते हैं, तो निश्चित रूप से न केवल देश में बल्कि विश्व स्तर पर सद्भावना की स्थिति कायम होगी क्योकि सांप्रदायिकता का मुकाबला एकता एवं सद्भाव से ही किया जा सकता है।

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