भारत के जनजातीय समुदायों पर शाशा समिति | 03 Jul 2019

भारत राज्य के लिये यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि समाज के सभी वर्ग देश की आर्थिक और सामाजिक समृद्धि में हिस्सेदारी करें। यह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि भारतीय आबादी के एक बड़े हिस्से, विशेष रूप से जनजातीय (जनजातीय) समुदायों को, पिछले छह दशकों में कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का पूरा लाभ नहीं मिला है बल्कि इस अवधि के दौरान कार्यान्वित विकास परियोजनाओं का उन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

  • प्रधानमंत्री कार्यालय ने वर्ष 2013 में प्रो. वर्जिनियस शाशा (Prof. Virginius Xaxa) की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय समिति (HLC) का गठन किया।
  • समिति को जनजातीय समुदायों की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य स्थिति की जाँच करने और उनमें सुधार के लिये उपयुक्त हस्तक्षेपकारी उपायों की सिफारिश करने का कार्यभार सौंपा गया। समिति ने मई 2014 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।

परिचय

अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes-ST)

  • भारत में जनजातीय आबादी संख्यात्मक रूप से एक अल्पसंख्यक समूह होने के बावजूद समूहों की विशाल विविधता का प्रतिनिधित्व करती है।
  • जबकि जनजातियों की अपनी विशिष्ट संस्कृति और इतिहास है, वे भारतीय समाज के अन्य वंचित वर्गों के साथ अपर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आर्थिक वंचना और सांस्कृतिक भेदभाव जैसे विषयों में समानताएँ रखते हैं।
  • 'जनजाति' का श्रेणीकरण सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम को दर्शाता है, लेकिन ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में श्रेणीकरण के राजनीतिक-प्रशासनिक निहितार्थ भी हैं।
  • अनुसूचित जनजाति की अधिकांश आबादी पूर्वी, मध्य और पश्चिमी पट्टी में संकेंद्रित है, जो नौ राज्यों - ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल तक विस्तृत हैं।
  • उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में लगभग 12 प्रतिशत, दक्षिणी क्षेत्र में लगभग 5 प्रतिशत और उत्तरी राज्यों में लगभग 3 प्रतिशत जनजातीय आबादी निवास करती है।

राजनीतिक और प्रशासनिक इतिहास

  • उन्नीसवीं शताब्दी में जनजातीय विद्रोहों के परिणामस्वरूप जनजातीय क्षेत्रों को सामान्य विधियों के कार्यान्वयन से बाहर रखने की ब्रिटिश नीति का विकास हुआ।
  • वर्ष 1833 के रेगुलेशन XIII ने गैर-विनियमित (नॉन-रेगुलेशन) प्रांतों का निर्माण किया, जिन्हें नागरिक (सिविल) एवं आपराधिक न्याय, भू-राजस्व के संग्रह और एवं अन्य विषयों में विशेष नियमों द्वारा शासित किया जाना था। इसने सिंहभूमि क्षेत्र में प्रशासन की एक नई प्रणाली की शुरुआत की।
  • पूर्वोत्तर क्षेत्र में अंग्रेजों ने वर्ष 1873 में आंतरिक रेखा विनियमन (Inner LIne Regulation) को उस बिंदु के रूप में लागू किया जिसके पार उपनिवेश के लिये प्रचलित सामान्य कानून लागू नहीं होते थे और इस क्षेत्र के बाहर रहने वाले शासितों (Subjects) का यहाँ प्रवेश करना सख्त वर्जित था।
  • भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अनुसार, गवर्नर जनजातीय क्षेत्रों में प्रत्यक्ष रूप से या अपने अभिकर्त्ताओं के माध्यम से नीति निर्धारित कर सकता था।
  • स्वतंत्रता के उपरांत, वर्ष 1950 में संविधान (अनुच्छेद 342) के अंगीकरण के बाद ब्रिटिश शासन के दौरान जनजातियों के रूप में चिह्नित व दर्ज समुदायों को अनुसूचित जनजाति के रूप में पुन: वर्गीकृत किया गया।
  • जिन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियाँ संख्यात्मक रूप से प्रभावी हैं, उनके लिये संविधान में पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के रूप में दो अलग-अलग प्रशासनिक व्यवस्थाओं का प्रावधान किया गया है।
  • संविधान के अंतर्गत ‘पाँचवीं अनुसूची के क्षेत्र’ (Fifth Schedule Areas) ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित करे। वर्तमान में 10 राज्यों - आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना में पाँचवीं अनुसूची के तहत क्षेत्र विद्यमान हैं।
  • पाँचवीं अनुसूची के प्रावधानों को ‘पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996’ के रूप में और विधिक व प्रशासनिक सुदृढ़ीकरण प्रदान किया गया, ताकि लोकतंत्र और आगे बढ़े।
  • छठी अनुसूची के क्षेत्र (Sixth Schedule areas) कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जो पूर्ववर्ती असम और अन्य जनजातीय बहुल क्षेत्रों में भारत सरकार अधिनियम, 1935 से पहले तक बाहर रखे गए थे तथा बाद में अलग राज्य बने।
  • इन क्षेत्रों (छठी अनुसूची) को संविधान के भाग XXI के तहत भी विशेष प्रावधान दिए गए हैं।
  • क्षेत्र प्रतिबंध (संशोधन) निरसन अधिनियम, 1976 ने अनुसूचित जनजातियों की पहचान में क्षेत्र प्रतिबंध की समाप्ति की और सूची को राज्यों के भीतर प्रखंडों और ज़िलों के बजाय पूरे राज्य पर लागू किया।
  • ऐसे क्षेत्र जहाँ अनुसूचित जनजातियाँ संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक हैं, वे देश के सामान्य प्रशासनिक ढाँचे का हिस्सा हैं। शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के माध्यम से देश भर में अनुसूचित जनजातियों को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं।
  • पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के दायरे से बाहर जनजातीय स्वायत्त क्षेत्रों के निर्माण के लिये संसद और राज्य विधानसभाओं को शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। उदाहरण के लिये- लेह स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, कारगिल स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, दार्जिलिंग गोरखा हिल परिषद।

अनुसूचित जनजातियों और विभिन्न समितियों को परिभाषित करना

  • वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों को ‘बहिर्वेशित’ और ‘आंशिक रूप से बहिर्वेशित’ क्षेत्रों में ‘पिछड़ी जनजातियों’ के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1935 के भारत सरकार अधिनियम ने पहली बार ‘पिछड़ी जनजातियों’ के प्रतिनिधियों को प्रांतीय विधानसभाओं में आमंत्रित किया।
  • संविधान अनुसूचित जनजातियों की मान्यता के मानदंडों को परिभाषित नहीं करता है और इसलिये वर्ष 1931 की जनगणना में निहित परिभाषा का उपयोग स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक वर्षों में किया गया था।
  • हालाँकि संविधान का अनुच्छेद 366 (25) अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के लिये प्रक्रिया निर्धारित करता है: “अनुसूचित जनजातियों का अर्थ ऐसी जनजातियों या जनजातीय समुदायों के अंदर कुछ हिस्सों या समूहों से है, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजाति माना जाता है।”
  • अनुच्छेद 340 के तहत भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त पहला पिछड़ा वर्ग आयोग (काका कालेलकर आयोग, 1953) ने अनुसूचित जनजातियों को इस रूप में परिभाषित किया है: “वे एक अलग अनन्य अस्तित्व रखते हैं और लोगों की मुख्य धारा में पूरी तरह से आत्मसात् नहीं किए गए हैं। वे किसी भी धर्म के हो सकते हैं।”
  • एलविन कमेटी (1959) का गठन सभी जनजातीय विकास कार्यक्रमों के लिये बुनियादी प्रशासनिक इकाई ‘बहु-उद्देश्यीय विकास खंड’ (मल्टी-पर्पज डेवलपमेंट ब्लॉक) के कार्यकरण की जाँच के लिये किया गया था।
  • यू.एन. ढेबर आयोग का गठन वर्ष 1960 में जनजातीय क्षेत्रों में भूमि अलगाव के मुद्दे सहित जनजातीय समूहों की समग्र स्थिति को संबोधित करने के लिये किया गया था।
  • लोकुर समिति (1965) का गठन अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के मानदंड पर विचार करने के लिये किया गया था। समिति ने उनकी पहचान के लिये पाँच मानदंडों - आदिम लक्षण, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक अलगाव, बड़े पैमाने पर समुदाय के साथ संपर्क में संकोच और पिछड़ापन - की सिफारिश की।
  • शीलू ओ समिति, 1966 ने एल्विन समिति की ही तरह जनजातीय विकास और कल्याण के मुद्दे को संबोधित किया।
  • 1970 के दशक में गठित कई समितियों की सिफारिशों पर सरकार का जनजातीय उप-योजना दृष्टिकोण सामने आया।
  • भूरिया समिति (1991) की सिफारिशों ने पेसा अधिनियम (PESA Act), 1996 के अधिनियमित होने का मार्ग प्रशस्त किया।
  • भूरिया आयोग (2002-2004) ने पाँचवीं अनुसूची से लेकर जनजातीय भूमि व वन, स्वास्थ्य व शिक्षा, पंचायतों के कामकाज और जनजातीय महिलाओं की स्थिति जैसे कई मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।
  • बंदोपाध्याय समिति (2006) ने वामपंथी चरमपंथ प्रभावित क्षेत्रों में विकास और शासन पर विचार किया।
  • मुंजेकर समिति (2005) ने प्रशासन और शासन के मुद्दों का परीक्षण किया।
  • जिन मुद्दों पर उपर्युक्त समितियों ने विचार किया, उन्हें मुख्यतः दो श्रेणियों में रखा जा सकता है: विकास और संरक्षण, फिर भी इन दोनों ही विषयों में जनजातीय समुदायों के लिये प्राप्त परिणाम मिश्रित ही रहे हैं।

अध्ययन और विश्लेषण

पाँच महत्त्वपूर्ण मुद्दों: (1) आजीविका व रोज़गार, (2) शिक्षा, (3) स्वास्थ्य, (4) अनैच्छिक विस्थापन और प्रवासन, और (5) विधिक एवं संवैधानिक मामलों का अध्ययन शाशा समिति द्वारा किया गया है।

इन पाँच मुद्दों में से, पहले तीन मुद्दे ऐसे विषयों से संबंधित हैं जो जनजातियों के लिये उत्तर-औपनिवेशिक राज्य के विकास एजेंडे के मूल में रहे हैं: आजीविका व रोज़गार, शिक्षा और स्वास्थ्य।

  • भारत के योजनाबद्ध विकास के पहले चरण से ही इन सभी क्षेत्रों में जनजातियों के लिये विशेष रूप से संसाधनों का आवंटन किया गया है और इन मोर्चों पर विद्यमान समस्याओं के समाधान के लिये विशेष कार्यक्रम व योजनाएँ भी बनाई गई हैं।
  • फिर भी इन क्षेत्रों में जनजातियों की वर्तमान स्थिति भारत के विकास मार्ग में एक महत्त्वपूर्ण अंतराल को प्रकट करती है। इससे सार्वजनिक वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति के लिये संस्थानों और प्रणालियों की क्षमता पर भी सवाल भी उठता है।
  • व्यापक विकासशील विस्थापन: दोषपूर्ण राष्ट्र-निर्माण प्रक्रिया के एक अंग के रूप में, जनजातीय क्षेत्रों में वृहत् पैमाने पर उद्योग, खनन, सड़क व रेलवे जैसे बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं, बांधों व सिंचाई जैसी जलीय परियोजनाओं का विकास देखने को मिला है।
    • शहरीकरण की प्रक्रियाओं ने भी इनमें योगदान किया है।
    • इससे प्रायः आजीविका की हानि, बड़े पैमाने पर विस्थापन और जनजातियों के अनैच्छिक प्रवास की स्थिति बनी है।
  • समिति द्वारा विश्लेषित एक अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दा विधानों का कार्यकरण रहा है।
    • पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996 और अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परंपरागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम (FRA), 2006, जनजातीय और वन समुदायों के प्रति ऐतिहासिक अन्याय के निवारण के लिये अधिनियमित महत्त्वपूर्ण पहलू रहे हैं, जिनसे उनकी वैधानिक स्थिति में परिवर्तन आया।
    • हालाँकि, कानून में मान्यता प्राप्त परिवर्तित परिस्थितियों को आत्मसात् करने में नीतियाँ और कार्यान्वयन सुस्त रहे हैं।
    • भविष्य के संशोधन के लिये इन विधानों और उनके उल्लंघनों का परीक्षण किया गया है।
    • भूमि अधिग्रहण, खाद्य सुरक्षा, निरोध व कारावास, विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (PVTGs) और गैर-अधिसूचित जनजातियों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला गया है।

अन्य अवलोकन

  • एक विमर्श में जनजातीय लोगों की गरीबी सहित समग्र स्थिति के लिये उनके सामाजिक और भौगोलिक अलगाव को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।
  • एकीकरण और विकास: राष्ट्रवादी नेतृत्व ने इन दोनों आयामों (सामाजिक और भौगोलिक अलगाव) को चिह्नित किया और उन्हें संबोधित किया। भारतीय संविधान में अनुसूचित जनजातियों के लिये निहित प्रावधान इस दोहरे दृष्टिकोण का प्रमाण हैं।
    • संविधान में उनके विकास के साथ-साथ उनके हितों की सुरक्षा और संरक्षण का भी प्रावधान किया गया है।
  • हालाँकि, राज्य वास्तव में जनजातियों के एकीकरण के बजाय उनके सम्मिलन की नीति पर आगे बढ़ रहे हैं, जो दावे (विकास के साथ-साथ उनके हितों की सुरक्षा और संरक्षण) के विपरीत है।
  • एकीकरण की नीति उनकी अलग पहचान के लिये सुरक्षा और संरक्षण का अवसर प्रदान करेगी, जो संविधान में निहित भावना के अनुरूप है।
  • जनजाति विकास के लिये अपर्याप्त संसाधन आवंटन के तर्क को भी उठाया गया है।
  • जनजातियों के अंदर सामाजिक विकास में कमी के लिये कार्यक्रमों के कमजोर कार्यान्वयन को एक अन्य कारण के रूप में पेश किया गया है।
  • जनजातीय आबादी के कमतर विकास के संबंध में एक और तर्क जनजातीय जीवन के पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर आधारित है।
  • इस प्रकार जनजातीय संस्कृति के अनुरूप विकास को पुनः उन्मुख करने और जनजातीय विकास के लिये अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है।

अपर्याप्त संसाधन आवंटन, अप्रभावी कार्यान्वयन या जनजातीय परंपराओं की चिंताओं से परे, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विकास के वृहत् प्रश्न से संलग्न होना अधिक आवश्यक समझा गया।

  • झारखंड और ओडिशा राज्यों के पास बड़ी मात्रा में प्राकृतिक संसाधन तो हैं, लेकिन गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले जनजातीय लोगों का प्रतिशत भी यहीं सबसे अधिक है।
  • वर्ष 2004-05 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले जनजातीय लोगों का अनुपात झारखंड में 54.2 प्रतिशत और ओडिशा में 75.6 प्रतिशत था।
  • इन राज्यों में बड़े पैमाने पर खनन, औद्योगिक और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के माध्यम से जनजातीय अलगाव पर काबू पाने की प्रक्रिया ने उनकी दुर्बलता और भेद्यता और बढ़ी दी है।
  • आदिवासियों पर थोपे गए विकास के मॉडल पर भी सवाल उठाया गया है। आर्थिक उदारीकरण और जनजातीय क्षेत्रों में निजी निगमों के प्रवेश के साथ इस विकास के एजेंडे के व्यापक प्रोत्साहन का जनजातीय समुदायों द्वारा प्रबल प्रतिरोध किया गया है।
  • जनजातियों को सुरक्षा प्रदान करने वाले नियम-कानूनों के साथ लगातार हेर-फेर किया जा रहा है और कॉर्पोरेट हितों को समायोजित करने के लिये इन्हें विकृत किया जा रहा है।
  • आदिवासियों के प्रतिरोध का उत्तर राज्य के अर्धसैनिक बलों और संलग्न निगमों के निजी सुरक्षा कर्मचारियों द्वारा हिंसा से दिया जा रहा है।

इन निराशाजनक स्थितियों ने जनजातीय क्षेत्रों में वामपंथी अतिवाद (Left-Wing Extremism) के प्रसार का मार्ग प्रशस्त किया है।

वामपंथी अतिवाद (LWE)

  • वामपंथी अतिवाद से गंभीर रूप से प्रभावित नौ राज्यों में से छह राज्य ऐसे हैं, जहाँ अनुसूचित ज़िले स्थित हैं।
  • 83 वामपंथी अतिवाद प्रभावित ज़िलों में से 42 ज़िलों में अनुसूचित क्षेत्र मौजूद हैं।
  • इन क्षेत्रों को निम्नलिखित विशेषताओं द्वारा चिह्नित किया गया है:
    • गंभीर उपेक्षा व अभाव, व्यापक गरीबी और खराब स्वास्थ्य व शैक्षणिक स्थिति।
    • एक ओर व्यापारियों और साहूकारों द्वारा शोषण और उत्पीड़न तो दूसरी ओर एक प्रभावी और संवेदनशील नागरिक प्रशासन की अनुपस्थिति।
    • विकास परियोजनाओं के लिये जनजातीय लोगों का बड़े पैमाने पर विस्थापन।
    • जनजातीय लोगों के लिये विशेष संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों (पाँचवीं अनुसूची, जनजातीय भूमि के हस्तांतरण पर रोक और हस्तांतरित भूमि की पुनर्बहाली के लिये विभिन्न कानूनों और हाल के वर्षों में PESA, 1996 और FRA, 2006 जैसे कानून) के बावजूद उपरोक्त सभी परिदृश्य बने हुए हैं।
  • 3 परिप्रेक्ष्य, जिनके माध्यम से क्षेत्र के वामपंथी अतिवाद को देखा जाता है:
    • पहला दृष्टिकोण इसे मुख्य रूप से एक राष्ट्रीय सुरक्षा समस्या के रूप में देखता है, जिसे सैन्य कार्रवाई से संबोधित किया जाना चाहिये। इस दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप जनजातीय समुदायों का अलगाव और बढ़ेगा, राज्य और लोगों के बीच भरोसे की कमी और बढ़ेगी तथा माओवादी मज़बूत होंगे।
    • दूसरा दृष्टिकोण माओवादी गढ़ों और जनजातीय क्षेत्रों के बीच अतिव्याप्ति को निराशाजनक विकास प्रक्रियाओं के कोण से देखता और इसके एकमात्र समाधान के रूप में और अधिक विकास को देखता है।
    • तीसरा दृष्टिकोण उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों का संयोजन है, जो बेहतर सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे की स्थापना पर ध्यान देने के साथ ही क्षेत्र को सुरक्षित करने के लिये एक सैन्य कार्रवाई को आवश्यक मानता है।
  • हालाँकि, एक चौथा दृष्टिकोण भी होना चाहिये, जो इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति पर आधारित हो कि जनजातीय संसाधनों पर कब्ज़े के लिये सरकार और निगमों, दोनों के द्वारा कानून के साथ छेड़छाड़ की गई और इस स्थिति में सुधार की आवश्यकता है।
    • यह दृष्टिकोण स्वीकार करता है कि राज्य की विफलताओं और भरोसे की कमी ने इन क्षेत्रों में माओवादियों के प्रवेश को अवसर दिया और लोगों, विशेषकर दलितों और आदिवासियों के बीच कुछ समर्थन हासिल करने में उनकी मदद की है।
    • इस प्रकार कोई भी समाधान पिछली गलतियों के निवारण और न्याय की गारंटी के माध्यम से विश्वास-बहाली उपायों के साथ ही शुरू किया जाना चाहिये।

समिति ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक मापदंडों के आधार पर विषयगत खंड तैयार किये:

1. भौगोलिक और जनसांख्यिकीय ढाँचा

  • 2011 की जनगणना: अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10,42,81,034 है, जो भारत की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है।
  • प्रारूप राष्ट्रीय जनजातीय नीति, 2006 भारत में 698 अनुसूचित जनजातियों को दर्ज करता है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों के रूप में अधिसूचित व्यक्तिगत समूहों की संख्या 705 है।
  • जनजातियों के पाँच व्यापक क्षेत्रीय समूह: हिमालयी क्षेत्र [(a) उत्तर-पूर्वी हिमालयी क्षेत्र, (b) मध्य हिमालयी क्षेत्र और (c) उत्तर-पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र], मध्य क्षेत्र (बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़; जहाँ भारत के 55 प्रतिशत से अधिक जनजातीय लोग रहते हैं), पश्चिमी क्षेत्र (राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, दादरा और नगर हवेली), दक्षिणी क्षेत्र (आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल), द्वीपीय क्षेत्र (बंगाल की खाड़ी में अंडमान और निकोबार तथा अरब सागर में लक्षद्वीप)।
  • पूर्वोत्तर को प्रायः एक विलक्षण और समांगी इकाई के रूप में देखा जाता है, जहाँ 200 से अधिक जनजातियों और उप-जनजातियों की अत्यधिक विविधता पाई जाती है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी भाषा, संस्कृति और राजनीतिक संरचनाएँ हैं।
    • पूर्वोत्तर भारत देश के अन्य हिस्सों की जनजातियों से, विशेष रूप से औपनिवेशिक और भारतीय राज्य के साथ उनके ऐतिहासिक संबंधों के संदर्भ में भिन्न है।
  • द्वीपों को केंद्र सरकार के अंतर्गत केंद्रशासित प्रदेश के रूप में प्रशासित किया जाता है और ये ग्रेट अंडमानी, ओंगे, जारवा और सेंटीनलीज जैसे कुछ सबसे छोटे जनजाति समूहों के निवास क्षेत्र हैं।
  • भाषा:
    • इंडो-यूरोपीय: जनजातीय आबादी के मात्र एक प्रतिशत से कुछ अधिक लोग इस परिवार की भाषा बोलते हैं जिनमें भील ​​और हल्बी दो प्रमुख समूह हैं।
    • द्रविड़ परिवार की भाषाएँ गोंड, खोंड, कोया, उरांव, टोडा आदि जनजातियों द्वारा बोली जाती हैं।
    • तिब्बती-बर्मी भाषाएँ हिमालय क्षेत्र और पूर्वोत्तर भारत की जनजातियों द्वारा बोली जाती हैं।
    • ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार की भाषाएँ केवल संथाल, मुंडा और हो जैसे कुछ जनजातीय समूहों द्वारा बोली जाती हैं।
  • अनुसूचित जनजाति समुदाय देश के लगभग 15 प्रतिशत क्षेत्र पर निवास करते हैं।
  • सामान्य आबादी के 53 प्रतिशत की तुलना में अनुसूचित जनजातियों के 80 प्रतिशत से अधिक लोग प्राथमिक क्षेत्र में कार्यरत हैं।
  • अनुसूचित जनजातियों का लिंगानुपात ग्रामीण क्षेत्रों में प्रत्येक 1000 पुरुषों पर 991 महिलाओं और शहरी क्षेत्रों में प्रत्येक 1000 पुरुषों पर 980 महिलाओं का है, औसत 990 है।
  • राज्यों में अनुसूचित जनजाति जनसंख्या के वितरण के संबंध में, मध्य प्रदेश 14.7 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है, जिसके बाद महाराष्ट्र (10.1 प्रतिशत), ओडिशा (9.2 प्रतिशत), राजस्थान (8.9 प्रतिशत), गुजरात (8.6 प्रतिशत), झारखंड (8.3 प्रतिशत), छत्तीसगढ़ (7.5 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (5.7 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (5.1 प्रतिशत), कर्नाटक (4.1 प्रतिशत), असम (3.7 प्रतिशत), मेघालय (2.5 प्रतिशत) आते हैं। शेष अन्य राज्य 11.6 प्रतिशत जनजातीय आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति जनसंख्या का अनुपात 11.3 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 2.8 प्रतिशत है।
  • विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (Particularly Vulnerable Tribal Groups- PVTGs)
    • PVTGs (पूर्व में आदिम जनजातीय समूह/PTG के रूप में वर्गीकृत) भारत सरकार द्वारा किया जाने वाला वर्गीकरण है जो विशेष रूप से निम्न विकास सूचकांकों वाले कुछ समुदायों की स्थितियों में सुधार को सक्षम करने के उद्देश्य से सृजित किया गया है।
    • इसका सृजन ढेबर आयोग की रिपोर्ट (1960) के आधार पर किया गया था, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जनजातियों के विकास दर में असमानता थी।
    • ऐसे समूह की प्रमुख विशेषताओं में एक आदिम-कृषि प्रणाली का प्रचलन, शिकार और खाद्य संग्रहण का अभ्यास, शून्य या नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि, अन्य जनजातीय समूहों की तुलना में साक्षरता का अत्यंत निम्न स्तर आदि शामिल है।
    • 1000 से कम व्यक्तियों की आबादी वाले PVTGs हैं: बिरजिया (बिहार), सेंटीनलीज़, ग्रेट अंडमानी, ओंगे, बिरहोर (मध्य प्रदेश), असुर (बिहार), मनकीडिया (ओडिशा), जरावा, चोलानैक्कन (केरल), शोम्पेन, सावर (बिहार), राजी (उत्तराखंड), सौरिया पहाड़िया (बिहार), बिरहोर (ओडिशा), कोरवा (बिहार), टोडा (तमिलनाडु), कोटा (तमिलनाडु), राजी (उत्तर प्रदेश)।
  • भारत का वन सर्वेक्षण, 2011: देश में कुल वन क्षेत्र 692, 027 वर्ग किलोमीटर है। यह कुल भौगोलिक क्षेत्र का 21.05 प्रतिशत है।
    • एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम (ITDP) लगभग 411, 881 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। इस प्रकार देश का लगभग 60 प्रतिशत वन क्षेत्र जनजातीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
    • हालाँकि इन वनों का अधिकांश भाग आरक्षित वनों और संरक्षित वनों के साथ-साथ वन्यजीव अभयारण्यों और राष्ट्रीय उद्यानों के रूप में वर्गीकृत किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप जनजातीय समुदाय अधिकारविहीन हो गए और वन अधिकार अधिनियम, 2006 के पारित होने से पहले तक इस भूमि पर उनके प्रवेश का अतिक्रमण माना जाता था।
  • खनिज संसाधनों के संबंध में, पर्याप्त जनजातीय आबादी वाले तीन राज्यों- ओडिशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में उल्लेखनीय खनिज भंडार (कोयला– 70 प्रतिशत, लौह अयस्क– 80 प्रतिशत, बॉक्साइट– 60 प्रतिशत, क्रोमाइट्स– 100 प्रतिशत) मौजूद हैं।
    • विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (CSE) के अनुसार, शीर्ष खनिज उत्पादक ज़िलों में लगभग आधे जनजातीय ज़िले हैं।
  • बांध: बांध निर्माण से विस्थापित होने वाले लोगों में से लगभग 40 प्रतिशत अनुसूचित जनजातियों के हैं। अनुसूचित जनजाति देश की आबादी के लगभग आठ प्रतिशत का गठन करती है और स्पष्ट है कि विस्थापित व्यक्तियों की संख्या के मामले में उनका सही प्रतिनिधित्व नहीं किया गया।
  • जनजातीय आबादी को प्रभावित करने वाले संघर्ष:
    • भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) और भारतीय राज्य के बीच सशस्त्र संघर्ष, जो महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल राज्यों के कुछ हिस्सों में जारी है।
    • हाल के वर्षों में, विशेष रूप से मध्य भारत में, इस प्रकार के संघर्ष में वृद्धि ही हुई है, जब देश ने छत्तीसगढ़ में सलवा जुडूम नाम से ज्ञात उग्रवाद-विरोधी अभियान की शुरुआत की, जो माओवादियों से संघर्ष के नाम पर बलात्कार, हत्या, आगजनी, लूटपाट और भयादोहन के लिये ज़िम्मेदार है।
    • पूर्वोत्तर: पूर्वोत्तर में राज्य और जनजातीय समूहों के बीच, विभिन्न जनजातियों के बीच और जनजातियों व गैर-जनजातीय समूहों के बीच संघर्ष चल रहे हैं, जहाँ राज्य इन सभी संघर्षों में शामिल हैं।
    • सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958 मणिपुर, असम और नागालैंड के साथ-साथ त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में प्रभावी हैं।
  • इन राज्यों में सशस्त्र बलों द्वारा अतिरिक्त-न्यायिक हत्याओं, बलात्कार और उत्पीड़न के कई मामले सामने आए हैं।

2. जनजाति: कानूनी और प्रशासनिक ढाँचा

अनुसूचित क्षेत्र

  • अनुसूचित क्षेत्र (संविधान की पाँचवीं अनुसूची के तहत) से “ऐसे क्षेत्र अभिप्रेत हैं जिन्हें राष्ट्रपति आदेश द्वारा अनुसूचित क्षेत्र घोषित करें।"
  • वर्तमान में 10 राज्यों - आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना में ‘पाँचवीं अनुसूची के तहत अनुसूचित क्षेत्र’ (Fifth Schedule Areas) विद्यमान हैं।

पाँचवीं अनुसूची

  • पाँचवीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित उपबंध है।
  • पाँचवीं अनुसूची के भाग ख में अनुसूचित क्षेत्रों वाले प्रत्येक राज्य में एक जनजाति सलाहकार परिषद (टीएसी) के गठन का प्रावधान है। टीएसी का कर्तव्य अनुसूचित जनजातियों के ‘कल्याण और उन्नति’ से संबंधित मामलों पर सलाह देना है, "जैसा कि राज्यपाल द्वारा उन्हें संदर्भित किया जा सकता है"।
  • जनजाति सलाहकार परिषद की कमियाँ:
    • TAC केवल उन मुद्दों पर चर्चा कर सकते हैं और सिफारिश दे सकते हैं, जिन्हें राज्यपाल द्वारा संदर्भित किया जाता है।
    • यह केवल सलाहकारी क्षमता के रूप में कार्य करता है और इसके पास कार्यान्वयन की कोई शक्ति नहीं है।
    • परिषद जनजातीय आबादी के लिये जवाबदेह नहीं है, क्योंकि वे राज्यपाल या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।
  • पाँचवीं अनुसूची ने जनजातीय क्षेत्रों को कहीं अधिक स्वायत्तता प्रदान की, लेकिन जनजाति सलाहकार परिषद स्वायत्त निर्णय लेने वाली एक संस्था के बजाय मात्र एक सलाहकारी निकाय बना रहा है।
  • छठी अनुसूची के विपरीत, जहाँ स्वायत्त ज़िला परिषदों को कई महत्त्वपूर्ण विषयों में उल्लेखनीय विधायी, न्यायिक और कार्यकारी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, पाँचवीं अनुसूची जनजातीय क्षेत्रों के शासन को (मुख्यतः राज्यपाल) के पास संकेंद्रित रखती है।
  • TAC कार्यप्रणाली के संबंध में नियमों का निर्माण राज्यपाल के बजाय राज्य सरकारों द्वारा किया गया है, जिसके कारण सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों द्वारा इन निकायों का पूर्णरूपेण अधिकार हड़पने का प्रयास किया जा रहा है।
  • राज्यपाल की रिपोर्ट विस्थापन एवं पुनर्वास, विधि-व्यवस्था की समस्या, जनजातीय विरोध प्रदर्शनों, जनजातियों के उत्पीड़न और ऐसे अन्य मुद्दों को दायरे में नहीं लेती हैं। ये रिपोर्टें अनुसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकारों की नीतियों के स्वतंत्र मूल्यांकन का अवसर नहीं प्रदान करतीं।
  • बड़ी संख्या में ऐसे राज्य मौजूद हैं, जहाँ जनजातियाँ प्रखंड या गाँवों में एक बड़ी आबादी वाले प्रखंड या गाँवों का निर्माण करती हैं। उदाहरण के लिये, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, गोवा आदि। इन राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्रों के दायरे से बाहर रखा गया है।

भारतीय संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूची के बीच अंतर

  • पाँचवीं अनुसूची भारत के वृहत हिस्से में अनुसूचित क्षेत्रों को निर्धारित करती है, जहाँ अनुसूचित जनजातियों के हितों का संरक्षण किया जाता है। अनुसूचित क्षेत्र में 50 प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी मौजूद होती है।
  • छठी अनुसूची उत्तर-पूर्वी राज्यों- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के प्रशासन से संबंधित है।

छठी अनुसूची

  • पूर्वोत्तर भारत, अनेक विविध जातीय समूहों का निवास स्थान है और रणनीतिक रूप से भूटान, चीन, म्याँमार और बांग्लादेश की सीमाओं पर स्थित है।
  • खासी और मिजो समुदाय ने प्रथागत कानूनों, संसाधनों पर नियंत्रण और ऐसे ही अन्य कई मुद्दों पर स्वशासन का आह्वान किया, जबकि असम के बड़े राज्य से अलग होने की मांग भी की।
  • यथास्थिति बनाए रखने और अलगाव के ब्रिटिश दर्शन को संविधान की छठी अनुसूची के माध्यम से पूर्वोत्तर के विकास और एकीकरण की नीतियों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
  • छठी अनुसूची स्वायत्त ज़िला और क्षेत्रीय परिषदों के निर्माण का प्रावधान करती है और इन स्वायत्त निकायों को विभिन्न विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शक्तियाँ प्रदान करती है।
  • छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों के कुछ जनजातीय क्षेत्रों पर लागू होती है।
  • छठी अनुसूची के अलावा, पूर्वोत्तर राज्यों पर अनुच्छेद 371A (नागालैंड), अनुच्छेद 371C (मणिपुर), अनुच्छेद 371G (मिज़ोरम) जैसे अन्य संवैधानिक प्रावधान भी लागू हैं।
  • दो प्रकार के स्वायत्त ज़िला परिषद हैं: (1) छठी अनुसूची के तहत स्थापित, (2) राज्य विधान सभा के विभिन्न अधिनियमों द्वारा स्थापित।

स्वायत्त ज़िला परिषद:-

  • असम: छठी अनुसूची के तहत स्थापित दीमा हसाओ, कार्बी आंगलोंग, बोडोलैंड।
  • शिलांग क्षेत्र को छोड़कर मेघालय का संपूर्ण राज्य छठी अनुसूची के प्रावधानों के दायरे में आता है। प्रमुख क्षेत्र – खासी, गारो और जयंतिया पहाड़ी क्षेत्र।
  • मिज़ोरम: चकमा, मारा, लाई।
  • त्रिपुरा: जनजातीय क्षेत्र स्वायत्त ज़िला परिषद
    • राज्य अधिनियमों द्वारा स्थापित - असम (6), मणिपुर (6)।
    • उत्तर-पूर्वी भारत के बाहर - लेह स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, कारगिल स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद, दार्जिलिंग गोरखा पहाड़ी परिषद।
राज्य विधायी और प्रशासनिक संरचना
अरुणाचल प्रदेश अनुच्छेद 371H. कोई स्वायत्त परिषद, पंचायती राज संस्थाएँ मौजूद नहीं।
असम छठी अनुसूची, अनुच्छेद 371B. तीन स्वायत्त परिषद विद्यमान।
मणिपुर अनुच्छेद 371C, मणिपुर पहाड़ी ग्राम प्राधिकार अधिनियम और मणिपुर पहाड़ी क्षेत्र ज़िला परिषद।
मिज़ोरम छठी अनुसूची, अनुच्छेद 371G. तीन स्वायत्त परिषद विद्यमान।

  • छठी अनुसूची के तहत स्थापित स्वायत्त ज़िला परिषदों (ADC)का आकलन
    • राज्य सरकारों ने यह दृष्टिकोण रखा है कि इन परिषदों को अपनी पारंपरिक भूमिका तक ही सीमित रहना चाहिये, जो कि जनजातीय संस्कृति, भूमि और पहचान की रक्षा करना है और इन्हें विकासात्मक गतिविधियों में संलग्न होने से बचना चाहिये।
    • कई मामलों में राज्य सरकारों ने जानबूझकर परिषदों के कामकाज को बाधित किया है, विशेष रूप से उनके लिये वित्त के प्रवाह को अवरुद्ध करके ऐसा किया गया है।
    • कानून बनाने और विकास कार्यक्रमों को लागू करने के लिये परिषदों को दी गई शक्तियों की वित्तीय स्वायत्तता के साथ संगतता नहीं है।
    • छठी अनुसूची के प्रावधानों के अनुसार परिषदों के नियंत्रण में आने वाली सभी गतिविधियों और विभागों को अभी तक उनके पास स्थानांतरित नहीं किया गया है और न ही ज़िला ग्रामीण विकास एजेंसियों (DRDA) जैसी समानांतर संस्थाएँ मौजूद हैं।
    • विघटन के बाद ADC के पुनर्गठन के लिये कोई अनिवार्य समय सीमा निर्धारित नहीं है और इसलिये उनका चुनाव अनिश्चित काल के लिये स्थगित होता रहता है।
    • संविधान में 73वें संशोधन द्वारा महिलाओं के लिये सभी स्तरों पर कुल पंचायती सीटों के एक तिहाई पर आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन पंचायतों के विपरीत परिषदों में ऐसे आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
    • ADC की प्रतिनिधिक संरचना में आ रहे जनसांख्यिकीय परिवर्तन परिलक्षित नहीं हो रहे। यदि स्थिति की व्यापक समीक्षा नहीं की गई तो भविष्य में छठी अनुसूची क्षेत्र में संघर्षों के प्रमुख स्रोत के रूप में उभर सकती है।
    • स्वायत्त परिषदों को राज्य वित्त आयोग के दायरे में लिया जाना चाहिये, जो कि समय-समय पर वित्तीय स्थिति की समीक्षा करने और राज्य और स्वायत्त परिषद के बीच संसाधन वितरण के उचित सिद्धांतों को निर्धारित करने के लिये सशक्त हो। वित्तपोषण को राज्य सरकारों के मनमाने विवेक पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये।

विमुक्त, घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियाँ

  • वर्ष 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम (CTA): लगभग 200 समुदायों को 'वंशानुगत अपराधी' मान लिया गया था और वे निगरानी, कारावास और घोर भेदभाव के शिकार थे। ऐसा तत्कालीन प्रचलित धारणा के आधार पर किया गया था कि अपराध एक आनुवांशिक लक्षण है, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचरित होता है।
  • सीटीए को अखिल भारतीय आपराधिक जनजाति जाँच समिति (1949) की सिफारिश पर वर्ष 1952 में क़ानून की किताबों से हटा दिया गया और इसके उपरांत आपराधिक जनजाति विमुक्त, (डी-नोटिफाइड) जनजातियों के रूप में जाने जाने लगे
  • घुमंतू और अर्ध-घुमंतू समुदाय विभिन्न पेशों का अभ्यास करते हैं, जिनमें चरवाही और छोटे जीवों का शिकार व खाद्य-संग्रहण प्रमुख है। वे नर्तक, कलाबाज, सपेरे, मदारी आदि के रूप में मनोरंजन के पेशे से भी जुड़े हैं।

विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (Particularly Vulnerable Tribal Groups- PVTGs)

  • कुछ जनजातियों को जनजातीय समूहों के बीच उनकी अधिक 'भेद्यता' के आधार पर विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTGs) (वे पहले आदिम जनजातीय समूहों के रूप में वर्गीकृत थे) के रूप में चिह्नित किया गया है।
  • PVTGs में वर्तमान में 75 जनजातीय समूहों को शामिल किया गया है, जिनकी पहचान निम्न मानदंडों के आधार पर की गई है: वन-निर्भर आजीविका, अस्तित्व का पूर्व-कृषि स्तर, स्थिर या घटती जनसंख्या।
  • 2001 की जनगणना के अनुसार, इन 75 PVTGs की कुल आबादी 27,68,322 थी।
  • सबसे अधिक संवेदनशील समूहों के रूप में अंडमान द्वीप समूह के शोम्पेन, सेंटीनलीज और जारवा, ओडिशा के बोंडो, केरल के चोलानैक्कन, छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़िया और झारखंड के बिरहोर को चिह्नित किया गया है।
  • पीवीटीजी की सूची में शामिल सभी जनजातियों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा नहीं दिया गया है।
  • केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे पीवीटीजी राज्यों में अनुसूचित क्षेत्र नहीं हैं, जिससे इन जनजातियों की भेद्यता बढ़ रही है, क्योंकि इन्हें पाँचवीं अनुसूची और पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 द्वारा प्रदत्त सुरक्षा और अधिकार प्राप्त नहीं हैं।
  • पीवीजीटी के लिये पर्यावास अधिकार, जो वन अधिकार अधिनियम द्वारा गारंटीकृत हैं, प्रदान किए जाने चाहिये और परिभाषात्मक व प्रक्रियात्मक अस्पष्टता को दूर किया जाना चाहिये।

3. आजीविका और रोज़गार की स्थिति

  • परंपरागत रूप से भारत में जनजातियों ने एक ऐसी अर्थव्यवस्था का अनुपालन किया, जो प्रकृति के निकट थी और स्वदेशी तकनीक का उपयोग करती थी। यह वनों और उनके प्राकृतिक आवास में उपलब्ध अन्य प्राकृतिक संसाधनों पर उनकी निर्भरता में परिलक्षित होता है।
  • पारंपरिक जनजातीय अर्थव्यवस्था में, जनजातीय समूहों की विशिष्टता (क) वन-आधारित आजीविका, (ख) पूर्व-कृषि स्तरीय प्रौद्योगिकी, (ग) एक स्थिर या घटती जनसंख्या (घ) अत्यंत कम साक्षरता और (ङ) अर्थव्यवस्था के महज निर्वाह स्तर में चिह्नित की जाती है।
  • पूर्व-स्वतंत्रता काल में झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ की जनजातियों, जैसे-मुंडा, उराँव, संथाल एवं अन्य ने करारबद्ध मज़दूरों के रूप में असम के विशाल चाय बागानों की ओर भी पलायन किया था किंतु, स्वतंत्रता के बाद उन्हें असम में अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल नहीं किया गया है।
  • भारत का मानव विज्ञान सर्वेक्षण:
    • शिकार और खाद्य-संग्रहण का अभ्यास करने वाले समुदायों की संख्या में 24.08 प्रतिशत की गिरावट आई है, क्योंकि जंगल गायब हो गए हैं और वन्यजीव कम हो गए हैं।
    • सरकारी और निजी सेवाओं, स्वरोज़गार आदि में नियोजित अनुसूचित जनजातियों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है।
  • भूमि स्वामित्व: पारिवारिक स्वामित्व धारिता (एचओएच) पर एनएसएसओ द्वारा आयोजित सर्वेक्षण के 59वें दौर के अनुसार, भारत में प्रति परिवार 0.563 हेक्टेयर का औसत भूमि स्वामित्व है; अनुसूचित जनजातियों के लिये यह औसत 0.708 है।
  • 44.9 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति परिवारों के पास बैंक खाते हैं, जो बैंकिंग सेवाओं का लाभ उठा रहे हैं, जबकि देश के सभी परिवारों के लिये यह प्रतिशत 58.7 है।
  • श्रम बल भागीदारी:
    • श्रमिक जनसंख्या अनुपात (WPRs - श्रमिक जनसंख्या अनुपात प्रति हजार व्यक्तियों पर नियोजित व्यक्तियों की संख्या के रूप में परिभाषित किया गया है।)
    • NSSO (2012) के अनुसार, वर्ष 2004-05 और 2009-10 में, ग्रामीण पुरुष अनुसूचित जनजाति का श्रमिक जनसंख्या अनुपात क्रमशः 56.2 प्रतिशत और 55.9 प्रतिशत था, जबकि सभी समूहों के लिये यह अनुपात क्रमशः 54.6 प्रतिशत और 54.7 प्रतिशत था।
    • श्रम बल भागीदारी दर (LFPR- इसे प्रति 1000 व्यक्तियों पर श्रम बल में शामिल व्यक्तियों की संख्या के रूप में परिभाषित किया गया है। कोई भी व्यक्ति जो काम कर रहा है या काम करने के लिये उपलब्ध है, उसे 'श्रम बल' का हिस्सा माना जाएगा।)
    • श्रम और रोज़गार मंत्रालय के श्रम ब्यूरो के तीसरे वार्षिक रोज़गार और बेरोज़गारी सर्वेक्षण (2012-13) के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर अनुसूचित जनजातियों की श्रम बल भागीदारी दर 56.7 प्रतिशत के साथ उच्चतम है और यह समग्र श्रेणी में 50.9 प्रतिशत के साथ निम्नतम है।
    • महिलाओं की श्रम बल भागीदारी दर अखिल भारतीय औसत 22.6 प्रतिशत की तुलना में 33.6 प्रतिशत के साथ अनुसूचित जनजातियों में सर्वाधिक है।
  • बेरोज़गारी दर:
    • बेरोज़गारी दर (श्रम बल में प्रति 1000 व्यक्तियों में बेरोज़गारों की संख्या) और आनुपातिक बेरोज़गारी दर (कुल जनसंख्या में प्रति 1000 व्यक्तियों में बेरोज़गारों की संख्या)।
    • NSSO (2012) के अनुसार, वर्ष 2009-10 में पुरुषों की बेरोज़गारी दर और आनुपातिक बेरोज़गारी दर क्रमशः 17 और 10 थी, जबकि महिलाओं के लिये यह क्रमशः 9 और 3 थी।
  • आय: भारत मानव विकास सर्वेक्षण (IHDS), 2004-05 के अनुसार, अनुसूचित जनजाति परिवारों की वार्षिक आय सामान्य जनसंख्या (72,717 रुपए) की तुलना में सबसे कम थी (32,345 रुपए)।
  • गरीबी: अनुसूचित जनजातियों के लिये पनागरिया एवं अन्य ने गरीबी की दर के अनुमान का अभिकलन प्रतिशत के रूप में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में और संयुक्त (ग्रामीण और शहरी) क्षेत्रों में तेंदुलकर गरीबी रेखा से नीचे रखा। वर्ष 2011-12 की जनगणना के अनुसार जनजातीय आबादी का 45.3 प्रतिशत अभी भी गरीबी रेखा से नीचे है।

अनुशंसाएँ

  • जनजातीय क्षेत्रों में कृषि आधारित प्रशिक्षण संस्थानों और संबंधित श्रम-गहन प्रसंस्करण उद्योगों को स्थापित करने की अत्यंत आवश्यकता है।
  • जनजातीय किसानों के पास उपलब्ध भूमि के सार्थक उपयोग के लिये, उन्हें जैविक खेती और पर्यावरण-वानिकी के लिये प्रेरित किया जाना चाहिये।
  • लोक-केंद्रित भागीदारी के साथ सूक्ष्म जलग्रहण विकास कार्यक्रम का कार्यान्वयन निर्धनता में कमी लाने का सफल तरीका हो सकता है।
  • कानून के सख्त प्रवर्तन से जनजातीय भूमि के प्रत्येक प्रकार के हस्तांतरण पर रोक और पेसा कानून एवं विभिन्न राज्यों के अन्य संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों के अनुरूप ऐसी भूमियों के स्वामित्व की पुनर्बहाली की जानी चाहिये।
  • FRA, 2006 के तहत नई अधिग्रहित भूमि का उपयोग खाद्यान्न की खेती के बजाय इको-फॉरेस्ट्री में किया जा सकता है, जो अनुसूचित जाति के किसानों को अधिक लाभ दे सकता है।
  • केंद्र सरकार की सेवाओं में अधिकांश रिक्तियाँ लंबित हैं और अनुसूचित जनजाति को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है।
  • इसलिये सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र में अनुसूचित जनजाति के लिये नौकरियों के संबंध में एक पारदर्शी नीति का पालन करना चाहिये।
  • जनजातियों को अपने वन पारिस्थितिकी तंत्र और वन-आधारित आजीविका को पुनर्जीवित करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अपने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।

4. शिक्षा

  • ब्रिटिश औपनिवेशिक शिक्षा नीति, जिसने जनजातीय आबादी की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया, के कारण वर्ष 1951 में आदिवासियों की साक्षरता दर केवल 3.46 प्रतिशत थी।
  • भेदभाव के एक स्थल के रूप में शिक्षा: जनजातीय बच्चों के लिये शिक्षण-पाठन हमेशा अनुकूल नहीं होता है। शैक्षणिक वातावरण जनजातीय बच्चों के विरुद्ध पारंपरिक सामाजिक पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं है।
  • 'निःशुल्क' शिक्षा की कमी: जनजातीय बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देने में सरकार की विफलता निजी स्कूलों के लिये शोषणकारी अवसर प्रदान करती है। निजी शिक्षा संस्थान वाणिज्यिक हितों से निर्देशित होते हैं।
  • निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009:
    • यह अधिनियम किसी कारणवश प्रारंभिक शिक्षा छोड़ देने वाले बच्चों को उनके आयु अनुरूप उपयुक्त कक्षा में पुनर्प्रवेश देने का प्रावधान करता है और साथ ही उनके विशेष प्रशिक्षण या अतिरिक्त शिक्षण का भी प्रावधान किया गया है, ताकि वह अन्य बच्चों के समकक्ष लाया जा सके।
    • इसका कार्यान्वयन सामान्य रूप से और जनजातीय बच्चे के संदर्भ में विशेष रूप से करना सरकार के लिये एक कठिन कार्य है।
    • एक जनजातीय बच्चे को उसकी आयु अनुरूप उपयुक्त कक्षा में प्रवेश देने पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होगी, क्योंकि ऐसा अन्य छात्रों के अध्यापन की कीमत पर होगा।
  • अध्यापक और जनजातीय बच्चों को पढ़ाने का तरीका: आदिवासियों के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम विकास और निर्देशात्मक सामग्री के उपयोग के अधिक प्रयास नहीं किए गए हैं।
    • राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2007-08 के आँकड़ों से पता चलता है कि आठवीं अनुसूची में शामिल बोडो, डोगरी और संथाली जैसी जनजातीय भाषाओं का उपयोग क्रमशः केवल 0.11 प्रतिशत, 0.02 प्रतिशत और 0.01 प्रतिशत आदिवासियों द्वारा शैक्षणिक रूप से किया जाता है।
  • आवासीय विद्यालय और जनजाति:
    • प्रभावी रूप से आदिवासियों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के एक तरीके के रूप में सरकार वर्ष 1950 से लेकर वर्तमान नीति तक प्रमुख स्थानों पर उनके लिये आवासीय विद्यालय और छात्रावास खोल रही है। आश्रम स्कूल, एकलव्य मॉडल स्कूल और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय इस दृष्टिकोण से संचालित प्रमुख योजनाएँ हैं।
    • वे संस्थान भ्रष्टाचार, सुविधाओं के कुप्रबंधन और आवासीय बालिकाओं के यौन शोषण के लिये प्रायः समाचारों में आते रहते हैं।
  • जनजातियों के संबंध में शिक्षा और ज्ञान:
    • जनजातियों पर पाठ्यपुस्तक सामग्री और उन्नत ज्ञान की भारी कमी है।
  • जनजातीय शिक्षा में समकालीन चिंताएँ:
    • उच्च ड्रॉपआउट दर: विशेष रूप से माध्यमिक और वरिष्ठ माध्यमिक चरणों में जनजातीय छात्रों के बीच विद्यालय छोड़ने की दर बहुत अधिक है (स्कूल शिक्षा के आँकड़े, 2010-11 के अनुसार दसवीं कक्षा में 73 प्रतिशत, ग्यारहवीं कक्षा में 84 प्रतिशत और बारहवीं कक्षा में 86 प्रतिशत)।
  • RTE अधिनियम के पहले और उपरांत कार्यान्वित ‘नो-डिटेंशन पॉलिसी’ जनजातीय समुदाय के छात्रों को पढ़ने, लिखने और अंकगणित में बुनियादी कौशल हासिल करने का अवसर नहीं देता। पृष्ठभूमि शिक्षा की यह अनुपस्थिति भी ड्रॉपआउट का एक कारण है।

'गुणवत्तायुक्त' शिक्षकों की कमी: RTE अधिनियम के तहत निर्धारित पात्रता मानदंड को पूरा करने वाले शिक्षकों की कमी भी जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा के अधिकार की पूर्ति में एक बाधा है। प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण जनजातीय छात्रों की उपलब्धि का स्तर कम रहता है।

जनजातीय छात्रों के लिये भाषायी बाधाएँ: भारत में अधिकांश जनजातीय समुदायों की अपनी मातृभाषा है, लेकिन अधिकांश राज्यों में, कक्षा शिक्षण के लिये आधिकारिक/क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग किया जाता है, जिन्हें प्राथमिक स्तर पर जनजातीय बच्चे नहीं समझ पाते।

घुमंतू जनजातियों की शिक्षा: घुमंतू जनजातियाँ मौसम, व्यवसायों और आजीविका के अवसरों के आधार पर लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर गमन करती रहती हैं। इस कारण इस समुदाय के बच्चे प्राथमिक स्तर की स्कूली शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।

अनुशंसाएँ

  • जनजातीय क्षेत्रों सहित कहीं भी शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को अपने परिवेश और समाज की समझ प्रदान करना होना चाहिये और उनमें योग्यता का विकास किया जाए, ताकि वे अपने स्थानीय समाज में अथवा जिनके पास इच्छा व क्षमता हो, राष्ट्रीय रोज़गार बाज़ार में आजीविका अर्जित कर सकें।
  • लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये अधिक से अधिक लैंगिक ध्यान और सामाजिक गतिशीलता की आवश्यकता है। शिक्षकों की कमी: जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षकों की अनुपस्थिति के वर्तमान संकट को दूर करने के लिये विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता है, ताकि परीक्षा उत्तीर्ण अधिकाधिक योग्य शिक्षक उपलब्ध हों।
  • नो-डिटेंशन अथवा बच्चों के अगली कक्षा में प्रवेश पर अवरोध न रखने की नीति की समीक्षा की आवश्यकता है। जब छात्र, शिक्षक या छात्र के माता-पिता अगली कक्षा में जाने के लिये उपयुक्त कौशल सक्षमता के लिये ऐसे अवरोधन का अनुरोध करते हों तो उसे अवरुद्ध किया जाना उपयुक्त होगा।
  • उच्च शिक्षा में आदिवासियों के कम प्रतिनिधित्व की समस्या को दूर करने के लिये, विशेष कोचिंग के माध्यम से प्राथमिक और माध्यमिक स्कूली शिक्षा को पुनर्जीवित करना आवश्यक है।
  • एक नए सांस्कृतिक वातावरण के समायोजन की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए, जनजातीय क्षेत्रों के स्कूलों के शिक्षकों को स्थानीय स्तर पर भर्ती किया जाना चाहिये।
  • राज्य सरकारों को बहुभाषी शिक्षा के लिये एक नीति विकसित करनी चाहिये, ताकि स्थानीय भाषा में प्रारंभिक शिक्षा हो सके।
  • पाठ्यक्रम में स्थानीय संस्कृति, लोककथाओं और इतिहास को शामिल करने से जनजातीय बच्चों के आत्मविश्वास का निर्माण करने और उनके जीवन में शिक्षा की प्रासंगिकता बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
  • सरकार को बारहवीं कक्षा तक के लिये वास स्थान के निकट स्थित (दस किलोमीटर के दायरे में) जवाहर नवोदय विद्यालयों, जैसे-सुसंचालित आवासीय विद्यालय स्थापित करने की आवश्यकता है।
  • आवासीय विद्यालयों में, जो प्रायः छात्रों के यौन शोषण की घटनाओं के लिये समाचार में आते हैं, छात्रों को दुर्व्यवहार, उपेक्षा, शोषण और हिंसा से बचाने के लिये मज़बूत तंत्र का निर्माण किया जाना चाहिये।
  • आश्रम स्कूल, एकलव्य मॉडल स्कूल और कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय जैसी योजनाओं को बड़े स्तर पर बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से शैक्षिक हस्तक्षेपों में समुदाय के समावेश को संस्थागत रूप देने की आवश्यकता है। लाभार्थियों के विभिन्न योजनाओं और लाभों के बारे में जानकारी ग्राम सभाओं और ग्राम पंचायतों को प्रदान की जानी चाहिये, जो पारदर्शिता लाएगी और उनके अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाएगी।
  • छात्रवृत्ति के उद्देश्य से शिक्षा के दायरे का विस्तार किया जाना चाहिये और इसमें जनजातीय चित्रकला, कला, शिल्प, गीत, संगीत और नृत्य आदि शामिल होने चाहिये।
  • यह अनुशंसा की जाती है कि पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों वाले प्रत्येक राज्य में UGC द्वारा विश्वविद्यालयों में एक जनजातीय पद (Tribal Chair) की स्थापना की जाए।

5. स्वास्थ्य

  • लिंग अनुपात: देश में सामान्य जनसंख्या के लिये 938 की तुलना में 990 महिलाएँ प्रति 1000 पुरुष के साथ जनजातीय जनसंख्या के अनुकूल लिंगानुपात को दर्शाता है (भारत की जनगणना, 2011 के अनुसार)।
  • प्रजनन दर: एनएफएचएस 3 (2005-06) के अनुसार, अनुसूचित जनजाति की आबादी के अंदर अनुमानित कुल प्रजनन दर (TFR) शेष आबादी के लिये 2.4 की तुलना में लगभग 3.1 थी।
  • रोग प्रारूप: भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) अपने विभिन्न राष्ट्रीय संस्थानों और केंद्रों के माध्यम से विभिन्न राज्यों में कुछ जनजातियों के बीच कुछ रोगों पर आँकड़ें एकत्र करता है।
    • कुपोषण- जन्म के समय कम वजन, बच्चों का अल्प पोषण, वयस्कों के शरीर का निम्न आकार, एनीमिया, आयरन और विटामिन ए व बी की कमी।
    • मातृ और बाल स्वास्थ्य समस्याएँ- उच्च शिशु मृत्यु दर(IMR), पाँच वर्ष से कम आयु में मृत्यु दर (U5MR), नवजात मृत्यु दर(NMR), तीव्र श्वसन संक्रमण और दस्त।
    • संचारी रोग- मलेरिया, फाइलेरिया, तपेदिक, कुष्ठ, त्वचा संक्रमण, यौन संचारित रोग, एचआईवी, टाइफाइड, हैजा, दस्त-संबंधी रोग, हेपेटाइटिस, और वायरल बुखार।
    • मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ- विशेषकर उपद्रव प्रभावित क्षेत्रों में।

अनुशंसाएँ

  • समिति ने कार्यक्रमों को बेहतर बनाने के लिये तीन प्रकार के मौजूदा संस्थागत तंत्र का उपयोग करने का सुझाव दिया है।
    • जनजातीय स्वास्थ्य सभा: ग्राम स्तर पर ग्राम सभा से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक जनजातीय स्वास्थ्य सभाओं का प्रतिवर्ष आयोजन किया जाना चाहिये, जिसमें लोग (ग्राम स्तर पर) या उनके प्रतिनिधि (उच्च स्तर पर) भाग लें।
    • जनजातीय स्वास्थ्य परिषद: इनका गठन कार्यक्रमों की योजना और निगरानी के उद्देश्य से निर्वाचित प्रतिनिधियों, गैर-सरकारी संगठनों, विशेषज्ञों और सरकारी अधिकारियों को शामिल करके किया जाना चाहिये।
  • ऐसी परिषदों का गठन ब्लॉक या ITDP स्तर, ज़िला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर किया जाना चाहिये।

राज्य स्तर पर जनजातीय सलाहकार परिषद: इन परिषदों के पास जनजातीय स्वास्थ्य परिषदों द्वारा तैयार की गई स्वास्थ्य योजनाओं को मंज़ूरी देने और कार्य निष्पादन की समीक्षा करने की शक्ति हो।

  • भारत में विद्यमान लगभग 700 जनजातियों के बीच भारी विविधता को देखते हुए दूसरा प्रमुख सिद्धांत यह हो कि क्षेत्र-विशिष्ट और जनजाति के प्रति संवेदनशील स्थानीय योजना निर्माण हो। पेसा अधिनियम इसके लिये एक संस्थागत आधार प्रदान करता है।
  • सदियों के वैज्ञानिक ज्ञान के अंतर को पाटने के लिये, अनुसूचित क्षेत्रों की स्वास्थ्य देखभाल के लिये 'स्वास्थ्य साक्षरता' के प्रसार को सर्वोपरि महत्त्व देना चाहिये, जहाँ व्यापक शैक्षिक विधियों, लोक मीडिया, आधुनिक मीडिया और स्कूल पाठ्यक्रम के माध्यम से इनका व्यापक प्रसार हो।
  • आंगनवाड़ियों को प्राथमिक स्वास्थ्य ज्ञान केंद्र में बदला जा सकता है।
  • पारंपरिक ओझाओं व वैद्यों को दूर हटाने या अस्वीकार करने के बजाय उन्हें स्वास्थ्य देखभाल सेवा में शामिल करने अथवा उनका सहयोग लेने के एक संवेदनशील तरीके की तलाश करनी चाहिये।
  • अनुसूचित क्षेत्रों में बाह्य क्षेत्रों के चिकित्सकों, नर्सों और अन्य तकनीकी कर्मियों को तैनात करने में होने वाली ज्ञात कठिनाइयों ने मानव संसाधनों की समस्या पैदा की है। इन अभ्यर्थियों को स्थानीय होना चाहिये, अनुसूचित जनजातियों से संबंधित होना चाहिये, स्थानीय जनजातीय बोलियों में प्रवीण होना चाहिये, योग्यता के आधार पर इनका चयन हो और कम से कम दस वर्षों के लिये स्थानीय अनुसूचित क्षेत्र में सेवा करने के लिये वे प्रतिबद्ध हों।
  • जनजातीय स्वास्थ्य योजना के प्रस्तावित लक्ष्य:
    • वर्ष 2020 तक भारत में अनुसूचित जनजाति आबादी के लिये स्वास्थ्य और पोषण विषय में सहस्राब्दी विकास लक्ष्यों (2015) को प्राप्त करना।
    • वर्ष 2025 तक अनुसूचित जनजाति आबादी के स्वास्थ्य, स्वच्छता और पोषण की स्थिति को संबंधित राज्यों की गैर-अनुसूचित जनजाति के समकक्ष स्तर पर लाना।
    • वर्ष 2025 तक सार्वजनिक स्वास्थ्य कवरेज (2011) पर उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुरूप अनुसूचित क्षेत्रों में स्वास्थ्य देखभाल के प्रावधान के लिये आवश्यक मानव संसाधनों का सृजन करना।
    • वर्ष 2017 तक सभी स्तरों पर वार्षिक जनजातीय स्वास्थ्य योजनाएँ तैयार करना।
    • अनुसूचित जनजाति की आबादी के अनुपात में कुल स्वास्थ्य क्षेत्र योजना और गैर-योजना बजट का 8.6 प्रतिशत वार्षिक आवंटन और व्यय करना, साथ ही जनजातीय स्वास्थ्य योजना के कार्यान्वयन के लिये टीएसपी के 10 प्रतिशत का आवंटन व व्यय।

6. भूमि हस्तांतरण, विस्थापन और बाध्य प्रवासन

  • भारत के जनजातीय समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हैं जो खनिज और वन आवरण से समृद्ध हैं। भूमि उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक व धार्मिक पहचान, आजीविका और उनके अस्तित्व का आधार है।
  • परंपरागत रूप से, भूमि का स्वामित्व सामुदायिक रहा है और आर्थिक गतिविधियाँ झूम खेती सहित मुख्यतः कृषकीय रही हैं, जिसने समतावादी मूल्यों को बढ़ावा दिया और इसने उनके शक्ति संबंधों और संगठनात्मक प्रणाली को प्रभावित किया।
  • यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसके अंतर्गत जंगल तक पहुँच में कमी और अपनी भूमि से अनैच्छिक विस्थापन के कारण जनजातीय लोगों के जीवन में आने वाली तबाही को समझना आवश्यक है।
  • रेलवे जैसे बुनियादी ढांचे के निर्माण हेतु वन भूमि के अधिग्रहण के लिये लाए गए भारतीय वन अधिनियम, 1865 (1878, 1927 में संशोधन) ने राज्य को व्यावसायीकरण के उद्देश्य से वन भूमि पर एकाधिकारवादी नियंत्रण का अवसर दिया।
    • स्वतंत्रता के बाद भी, इस अधिनियम के प्रावधान के अंतर्गत राज्य द्वारा सर्वोपरि नए अधिकारों के माध्यम से इस क्षेत्र के मूल निवासियों की कृषि को अवैध घोषित किया गया।

जनजातीय भूमि हस्तांतरण के तरीके:

  • संविधान की पाँचवीं अनुसूची भूमि की सुरक्षा और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण व उन्नति के लिये प्रावधान करती है।
  • संविधान की छठी अनुसूची: स्वायत्त ज़िलों और स्वायत्त क्षेत्रों को भूमि के संबंध में, किसी भी वन (जो आरक्षित वन नहीं हों) के प्रबंधन के संबंध में, संपत्ति के उत्तराधिकार के संबंध में अधिनयम बनाने की शक्ति प्राप्त है।
  • आरक्षित वनों और संरक्षित वनों को वैधानिक अधिकार चकबंदी के दायरे से बाहर लाकर जनजातीय लोगों के वन अधिकारों को समाप्त कर दिया गया।
  • वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972, वन संरक्षण अधिनियम, 1980, वृक्ष निवारण अधिनियम और वन नीति, 1988 ने भी जनजातीय लोगों को प्रभावित किया।
  • भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में सन्निहित उचित मुआवजे और पारदर्शिता के अधिकार ने समग्र पुनर्वास को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया और परियोजना से प्रभावित लोगों को इसके दायरे में लिया किंतु, इस नए कानून के अस्तित्व में आने से पहले तक सर्वोपरि अधिग्रहण अधिकार के दुरुपयोग से पर्याप्त नुकसान किया जा चुका है।

अनुशंसाएँ

  • विस्थापन में कमी लाने के लिये राज्य द्वारा गंभीर प्रयास की आवश्यकता है। समग्र पुनर्वास के लिये एक अधिकार-आधारित दृष्टिकोण होना चाहिये।
  • भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में सन्निहित उचित मुआवजे और पारदर्शिता का अधिकार अपने अभिप्राय में प्रगतिशील है। हालाँकि नए कानून में 'सार्वजनिक उद्देश्य' की परिभाषा बहुत व्यापक है और इससे अनुसूचित क्षेत्रों में और अधिक अधिग्रहण और विस्थापन को अवसर मिलेगा।
  • भूमि अधिग्रहण के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी प्रारूप भूमि के हस्तांतरण का एक अप्रत्यक्ष तरीका है।
  • केंद्र व राज्य के सार्वजनिक उपक्रमों और केंद्र/राज्य सरकारों के पास बहुत सी अप्रयुक्त जनजातीय भूमि बेकार पड़ी है और जिस उद्देश्य से इनका अधिग्रहण किया गया था, वहाँ इनका उपयोग नहीं हुआ।
  • सरकारों के ऊपर यह कानूनी बाध्यता होनी चाहिये कि वे ऐसी भूमियों को मूल भूस्वामी या उनके उत्तराधिकारियों को वापस करे अथवा इन भूमियों का उपयोग विस्थापित जनजातियों, आदिवासियों के पुनर्वास के लिये करें।
  • जनजातीय क्षेत्रों में औद्योगिक और खनन परियोजनाओं से प्रदूषित हुई भूमि और जल स्रोतों पर ध्यान देने की आवश्यकता है और सुधारात्मक उपाय अपनाने का दायित्व है।
  • छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर में संघर्ष/उग्रवाद से विस्थापित हुए जनजातीय लोगों को राज्य सरकार द्वारा उनके गांवों में पुनर्वासित किया जाना चाहिये और उन्हें आवास, सुरक्षित पेयजल, स्वास्थ्य व शिक्षा, कौशल विकास, बिजली की आपूर्ति, सिंचाई की सुविधा और कृषि की सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिये।
  • पेसा अधिनियम, 1996 के अनुसरण में सभी पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों के भूमि हस्तांतरण विनियमों/किरायेदारी कानूनों को उपयुक्त रूप से संशोधित किया जाना चाहिये, ताकि जनजातीय लोगों के लिये भूमि की पहचान, परीक्षण और पुनर्स्थापन में ग्राम सभा की भागीदारी सुनिश्चित हो सके।

7. विधिक और संवैधानिक मुद्दे

वन अधिकार अधिनियम, 2006

  • भारतीय वन अधिनियम, 1927 और इसके पूर्ववर्ती अधिनियम 1878 में वन संसाधनों पर नियंत्रण राज्य में निहित था। वन क्षेत्र में कुल भूमि के 23 प्रतिशत में विस्तृत है और गुजरते वर्षों में वन समुदायों को अतिक्रमणकारियों और वन क्षेत्रों में उनकी गतिविधियों को 'वन अपराधों' के रूप में देखा गया।
  • आदिवासियों, वन निवासियों एवं अन्य आश्रित समुदायों के ऊपर से अवैधता का बोझ हटाने में वन अधिकार अधिनियम (FRA) का लागू होना एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कदम रहा।
  • एफआरए यह निर्धारित करता है कि वन-निवासी अनुसूचित जनजातियाँ और अन्य पारंपरिक वन निवासी (OTFDs) को उनके अधिकारों की मान्यता और सत्यापन की प्रक्रिया पूरी होने तक उनके कब्जे की वन भूमि से बेदखल नहीं किया जा सकता। वन अधिकार समिति (FRC) ने ज़मीनी स्तर पर पाया कि अधिनियम के इस प्रावधान का उल्लंघन किया गया है।

पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996

  • भूमि अधिग्रहण प्रस्तावों पर निर्णय करते समय सरकारी अधिकारियों द्वारा ग्राम सभा से केवल नाममात्र का परामर्श लिया जाता है।
  • जाली और चालाकीपूर्ण तरीके से प्रस्तुत ग्राम सभा प्रस्तावों, भूमि अधिग्रहण से पहले सहमति की कमी और अन्य गंभीर मुद्दे अभी भी पेसा अधिनियम के कार्यान्वयन में बाधा बने हुए हैं।

जनजातीय क्षेत्रों में आपराधिक कानून का अनुपालन

  • भूमि अधिग्रहण, विस्थापन और पूर्व मुद्दों को निपटाए बिना ही नई परियोजनाओं की शुरुआत ने विभीन्न प्रकार के विरोध को जन्म दिया है। स्थानीय लोगों की शिकायत रही है कि जब उनके सामने प्रस्तुत परियोजना के प्रस्ताव के विरूद्ध उन्होंने आवाज उठाई तो उनके विरुद्ध आपराधिक मामले दर्ज कर दिए गए।

सलवा जुडूम

  • सलवा जुडूम (जिसे शांति मार्च अथवा शुद्धिकरण शिकार के रूप में अनुवादित किया जाता है) बस्तर क्षेत्र में कार्यान्वित एक सरकारी पहल थी। इसका गठन वर्ष 2005 में किया गया था, ताकि क्षेत्र में नक्सलियों की उपस्थिति का मुकाबला किया जा सके। इसका मुख्य आधार SPO (विशेष पुलिस अधिकारी) थे, जो स्थानीय जनजातीय युवा थे (16 वर्ष के किशोरों तक को इसमें शामिल किया गया), उन्हें भर्ती किया गया, उन्हें भुगतान किया जाता था, उन्हें हथियार दिए गए और नक्सलियों से लड़ने का काम सौंपा गया। इसके परिणामस्वरूप एक नागरिक संघर्ष का जन्म हुआ जिसने पूरे ग्राम के विस्थापन, बलात्कारों, शक्ति के दुरुपयोग, हत्याओं और घरों को जलाने जैसे दृश्य उत्पन्न किए।

नियामगिरी का अनुभव

  • नियामगिरी की पहाड़ियों में विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह ‘डोंगरिया खोंड’ का निवास है। डोंगरिया खोंड ने क्षेत्र में वेदांता एल्युमिनियम लिमिटेड द्वारा बॉक्साइट के खनन का पुरजोर विरोध किया। 18 अप्रैल, 2013 को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि प्रस्तावित खनन से प्रभावित होने वाले अधिकारों पर ग्राम सभा का परामर्श व सहमति आवश्यक है।
  • इस प्रस्तावित खनन को क्षेत्र की सभी ग्राम सभाओं द्वारा स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया गया।

प्रवासन और शोषणकारी श्रम के मामले

  • 2001-11 के दौरान शहरी जनजातीय आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो कि उनके बाध्य प्रवासन ('पुश' माइग्रेशन) का संकेतक है, जिसके परिणामस्वरूप बंधुआ मजदूरी के रूप में उनके शोषण की स्थिति बनी है।

अनुशंसाएँ

  • छठी अनुसूची के प्रारूप का विस्तार पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों में स्वायत्त परिषदों के रूप में करने की तत्काल आवश्यकता है, जैसा प्रावधान पंचायतों के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 में किया गया है।
  • हालाँकि PESA,1996 और FRA, 2006 का अनुपालन अनिच्छा से ही हुआ है। इनके कार्यान्वयन की प्रक्रिया का समर्थन करने के लिये संस्थागत प्रणाली को सशक्त करने की आवश्यकता है, जिसमें ग्राम सभाओं को मज़बूत करना भी शामिल है।
  • वन, वन उत्पाद और महिलाओं के जीवन के बीच घनिष्ठ संबंध को देखते हुए, एफआरए अधिनियम के प्रावधान अनुरूप ग्राम सभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व स्थापित करना आवश्यक है।
  • सरकारी अधिकारी, जो जनजातीय भूमि की हानि को रोकने की एजेंसी थे, वे परियोजना अधिकारियों की ओर से मध्यस्थ की भूमिका में उतरते जा रहे हैं। इस प्रवृत्ति पर रोक लगाए जाने की आवश्यकता है।
  • ऐसे मामले सामने आए हैं, जहाँ ग्राम सभा की सहमति फर्जी तरीके से प्राप्त की गई या जाली सहमति दर्ज कर दी गई। इस तरह के आचरण के लिये दंड की व्यवस्था होनी चाहिये और ऐसी फर्जी सहमति के आधार पर आगे बढ़ी परियोजनाओं को जारी रखने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
  • संविधान का अनुच्छेद 243-ZC पाँचवीं अनुसूची क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों में नए नगरपालिकों के निर्माण का प्रावधान करता है। ऐसे कार्यान्वयन संसद द्वारा अधिनियमित कानून के माध्यम से आगे बढ़ने चाहिये।
  • राज्यों और कंपनियों के बीच हस्ताक्षरित समझौता ज्ञापनों, जिनमें राज्य को पर्यावरणीय और वन सम्बन्धी मंज़ूरी देने का अधिकार है, की समीक्षा होनी चाहिये।
  • सार्वजनिक नीति और अभ्यास को नियामगिरि के अनुभव और सलवा जुडूम के प्रतिकूल सबक के आधार पर तैयार किया जाना चाहिये।
  • राज्य के एक उपकरण के रूप में आपराधिक कानून का उपयोग असहमति को दबाने के लिये किया जा रहा है। आदिवासियों और उनके प्रतिरोध के समर्थकों के विरुद्ध दर्ज मामलों की जाँच के लिये न्यायिक आयोग की नियुक्ति करने की आवश्यकता है। केवल ऐसा करके ही उन चिंताओं को संबोधित किया जा सकता है, जो राज्य द्वारा आपराधिक कानून के दुरुपयोग के बारे में बढ़ी हैं।
  • विमुक्त जनजातियाँ माँग करती रही हैं कि उनके जीवन से कलंक और पूर्वाग्रह को दूर करने के लिये कदम उठाए जाएँ। वर्ष 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम को वर्ष 1952 में निरस्त तो कर दिया गया, लेकिन इसके स्थान पर आदतन अपराधी अधिनियम (हैबिटेड ऑफेंडर्स एक्ट) लागू कर दिया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत जनजातियों को कलंकित किया जाना जारी है। आदतन अपराधी अधिनियम को निरस्त किया जाना चाहिये और विमुक्त व खानाबदोश जनजातियों का पुनर्वास करना चाहिये।
  • भिक्षुक विरोधी कानून करतब और कलाबाजी जैसी उनकी प्रतिभाओं को एक दंडनीय आचरण में बदल देता है। महिलाओं का पूरा समुदाय विकल्पहीनता की स्थिति में वेश्यावृत्ति की ओर धकेला जाता है। ऐसे कानूनों को निरस्त किया जाना चाहिये।
  • बंधुआ मज़दूरी और जनजातीय क्षेत्रों की महिलाओं की बड़े पैमाने पर मानव तस्करी पर रोक के लिये ठोस प्रयास की आवश्यकता है।

8. सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं का वितरण

भारत में योजना प्रक्रिया ने अपनी स्थापना के समय से ही अनुसूचित जनजातियों सहित वंचित समुदायों को शामिल करने पर जोर दिया है। प्रारंभ में इसने अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिये पर्याप्त संसाधनों को निर्देशित करने के साथ-साथ वस्तुओं और सेवाओं के वितरण के लिये संस्थानों और तंत्रों की स्थापना पर ध्यान केंद्रित किया।

  • हालाँकि, ये पूरी तरह से जनजातीय लोगों के हितों की सेवा नहीं कर सके।
  • पाँचवीं पंचवर्षीय योजना (1974-79) के दौरान, जनजातीय उप-योजना (टीएसपी) की रणनीति को अपनाया गया।
  • योजना आयोग द्वारा जारी दिशा-निर्देश के अनुसार, जनजातीय उप-योजना निधि को गैर-अंतरित और गैर-व्यपगत (Non-divertible and non-lapsable) होना था लेकिन टीएसपी के लिये निर्धारित अधिकांश धनराशि को अन्य क्षेत्रों और उद्देश्यों की ओर मोड़ दिया गया और उनमें से कुछ अनुचित उपयोग या प्रशासनिक मशीनरी की विफलता के कारण व्यपगत भी हो गए।
  • उप-योजना दृष्टिकोण के अनुसार, केंद्र सरकार के लिये यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि उसके कुल योजना बजट में से कम से कम 8.6 प्रतिशत (2011 की जनगणना के अनुसार) अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिये रखा गया हो।
  • लेकिन अनुसूचित जनजाति की आबादी के अनुपात में जनजातीय उप-योजना (टीएसपी) के लिये बजट आवंटन में गिरावट गंभीर चिंता का कारण है।
  • ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने वाली अनुसूचित जनजाति अपनी पहचान, सामुदायिक एकजुटता, भूमि और राशन कार्ड जैसे अधिकारों और सामान्य संसाधनों से वंचित रह जाती है।

अनुशंसाएँ

  • उत्तर-पूर्वी भारत सहित विभिन्न राज्यों में जनजातियों की फैली हुई आबादी और विस्थापित (बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं, उपद्रवों आदि के कारण) आबादी मौजूद है, जिनके कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिये कोई समर्पित एजेंसी मौजूद नहीं है। विशिष्ट जनजातीय समूहों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये छोटे-छोटे खंडों में नई सूक्ष्म एजेंसियों के गठन की आवश्यकता है।
  • मनरेगा और एफआरए के कार्यान्वयन के लिये सहायक कर्मचारियों के अभाव के परिणामस्वरूप इन कार्यों की देखरेख के लिये उपलब्ध निधियों का कम उपयोग हुआ है।
  • कई जनजातियाँ शहरी क्षेत्रों में पलायन कर गई हैं और वे मज़दूरी से निर्वाह कर रहे हैं। यह आवश्यक होगा कि राज्य उल्लेखनीय अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाले शहरी क्षेत्रों में सूक्ष्म परियोजनाओं के निर्माण की दिशा में काम करें।
  • अधिकांश जनजातीय अनुसंधान संस्थान (TRI) वित्तीय और मानव संसाधन की कमी का सामना कर रहे हैं और उनके लिये अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से पूरा करना कठिन हो रहा है। इन संस्थानों द्वारा अनुसंधान और प्रशिक्षण गतिविधियों को सशक्त और व्यापक बनाने की तत्काल आवश्यकता है।
  • मानव विज्ञान सर्वेक्षण (AnSI) संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत कार्यरत कई संगठनों में से एक है। एएनएसआई का प्राथमिक कार्य जनजातियों का अध्ययन करना है। यदि इसे जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अंतर्गत लाया जाए तो यह एक मज़बूत संगठन बन सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 275(1) के तहत राज्यों को अनुदान देने के लिये जनजातीय मामलों के मंत्रालय के लिये उपलब्ध निधि में पर्याप्त वृद्धि की आवश्यकता है, ताकि जनजातीय क्षेत्रों में संस्थानों को सशक्त करने और प्रशासन के उन्नयन के लिये मंत्रालय राज्यों को व्यापक सहयोग प्रदान कर सके।
  • संक्षेप में जनजातीय समुदाय के मूल्यों और संस्कृति की उपेक्षा हो रही है, मौजूद सुरक्षात्मक विधानों का उल्लंघन हो रहा है, वे गंभीर भौतिक अभाव व सामाजिक वंचना तथा आक्रामक संसाधन अलगाव का सामना कर रहे हैं। इसलिये, इन मुद्दों का समाधान जनजातियों के हितों की रक्षा के लिये आवश्यक है।
  • एक सशक्त नागरिक और एक कार्यशील, भागीदारीपूर्ण (महिलाओं की भागीदारी सहित) स्वशासन एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिये सर्वोत्कृष्ट गारंटी है।
  • जनजातीय लोगों और उनके पर्यावास के लिये सामाजिक-आर्थिक प्रगति में उपयुक्त हिस्सेदारी, जिसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, आजीविका, पेयजल, स्वच्छता, सड़क, बिजली और स्थायी आय जैसी सुविधाओं की स्व-स्थाने (इन-सिटू) उपलब्धता हो।
  • जनजातीय समुदायों की भूमि और वन अधिकारों की रक्षा उनकी आजीविका, जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करने के समान है।
  • जनजातीय भूमि के प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार को संरक्षित किया जाना आवश्यक है। उन्हें केवल गाँवों की ग्राम सभाओं की सहमति से प्राप्त किया जाना चाहिये।
  • हालाँकि, जनजातीय क्षेत्र राष्ट्र की अधिकांश प्राकृतिक और खनिज संपदा का संग्रह रखते हैं, लेकिन इन संसाधनों को उनकी इच्छा के विरुद्ध हस्तांतरित नहीं किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, जो समुदाय अपनी भूमि का हस्तांतरण करते हैं, उन्हें इसके संसाधनों से उत्पन्न धन और आय में हिस्सेदारी का अधिकार है। अतः उनके गृह क्षेत्र में संसाधनों से सृजित धन में उन्हें एक उचित हिस्सा प्रदान करना कानून द्वारा तय किया जाना चाहिये।
  • भाषा, संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण और अस्मिता की हानि से स्वयं की रक्षा के उनके अधिकार को चिह्नित, संरक्षित, दर्ज करने और उन्हें एक गतिशील जीवित संस्कृति के रूप विकास करने का अवसर देने की आवश्यकता है।