पानीपत का युद्ध | 23 Jan 2021

पानीपत का प्रथम युद्ध (1526)

युद्ध 

  • पानीपत का प्रथम युद्ध (अप्रैल 1526) पानीपत के निकट लड़ा गया था। पानीपत वह स्थान है जहाँ बारहवीं शताब्दी के बाद से उत्तर भारत पर नियंत्रण को लेकर कई निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ी गईं।
  • पानीपत के प्रथम युद्ध ने ही भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। 
  • यह उन पहली लड़ाइयों में से एक थी जिसमें मुगलों ने बारूद, आग्नेयास्त्रों और तोपों का प्रयोग किया।
  • पानीपत का प्रथम युद्ध ज़हीर-उद्दीन बाबर और दिल्ली के लोदी वंश के सुल्तान इब्राहिम लोदी के बीच लड़ा गया था। 
  • इस युद्ध में ज़हीर-उद्दीन बाबर ने लोदी को परास्त किया था।

सैन्य बल 

  • बाबर की सेना में लगभग 15,000 सैनिक और 20 से 24 तोपें थीं। 
  • इब्राहिम लोदी की सेना में लगभग 30,000 से 40,000 सैनिक और कम-से-कम 1000 हाथी थे।

बाबर की रणनीति

  • अस्र-शस्र ही नहीं बल्कि बाबर की तुलुगमा और अरबा (Araba) की रणनीति ने भी उसे जीत के लिये प्रेरित किया।
    • तुलुगमा युद्ध नीति: इसका अर्थ था पूरी सेना को विभिन्न इकाइयों- बाएँ, दाहिने और मध्य में विभाजित करना।
      • बाएँ और दाहिने भाग को आगे तथा अन्य टुकड़ियों को पीछे के भाग में विभाजित करना।
      • इसमें दुश्मन को चारों तरफ से घेरने के लिये एक छोटी सेना का उपयोग किया जा सकता था।
    • अरबा युद्ध नीति: केंद्रीय फ़ॉरवर्ड डिवीज़न को तब बैलगाड़ियाँ (अरबा) प्रदान की जाती थीं जिन्हें दुश्मन का सामना करने वाली पंक्ति में रखा जाता था और ये जानवरों की चमड़ी से बनी रस्सियों से एक-दूसरे से बंधे होते थे।
    • अरबा के पीछे तोपों को रखा जाता था, ताकि पीछे छिपकर दुश्मनों पर प्रहार किया जा सके।

युद्ध का परिणाम

  • काबुलिस्तान के तिमुरिद शासक (Timurid Ruler of Kabulistan) बाबर के मुगल सेना ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की विशाल सेना को हराया।
    • इस जीत ने बाबर को भारतीय मुगल साम्राज्य की नींव रखने में सक्षम बनाया।
  • इब्राहिम लोदी की मृत्यु युद्ध के मैदान में ही हो गई थी और सामंतों तथा सेनापतियों (वे सिपाही जो दूसरे मुल्क में लड़ाई के लिये रखे जाते थे) ने लोदी को वहीं छोड़ दिया।
    • उनमें से अधिकांश ने दिल्ली के नए शासक के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया।

पानीपत का द्वितीय युद्ध (1556)

पानीपत का दूसरा युद्ध 5 नवंबर, 1556 को उत्तर भारत के हिंदू शासक सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य (लोकप्रिय नाम- हेमू ) और अकबर की सेना के बीच पानीपत के मैदान में लड़ा गया था। अकबर के सेनापति खान जमान और बैरम खान के लिये यह एक निर्णायक जीत थी।

  • इस युद्ध के फलस्वरूप दिल्ली पर वर्चस्व के लिये मुगलों और अफगानों के बीच चले संघर्ष में अंतिम निर्णय मुगलों के पक्ष में हो गया और अगले तीन सौ वर्षों तक सत्ता मुगलों के पास ही रही।

पृष्ठभूमि

  • सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य या हेमू दिल्ली का अंतिम हिंदू सम्राट था, जिसने दिल्ली के लिये युद्ध में अकबर/हुमायूँ की सेना को हराया था।
    • हेमू वर्तमान हरियाणा के रेवाड़ी का था। हेमू सन् 1545 से 1553 तक शेरशाह सूरी के पुत्र इस्लाम शाह का सलाहकार भी रहा।
    • उसने सन् 1553 से 1556 के दौरान इस्लाम शासन के महामात्य (Prime Minister) और इस्लाम शाह के सेनानायक (Chief of Army) के रूप में 22 युद्ध जीते, जो कि सूरी शासन के विरुद्ध अफगान विद्रोहियों के विद्रोह को समाप्त करने के लिये लड़े गए थे।
  • 24 जनवरी, 1556 को मुगल शासक हुमायूँ की दिल्ली में मृत्यु हो गई और उसके पुत्र अकबर को उत्तराधिकारी बना दिया गया। उस समय अकबर मात्र तेरह वर्ष का था। 
    • 14 फरवरी, 1556 को पंजाब के कलानौर में अकबर का राज्याभिषेक किया गया।
    • राज्याभिषेक के समय मुगल शासन काबुल, कंधार, दिल्ली और पंजाब के कुछ हिस्सों तक सीमित था।

युद्ध 

  • अकबर और उसके संरक्षक बैरम खान ने युद्ध में भाग नहीं लिया तथा वह युद्ध क्षेत्र से 5 कोस (8 मील) दूर तैनात थे।
    • बैरम खान ने 13 वर्षीय बाल राजा को व्यक्तिगत रूप से युद्ध के मैदान में उपस्थित होने की अनुमति नहीं दी, इसके बजाय उसे 5000 अच्छी तरह से प्रशिक्षित और सबसे वफादार सैनिकों के एक विशेष गार्ड के साथ सुरक्षा प्रदान की गई थी और वह युद्ध के मैदान से एक सुरक्षित दूरी पर तैनात था। 
    • मुगलों की एक अग्रगामी सेना की टुकड़ी में 10,000 घुड़सवार होते थे, जिनमें से 5000 अनुभवी सैनिक थे जो हेमू की अग्रिम पंक्ति की सेना से लड़ने के लिये तैयार थे।
  • हेमू ने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं किया। हेमू की सेना 1500 हाथियों और उत्कृष्ट तोपखाने से सुसज्जित थी।
    • हेमू 30,000 की सुप्रशिक्षित राजपूत और अफगान अश्वारोही सेना के साथ उत्कृष्ट क्रम में आगे बढ़ा।

युद्ध का परिणाम

हेमू अपने सैन्य बल से युद्ध में जीत की ओर बढ़ रहा था लेकिन अकबर की सेना ने हेमू की आँख में तीर मारकर उसे घायल कर दिया जिससे वह बेहोश हो गया और यह घटना युद्ध में जीत की ओर बढ़ रहे हेमू की हार का कारण बन गई। 

हेमू को हौदा (घोड़े की पीठ पर सवारी के लिये गद्दी) पर न देखकर हेमू की सेना में खलबली मच गई और इसी भ्रम की स्थिति के कारण वह हार गई।

युद्ध समाप्त होने के कई घंटे बाद हेमू को मृत अवस्था में पाया गया और उसे शाह कुली खान महरम (Shah Quli Khan Mahram) द्वारा पानीपत के शिविर में अकबर के डेरे पर लाया गया।

हेमू के समर्थकों ने उसके शिरश्छेदन (Beheading) स्थल पर एक स्मारक का निर्माण कराया जो आज भी पानीपत में जींद रोड पर स्थित सौंधापुर  (Saudhapur) गाँव में मौजूद है।


पानीपत का तृतीय युद्ध (1761)

पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 को  पानीपत में दिल्ली से लगभग 60 मील (95.5 किमी) उत्तर में मराठा साम्राज्य और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, के बीच हुआ था।

  • इस युद्ध में दोआब के रोहिला अफगान और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला ने अहमद शाह अब्दाली का साथ दिया।

सैन्य बल

  • सैन्य दृष्टि से सेना ने युद्ध में अफ़गान और रोहिलों की भारी घुड़सवार सेना व तोपखाने  (ज़बुरक तथा जेज़ाइल) जिसका नेतृत्व अहमद दुर्रानी और नजीब-उद-दौला ने किया, ने मराठों की फ्रांसीसी आपूर्ति वाली तोपखाने व घुड़सवार सेना को परास्त कर दिया।
    • 18वीं सदी में हुए युद्धों में इसे सबसे बड़ा युद्ध माना जाता है जिसमें दो सेनाओं के बीच युद्ध में एक ही दिन में सबसे बड़ी संख्या में मौतें हुई थी।

पृष्ठभूमि

  • 27 वर्ष के मुगल-मराठा युद्ध (1680-1707) के बाद मुगल साम्राज्य के पतन के कारण मराठा साम्राज्य ने तेजी से विस्तार किया।
    • पेशवा बाजीराव ने गुजरात और मालवा पर नियंत्रण कायम कर लिया था।
    • आखिरकार वर्ष 1737 में बाजीराव ने दिल्ली के बाहरी इलाके में मुगलों को हरा दिया और मराठा नियंत्रण के तहत दक्षिण के पूर्व मुगल प्रदेशों का अधिकांश भाग अपने कब्ज़े में कर लिया।
  • इससे अहमद शाह अब्दाली के दुर्रानी साम्राज्य के साथ मराठों का सीधा टकराव हुआ।
  • वर्ष 1759 में उसने पश्तून जनजातियों (Pashtun Tribes) की एक सेना तैयार की जिससे पंजाब में छोटे मराठा सरदारों के खिलाफ कार्रवाई में लाभ प्राप्त हुआ।
    • इसके बाद उसने अपने भारतीय सहयोगियों के साथ मिलकर मराठों के खिलाफ एक व्यापक गठबंधन में गांगेय दोआब के रोहिला अफगानों (Rohilla Afghans of the Gangetic Doab) को शामिल किया।

शुजा-उद-दौला की भूमिका

  • मराठों के साथ-साथ अफगानों ने भी अवध के नवाब शुजा-उद-दौला को अपने शिविर में शामिल करने की कोशिश की।
    • जुलाई के अंत तक शुजा-उद-दौला ने अफगान-रोहिल्ला गठबंधन में शामिल होने का फैसला लिया, जो कि 'इस्लाम की सेना' के रूप में जाना जाता था।
  • मराठाओं के लिये यह रणनीतिक रूप से एक बड़ा नुकसान था, क्योंकि शुजा-उद-दौला ने उत्तर भारत में अफगान सेना के लंबे समय तक प्रवास के लिये वित्त प्रदान किया था।
  • इससे यह संदेह उत्पन्न हुआ कि क्या अफगान-रोहिल्ला गठबंधन के बाद शुजा-उद-दौला के समर्थन के बिना मराठा  अपना संघर्ष जारी रख सकेंगे।

खाद्य आपूर्ति में बाधा 

  • आखिरकार अगस्त, 1760 में मराठा शिविर दिल्ली पहुँचा और उसने शहर पर धावा बोल दिया।
    • इसके बाद यमुना नदी के किनारे एक मुठभेड़ और कुंजपुरा में एक युद्ध हुआ, जिसमें मराठों ने लगभग 15,000 की अफगान सेना को हराकर युद्ध जीत लिया।
  • हालाँकि अब्दाली ने अक्तूबर में बागपत में यमुना नदी को पार कर दिल्ली में अपना  मूल मराठा शिविर बनाया।
    • आखिरकार पानीपत शहर में मराठों के खिलाफ अब्दाली के नेतृत्व में दो महीने की लंबी घेराबंदी हुई।
    • घेराबंदी के दौरान दोनों पक्षों ने एक-दूसरे की आवश्यक आपूर्ति को बाधा पहुँचाने की कोशिश की। इसमें अफगान काफी अधिक प्रभावी हुए और और नवंबर 1760 के अंत तक उन्होंने मराठा शिविर को होने वाली लगभग सभी खाद्य आपूर्तियों को बाधित कर दिया।
  • मराठा शिविर में दिसंबर के अंत तक या जनवरी की शुरुआत तक भोजन समाप्त हो गया और हजारों की संख्या में मवेशियों की मृत्यु होने लगी।
    • भुखमरी से मरने वाले सैनिकों के बारे में जनवरी की शुरुआत में खबरें आने लगी थीं।

युद्ध

  • मराठा प्रमुखों ने अपने सेनानायक सदाशिव राव भाउ (Sadashiv Rao Bhau) से आग्रह किया कि उन्हें भूख से मरने के बजाय युद्ध में मरने की इज़ाजत दी जाए।
  • यह लड़ाई कई दिनों तक चली और इसमें लगभग 125,000 से अधिक सैनिकों को शामिल किया गया।
    • दोनों तरफ की सेनाओं को हुए नुकसान व फायदे के साथ ही  यह युद्ध लंबे समय तक चला।
  • अहमद शाह दुर्रानी के नेतृत्व में सेना कई मराठा पक्षों का खात्मा करने के बाद विजयी हुई।
  • युद्ध में दोनों पक्षों की क्षति का आकलन इस प्रकार किया गया है कि:
    • युद्ध में 60,000-70,000 के बीच सैनिक मारे गए, जबकि घायल और कैदियों की संख्या में काफी अंतर पाया गया था। युद्ध के अगले दिन लगभग 40,000 मराठा कैदियों का कत्ल कर दिया गया था।

युद्ध का परिणाम

  • युद्ध का परिणाम उत्तर में आगे के मराठा प्रगति और लगभग 10 वर्षों के लिये अपने क्षेत्रों के अस्थिरता रोकना था।
    • 10 वर्षों की इस अवधि को पेशवा माधवराव के शासन के रूप में चिह्नित किया गया है, जिसे पानीपत के युद्ध में हार के बाद मराठा वर्चस्व के पुनरुत्थान का श्रेय दिया जाता है।
  • पानीपत के तृतीय युद्ध के 10 वर्ष बाद (वर्ष 1771) पेशवा माधवराव ने एक अभियान के तहत उत्तर भारत में एक बड़ी मराठा सेना भेजी थी, जिसका मतलब था:
    • उत्तर भारत में मराठा वर्चस्व को फिर से स्थापित करना।
    • अफगानों के साथ या तो पक्षपातपूर्ण विध्वंस शक्तियाँ जैसे- रोहिलों या पानीपत के युद्ध के बाद मराठा वर्चस्व को हिलाकर रख दिया था। 
  • इस अभियान की सफलता को पानीपत की लंबी कहानी की अंतिम गाथा के रूप में देखा जा सकता है।

नोट:

  • पानीपत के तीनों युद्धों में जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आती है, वह यह है कि विवाद या युद्ध का कारण पानीपत शहर कभी नहीं रहा।
  • पानीपत हमेशा से दिल्ली का प्रवेश द्वार था।
    • ऐतिहासिक रूप से उत्तर-पश्चिम से कोई भी आक्रामक जो दिल्ली पर कब्ज़ा करना चाहता था उसे खैबर दर्रे और फिर पंजाब से होकर आना पड़ा।