दूसरी ए.आर.सी. रिपोर्ट- विवाद सुलझाने के लिये क्षमता निर्माण | 03 Aug 2019
अध्याय 1 : परिचय
विवाद की परिभाषा दो अथवा अधिक पक्षकारों के बीच एक ऐसी स्थिति के रूप में की गई है जो अपने परिदृश्य को असंयोज्य समझते हैं। विवादों का एक नकारात्मक लाभप्रद अर्थ अभिधान है किंतु कुछ विवाद वांछनीय हैं क्योंकि उनसे परिवर्तन आता है।
सोलहवीं शताब्दी के एक कवि जॉन डोने ने लिखा था, ‘‘कोई भी व्यक्ति अपने आपमें एक द्वीप नहीं हैं।’’ व्यक्ति अपने आपको अनेक समूहों के सदस्य समझते हैं जो अपने अनेक हितों पर बल देते हैं। उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की भौगोलिक उत्पत्ति, लिंग, श्रेणी, भाषा, राजनीति, वांशिक प्रथा, व्यवसाय और सामाजिक प्रतिबद्धताएँ उसे विभिन्न समूहों का सदस्य बनाती हैं। इनमें से प्रत्येक समूह, जिससे व्यक्ति संबंधित है, उसे एक विशेष पहचान प्रदान करते हैं, किंतु सभी को मिलाकर उसकी अनेक पहचान है।
पहचान की खोज एक सशक्त मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक ताकत है जिसने मानव सभ्यता को बढ़ावा दिया है। पहचान प्राय: एक आह्वान है। यह एक भ्रम अथवा कल्पित समुदाय से संबंधित है जिसमें राजनीतिक अभिप्रेरण के लिये आवश्यक सभी शक्ति और क्षमता मौजूद है। पहचान की भावना किसी व्यक्ति के अन्यों के साथ, जैसे कि उसके पड़ोसी, उसके समुदाय के सदस्यों, साथी नागरिकों अथवा एक ही धर्म का पालन करने वाले लोगों के साथ, संबंधों में ताकत और उकसाहट पैदा करने में अपार योगदान कर सकती है और फिर भी पहचान से आघात भी पहुँच सकता है।
बहुत से मामलों में किसी एक समूह से संबंधित होने की एक मज़बूत तथा अनन्य भावना से विवाद उत्पन्न हो सकता है। आजकल अनेक विवाद एक अनूठी और पसंदहीन पहचान के भ्रम के ज़रिये बने हुए हैं। ऐसे मामलों में, घृणा पैदा करने की कला कुछ कथित प्रभावशाली पहचान की कल्पित शक्ति प्राप्त करने का रूप ले लेती है जो अन्यों पर बिल्कुल हावी हो जाती है। उपयुक्त उकसाहट के साथ, एक समूह के लोगों के साथ पहचान की एक थोपी गई भावना प्राय: अन्यों पर अत्याचार करने का एक सशक्त साधन बन जाता है तथा उसका नतीजा घृणा और हिंसा की तीव्रता समाज के ताने-बाने के लिये एक वास्तविक खतरा पैदा करती है।
अध्याय 2: विवाद समाधान-एक वैचारिक ढाँचा
संघर्ष के स्तर-एक जीवन चक्र दृष्टिकोण
कोई संघर्ष एकल घटना लक्षण नहीं है बल्कि एक गतिशील प्रक्रिया है जिसके भिन्न-भिन्न चरण हैं-
- वैयक्तिक अथवा सामाजिक तनाव: ऐसे तनाव तब उत्पन्न होते हैं जब कोई व्यक्ति या समूह यह महसूस करे कि उसके साथ गलती हुई है अथवा उसे उसका उचित हक प्राप्त नहीं हुआ है।
- अंतर्निहित विवाद: तनाव की वजह से अन्याय की भावना पनपती है और धीरे-धीरे असंतोष पनपता है। तथापि, इस स्तर पर, इन तनावों में अधिकारियों आदि के साथ अनुरोध का रूप शामिल हो सकता है।
- तनावों में वृद्धि: प्रशासन द्वारा अनसुनी शिकायतें, उपेक्षित चिंताएँ और तनावों की वजह से असंतोष में और वृद्धि होती है।
- विस्फोट: यदि तनावों का उपयुक्त रूप से समाधान न किया गया तो थोड़ी सी चिनगारी से हिंसा भड़क सकती है।
- ठहराव: यह स्थिति अंतर्निहित तनाव जैसी है और नियंत्रित अंतरालों पर फूट पड़ने की संभावना रहती है।
विवाद समाधान और संविधान
- संविधान में प्रजातांत्रिक प्रक्रिया और प्रौढ़ मताधिकार का मार्ग चुना गया।
- भारत के संविधान में, एक मज़बूत संघ के साथ बहुवाद, संघवाद की व्यवस्था करके समाज के अल्प सुविधा प्राप्त वर्गों के आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लिये, देश में विविध समूहों के लिये माहौल तैयार किया गया जिससे कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में भागीदार कायम हो सके।
- एक सशक्त और स्वतंत्र न्यायपलिका की व्यवस्था करने के अलावा, संविधान में विवादों के निपटान के लिये संस्थानों के सृजन की व्यवस्था की गई है, जैसे कि जल विवाद, राज्यों के बीच विवाद आदि।
- विवादों निपटान करने के लिये राज्य को क्या करना चाहिये? आर्दशत: राज्य को विवाद की जड़ पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिये तथा उससे पहले कि समस्याएँ बड़ी बन जाएँ और संघर्ष में बदल जाएँ, उनका समाधान खोजा जाना चाहिये। एक बार उनका पता लग जाने पर, उपयुक्त प्रशासनिक व संस्थागत उपाय खोजे जाने और ऐसे संघर्षों की संभावना को न्यूनतम करने मदद देने के लिये उनका उत्साहपूर्वक पालन किया जाना चाहिये।
अध्याय 3: वाम उग्रवाद (Left Extremism)
A. वाम उग्रवाद: प्रसार और तीव्रता
वाम उग्रवाद प्रकोप, जिसे बाद में नक्सली आंदोलन के नाम से जाना जाने लगा, प. बंगाल में दार्जिलिंग ज़िले के तीन पुलिस स्टेशन इलाकों (नक्सलबाड़ी, खोरीबाड़ी और फांसीदेवा) में मार्च 1967 शुरू हुआ। आंदोलन का नक्सलबाड़ी चरण (1967-68) ने मई-जून 1967 के दौरान तेज़ी पकड़ी किंतु जुलाई-अगस्त 1967 तक उस पर नियंत्रण पा लिया गया। आजकल, वाम उग्रवाद आंदोलन एक जटिल कड़ी है जो बहुत से राज्यों में पैला है। गृह मंत्रालय के अनुसार इस समय नौ राज्यों, यथा- आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और प. बंगाल में 76 ज़िले चरमपंथी वाम उग्रवाद से प्रभावित है जिन्होंने एक लगभग सतत् नक्सल गलियारा बना लिया है।
B. आंदोलन की प्रकृति
वाम उग्रवादी आंदोलन मुख्यत: कृषि संबंधी रहा है कि इसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में असंतोष और कुशासन को अभिप्रेरित करना है।
C. वाम उग्रवाद के प्रसार के कारण
1. भू-संबद्ध कारक
- भू-सीमा कानूनों का उल्लंघन
- समाज के सशक्त वर्गों द्वारा सरकारी और सामुदायिक ज़मीनों पर अनधिकृत कब्ज़ा।
- भूमिहीन गरीबों द्वारा जोती जाने वाली सरकारी भूमि पर हकदारी का अभाव।
2. विस्थापन और ज़बरदस्ती बेदखली
- जनजातियों द्वारा पारंपरिक रूप से प्रयुक्त भूमियों से बेदखली।
- पुनर्वास हेतु पर्याप्त व्यवस्था किये बिना सिंचाई और विद्युत परियोजनाओं के कारण विस्थापन।
- समुचित हर्जाने और पुनर्वास के बिना सार्वजनिक प्रयोजनार्थ बड़े पैमाने पर भू-अधिग्रहण।
3. आजीविका-संबद्ध कारण
- खाद्य सुरक्षा का अभाव- सार्वजनिक वितरण प्रणाली
- साझे संपत्ति संसाधनों में पारंपरिक अधिकारों से वंचना।
4. सामाजिक बहिष्कार
- सम्मान न दिया जाना।
- कुछ क्षेत्रों में, विभिन्न रूपों में अस्पृश्यता प्रथा का जारी रहना।
- अत्याचारों को रोकने, नागरिक अधिकारों के संरक्षण और बँधुआ मज़दूरी आदि संबंधी विशेष कानूनों का घटिया अनुपालन।
5. सरकार संबद्ध कारक
- अनिवार्य सार्वजनिक सेवाओं में भ्रष्टाचार और संतोषजनक ढंग से प्रदान किया जाना/प्रदान न किया जाना, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा सहित।
- अक्षम, कु-प्रशिक्षित और असंतोषजनक प्रेरणा वाले सरकारी कार्मिक जो अपनी तैनाती के स्थान से अधिकांशत: अनुपस्थित रहते हैं।
- पुलिस द्वारा शक्तियों का दुरूपयोग और कानून के मानदंडों का उल्लंघन।
- मतदान राजनीति की विकृति और स्थानीय शासन संस्थानों का असंतोषजनक कामकाज।
D. वाम उग्रवादी संघर्षों का समाधान- सफलताएँ और असफलताएँ
बहुत से वाम उग्रवादी आंदोलनों का, विशेष रूप से नक्सलवादी के उत्थान का, सफलतापूर्वक समाधान हो सकता है।
- वर्ष 1972 के बाद से, प. बंगाल सरकार ने नक्सल प्रभावित ज़िलों में अनेक सुधारात्मक उपाय किये। छोटे किसानों को इनपुट और ऋण मुहैया कराने के लिये एक विस्तृत क्षेत्र विकास कार्यक्रम (CADP) प्रारंभ किया गया तथा सरकार ने उनके उत्पाद के विपणन की ज़िम्मेदारी सँभाली।
- प. बंगाल में, वर्ष 1977 में वाम मोर्चे की सरकार शासन में आने के बाद, बटाईकर्त्ताओं के अधिकार सुनिश्चित करने के लिये ऑपरेशन बर्गा शुरू किया गया। इसके साथ-साथ न्यूनतम मज़दूरी में पर्याप्त वृद्धि की गई जिससे बड़ी संख्या में ग्रामीण गरीबों को लाभ पहुँचा। परिणामस्वरूप, इन सरकारी कार्यक्रमों से लाभान्वित व्यक्ति नक्सलवाद से दूर होने लगे तथा इस प्रक्रिया से इन क्षेत्रोें में नक्सलवाद के अंत की शुरुआत हो गई।
- कर्नाटक के वाम उग्रवाद प्रभावित पावगडा तालुका मेें प्रशासन के एक बार शिथिल पड़ जाने तथा अपनी सक्रिय भूमिका से पीछे हटने से वाम उग्रवाद उस क्षेत्र में फिर से उभरने लगा।
- इसके विपरीत, वर्तमान छत्तीसगढ़ में स्थिति गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है। राज्य के बस्तर क्षेत्र में, जहाँ वाम उग्रवाद ने जड़ें जमा लीं, स्थानीय प्रतिरोध दलों, नामत: सलवा जुडूम को कायम करने से भी मदद नहीं मिली है। यद्यपि, सलवा जुडूम को उग्रवादियों के विरुद्ध जनसमूह की तुरंत जागृति के रूप में बताया जाता है।
- पं. बंगाल मॉडल लागू करते हुए पावगडा में किये प्रयोग को इस समय वाम उग्रवाद द्वारा प्रभावित क्षेत्रों में, जैसे कि छत्तीसगढ़ में, लागू करने का एक ऐसा मामला है जिस पर सावधानीपूर्वक विचार करने की ज़रूरत है। यह स्पष्ट है कि विकास और कल्याण उपायों के एक विवेकपूर्ण मिश्रण और साथ ही भू-सुधारों व सुनियोजित विद्रोह-रोधी प्रचलनों की ज़रूरत है जिससे विश्वास बहाल हो सके।
E. वाम उग्रवाद का प्रबंधन- राजनीतिक प्रतिमान
- इस बात पर बल देने की ज़रूरत है कि यद्यपि वाम उग्रवाद आंदोलन का मुख्य उद्देश्य राज्य में शासन में आना है तथापि तात्कालिक मार्ग सामाजिक न्याय, ... समानता, सम्मान और सार्वजनिक सेवाओं में ईमानदारी के लिये संघर्ष करने के रूप में है।
- संक्षेप में, उग्रवाद, सामान्य और विकास प्रशासन की सतत् और गंभीर कमियों पर फलता-पूलता है, जिसके फलस्वरूप भूमि, खाद्य, पानी और वैयक्तिक सुरक्षा, साम्यता, जातिगत/सांस्कृतिक पहचान आदि से संबंधित क्षेत्रों में गरीबों की ज़रूरतों को पूरा करने में सरकार की असफलता प्रदर्शित होती है।
- नियंत्रण की ऐसी कार्यनीति को वास्तविक रूप देने के लिये राज्य तथा सिविल सोसाइटी के तंत्र के अंदर चहुँमुखी क्षमता निर्माण, प्रयासों में ईमानदारी व कर्मठता और एक जवाबदेह व परादर्शी प्रशासन की ज़रूरत होगी।
हिंसक वाम उग्रवाद से निपटने के लिये धरना क्षमता निर्माण
वाम उग्रवाद द्वारा उत्पन्न स्थिति से निपटने के लिये विभिन्न साधनों और राज्य व सिविल सोसायटी के घटकों का इस्तेमाल करने की ज़रूरत है-
- सुरक्षा बल
- प्रशासनिक संस्थान
- सरकारी कार्मिक
- स्थानीय निकाय
- सिविल सोसायटी संगठन
नक्सली उत्पात से निपटने के लिये सरकारी नीति
- सरकार हिंसा में लिप्त होने वाले नक्सलियों के साथ कठोरता से निपटेगी।
- इस बात को देखते हुए कि नक्सलवाद कानून और व्यवस्था समस्या नहीं है, सरकार की नीति इस समस्या से निपटने के लिये एक व्यापक ढंग से राजनीतिक सुरक्षा, विकास और सार्वजनिक बोध प्रबंधन मोर्चा पर भी साथ-साथ कार्रवाई करने की होगी।
- नक्सलवाद एक अंतर-राज्यीय समस्या होने के नाते राज्य एक सामूहिक दृष्टिकोण अपनाएंगे तथा इसका मुकाबला करने के लिये एक समन्वित कार्रवाई करेंगे।
- राज्यों द्वारा पुलिस प्रतिक्रिया में और सुधार करने तथा नक्सलवादियों और उनके आधारिक ढाँचे के खिलाफ अलग-अलग व संयुक्त रूप से एक प्रभावी और लगातार पुलिस कार्रवाई करने की ज़रूरत है।
- प्रभावित राज्यों द्वारा नक्सली समूहों के साथ कोई शांति वार्ता नहीं की जाएगी जब तक कि वे हिंसा और शस्त्र का त्याग न करें।
- राजनीतिक दलों द्वारा नक्सल प्रभावित इलाकों में अपने संवर्ग आधार को मज़बूत बनाना चाहिये जिससे कि सक्षम युवाओं को नक्सली विचारधारा के मार्ग से अलग किया जा सके।
- उन राज्यों द्वारा, जहाँ से नक्सली गतिविधि/प्रभाव की, न कि नक्सली हिंसा की, रिपोर्ट प्राप्त हो, पिछड़े क्षेत्रों के त्वरित समाजार्थिक विकास पर विशेष बल के साथ एक भिन्न दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिये तथा NGO., बुद्धिजीवियों, नागरिक आज़ादी समूहों आदि के साथ नियमित रूप से अन्योन्यक्रिया की जानी चाहिये ताकि नक्सली विचारधारा और गतिविधि के लिये आधारीय सहायता कम से कम हो सके।
- नक्सलियों के विरुद्ध स्थानीय प्रतिरोध समूहों को प्रोत्साहित करने के लिये प्रयास जारी रहेंगे किंतु ऐसे ढंग से ग्राम जातियों को पर्याप्त सुरक्षा प्रदान की जाए और क्षेत्र में सुरक्षा बलों का प्रभावी प्रभुत्व कायम किया जाए।
- नक्सली हिंसा की व्यर्थता और इसके कारण जान व माल के नुकसान तथा प्रभावित क्षेत्रों में सरकार की विकास स्कीमों के बारे में जनसंचार साधनों का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाना चाहिये ताकि सरकारी तंत्र में लोगों का भरोसा और विश्वास बहाल को सके।
- राज्यों को नक्सल प्रभावित ज़िलों के लिये एक उपयुक्म अंतरण नीति घोषित करनी चाहिये। नक्सल प्रभावित ज़िलों में एक स्थिर कार्यावधि के साथ, इच्छुक, प्रतिबद्ध और सक्षम अधिकारी तैनात किये जाने की ज़रूरत है। इन अधिकारियों को बेहतर ढंग से प्रदर्शन करने तथा इन क्षेत्रों में सरकार की उपस्थिति में वृद्धि करने के लिये अधिक अधिकार और ढील दिये जाने की ज़रूरत है।
- आंध्र प्रदेश सरकार की नक्सलियों के लिये एक प्रभावी समर्पण व पुनर्वास नीति है और पिछले वर्षों के दौरान इसके अच्छे परिणाम रहे हैं। अन्य राज्यों को भी ऐसी ही नीति अपनानी चाहिये।
- राज्य सरकारों द्वारा अपनी वार्षिक योजनाओं में उच्च प्राथमिकता प्रदान किये जाने की ज़रूरत है ताकि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का तीव्र समाजार्थिक विकास निश्चित हो सके। इन क्षेत्रों में भू-सूधारों के तीव्र कार्यान्वयन के एक भाग के रूप में भूमिहीन किसानों को भूमि वितरित करने, सड़कों, संचार, बिजली आदि जैसी भौतिक अवस्थापना का विकास सुनिश्चित करने और युवाओं को रोज़गार अवसर प्रदान करने पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये।
- एक अन्य संबद्ध मुद्दा यह है कि कुछेक नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में मुख्यत: नक्सली काडरों द्वारा जबरन वसूली, भय अथवा धमकी के कारण विकास कार्यकलाप आयोजित नहीं किये जाते हैं। इन क्षेत्रों में ठेकेदार भी विकास कार्य करने के लिये तैयार नहीं होते। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अबाध विकास कार्यकलाप सुकर बनाने के वास्ते पर्याप्त सुरक्षा व अन्य उपाय किये जाने की ज़रूरत है।
- केंद्रीय सरकार सुरक्षा और विकास दोनों मोर्चों पर प्रभावित राज्यों के प्रयासों और संसाधनों को पूरक बनाना जारी रखेगी तथा समस्या का समाधान करने के लिये राज्यों के बीच अधिक समन्वय कायम करेगी।
नक्सलियों के धन स्रोतों को समाप्त करना
- अन्य उग्रवादी आंदोलन की तरह नक्सली आंदोलन भी धन जुटाता है जिससे उन्हें बने रहने में मदद मिलती है। ऐसा जुटाव स्थानीय लोगों से और प्रभावित क्षेत्रों में विभिन्न परियोजनाएँ निष्पादित करने वाले ठेकेदारों से भी जबरन वसूली के रूप में होता है। इसके अलावा वन व खान प्रचालनों के माध्यम से भी धन जुटाया जाता है।
- बड़े पैमाने पर ठेकेदार परिवहनकर्त्ता- उग्रवादी गठजोड़ और गैर-कानूनी खनन के साथ इसका संबंध व वाम उग्रवाद द्वारा प्रभावित पूरे क्षेत्र में वन उत्पाद के संग्रह से उग्रवदियों को बड़ी मात्रा में धन प्राप्त होता है।
- एक कारगर जबरन वसूली-रोधी व आर्थिक अपराध स्कंध कायम करने से यदि बिलकुल नहीं तो उग्रवदियों के लिये ऐसे ये निधीयन के स्रोतों में कमी आ सकती है।
सिफारिशें
- केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के साथ परामर्श करके, संसद में घोषित 14 सूत्री कार्यनीति के आधार पर कार्रवाई का एक दीर्घावधिक (10 वर्ष) और अल्पावधिक (5 वर्ष) कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है।
- 14 सूत्री कार्यनीति की भावना से सहमत होते हुए उग्रवादी दलों के साथ बातचीत विवाद निपटान की एक महत्त्वपूर्ण विधि होनी चाहिये।
- वरिष्ठ प्रशासनिक और तकनीकी अधिकारियों की उपयुक्त सुरक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिये।
- सुरक्षा बलों की क्षमता में वृद्धि करना।
- पुलिस और अर्द्ध-सैनिक कार्मिकों को संवेदीकृत बनाने सहित उनका प्रशिक्षण और अनुस्थापन किया जाना आवश्यक है।
- आंध्र प्रदेश में ‘ग्रेहाउंडस’ की पद्धति पर प्रशिक्षित विशेष कार्य बलों का गठन, वाम उग्रवाद का समाधान करने के लिये पुलिस तंत्र में क्षमता निर्माण करने की कार्यनीति का एक महत्त्वपूर्ण घटक होना चाहिये।
- स्थानीय स्तर के पुलिस स्टेशनों की स्थापना और सुदृढ़ीकरण वाम उग्रवाद का समाधान करने की पुलिस प्रणाली कार्यनीति का एक महत्त्वपूर्ण घटक होना चाहिये।
- अनुसूचित जनजाति व अन्य पारंपरिक वनवासी (अधिकाराें की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रभावी कार्यान्वयन के वास्ते बहु-विषयक निगरानी समितियाँ गठित की जा सकती हैं।
- संवैधानिक सुरक्षोपायों, विकास स्कीमों और भू-सुधार पहलों के कार्यान्वयन का मॉनीटरन करने के लिये विशेष प्रयासों की ज़रूरत है।
- केंद्र प्रायोजित व अन्य स्कीमों के संबंध में कार्यान्वयन एजेंसियाें को पर्याप्त ढील दी जानी चाहिये।
- राज्यों द्वारा अपने पंचायती राज अधिनियमों व अन्य विनियमों को पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) के प्रावधानों के अनुरूप बनाने के लिये संशोधित करने और इन प्रावधानों के कार्यान्वयन का केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय द्वारा मॉनीटरन और प्रोत्साहन किया जाना चाहिये।
- गैर-कानूनी खनन/वन ठेकेदारों और परिवहनकर्त्ताओं और उग्रवादियों के बीच गठजोड़ को समाप्त किया जाना चाहिये जिससे उग्रवादी आंदोलन के लिये वित्तीय सहायता प्राप्त होती है।
- बड़ी अवस्थापना परियोजनाओं को कार्यान्वित करने के लिये ठेकेदारों के स्थान पर सीमा सड़क संगठन जैसी विशेष सरकारी एजेंसियों का उपयोग करना।
अध्याय4: भू-संबद्ध मुद्दे (Land Related Issues)
यद्यपि 1950 और 1960 के दशकों में ग्रामीण क्षेत्रों में भू-सुधारों के सफल कार्यान्वयन से बिचौलिये समाप्त हो गए तथा कृषि असंतोष मे काफी कमी आई, तथापि इसके फलस्वरूप मालिकों की एक नई श्रेणी का जन्म हुआ। भूमिहीन श्रमिकों और छोटे तथा सीमांत किसानों को भूमि स्वामित्व प्रदान करने में कृषि जोतों की अधिकतम सीमा तय करने से सीमित सफलता मिली।
- अधिक भू-विखंडन के कारण किसानों के समक्ष बहुत-सी अन्य कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई हैं। उदाहरण के लिये: उच्च ब्याज दरों पर ऋण, उस ऋण की प्रतिपूर्ति दूसरा ऋण क्योंकि छोटी जोतों से मूलभूत आवश्यकताओं को पूर्ण कर पाना किसान के लिये एक चुनौतीपूर्ण कार्य हो रहा है।
- बकाया रहते ऋणों की वापसी अदायगी करने के लिये संसाधनों के अभाव की वजह से किसानों को और उधार लेना पड़ता है, जिससे एक कुचक्र का निर्माण होता है जिसकी वजह से अत्यंत कठिनाई पैदा होती है। ऋण का यह बोझ अक्सर किसानों को आत्महत्या करने के लिये बाध्य करता है।
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) के डाटा के अनुसार, 2001-05 अवधि के दौरान 86922 किसानों ने आत्महत्याएँ की जिनमें से 54 प्रतिशत निम्नलिखित चार राज्यों से थे: आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र।
- अध्ययनों से पता चलता है बड़ी संख्या में ऐसी आत्महत्याओं के कारण हैं: ऋणग्रस्तता, फसल असफलता, आर्थिक स्थिति में गिरावट, सामाजिक स्थिति में ह्रास और सामाजिक दायित्वों को पूरा करने में असमर्थता।
सिफारिशें:
- छोटे और सीमांत किसानों को, प्रमुख रूप से ‘स्वयंसेवी समूहों’ (एस.एच.जी.) और सहकारिताओं के माध्यम से और सहायता प्रदान करके कृषि आधार का विस्तार करना।
- अनौपचारिक ऋण को औपचारिक संस्थानों को अंतरित करना।
- प्राकृतिक संसाधन आधार का पुनरुद्धार, विशेष रूप से वर्षापोषित क्षेत्रों में।
- किसानों को कीमत और मांग घट-बढ़, मौसम की विषमताओं और प्राकृतिक आपदाओं जैसे जोखिमों से बचाने के लिये और अधिक प्रभावी जोखिम कवरेज प्रदान करना।
- किसानों के लिये वैकल्पिक आजीविकाएँ सृजित करने के लिये ग्रामीण क्षेत्रों में न केवल कृषि में बल्कि कृषि-भिन्न क्षेत्रक के विविधीकरण के लिये अधिक सरकारी निवेश।
- गरीब किसानों की ज़रूरतें और अधिक विशिष्ट रूप से पूरी करने के लिये निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम तथा ऐसे कार्यक्रम तैयार करने में किसान संगठनों को शामिल किया जाए।
- प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय भू-सुधार परिषद स्थापित करने के सरकार के हाल ही के निर्णय और राष्ट्रीय परिषद के लिये इनपुट उपलब्ध कराने के लिये ग्रामीण विकास मंत्री की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन करना, भू-सुधारों को पुन: सरकारी नीति उपायों की मुख्यधारा के अंतर्गत लाने के वास्ते एक स्वागत-योग्य कदम है।
- विस्थापन
- देश के वृहद् समाजार्थिक विकास के लिये भूमि का अधिग्रहण आवश्यक है। भूमि का उपयोग और अधिक आर्थिक लाभार्थ करना और इस प्रकार समाज के लिये आर्थिक प्रतिफल में वृद्धि करना भूमि के अधिग्रहण में अंतनिर्हित सिद्धांत है।
- भूमि का अधिग्रहण करना सामान्यत: एक बड़ी समस्या है क्योंकि भूमि पर निर्भर रहने वाले व्यक्ति उन विभिन्न लाभों से वंचित हो जाते हैं जो वे उससे प्राप्त करते हैं और कभी-कभी आजीविका से भी।
- भू-अधिग्रहण कानूनों में खोने वालों के लिये अदा की जाने वाली उचित क्षतिपूर्ति की व्यवस्था है। किंतु सामान्यत: इस प्रकार अदा की जाने वाली क्षतिपूर्ति अपर्याप्त होती है।
- भारत सरकार ने परियोजना प्रभावित परिवारों के पुनर्वास और पुन:स्थापन के संबंध में एक राष्ट्रीय नीति तैयार की जिसे 2004 में अधिसूचित किया गया था। इस नीति के उद्देश्य थे:
(i) विस्थापन को कम करना तथा विस्थापित न करने वाले अथवा कम से कम विस्थापन करने वाले विकल्पों का पता लगाना।
(ii) परियोजना प्रभावित परिवारों (Project Affected Families- PAFs) के पुनर्वास और पुन:स्थापन की योजना तैयार करना, जनजातियों और भेद्य वर्गों की विशेष ज़रूरतों सहित।
(iii) पी.ए.एफ. के लिये बेहतर रहन-सहन की व्यवस्था करना
(iv) परस्पर सहयोग के माध्यम से अपेक्षाकर्त्ता निकाय और PAFs के बीच सामंजस्यपूर्ण संबंध सुकर बनाना।
- स्कीम के अंतर्गत निर्धारित है कि परियोजना प्रभावित परिवारों के पुनर्वास और पुन:स्थापना के लिये स्कीम/योजना परियोजना प्रभावित परिवारों के प्रतिनिधियों के परामर्श से तैयार की जानी चाहिये और उसका वित्तपोषण उस निकाय द्वारा किया चाहिये जिसके लिये भूमि का अधिग्रहण किया गया है। इसमें प्रभावित परिवारों के लिये पुनर्वास पैकेज प्रदान करने के लिये भी मानदंड निर्धारित किये गए हैं।
नई राष्ट्रीय पुनर्वास और पुनर्स्थापन (Resettlement and Rehabilitation) नीति
- भारत सरकार ने अक्तूबर 2007 में पुनर्वास और पुनर्स्थापन के संबंध में एक नई राष्ट्रीय नीति अनुमोदित की। नई नीति तथा संबद्ध विधायी उपायों का उद्देश्य विकास कार्यकलापों के लिये भूमि की ज़रूरत और इसके साथ ही भू-स्वामियों व अन्यों, जैसे कि काश्तकारों, भूमिहीनों, कृषि व गैर-कृषि श्रमिकों, शिल्पकारों आदि के हितों को सरंक्षण प्रदान करने के बीच, जिनकी आजीविका अंतर्निहित भूमि पर निर्भर करती है, एक संतुलन कायम करना है।
- नई नीति के अंतर्गत प्रभावित परिवारों के लिये प्रस्तावित लाभों में सम्मिलित है: ज़मीन के लिये ज़मीन, उस सीमा तक जिस सीमा तक पुनर्स्थापना क्षेत्रों में उपलब्ध होगी, ‘प्रभावित परिवार’ की परिभाषा के अंदर प्रत्येक न्यूक्लीयर परिवार से कम से कम एक व्यक्ति के लिये परियोजना में रोज़गार के लिये प्राथमिकता, रिक्तियाें की उपलब्धता और प्रभावित व्यक्तियों की उपयुक्तता की शर्त पर: उपयुक्त रोज़गार और स्व रोज़गार प्राप्त करने के लिये प्रशिक्षण तथा क्षमता निर्माण; प्रभावित परिवारों से पात्र व्यक्तियों की शिक्षा के लिये छात्रवृत्तियाँ; ठेकों के आवंटन तथा परियोजना स्थल में अथवा इसके इर्द-गिर्द अन्य आर्थिक अवसरों में सहकारिताओं के समूहों को प्राथमिकता; परियोजना में निर्माण कार्य में इच्छुक प्रभावित परिवारों को ग्रामीण और शहरी दोनों ही क्षेत्रों में मकान सहित; व अन्य लाभ।
- नीति में यह भी व्यवस्था है कि सार्वजनिक प्रयोजनार्थ अधिगृहीत भूमि को, किसी सार्वजनिक प्रयोजन को छोड़कर और वह भी केवल सरकार के पूर्व अनुमोदन के साथ, हस्तांतरित नहीं की जा सकती। यदि सार्वजनिक प्रयोजनार्थ प्राप्त की गई भूमि, कब्ज़ा लेने की तारीख से पाँच वर्ष की अवधि तक इस प्रयाजनार्थ अप्रयुक्त रहती है तो वह संबंधित सरकार को वापस हो जाएगी।
- हकदार व्यक्तियों को यह विकल्प होगा कि वे अपने पुनर्वास अनुदान और क्षतिपूर्ति राशि का 20 प्रतिशत तक शेयरों के रूप में ले सकते हैं यदि अधिग्रहण निकाय शेयर और ऋणपत्र जारी करने के लिये प्राधिकृत कोई कंपनी हो; सरकार के पूर्व अनुमोदन से यह अनुपात पुनर्वास अनुदान और क्षतिपूर्ति राशि का 50 प्रतिशत तक ऊँचा हो सकता है।
- केंद्रीय सरकार ने संसद में भू-अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक, 2007 और पुनर्वास तथा पुनर्स्थापन विधेयक, 2007 प्रस्तुत किया है। भू-अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक का उद्देश्य भू-अधिग्रहण अधिनियम, 1894 के प्रावधानों में संशोधन करना है ताकि विकास के लिये भूमि की ज़रूरत के बीच संतुलन कायम हो सके और उन व्यक्तियों के हितों को सरंक्षण प्रदान किया जा सके जिनकी ज़मीन सांविधिक रूप से अधिगृहीत की गई है।
विशेष आर्थिक क्षेत्र
- अप्रैल 2000 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) नीति घोषित की गई थी। इन नीति का उद्देश्य SEZ को, न्यूनतम संभावित विनियमों के साथ, केंद्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर, एक आकर्षक राजकोषीय पैकेज के जरिये अनुपूरित उत्तम अवस्थापना द्वारा समर्थित आर्थिक विकास हेतु, एक इंजिन बनाना है।
- निवेशकों में विश्वास पैदा करने, एक स्थिर SEZ नीति व्यवस्था के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता व्यक्त करने तथा SEZ व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करने के उद्देश्य से, SEZ अधिनियम, 2005 अधिनियमित किया गया। SEZ अधिनियम के मुख्य उद्देश्य है:
(i) अतिरिक्त आर्थिक कार्यकलाप का सृजन;
(ii) वस्तुओं और सेवाओं के निर्यात को प्रोत्साहन;
(iii) घरेलू और विदेशी स्रोतों से निवेश को प्रोत्साहन;
(iv) रोज़गार अवसरों का सृजन;
(v) आधारिक सुविधाओं का विकास।
SEZ के संबंध में विवाद समाधान के लिये प्रशासनिक व्यवस्था
- भारत में SEZ नीति के संबंध में विवाद का स्रोत विस्थापन, कृषि भूमि की हानि और वास्तविक संपदा सट्टेबाज़ी की क्षमता से उत्पन्न होती है।
- बहु-उत्पाद SEZ में प्रसंस्करण कार्यकलाप पर 25% की पाबंदी की भी आलोचना की गई है।
- SEZ नीति की जाँच करने के लिये भारत सरकार को सामान्यत: SEZ के लिये बड़ी मात्रा में भूमि अधिगृहीत नहीं करनी चाहिये।
- आयोग का यह मत है कि सीमित संख्या में बड़े SEZ, संभवत: पिछड़े क्षेत्रों में, कायम करना बेहतर होगा जिससे कि उनसे अवस्थापना का निर्माण हो।
- इसके अलावा, यह वांछनीय होगा कि ‘गैर-प्रसंस्करण’ कार्यकलापों के लिये उपयोग में लाई जाने वाली भूमि के अनुपात को कम से कम किया जाए।
- तथापि, विस्थापित लोगों की अजीविका, विवाद समाधान में प्रमुख मुद्दा होना चाहिये। पुनर्वास पैकेज में प्रभावित परिवार कम से कम एक व्यक्ति के लिये रोज़गार सम्मिलित होना चाहिये।
- पुनर्वास पैकेज आय हिस्सेदारी नीति पर आधारित होने चाहिये।
- भूमि के बदले भू-खंडों के अलावा, एक अनुकंपा आवासन अनुदान, एक परिवहन अनुदान, एक निर्वहन अनुदान, भूमि की हानि के लिये एक पुनर्वास अनुदान, प्रत्येक प्रभावित परिवार के एक सदस्य को व्यावसायिक प्रशिक्षण और रोज़गार पैकेज का भाग होना चाहिये।
- SEZ कानून में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना भी विनिर्दिष्ट की जानी चाहिये। वास्तविक विकास कार्यकलाप शुरू करने से पहले, गाँवों के आस-पास पानी, सफाई और स्वास्थ्य सुविधाओं की व्यवस्था की जानी चाहिये। औद्योगिक कार्यकलाप और SEZ ऐसे क्षेत्रों में स्थापित किये जाएँ जहाँ कम से कम विस्थापन और पुनर्स्थापन हो और जिनसे उत्पादक खेती की भूमि पर कब्ज़ा नहीं किया जाए।
भू-अभिलेख के संदर्भ में सिफारिशें
क- कृषि क्षेत्रक में कठिनाई को दूर करने के लिये निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिये-
- कृषि के अनुरक्षण और संधारणीयता को प्रोत्साहित करने के लिये अधिशेष भूमि के पुनर्वितरण, काश्तकारों को शीर्षक सौंपना, और भू-जोतों की चकबंदी को आगे जारी रखने आदि जैसे भू-सुधार उपायों पर फिर से बल दिया जाना चाहिये।
- निर्धनता उपशमन कार्यक्रमों की पुनर्संरचना की जानी चाहिये ताकि उन्हें छोटे और सीमांत किसानों की ज़रूरतों के प्रति और अधिक संवेदी बनाया जाए।
- सरकारी निवेश में वृद्धि की जानी चाहिये ताकि ग्रामीण क्षेत्रों के अंदर गरीब किसानों के लिये वैकल्पिक रोज़गार अवसर प्रदान करने के लिये गैर-कृषि व कृषि से भिन्न कार्यकलापों का विस्तार किया जा सके।
- मौसम बीमा स्कीमें और कीमत समर्थन पद्धतियाँ जैसे जोखिम कवरेज उपायों का विविधीकरण।
- अधिग्रहण के संबंध में एक नया विधान अधिनियमित करने की ज़रूरत है जिसमें संशोधित राष्ट्रीय पुनर्वास नीति में निर्धारित सिद्धांतों को शमिल किया जाए।
SEZ के संबंध में वर्तमान दृष्टिकोण को निम्नलिखित के अनुसार बदलने की ज़रूरत है-
- SEZ स्थापित करने की प्रमुख कृषि भूमि के उपयोग से बचा जाना चाहिये।
- SEZ की संख्या सीमित होनी चाहिये।
- स्वयं किसानों द्वारा प्रवर्तित SEZ को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
- विस्थापित व्यक्तियों की आजीविका का मुद्दा SEZ नीति का प्रमुख मुद्दा होना चाहिये।
- SEZ विनियमों में पुनर्वास की सामाजिक ज़िम्मेदारी SEZ की स्थापना करने के इच्छुक उद्यमियों पर स्पष्ट रूप से सौंपी जानी चाहिये। इसमें पानी, सफाई, स्वास्थ्य सुविधाओं और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की व्यवस्था करना सम्मिलित होना चाहिये।
- SEZ के प्रवर्तकों द्वारा गैर-प्रसंस्करण कार्यकलापों (Non-Processing Activities) के लिये उपयोग करने के लिये अनुमत भूमि (Permitted Land) के भाग को न्यूनतम रखा जाना चाहिये तथा इसे उनकी योजनाएँ अनुमोदित करने के समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिये। इसके साथ ही पर्यावरणीय विनियमों का कठोरत: अनुपालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये।
- निर्यात इकाइयों और विकासकर्त्ताओं दोनों के लिये व्यवस्थित अत्यंत उदार कर छूटों पर फिर से विचार किये जाने की ज़रूरत है।
अध्याय 5: जल संबद्ध मुद्दे (Water Related Issues)
अंतर-राज्य जल विवाद
- जल अनिवार्य रूप से एक राज्य विषय है और संघ केवल अंतर-जल के मामले में सामने आता है। राज्यों के क्षेत्राधिकार से संबंधित विषयों से संबंधित सातवीं अनुसूची का हिस्सा है।
- संविधान में एक विशिष्ट अनुच्छेद-(अनुच्छेद 262) दिया गया है- जो अंतर-राज्य नदियों अथवा नदी घाटियों के मामलों से संबंधित विवादों के अधिनिर्णयन से संबंधित है।
- अनुच्छेद 262 और सूची-1 की प्रविष्टि 56 के तहत अधिनियमित दो कानून हैं; नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 और अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम, 1956। नदी बोर्ड अधिनियम का अधिनियमन, अंतर-राज्य बेसिनों के एकीकृत विकास के संबंध में सलाह देने के लिये, राज्य सरकारों के परामर्श से बोर्ड गठित करने के लिये समर्थ बनाने के उद्देश्य से किया गया था।
- अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम में व्यवस्था है कि पीड़ित राज्य किसी विवाद को संघ सरकार से किसी अधिकरण को सौंपने के लिये कह सकता है। जल विवाद अधिकरण की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है और उसमें उच्चतम न्यायालय का एक पीठासीन न्यायाधीश और दो अन्य न्यायाधीश होते हैं जिन्हें उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च (हाई) न्यायालयों में से चुना जाता हैं।
- वर्ष 1956 में अंतर-राज्य जल विवाद अधिनियम के अधिनियमन के बाद से पाँच अंतर-राज्य विवाद अधिकरणों की स्थापना, कृष्णा, गोदावरी, नर्मदा, कावेरी और रावी-ब्यास नदियों के संबंध में जल विवादों के अधिनिर्णयन के लिये की गई है।
1. कृष्णा और गोदावरी
कृष्णा जल विवाद अधिकरण
2,55,949 वर्ग किमी. के कुल पृष्ठ क्षेत्र में से 6821 वर्ग किमी. महाराष्ट्र में, 1,11,959 वर्ग किमी. कर्नाटक में और 75369 वर्ग किमी. आंध्र प्रदेश में है।
कृष्णा जल विवाद अधिकरण का अप्रैल 1969 में गठन किया गया।
- गोदावरी के जल के संबंध में महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और कर्नाटक।
- नर्मदा मध्य प्रदेश और गुजरात
- कावेरी कर्नाटक तथा तमिलनाडु
- रावी-ब्यास पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और हिमाचल प्रदेश।
- संसाधन आयोजना एक जलविज्ञानीय इकाई के रूप में की जानी चाहिये। इस संबंध में राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग ने 1999 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में एक निकाय के रूप में नदी बेसिन संगठन (आर.बी.ओ.) स्थापित करने की सिफारिश की थी जिसमें संबंधित राज्य सरकारों, स्थानीय शासनों और जल उपभोक्ताओं को प्रतिनिधित्व प्राप्त होगा तथा परस्पर चर्चा व सहमति के लिये एक मंच उपलब्ध होगा।
आयोग नदी बोर्ड अधिनियम के स्थान पर एक ऐसे विधान की स्थापना की सिफारिश करता है जिसके अंतर्गत प्रत्येक अंतर-राज्य नदी के लिये बेसिन संगठनों की स्थापना के अलावा लक्ष्यों, ज़िम्मेदारियों और आर.बी.ओ. के संबंध में प्रबंधन की व्यवस्था की जाए।
A- लक्ष्य:
- बेसिन के विकास के लिये सिद्धांतों का प्रतिपादन,
- बड़ी परियोजनाओं के संबंध में मार्गनिर्देश जारी करना,
- तकनीकी मानक निर्धारित करना,
- सभी लाभदायक उपयोगों हेतु जल की गुणवत्ता बनाए रखना व उसमें सुधार करना,
- भू-जल के विकास के लिये एक रूपरेखा निर्धारित करना,
- भू-अवनयन को नियंत्रित करना,
- भू-संसाधनोें के संधारणीय उपयोग और बेसिन के प्राकृतिक परिवेश को संरक्षित रखने के लिये उनका पुनर्वास।
B- ज़िम्मेदारियाँ
- राज्यों के लिये आवंटन और विभिन्न प्रमुख प्राकृतिक संसाधन कार्यनीतियों का प्रशासन,
- जल गुणवत्ता, भू-संसाधनों, प्रकृति संरक्षण और सामुदायिक सहयोग हेतु तकनीकी ज़िम्मेदारी,
- डाटा का संग्रहण
C- जल प्रबंधन ज़िम्मेदारियाँ
- अंतर-राज्य नदियों के विनियमन का अनेक प्रयोजनार्थ, घरेलू उपभोक्ताओं और सिंचाई हेतु आपूर्ति सहित, जल का प्रवाह और कोटि बनाए रखने के लिये जल गुणवत्ता के मॉनीटरन का कार्यक्रम।
- उपयुक्त भू-उपभोग प्रथाओं, जल उपचार के सर्वोत्तम व्यावहारिक साधनों तथा नदी से बाहर निपटान को प्रोत्साहन।
- पारि-पद्धति के परिरक्षण और परती भूतियों के प्रबंधन के समन्वयन हेतु कार्यक्रम तैयार करने की ज़िम्मेदारी।
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद
राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद की स्थापना मार्च 1983 में भारत सरकार द्वारा निम्नलिखित कार्यों के निष्पादन के लिये की गई थी:
(i) राष्ट्रीय जल नीति निर्धारित करना तथा उसकी समय-समय पर समीक्षा करना,
(ii) इसे राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी और नदी बेसिन आयोग द्वारा प्रस्तुत जल विकास योजनाओं पर विचार और उनकी समीक्षा करना।
(iii) जल योजनाओं को ऐसे संशोधनों के साथ स्वीकृति की सिफारिश करना जिन्हें उपयुक्त और आवश्यक समझा जाए।
(iv) जल योजनाओं के विशिष्ट घटकों के संबंध में अंतर-राज्य मतभेद तथा ऐसे अन्य मुद्दों का समाधान करने के लिये क्रियाविधियों के बारे में सलाह देना, जो परियोजनाओं की योजना तैयार और कार्यान्वित करने के दौरान उठें।
(v) विभिन्न लाभार्थियों द्वारा जल संसाधनों के उचित विभाजन और उपयोग हेतु प्रथाओं और प्रक्रिया, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के संबंध में सलाह देना।
(vi) ऐसी अन्य सिफारिशें करना जिनसे विभिन्न क्षेत्रों में जल संसाधनों के शीघ्र और पर्यावरणीय सुदृढ़ तथा आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले।
- परिषद के अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं तथा केंद्रीय जल संसाधन मंत्री इसके उपाध्यक्ष हैं तथा जल संसाधन राज्य मंत्री, संबंधित केंद्रीय मंत्री/राज्य मंत्री, सभी राज्यों में मुख्यमंत्री और संघ राज्य क्षेत्रों के राज्यपाल/प्रशासक परिषद के सदस्य हैं। सचिव, जल संसाधन मंत्रालय, परिषद के सचिव हैं।
जल के संबंध में एक राष्ट्रीय कानून की ज़रूरत
जल संसाधन मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा सितंबर 1987 में एक राष्ट्रीय जल नीति तैयार की गई थी, किंतु मार्गनिर्देशों के अभाव में इसे अब प्रचालनात्मक रूप लेना शेष है। राज्यों के हितों और ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए एक राष्ट्रीय जल कानून अधिनियमित किया जाना चाहिये। यह ज़रूरी है कि कानून में कम-से-कम निम्नलिखित को शामिल किया जाना चाहिये:
(i) राष्ट्रीय जल कानून, सभी मामलों में, सार्वजनिक हित के निर्धारण, जल के संबंध में सभी पक्षकारों के अधिकारों और दायित्वों सहित संविधान के अध्यधीन और अनुरूप होना चाहिये।
(ii) सभी जल का उपयोग, चाहे वह जल-चक्र में कहीं से भी पैदा होता हो, निर्धारित निकायों के जरिये विनियमन के अध्यधीन होना चाहिये।
(iii) भूमि की दृष्टि से जल संसाधनों का स्थान स्वयं में उपयोग का कोई प्राथमिकतापूर्ण अधिकार प्रदान नहीं करेगा।
(iv) जल-चक्र की यूनिटी और इसके अंतर-निर्भरता वाले तत्त्वों को स्वीकार किये जाने की ज़रूरत है।
(v) संसाधन आयोजना एक जल विज्ञानीय इकाई के रूप में, जैसे कि कुल मिलाकर अथवा उप-बेसिन के संबंध में, नाली व्यवस्था के रूप में की जानी चाहिये।
(vi) यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रत्येक को पर्याप्त पेय जल सुलभ हो, अपेक्षित जल संरक्षित किया जाना चाहिये।
(vii) प्रस्तावित कानून का कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये एक अथवा अधिक विनियामक निकायों की स्थापना करने के लिये प्रावधान किया जाना चाहिये।
(viii) केंद्रीय, राज्य और बेसिन स्तर एजेंसियों को एकीकृत व मज़बूत करते हुए तथा डाटा की गुणवत्ता व प्रसंस्करण क्षमताओं में सुधार करते हुए डाटा बैंकों और डाटाबेसों के एक नेटवर्क के साथ एक मानकीकृत राष्ट्रीय सूचना पद्धति कायम की जानी चाहिये।
सिफारिशें
- अंतर-राज्य नदी विवादोें के मामले में केंद्रीय सरकार को और अधिक सक्रिय व निश्चयात्मक बनना चाहिये तथा ऐसे विवादों की मांग के अनुसार तत्परता व सतत् रूप से ध्यान के साथ कार्य किया जाना चाहिये।
- क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 262 में यह व्यवस्था है कि न तो उच्चतम न्यायालय का और न ही कोई अन्य न्यायालय का अंतर-राज्य नदी विवादों के संबंध में कोई क्षेत्राधिकार होगा। इसलिये यह आवश्यक है कि इस प्रावधान की भावना को पूरी तरह से समझा जाना चाहिये।
- नदी बोर्ड अधिनियम, 1956 के स्थान पर एक विधान अधिनियमित करके, प्रत्येक अंतर-राज्य नदी के संबंध में नदी बेसिन संगठन (आर.बी.ओ.) कायम किया जाना चाहिये जैसा कि राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग, 1999 की रिपोर्ट में सुझाया गया है।
- सभी नदी बेसिन संगठनाें के अध्यक्षों को, जब भी उनका गठन किया जाए, राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद का सदस्य बनाया जाना चाहिये।
- राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद और आर.बी.ओ. को और अधिक सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिये।
- एक ऐसी रूपरेखा के आधार पर, जिसमें दीर्घावधिक संदर्श को शामिल किया जाए, जल का विकास, सरंक्षण, उपयोग और प्रबंधन करने के उद्देश्य से एक राष्ट्रीय जल कानून अधिनियमित किया जाना चाहिये।
अध्याय 6: अनुसूचित जातियों से संबद्ध मुद्दे
- सार्वजनिक व्यवस्था पर अपनी रिपोर्ट में आयोग ने ‘स्थापित व्यवस्था’ और ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ के बीच भेद किया है। स्थापित व्यवस्था सदा ही कानून के नियम-सिद्धांतों के अनुसार नहीं हो सकती। वांछनीय सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य वाले कानूनों और सार्वजनिक नीतियों के कारण कभी-कभी अल्पावधि में संघर्ष हो सकते हैं। ऐसे कानूनों को, यदि संविधान के मूल मूल्यों और मानवाधिकारों का संरक्षण किया जाना है, सख्ती के साथ लागू किये जाने की ज़रूरत है।
- अनुसूचित जातियों के सदस्य देश में निर्धनतम वर्गों में हैं तथा उनके साथ सर्वाधिक भेदभाव किया जाता है। भेदभाव प्राय: समाजार्थिक शोषण: नागरिक अधिकारों की मनाही, सामाजिक बहिष्कार और यहाँ तक कि उनके विरुद्ध हिंसा के रूप में होता है जो कभी-कभी सामूहिक हत्याओं, बलात्कार, बस्तियाँ जलाने आदि का रूप ले लेता है।
संवैधानिक सुरक्षा
समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों की सुरक्षा करने के लिये संविधान की स्कीम, पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था पर आधारित अनु. जातियों और अनु. जनजातियों की स्थिति में बदलाव करने के लिये एक तीन-आयामीय कार्यनीति को परिलक्षित करती है। इसमें सम्मिलित हैं-
(i) संरक्षण: समानता लागू करने और अयोग्यताएँ दूर करने के लिये उपाय।
(ii) क्षतिपूरक भेदभाव: सार्वजनिक सेवाओं, प्रातिनिधिक निकायों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण प्रावधान लागू करना।
(iii) विकास: अनुसूचित जाति यों व अन्य समुदायों की आर्थिक स्थितियों और सामाजिक स्थिति के बीच विशाल अंतर को पाटने के लिये उपाय, संसाधनों के आवंटन और लाभों के विभाजन को शामिल करते हुए।
विधायी संरचना
- भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 (भाग III, मूलभूत अधिकार) के अंतर्गत ‘अस्पृश्यता’ को समाप्त कर दिया गया है। तथा किसी भी रूप में इसके पालन की मनाही है तथा निर्धारित है कि ‘अस्पृश्यता’ के कारण उत्पन्न होने वाली अयोग्यता का लागू किया जाना कानून के अनुसार एक दंडनीय अपराध है।
- संविधान के अनुच्छेद 17 को लागू करने के उद्देश्य से, संविधान का अपनाए जाने के पाँच वर्षों के अंदर, संसद द्वारा अस्पर्श्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 अधिनियमित किया गया। बाद में, इसके कार्यक्षेत्र का विस्तार करने के लिये अधिनियम को नवंबर 1976 में संशोधित किया गया तथा इसका नाम ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955’ कर दिया गया। अधिनियम का विस्तार पूरे भारत में कर दिया गया है तथा अधिनियम के अंतर्गत अपराधों को संज्ञेय और साथ ही बगैर समझौते वाला बना दिया गया है।
- इसके अलावा, अनु. जातियों और अनु. जनजातियों के विरुद्ध अपराधों को नियंत्रित और भय कायम करने के लिये अनु. जाति और अनु. जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989, 30 जनवरी, 1990 से लागू किया गया।
- अनुसूचित जाति और अनु. जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 के अंतर्गत व्यापक नियम भी 31 मार्च, 1995 को अधिसूचित किये गए थे जिनमें अन्य बातों के अलावा प्रभावित व्यक्तियों के लिये राहत और पुनर्वास की व्यवस्था है।
- अनु. जाति और अनु. जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों को संबंधित राज्य सरकारों/संघ राज्य क्षेत्र प्रशासनों द्वारा कार्यान्वित किया जाता है।
विधायी संरचना का मूल्यांकन
- पी.सी.आर. अधिनियम के अंतर्गत दर्ज किये गए मामलों की संख्या में 1970 के दशक के बाद से लगातार कमी आई है। हालाँकि अनेक अध्ययनों से इस बात की पुष्टि हुई कि अस्पृश्यता की घृणित प्रथा अभी विद्यमान है। इसमें कानून प्रवर्तन तंत्र की ओर से हिचकिचाहट और लापरवाही के मामले भी सामने आए हैं।
- आयोग का मत है कि अनुसूचित जातियों के शोषण के मामलों से निपटने के लिये और अधिक सक्रियता के साथ कार्रवाई की जानी चाहिये। इसमें ज़िला मॉनीटरन पद्धति को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। इसलिये, प्रशासन को प्राथमिकी दर्ज किये जाने की प्रतीक्षा किये बगैर स्वयमेव कानून के उल्लंघन के मामलों का पता लगाने का प्रयास करना चाहिये।
संस्थागत संरचना
राष्ट्रीय अनु. जाति आयोग
- 1978 में एक बहु-सदस्यीय आयोग गठित किया गया जिसे अनु. जाति और अनु. जनजाति आयोग का नाम दिया गया। संविधान (65वाँ) संशोधन अधिनियम, 1990 के अनुसार अनुच्छेद 338 में 1990 में संशोधन किया गया तथा मार्च 1992 में प्रथम अनु. जाति और अनु. जनजाति आयोग स्थापित किया गया।
- संविधान (89वाँ संशोधन) अधिनियम, 2003 के परिणामस्वरूप, जो 19 फरवरी, 2004 से लागू हुआ, राष्ट्रीय अनु. जाति और अनु. जनजाति आयोग के स्थान पर (1) राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और (2) राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, स्थापित किये गए हैं।
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग
- राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग का गठन संसद के राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग अधिनियम, 1993 के जरिये, प्रारंभ में तीन वर्ष की अवधि के लिये, अगस्त 1994 में किया गया था।
- यह एक स्थायी आयोग नहीं है, किंतु इसकी कार्यावधि में समय-समय पर वृद्धि की गई है।
- इसमें एक अध्यक्ष, एक उपाध्यक्ष और पाँच सदस्य सम्मिलित हैं जिन सभी का मनोनयन केंद्रीय सरकार द्वारा किया जाता है। कम से कम एक सदस्य महिला है।
- केंद्रीय सरकार द्वारा सफाई कर्मचारियों को प्रभावित करने वाले सभी नीतिगत मामलों पर राष्ट्रीय आयोग से परामर्श करना आवश्यक है।
- आयोग को एक वार्षिक रिपोर्ट तैयार करनी होती है जिसे संसद के दोनों पटलों पर रखा जाता है। यदि रिपोर्ट में कोई मामला किसी राज्य सरकार से संबद्ध होता है तो रिपोर्ट की एक प्रतिलिपि संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा राज्य की विधानसभा में रखी जाती है।
- इसके अलावा मानवाधिकार अधिनियम, 1993 के तहत स्थापित मानवाधिकार आयोग भी अनु. जातियों और अनु. जनजातियों के शोषण की शिकायतों में भी हस्तक्षेप करता है क्योंकि ये मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन हैं।
- राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990 के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रीय महिला, उसे भेजी गई महिलाओं के प्रति अन्याय की शिकायतों पर कार्रवाई करता है, चाहे जाति कोई भी हो।
संस्थागत प्रणाली के कार्यकरण का मूल्यांकन
- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने ऊपर वर्णित निगरानी संस्थानों की कारगरता का विश्लेषण किया है और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि ये संस्थान बड़ी संख्या में प्राप्त होने वाली शिकायतों, उनसे निपटने के लिये उनकी सीमित क्षमता और पर्याप्त क्षेत्र स्टाफ के अभाव के कारण भी बाधित हैं।
सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा सलाह
(i) अस्पृश्यता और अत्याचारों का मुकाबला करने के विषय पर प्रकाश डालते हुए हिन्दी व अन्य स्थानीय भाषाओं में इश्तहारों/पुस्तिकाओं का मुद्रण और वितरण।
(ii) आम जनता के लिये विशाल जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिये।
(iii) कांस्टेबुलरी और पुलिस स्टेशन स्तर के पुलिस अधिकारियों का प्रवेश स्तर पर और पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों में प्रशिक्षण।
(iv) अस्पर्श्यता के उन्मूलन के लिये इसके स्वरूपों और कारणों का विनिर्धारण करने के लिये आवश्यक उपायों हेतु अनुसंधान अध्ययनों का वित्त पोषण करना।
(v) अत्याचार-प्रधान क्षेत्रों का विनिर्धारण।
(vi) भू-सुधारों का प्रभावी कार्यान्वयन।
(vii) विनिर्धारण अत्याचार-प्रधान/संवेदनशील क्षेत्रों के विकास के लिये एक विशेष पैकेज तैयार करना।
(viii) एक वर्ष से अधिक अवधि तक न्यायालयों में लंबित मामलों की समीक्षा करना।
(ix) न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम का कठोरतापूर्वक प्रवर्तन किया जाना चाहिये।
(x) सामाजिक सुरक्षा के कवरेज का विस्तार।
अपेक्षित प्रशासनिक कार्रवाई
अत्याचारों और भेदभाव प्रथाओं की विशालता को देखते हुए आयोग का मत है कि एक बहु-आयामी कार्यनीति तैयार की जानी चाहिये जिसमें निम्नलिखित को शामिल किये जाने की ज़रूरत है:
- इन प्रयोजनार्थ अधिनियमित विभिन्न कानूनों का प्रभावी कार्यान्वयन।
- क्षेत्र कार्यकर्त्ताओं को अभिप्रेरित करना।
- ज़िला स्तर की निगरानी समितियों द्वारा निगरानी और समीक्षा।
- पुलिस सुधार।
- सामाजिक भेदभाव के मामलों का पता लगाने के लिये क्षेत्र सर्वेक्षण आयोजित करने के लिये स्वतंत्र एजेंसियों की सेवाएँ प्राप्त करना।
- विभिन्न राष्ट्रीय और राज्य स्तर आयोगों के लिये समन्वय तंत्र अनुसूचित जातियों के शोषण के मामलों की जाँच करने के लिये।
- पंचायती राज संस्थानों को शमिल करना।
- भू-सुधारों व अन्य सामाजिक विधानों का प्रभावी कार्यान्वयन बहुत से विधान हैं- बँधुआ श्रम उन्मूलन अधिनियम, बाल श्रम निषेध अधिनियम, भू-सुधार कानून, ऋण राहत अधिनियम आदि, जिनका उद्देश्य भिन्न-भिन्न सामाजिक उद्देश्य प्राप्त करना है।
- विनियामक और विकास कार्यक्रमों का अभिसरण।
- सिविल सोसाइटी संगठनों (सी.एस.ओ.) को शामिल करना।
- आपराधिक मामलों की शीघ्र विचारण।
सिफारिशें
- संवैधानिक कानूनी और प्रशासनिक प्रावधानों को सच्ची भावना के साथ कार्यान्वित किया जाए।
- अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित भेदभाव के मामले का शीघ्र निपटान सुनिश्चित करना।
- सामाजिक और सांप्रदायिक सामंजस्य प्रोत्साहित करने के लिये सार्वजनिक प्राधिकारियों को सकारात्मक ड्यूटी सौंपना।
- सामाजिक भेदभाव के मामलों का पता लगाने के लिये स्वतंत्र एजेंसियों की सेवाएँ प्राप्त करने की ज़रूरत है।
- उन क्षेत्रों में जहाँ जागरूकता स्तर पर निम्न है, एक सु-लक्षित जागरूकता अभियान आयोजित करना आवश्यक है।
- प्रशासन तथा पुलिस को अनु. जातियों और अनु. जनजातियों की विशेष समस्याओं के संबंध में संवेदी बनाया जाना चाहिये।
- कमज़ोर वर्गों के अधिकारों के प्रवर्तन को और गड़बड़ी होने अथवा बदले के भय के कारण कम महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिये।
- प्रशासन को पीड़ितों के पुनर्वास पर बल देना चाहिये तथा उन्हें परामर्श देने सहित सभी अपेक्षित सहायता प्रदान की जानी चाहिये।
- जहाँ तक संभव हो, पर्याप्त संख्या में अनु. जाति और अनु. जनजाति आबादी वाले पुलिस स्टेशनों में पुलिस कार्मिकों की तैनाती ऐसे समुदायों की आबादी के अनुपात में की जानी चाहिये।
- प्रोत्साहनों की एक पद्धति प्रारंभ करना वांछनीय होगा जिसके अंतर्गत अधिकारियों द्वारा अनु. जातियों के विरुद्ध भेदभाव/अत्याचारों का पता लगाने और उनके सफलतापूर्वक अभियोजन के लिये उन्हें उपयुक्त रूप से सम्मानित किया जाना चाहिये।
- स्थानीय शासनों को नगरपालिकाओं और पंचायतों को विभिन्न सामाजिक विधानों के प्रभावी प्रवर्तन से संबंधित विभिन्न कार्यक्रमों में सक्रियतापूर्वक सम्मिलित किया जाना चाहिये।
अध्याय 7: अनु. जनजातियों से संबद्ध मुद्दे
परिचय
जनजातियों की स्थिति सामाजिक संरचना के इर्द-गिर्द घूमती है। जनजातीय लोगों की सामाजिक असमानताओं के शोषण के विभिन्न रूप हैं, जैसे कि बंधुआ मज़दूर, बलित श्रम और ऋणग्रस्तता, व्यापारियों, साहूकारों और वन ठेकेदारों द्वारा भी उनका शोषण किया जाता है। अनु. जनजातियों के मानव विकास सूचक (HDI), सभी प्रतिमानों, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, आय आदि की दृष्टि से, शेष आबादी की तुलना में कम हैं।
A. सामाजिक न्याय
- अनु. जातियों के सदस्यों की तरह जनजातियों का भी उत्पीड़न किया जाता है। न्यायालयों द्वारा अनु. जनजातियों के सदस्यों के विरुद्ध किये गए अपराधों के मामलों के निपटान के संबंध में स्थिति अनु. जातियों के मामले से भिन्न नहीं है।
- कानूनों के कार्यान्वयन और क्षमता निर्माण की दृष्टि से आयोग द्वारा अनु. जातियों के मामले में की गई सिफारिशें अनु. जनजातियों के संबंध में भी सही हैं।
B. पंचायत (अनु. क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996
- पंचायत (अनु क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996 (पेसा) एक महत्त्वपूर्ण विधान है जिससे न केवल सक्रिय भागीदारी के रूप में बल्कि एक प्रभावी निर्णय निर्माण, कार्यान्वयनकर्त्ताओं, निगरानियों और मूल्यांकनकर्त्ताओं के रूप में भी उनकी सशक्तीकरण प्रक्रिया में जनजातियों की भागीदारी सुनिश्चित होती है।
- ग्राम सभा, लोगों की परंपराओं और रीति-रिवाजों, उनकी सांस्कृतिक पहचान, सामुदायिक संसाधनों और विवाद समाज की प्रथागत विधि को सुरक्षित और परिरक्षित करने के लिये सशक्त है। ‘पेसा’ में यथा परिकल्पित ग्राम सभा में विवाद निपटान के वास्ते अंतर निर्मित क्षमता मौजूद है।
- ‘पेसा’ और इस विषय पर राज्यों द्वारा अधिनियमित विधानों के एक तुलनात्मक विश्लेषण से पता चलता है कि राज्यों द्वारा अनुसमर्थन की प्रक्रिया में ‘पेसा’ के प्रावधानों को काफी शिथिल बना दिया गया है तथा ग्राम सभा की अधिकांश शक्तियाँ ज़िला प्रशासन अथवा ज़िला परिषद को प्रदान कर दी गई हैं।
C. जनजातियों का विस्थापन
- बड़ी संख्या में विभिन्न विकास परियोजनाओं, जैसे कि सिंचाई बाँध, पन विद्युत और ताप विद्युत संयंत्रों, कोयला खानों और खनिज आधारित उद्योगों के कारण जनजातियों का विस्थापन हुआ है।
- सत्रह प्रतिमानों के राहत पैकेज के साथ, जिन्हें विस्थापन की अनुमति देने से पहले पूरा किया जाना चाहिये, परियोजना प्रभावित परिवारों (पी.ए.एफ.) के लिये राहत और पुनर्वास के संबंध में एक राष्ट्रीय नीति फरवरी 2004 में अधिसूचित की गई थी। भारत सरकार ने अक्तूबर 2007 में एक नई राष्ट्रीय पुनर्वास और पुन:स्थापन नीति अनुमोदित की किंतु पी.ए.एफ. के संबंध में ईमानदारीपूर्वक कार्रवाई अभी की जानी शेष है।
- ‘पेसा’ के अंतर्गत भूमि के अन्यसंक्रामण के रोकने के लिये विशिष्ट रूप से प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत उस क्षेत्र के राज्य विधानमंडलों द्वारा ऐसा कानून बनाने की मनाही की गई है जो जनजातीय भूमि के अन्यसंक्रामण को रोकने के उद्देश्य के अनुरूप हो। विडंबना है कि ‘पेसा’ का उपयोग जनजातियों की कीमत पर औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये अविवेकपूर्ण और गलत ढंग से किया जाता है।
- राज्य सरकारों को भू-सीमा के संबंध में विद्यमान कानूनों का प्रवर्तन करना चाहिये। विद्यमान भू-अभिलेखों की पूर्णरूपेण परिवर्तन और व्यवस्थित ढंग से योजना बनाने तथा ऐसी जानकारी मुक्त रूप से सुलभ कराए जाने का सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
D. प्रशासन में क्षमता निर्माण
- जनजातीय लोगों से संबंधित विवादों के साथ डील करने की मुख्य समस्या यह है कि उन्हें संरक्षण प्रदान करने के लिये किये गए विद्यमान संवैधानिक प्रावधानों और कानूनों का इष्टतम रूप से उपयोग नहीं किया जाता है।
- पर्याप्त संख्या में जनजातीय लोगों को उग्रवादियों ने धीरे-धीरे मुख्यधारा से अलग कर दिया है।
- यह आवश्यक है कि प्रशासन अपने मूल कार्य निष्पादित करने में सावधानी बरते तथा जनजातीय क्षेत्रों में आधारभूत सेवाओं की व्यवस्था करे।
- यह भी आवश्यक है कि सरकार ऐसे क्षेत्रों में कार्य करने के लिये केवल ऐसे पुलिस, राजस्व, वन और विकास अधिकारियों की तैनाती करे जो अपेक्षित प्रशिक्षण प्राप्त हों तथा अपने कार्य के प्रति प्रतिबद्ध हों और जिनकी जनजातीय लोगों के साथ सहानुभूति हो।
- अधिकारियों को भी ऐसे क्षेत्रों में कार्य करने के लिये अभिप्रेरित किये जाने की ज़रूरत है। ऐसा करने का एक तरीका यह हो सकता है कि जनजातीय क्षेत्रों में विशिष्ट पदों के लिये अधिकारियों के लिये कठिनाई वेतन, आवास और शिक्षा आदि प्रदान करने में प्राथमिकता प्रदान करके उनका चयन किया जाना चाहिये।
- किसी प्रकार की कानूनी व्यवस्था अथवा योजना प्रक्रिया को तेज़ करने से न तो जनजातीय लोगों के अधिकारों के संरक्षण में और न ही अनुसूचित क्षेत्रों के विकास से बेहतर अनुपालन सुनिश्चित होगा जब तक कि स्थानीय स्तर पर प्रशासन को ‘पेसा’ के उद्देश्यों की दिशा में प्रशिक्षित अथवा चुस्त न बनाया जाए।
E. जनजातीय नीति
- जनजातीय विकास के संबंध में दिशा-निर्देश और अनिवार्यताएँ निर्धारित करते हुए कोई स्पष्ट राष्ट्रीय जनजातीय नीति नहीं है। पिछला कार्यक्रम स्वयं प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा प्रतिपादित जनजाति विकास के लिये पंचशील कार्यक्रम था। अब समय है कि जनजाति- विशिष्ट व्यापक विकास हेतु एक राष्ट्रीय कार्रवाई योजना तैयार की जाए जो एक मार्गदर्शी कल्याण उपाय के रूप में कार्य करे।
F. अनु. जनजातियों की सूची में समावेशन से संबद्ध विवाद
- अनु. जनजातियों की सूची में शामिल किये जाने के लिये मांग प्रस्तुत करते समय अनेक, कभी-कभी हिंसक, आंदोलन हुए हैं। राजस्थान में गुज्जरों द्वारा तथा असम में कुछ समूहों द्वारा ऐसे विवादों के कुछ नवीनतम उदाहरण हैं।
संविधान के अनुच्छेद 342 में विनिर्धारित है:
(1) राष्ट्रपति, राज्यपाल के साथ परामर्श करने के बाद, एक सार्वजनिक नोटिस द्वारा जनजातियों अथवा जनजातियों के अंदर किसी भाग अथवा समूह को अथवा जनजातीय समुदायों को अधिसूचित कर सकते हैं।
(2) संसद, कानून के जरिये, खंड (1) के अंतर्गत जारी किसी अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनु. जनजाति को किसी जनजाति अथवा जनजाति समुदाय के अंदर शामिल अथवा अलग कर सकती है।
जून 1999 में, सरकार ने अनु. जनजातियों की सूचियों में सम्मिलित किये जाने अथवा उसमें से अलग करने के संबंध में प्रक्रियाएँ अनुमोदित की थीं।
इस प्रकार, ऐसे सभी प्राधिकारियों को इकट्ठा करने की एक पद्धति होनी चाहिये, जिसके अंतर्गत प्रमुख रूप से जनजातीय आबादी वाले राज्यों के परामर्श से, स्पष्ट रूप से परिभाषित प्राचलों (Parameters) के साथ, एक व्यापक क्रियाविधि तय करने का प्रयास किया जाना चाहिये।
G. सिफारिशें
यद्यपि पाँचवीं अनुसूची में सभी राज्यों ने ‘पेसा’ की दृष्टि से अनुपालन विधान अधिनियमित किये हैं, तथापि ग्राम सभा से निकायों को अन्य निकायों को उनकी शक्तियाँ प्रदान करके, उसके प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया है।
- संविधान की पाँचवीं अनुसूची के अंतर्गत राज्यपालों की वार्षिक रिपोर्टों को समय पर प्रस्तुत करना।
- जागरूकता अभियान आयोजित किये जाने चाहिये, जिससे कि जनजातीय लोगों को ‘पेसा’ के प्रावधानों और संविधान के 73वें संशोधन से अवगत कराया जा सके।
- विद्यमान भू-अभिलेखों में आमूल रूप से परिवर्तन अथवा व्यवस्थित ढंग से उनका पुनर्गठन किया जाना चाहिये।
- जनजातीय क्षेत्रों में कार्यान्वित की जा रही सरकारी नीतियों और विभिन्न विधानों को ‘पेसा’ (PESA) के प्रावधानों के साथ सामंजस्यपूर्ण बनाए जाने की ज़रूरत है।
- अनु. जनजातीय क्षेत्रों के लिये लागू होने वाले कानूनों का निर्माण संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूचियों के सिद्धांतों के अनुरूप किया जाना चाहिये।
- सरकार को ऐसे पुलिस, राजस्व और वन अधिकारियों का चयन करना चाहिये जो प्रशिक्षित हों और जो जिन लोगों की सेवा करनी है उन्हें समझें तथा उनके प्रति सहानुभूति बरतें।
- जनजातियों के कल्याण के लिये एक मार्गदशी चित्र के रूप में कार्य करने के लिये व्यापक विकास हेतु एक राष्ट्रीय कार्रवाई योजना तैयार और कार्यान्वित की जानी चाहिये।
- अनु. जनजातियों की सूची में जनजातियों को शमिल करने और उनके निष्कासन के निर्धारण में लगे प्राधिकारियों को, बड़ी अनु. जाति के लोगों की आबादी वाले राज्यों के साथ एक व्यापक प्रक्रिया के आधार पर, परामर्श करने की पद्धति अपनानी चाहिये।
असम में जनजाति विशिष्ट परिषदें
स्थानीय शासन के अन्य मुद्दों के लिये सिफारिशें
- असम सरकार, जनजाति विशिष्ट परिषदों-ग्राम परिषदों और पंचायती राज संस्थानों के बीच कार्यों का इस प्रकार से विभाजन कर सकती है कि अलग-अलग जनजातीय लाभार्थियों वाली स्कीमों को जनजाति विशिष्ट परिषदों को सौंपा जा सकता है तथा क्षेत्र विकास स्कीमें पंचायती राज संस्थानों को सौंपी जा सकती हैं।
- राज्य सरकारें एक ऐसी पद्धति शुरू कर सकती हैं, जिससे कम से कम परिषदों की स्थापना लागतें जनजातीय उप-योजना से इतर स्रोतों से पूरी की जा सकें तथा इन आवश्यकताओं को अगले वित्त आयोग के पूर्वानुमानों में शामिल किया जा सके।
- राज्य सरकारें उन नूतन उपायों का पता लगाने के लिये उपाय करें, जिन्हें क्षेत्र विकास हितों को प्रभावित किये बगैर जनजाति विशिष्ट परिषदों को सौंपा जा सके।
- जनजाति विशिष्ट परिषदों और पंचायती राज संस्थानों के संयुक्त प्रयासों के माध्यम से संगत क्षेत्रों में ज़िला तथा उप-ज़िला योजनाएँ तैयार करने के लिये उपयुक्त मार्गनिर्देश तैयार किये जा सकते हैं।
- यद्यपि पर्वतीय ज़िला परिषदों के पुररुद्धार के बारे में मणिपुर में समाज के विभिन्न वर्गों के बीच सर्वसम्मति कायम करने के लिये सतत् रूप से व कठोर प्रयास करने की ज़रूरत है, तथापि उस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में निर्वाचित ग्राम स्तर निकाय कायम करने के लिये उपयुक्त विधान तैयार करने के लिये तत्काल उपाय किये जाने चाहिये।
क्षेत्रीय संस्थानों में क्षमता निर्माण पर सिफारिशें
- मूल ‘विवाद निपटान प्रावधान’ को बहाल करने के लिये NEC अधिनियम, 1971 में उपयुक्त रूप से संशोधन किया जाए, जिससे कि परिषद के लिये ‘‘क्षेत्र में दो अथवा अधिक राज्यों के परस्पर हित के मुद्दों पर चर्चा करना और उनके संबंध में केंद्रीय सरकार को सलाह देना’’ आवश्यक हो।
- परिषद को क्षेत्र में सुरक्षा के अनुरक्षण के लिये सदस्य राज्यों द्वारा किये गए उपायों की समीक्षा करने की अपनी ज़िम्मेदारी का प्रभावी ढंग से निपटान करने में मदद देने के लिये समर्थ बनाने के वास्ते गृह मंत्रालय को परिषद सचिवालय को नियमित रूप से अपने ‘सुरक्षा समन्वय दायरे’ के अंदर रखना चाहिये।
- योजना आयोग को प्राथमिकताओं के साथ, न कि NEC द्वारा स्कीमों के आवंटन के साथ, एकीकृत क्षेत्रीय योजनाएँ तैयार करने के लिये एक रूपरेखा निर्धारित करनी चाहिये। क्षेत्रीय योजना के अंतर्गत, अंतर-क्षेत्रीय, अंतर-राज्य प्राथमिकताओं वाले क्षेत्रों पर बल देते हुए, जिनमें विवादों से बचने और क्षेत्रीय एकीकरण को प्रोत्साहित करने की क्षमता हो, ऐसे क्षेत्रों पर बल दिया जाना चाहिये।
- योजना आयोग को अपने मार्गनिर्देशों में उपयुक्त रूप से संशोधन करके, राज्य योजना निर्माण प्रक्रिया में NEC की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिये।
- अ-व्यपगत योग्य संसाधनों के केंद्रीय पूल (Non Lapsable Central Pool of Resources-NLCPR) से निधियाँ मंज़ूर करने की ज़िम्मेदारी पूर्वोत्तर परिषद (North Eastern Council-NEC) को सौंपी जानी चाहिये। NEC ‘पूल’ से वित्त पोषण के लिये प्रस्तावों की जाँच-पड़ताल करने के लिये और उनके वित्त-पोषण के संबंध में संबंधित मंत्रालयों के साथ समन्वय से, पद्धतियाँ तैयार करनी चाहिये।
- यह वांछनीय है कि मानव संसाधनों और अवस्थापना के विकास जैसे क्षेत्रों को शामिल करते हुए पूरे क्षेत्र के लिये एक दस वर्षीय भावी योजना तैयार की जाए।
- इस व्यापक योजना पर जल्द अनुवर्ती कार्रवाई करने के वास्ते, प्रधानमंत्री द्वारा नियमित रूप से मुख्यमंत्रियों के साथ समीक्षा की जानी चाहिये।
- पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय (Development of North Eastern Region-DONER) को समाप्त कर दिया जाना चाहिये तथा क्षेत्र के विकास की ज़िम्मेदारी, अवस्थापना क्षेत्रकों और अ-व्यपगत योग्य निधियों के उपयोग सहित, विषय संबद्ध मंत्रालय को बहाल किया जाना चाहिये तथा गृह मंत्रालय को नोडल मंत्रालय के रूप में कार्य करना चाहिये।
अध्याय-8 अन्य पिछडे़ वर्गों से संबद्ध मुद्दे
प्रस्तावना
- अन्य पिछड़े वर्गों (Other Backward Class-OBC) के लोगों के बीच (अल्पसंख्यकों सहित) बड़ी नाराजगी है कि उन्हें अनु. जातियों और अनु. जनजातियों के मामले में प्रदान किये गए व्यापक सुधारात्मक पैकेजों के लाभ नहीं दिये गए हैं। इस वजह से प्राय: संघर्ष हुए जो हिंसा में परिणत हो गए।
- संविधान के अनुच्छेद 15(4), 16 (4) और 340 (1) में ‘पिछड़ा वर्ग’ को संदर्भित किया गया है।
- अनुच्छेद 340 (1) के तहत गठित पहले पिछड़े आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1955 में प्रस्तुत की। केंद्रीय सरकार ने रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया।
- द्वितीय अखिल भारत पिछड़ा वर्ग आयोग-मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1980 में प्रस्तुत की। मंडल आयोग की रिपोर्ट को 1991 में अंशत: कार्यान्वित किया गया।
- भारत के महापंजीयक और जनगणना आयुक्त ने जाति-वार सूचना एकत्र करने की प्रथा को (अनु. जातियों और अनु. जनजातियों को छोड़कर) 1931 की जनगणना से बंद कर दिया। मंडल आयोग ने भी, जिसने ‘अ.पि. वर्ग’ आबादी का अनुमान देश की कुल आबादी का 52 प्रतिशत लगाया था, 1931 की जनगणना डाटा का इस्तेमाल किया था।
- देश में अन्य पिछड़े वर्गों के संबंध में कोई समाजार्थिक सर्वेक्षण आयोजित नहीं किया गया। इसलिये यह आवश्यक है कि सरकार तुंरत ‘अन्य पिछड़े वर्गों’ का एक समाजार्थिक सर्वेक्षण आयोजित करे।
- NSSO डाटा के एक विश्लेषण में विभिन्न सर्वेक्षण और रिपोर्टें सम्मिलित हैं तथा अ.पि. वर्गों की समाजार्थिक स्थिति को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है: निर्धनता, स्वास्थ्य संकेतक, बेरोज़गारी, परिसंपत्ति/मिल्कियत, तथा ऋणग्रस्तता।
सामाजिक सशक्तीकरण
- स्पष्टत: अ.पि. वर्गों की समाजार्थिक स्थितियाँ ऐसी हैं कि इसके लिये उन्हें अन्यों के समान लाने तथा उन्हें मुख्यधारा के साथ जोड़ने के लिये उपाय करने की ज़रूरत है।
आर्थिक सशक्तीकरण
- NSSO सर्वेक्षणों से पता चलता है कि अ.पि. वर्गों के बीच निर्धनता का भार, एक ओर अनु. जातियों/अनु. जनजातियों के बीच और दूसरी ओर ‘अन्यों’ के बीच मध्यवर्ती है। हमने यह भी देखा कि किस प्रकार मुक्त बेरोज़गारी ‘अन्यों’ की तुलना में सतत् रूप से अन्य पिछड़े वर्गों के बीच अधिक है। जहाँ तक परिसंपत्ति मिल्कियत (भूमि सहित) का संबंध है, मिल्कियत, ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में ‘अन्यों’ की तुलना में लगभग दो-तिहाई है। ऋणग्रस्तता का भार और परिणामत: परिसंपत्ति की तुलना में ऋण का अनुपात सभी सामाजिक समूहों में अ.पि. वर्गों के बीच सबसे अधिक है।
- स्पष्टत:, यदि अ.पि. वर्गों को ‘अन्यों’ के समान लाया जाए तथा मुख्य धारा का एक भाग बनाया जाए तो उन्हें रोज़गार व आय सृजन कार्यकलापों तथा निर्धनता उपशमन के जरिये आर्थिक रूप से सशक्त बनाना होगा।
सिफारिशें
- सरकार, एक सर्वेक्षण की क्रियाविधि तय कर सकती है और अन्य पिछड़े वर्गों का राज्य-वार समाजार्थिक सर्वेक्षण आयोजित कर सकती है जो उनकी स्थिति सुधारने के लिये नीतियों और कार्यक्रमों का एक आधार बन सकता है।
- सरकार द्वारा अ.पि. वर्गों की क्षमता निर्माण के लिये एक व्यापक स्कीम तैयार कर उसे कार्यान्वित करने की ज़रूरत है जिससे वे शेष समाज के बराबर आ सकेंगे।
अध्याय-9 धार्मिक संघर्ष
प्रस्तावना
- आजादी के बाद, देश में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसाएँ हुई हैं। यद्यपि अनेक सांप्रदायिक दंगों से प्रभावी ढंग से निपटा गया है, तथापि प्रशासन द्वारा तुरंत और प्रभावी ढंग से सांप्रदायिक स्थितियों से निपटने में अनेक गंभीर असफलताएँ भी सामने आई हैं।
- आयोग ने विभिन्न आयोगों की रिपोर्टों की जाँच की और निम्नलिखित समस्याओं और कमियों का उल्लेख किया:
व्यवस्था संबंधी समस्याएँ
- विवाद निपटान तंत्र अपर्याप्त हैं;
- एकत्र की गई आसूचना पूर्णत: सही, सामयिक और कार्रवाई-योग्य नहीं होती; और
- घटिया कार्मिक नीतियाँ- अधिकारियों का असंतोषजनक चयन और अल्प कार्यावधि - जिसकी वजह से स्थानीय स्थितियों की अपर्याप्त समझ होती है।
प्रशासनिक कमियाँ
- प्रशासन और पुलिस उन संकेतकों का अंदाजा नहीं लगा पाते और उन्हें समझ नहीं पाते जिनकी वजह से पहले हिंसा हुई थी;
- प्रथम संकेत मिलने के बाद भी, प्रशासन और पुलिस धीमी प्रतिक्रिया करते हैं;
- क्षेत्रीय कार्यकर्त्ता अपने वरिष्ठ अधिकारियों से अनुदेश प्राप्त करते हैं और उनकी प्रतीक्षा करते हैं तथा वरिष्ठ अधिकारी स्थानीय पहल और प्राधिकारी की अवहेलना करते हुए मामले में दखल देते हैं;
- कभी-कभी प्रशासन और पुलिस पक्षपातपूर्ण ढंग से कार्रवाई करती है।
- कभी-कभी नेतृत्व असफल रहता है, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिये जिम्मेदार व्यक्ति घटना की गंभीरता की अनदेखी कर देते हैं।
दंगा पश्चात् प्रबंधन कमियाँ
- प्राय: पुनर्वास की उपेक्षा की जाती है, जिसकी वजह से गुस्सा और आक्रोश पैदा होता है;
- अधिकारियों को उनकी असफलताओं के लिये जिम्मेदार नहीं ठहराया जाता, इस प्रकार सुस्ती और अक्षमता बढ़ती है।
- जहाँ तक संघर्षों के समाधान के लिये क्षमता निर्माण का संबंध है, संघर्षपूर्ण स्थितियों से निपटने के लिये आंतरिक पद्धतियाँ विकसित करने में नागरिकों की और भागीदारी की ज़रूरत है। इन नागरिक-केंद्रिक पहलों में निम्नलिखित सम्मिलित होंगी:
- पुलिस के साथ सहयोग और समन्वयन (सामुदायिक पुलिस व्यवस्था)
- प्रशासन के साथ सहयोग और समन्वय (नागरिक समितियाँ)
सामुदायिक पुलिस व्यवस्था
- समुदाय की ज़रूरतों में अति प्रतिक्रियाशील ढंग से पुलिस की भागीदारी तथा बदले में समुदाय द्वारा पुलिस व्यवस्था में भाग लेना तथा पुलिस की सहायता करना, सांप्रदायिक विवादों से निपटने के लिये एक आदर्श स्थिति है।
- सामुदायिक पुलिस व्यवस्था की अवधारणा दक्षिण अफ्रीका गणराज्य के संविधान में सम्मिलित है।
इसके सामान्य सिद्धांत निम्नलिखित हैं:
- समुदाय तथा पुलिस के बीच भागीदारी कायम करना और उसे बनाए रखना।
- पुलिस और समुदाय के बीच संचार और सहयोग को प्रोत्साहित करना।
- समुदाय में पुलिस सेवाएँ प्रदान करने में सुधार।
- सेवा में पारदर्शिता तथा समुदाय के प्रति सेवा की जवाबदेही में सुधार करना।
- पुलिस और समुदाय द्वारा संयुक्त समस्या विनिर्धारण और समस्या समाधान को प्रोत्साहित करना।
परिभाषा
- ‘‘सामुदायिक पुलिस पद्धति, अपराध की रोकथाम और पता लगाने, सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने और स्थानीय विवादों का निपटान करने के लिये समुदाय के साथ कार्य करने की एक क्षेत्र विशिष्ट सक्रिय प्रक्रिया है जिससे कि बेहतर जीवन और सुरक्षा की भावना प्रदान की जा सके’’।
- भारत में अनेक राज्यों ने किसी न किसी रूप में सामुदायिक पद्धति प्रारंभ की है। चाहे यह आंध्र प्रदेश में ‘मैत्री’ हो, तमिलनाडु में ‘फ्रेंडस आफ पुलिस’ हो, भिवंडी (महाराष्ट्र) में ‘मोहल्ला समितियाँ’ हों, पूरे देश से इनकी अनेक सफल कहानियाँ सामने आई हैं।
सामुदायिक पुलिस पद्धति में आयोग के सुझाव
- सामुदायिक पुलिस पद्धति एक दर्शन है और न कि कुछेक पहलों की एक पद्धति मात्र।
- सामुदायिक पुलिस पद्धति की सफलता नागरिकों में एक ऐसी भावना पैदा करने में निहित है कि उनके इलाके में पुलिस पद्धति में इनका योगदान है और वे समुदाय की रक्षा की पहली पंक्ति भी बनाते हैं।
- सामुदायिक पुलिस पद्धति का विचार सफल हो सकता है यदि वे पुलिस-प्रेरित न होकर जन-प्रेरित हों।
- अन्य विभागों और संगठनों के कार्यकलापों के साथ अभिसरण का प्रयास किया जाना चाहिये।
ज़िला प्रशासन तथा नागरिक शांति समितियाँ
- सांप्रदायिक तनाव के समय ज़िलों में कार्यरत प्रशासकों ने शांति समितियाँ गठित कीं, जिनमें राजनीतिज्ञ तथा विभिन्न समुदायों के प्रभावशाली सदस्य सम्मिलित थे जिन्होंने शांति समितियों के विचार-विमर्श में और शांति मोर्चों में सार्थक रूप से भाग लिया।
- इन समितियों को समूहों और समुदायों के बीच विवाद निपटान के लिये एक महत्त्वपूर्ण मंच के रूप में संस्थागत बनाया जाना चाहिये। आयोग का विचार है कि सांप्रदायिक तनाव उत्पन्न करने के संभावित मुद्दों का समाधान करने के लिये ज़िला शांति समितियों को प्रभावी साधन बनाया जाना चाहिये। इन समितियों का पुलिस अधीक्षक के परामर्श से ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा गठन किया जाना चाहिये।
- ऊपर सुझाई गई ज़िला शांति समितियों की तरह ही ‘मोहल्ला समितियाँ’ गठित करने की भी ज़रूरत है।
सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005
(Communal Violation [Prevention, Control and Rehabilation of Victims] Bill, 2005)
- सांप्रदायिक हिंसा को रोकने तथा नियंत्रित करने के लिये, ऐसी हिंसा से पीड़ितों के पुनर्वास सहित शीघ्र जाँच-पड़ताल और विचारण अनिवार्य बनाने और वृद्धिकारी दंड आरोपित करने के लिये एक वृहद दृष्टिकोण की व्यवस्था करने हेतु, केंद्रीय और राज्य सरकारों को और सशक्त बनाने के उद्देश्य से, भारत सरकार ने 2005 में संसद में एक विधेयक प्रस्तुत किया था।
- संक्षित विश्लेषण से पता चलता है कि सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिये संभवत: किसी अलग विधान की ज़रूरत नहीं है क्योंकि सांप्रदायिक हिंसा के सभी पहलुओं से निपटने के लिये पर्याप्त प्रावधान मौजूद हैं। उदाहरणार्थ, भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code-IPC) में अनेक प्रावधान हैं जो धार्मिक, जातीय, भाषायी अथवा क्षेत्रीय समूहों, जातियों और समुदाय से संबंधित अपराधों को व्यापक रूप से डील करते हैं।
- धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, रिहाइश, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को प्रोत्साहित करना तथा ऐसे कार्य करना जो सामंजस्य बनाए रखने के लिये प्रतिकूल हों।
- इसके अलावा IPC की धारा 505 की उप-धारा 1 (ग), (2) और (3) भी, धर्म, नस्ल, जन्म स्थान आदि के आधार पर श्रेणियों के बीच शत्रुता, घृणा अथवा दुर्भावना को प्रोत्साहित करने से संबद्ध अपराधों के साथ डील करती है।
संक्षेप में इनमें सम्मिलित हैं:
1. धारा 295 किसी श्रेणी के धर्म को बेइज्जत करने के उद्देश्य से धर्म स्थल को नुकसान पहुँचाना अथवा अपवित्र करना।
2. धारा 295 ।- किसी श्रेणी के धार्मिक विश्वास अथवा धर्म को बेइज्जत करके उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्य।
3. धारा 296 - धार्मिक सभा में गड़बड़ी करना।
4. धारा 297 - कब्रगाह स्थलों आदि पर अतिक्रमण।
5. धारा 298 - किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से शब्द उच्चारित करना आदि।
- इन सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए आयोग का मत है कि सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिये किसी पृथक् विधान की ज़रूरत नहीं है तथा इससे बुनियादी कानूनों के सारवान प्रावधानों का प्रयोग प्रतिबंधित भी हो सकता है। जहाँ आवश्यक हो, मूल कानूनों को मजबूत बनाना बेहतर होगा।
- हालाँकि सांप्रदायिक हिंसा (रोकथाम, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक 2005 में कुछ नूतन प्रावधान हैं जिनसे सांप्रदायिक हिंसा से निपटने में एक सामाजिक संदर्भ में ऐसी हिंसा से जुड़ी कुरीतियों को नकारने में सरकार के हाथ और मजबूत होंगे, यदि उन्हें विद्यमान कानूनों में शामिल कर लिया जाए।
प्रावधान निम्न प्रकार हैं:
- खंड 19(2) : भारतीय दंड संहिता अथवा अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी अन्य अधिनियम में दी गई किसी बात के बावजूद, जो कोई व्यक्ति कोई कार्य करता है अथवा नहीं करता है, जो सांप्रदायिक हिंसा है, मृत्यु अथवा आजीवन कारावास के साथ दंडनीय किसी अपराध के मामले को छोड़कर, ऐसी सजा के साथ दंडनीय होगा जो भा.द.सं. में अथवा अनुसूची में विनिर्दिष्ट किसी अन्य अधिनियम में सजा की सबसे लंबी अवधि से दुगनी और उस अपराध के लिये सर्वाधिक जुर्माने से दुगनी हो सकती है। बशर्तें कि यदि कोई व्यक्ति सरकारी सेवक अथवा इस अधिनियम के किन्हीं प्रावधानों अथवा उसके तहत बनाए गए आदेशों के अंतर्गत सक्षम प्राधिकारी द्वारा कार्य करने के लिये प्राधिकृत कोई अन्य व्यक्ति सांप्रदायिक हिंसा करता है, ऊपर वर्णित प्रावधानों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किये बगैर, सजा के साथ दंडनीय होगा, जो पाँच वर्ष से कम नहीं होगी।
- खंड 19(3) : कोई भी व्यक्ति जो उप-धारा (1) के तहत किसी अपराध का कसूरवार हो, सरकार के अधीन कोई पद अथवा सेवा धारित करने के लिये, ऐसी सजा की तारीख से छ: वर्ष की अवधि के लिये, अपात्र होगा।
- खंड 24(1): राज्य सरकार, इस प्रयोजनार्थ एक अधिसूचना जारी करके अव्यवस्था की अवधि के दौरान किये गए अनुसूचित अपराध के विचारण के लिये एक अथवा अधिक विशेष न्यायालय स्थापित करेगी।
- खंड 24(2): उप-धारा(1) में दी गई किसी बात के बावजूद, यदि किसी राज्य में विद्यमान स्थिति के विचारण हेतु, राज्य से बाहर अतिरिक्त विशेष न्यायालय स्थापित करना उचित होगा, यदि:
(a) उचित अथवा निष्पक्ष अथवा अत्यंत शीघ्रता से पूरा होने की संभावना नहीं है;
(b) शांति भंग हुए बिना व्यवहार्य होने की संभावना नहीं है अथवा अभियुक्त, गवाहों, सरकारी अभियोजक और जज अथवा उनमें से किसी एक की सुरक्षा को गंभीर खतरा हो;
(c) अन्यथा न्याय के हित में नहीं है, वह केंद्रीय सरकार से, ऐसे सांप्रदायिक अशांत क्षेत्र की दृष्टि से, राज्य से बाहर एक अतिरिक्त विशेष न्यायालय स्थापित करने का अनुरोध कर सकती है।
इन्हें IPC और CrPC में ही सम्मिलित किया जाना चाहिये, विशेष रूप से क्योंकि सरकारी व्यवस्था के अनुरक्षण से संबंधित अनेक समर्थनकारी और पूरक प्रावधान विद्यमान हैं जिनसे उपरोक्त प्रावधानों का प्रभावी कार्यान्वयन सुकर हो सकता है।
- विधेयक की एक अन्य विशेषता यह है कि इसके अंतर्गत सामुदायिक गड़बड़ियों द्वारा प्रभावित व्यक्तियों के पुनर्वास और राहत प्रदान करने के प्रयोजनार्थ एक विस्तृत संस्थागत प्रणाली की व्यवस्था की गई है।
- एक तुलना के बाद यह स्पष्ट है कि विधेयक के तहत ऐसी पद्धतियाँ कायम करने का प्रस्ताव है जो सामान्य रूप से एकसमान कार्यकर्त्ताओं और प्राधिकारियों की भागीदारी की परिकल्पना करते हुए, DMA के तहत पहले से अनिवार्य पद्धतियों के लगभग समान हैं।
- जहाँ एक के अंतर्गत राहत और पुनर्वास सहित, आपदा प्रबंधन से संबद्ध उपायों के साथ डील किया गया है, वहीं दूसरी, सांप्रदायिक हिंसा के कारण आवश्यक राहत और पुनर्वास से संबंधित है।
सिफारिशें
- सामुदायिक पुलिस व्यवस्था को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। निर्धारित सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिये।
- ज़िला शांति समितियों/एकता परिषदों को सांप्रदायिक असमंजस्य पैदा करने की संभावना वाले मुद्दों का समाधान करने के कारगर साधन बनाए जाएँ। पुलिस आयुक्त वाली प्रणाली में इन समितियों की स्थापना पुलिस आयुक्त द्वारा पुलिस आयुक्त के साथ परामर्श करके की जा सकती है। ये समितियाँ स्थायी किस्म की होनी चाहिये। इन समितियों को सांप्रदायिक संघर्षों के रूप में बदलने की क्षमता वाली स्थानीय समस्याओं का पता लगाना चाहिये और शीघ्रातिशीघ्र उनसे निपटने के लिये साधन सुझाने चाहिये। इसके अलावा, इसी प्रकार से मोहल्ला समितियाँ भी गठित की जानी चाहिये।
- संघर्ष प्रधान क्षेत्रों में, पुलिस को ऐसे कार्यक्रम तैयार करने चाहिये जिनमें लक्ष्य आबादी वाले सदस्यों को, विश्वास निर्माण पद्धति के रूप में पुलिस के साथ विचार-विमर्श करने का अवसर प्राप्त होना चाहिये।
- सांप्रदायिक हिंसा से निपटने के लिये एक पृथक् कानून की ज़रूरत नहीं है, भारतीय दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता के विद्यमान प्रावधानों को सुदृढ़ बनाया जाना चाहिये। यह निम्नलिखित की व्यवस्था करके प्राप्त किया जा सकता है:
(i) सांप्रदायिक अपराधों के लिये वर्द्वित दंड।
(ii) सांप्रदायिक हिंसा से संबद्ध मामलों के शीघ्र विचारण के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना।
(iii) सांप्रदायिक अपराधों के मामलों में कार्यकारी मजिस्ट्रटों को रिमांड की शक्तियाँ प्रदान करना।
(iv) राहत और पुनर्वास के मानदंडों का निर्धारण।
- सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को पुनर्वास और राहत प्रदान करने के लिये ज़िला प्रबंधन अधिनियम 2005 के अंतर्गत व्यवस्थित प्रणाली का कारगर ढंग से प्रयोग किया जाना चाहिये।
अध्याय-10 राजनीति और विवाद
प्रस्तावना
- भारत जैसे विषम देश में जहाँ भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों की शिकायतें होती हैं जो असमाधित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों के फलस्वरूप उत्पन्न होती हैं, यह महत्वपूर्ण है कि ऐसी शिकायतों के समाधान के लिये प्रजातांत्रिक पद्धति का इस्तेमाल किया जाए। इस संबंध में, राजनीतिक दलों को बड़ी अहम भूमिका निभानी है। जब राजनीतिक प्रक्रिया के तहत ऐसी वैध मांगों का समाधान नहीं हो पाता, तब विवाद उत्पन्न होते हैं। आजकल वाम उग्रवाद आंदोलन से प्रभावित क्षेत्रों में यह राजनीतिक प्रक्रिया की असफलता है जिसकी वजह से आंदोलन को लोगों को जुटाने में और उन्हें अपने साथ मिलाने में सफलता मिली।
- आजकल विवादों का समाधान करने के लिये प्रजातांत्रिक पद्धति का इस्तेमाल करना कठिन हो गया है। इसका एक कारण बाध्यकर राजनीति है जिसके अंतर्गत प्रत्येक राजनीतिक समूह की बहु-पहचान है और विवाद क्षेत्रीय मुद्दों पर हावी हो जाते हैं तथा उन मुद्दों के प्रति क्षेत्रीय रुचि की वजह से लगभग सभी राजनीतिक दल कठोर रुख अपनाते हैं जिसकी वजह से विवाद ‘ठंडे’ पड़ जाते हैं। जल के संबंध में अंतर-राज्य विवाद, केंद्रीय परियोजनाओं की स्थापना आदि इनके उदाहरण हैं जहाँ एक राज्य के राजनीतिक दल, राष्ट्रीय दलों सहित, दूसरे राज्य के खिलाफ एक आम रुख अपनाते हैं और इस प्रकार क्षेत्र में एक विवाद का स्रोत बन जाता है।
राजनीति तथा पहचान संबंधी मुद्दे
- पहचान संबंधी मुद्दे भारत में अनूठे नहीं हैं, यह एक विश्वव्यापी लक्षण है। यद्यपि ये आज के भारत में विशेष तीव्रता के साथ विद्यमान हैं जहाँ समुदायों ने भाषा, धर्म, मत, जाति और जनजाति के आधार पर अपनी पहचान को सुदृढ़ किया है। ऐसे पहचान संबंधी मुद्दों के आधार पर विवाद प्राय: हिंसा का रूप ले लेते हैं। हाल ही का एक उदाहरण जनजातियों के रूप में पहचाने जाने की समाज के कुछ वर्गों द्वारा मांग, एक बढ़ता विवाद है, जैसा कि राजस्थान में गुज्जर समुदाय द्वारा किये गए आंदोलन और मीणा समुदाय द्वारा इसका विरोध किये जाने से स्पष्ट है।
- मामला इस तथ्य से और गंभीर हो जाता है कि पहचान संबंधी मुद्दे प्रमुख रूप से यह तय करते हैं कि राजनीतिक दलों को किस प्रकार आचरण और कार्य करना चाहिये। चाहे चुनाव का समय हो अथवा विधानमंडलों में अथवा राजनीतिक दलों के बीच गठबंधन गठित करने की बात हो, पहचान संबंधी मुद्दों पर आधारित समीकरण मार्गदर्शी सिद्धांत बन जाते हैं।
- पहचान राजनीति ने मूलभूत परिवर्तन प्रेरित किये हैं कि किस प्रकार राजनीतिक दल मतदाताओं को लुभाते हैं। आजादी के शुरू के दिनों में, राजनीतिक दल, जाति, धर्म, समुदाय अथवा श्रेणी के बगैर सभी वर्गों को लुभाते थे। वे, किसी एक वर्ग के हित की बजाए समावेशी राष्ट्रीय छवि प्रस्तुत करते थे। राजनीतिज्ञों ने, मतदाताओं को आकर्षित करने के लिये समग्र विकास और साथ ही गरीबी-रोधी, ग्रामीण विकास अथवा रोज़गार कार्यक्रमों की ज़रूरत का इस्तेमाल किया।
- संकीर्ण और स्थानीय पहचानों के फैलाव पर आधारित राजनीतिक दल पद्धति का बिखराव अविरत रूप से जारी रह सकता है। प्रत्येक घटक अपनी राजनीतिक पहचान खोजने के लिये उप-घटकों को बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिये आंध्र प्रदेश में, राज्य के दो प्रमुख दलित समुदायों ‘माला’ और ‘मदिगा’ के बीच संघर्ष के कारण पृथक राजनीतिक संगठन कायम हो गए हैं।
- यद्यपि एक दृष्टि से ऐसी घटना को देश की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया में मार्जिनकृत समूहों के समावेशन में एक अनिवार्य कदम के रूप में देखा जा सकता है, तथापि इससे अनवरत संघर्ष और विवाद भी पैदा हो सकते हैं।
सिफारिशें
- राजनीतिक दलों को हमारी प्रजातांत्रिक पद्धति में अनुमत्य विसम्मति के स्वरूपों के संबंध में एक आचरण संहिता तैयार करनी चाहिये। इसे एक कानून में शामिल किया जा सकता है, जो सभी राजनीतिक दलों और उनके कार्यकर्त्ताओं पर लागू होगी। कानून के अंतर्गत राजनीतिक दलों और उनके कार्यकताओं के विरुद्ध आपराधिक मामले फाइल करने और रोधक के रूप में जुर्माना आरोपित करने की व्यवस्था करके प्रजातांत्रिक विसम्मति के निर्धारित स्वरूपों का उल्ल्ंघन करने वालों के विरूद्ध दंडात्मक कार्रवाई भी निर्धारित की जा सकती है। आपराधिक मामले फाइल करने और रोधक के रूप में ज़ुर्माना आरोपित करने की व्यवस्था करके, प्रजातांत्रिक विसम्मति के निर्धारित स्वरूपों का उल्लंघन करने वालों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई भी निर्धारित की जा सकती है।
- इस बात पर आम सहमति होनी चाहिये कि पहचान की राजनीति प्रजातंत्र द्वारा प्रदत्त रूपरेखा के अंदर की जाएगी और इसे असाध्य संघर्ष का रूप नहीं दिया जाएगा, जिसकी वजह से हिंसा पैदा हो। राजनीतिक दलों को ऐसी आम सहमति कायम करने के लिये क्षमता निर्मित करने की ज़रूरत है।
अध्याय 11: क्षेत्रीय असमानताएँ
संदर्भ
- अनेक क्षेत्रीय संघर्ष देश अथवा उस राज्य के शेष भार्गों की तुलना में, जिस क्षेत्र विशेष का वे भाग हैं, विकास में असमानताओं का परिणाम हैं।
- देश के अंदर उसकी संघटक इकाइयों के निवल राज्य घरेलू उत्पाद (Net State Domestic Product-NSDP) की माप और तुलना विद्यमान असंतुलनों की एक झलक प्रस्तुत करती है।
- NSDP के संबंध में डाटा से स्पष्टत: पता चलता है कि अधिकतम से न्यूनतम अनुपात की दृष्टि से संपन्न और अ-संपन्न राज्यों के बीच अंतर में विगत चार दशकों के दौरान वृद्धि हुई है।
- न केवल राज्यों के बीच असमानताओं में वृद्धि हुई है बल्कि क्षेत्रों के बीच भी व्यापक असमानता है।
- राज्य-वार डाटा से पता चलता है कि पश्चिम बंगाल को छोड़कर पूर्वी क्षेत्र, पश्चिम और दक्षिण की तुलना में विकास में पिछड़ा है। उभरती स्थिति से क्षेत्रों के बीच भेद स्पष्ट है- भारत के पश्चिम और दक्षिण राज्य- एक ऐसी श्रेणी जो देश में पूर्व और उत्तर से स्पष्ट रूप से भिन्न है।
- क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने तथा एक ऐसा संतुलित विकास प्रोत्साहित करने में, जिसमें सभी क्षेत्र और इलाके विकास में समर्थ हों, सरकारों को एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है।
अंतर-राज्य विषमताएँ
- आंध्र प्रदेश में तेलंगाना क्षेत्र इसका उदाहरण है। भौगोलिक दृष्टि से आंध्र प्रदेश राज्य में तीन क्षेत्र सम्मिलित हैं।
- बताया गया है कि तेलंगाना में साक्षरता दर केवल 55.95% है, जबकि तटीय आंध्र में 63.58: और रायलसीमा में 60.53 प्रतिशत तथा राजधानी नगर में 79.04% है।
प्रशासनिक दृष्टिकोण
- यद्यपि क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के लिये सर्वोत्तम प्रणाली के संबंध में कोई ऐतिहासिक सर्वसम्मति नहीं है, तथापि दो तरीके हैं।
- पहला कार्य पिछड़े क्षेत्रों को प्रबलीकृत करना और उन्हें अतिरिक्त संसाधन और निवेश उपलब्ध कराना है, ताकि वे अपनी संरचनात्मक कमियों पर काबू पा सकें, जो उनके पिछड़ेपन में योगदान देती है।
- दूसरा विचार यह है कि अपनाए जाने वाले नीतिगत निर्देशों और कार्यनीतियों से असंगत नीतियों में कमी आएगी और ऐसे क्षेत्रों की अंतर्निहित शक्ति को समर्थन प्राप्त होगा और उपयुक्त संरचनाओं के एक विवेकपूर्ण मिश्रण के ज़रिये कम विकसित राज्यों और इलाकों के आर्थिक और सामाजिक विकास के लिये समग्र परिवेश में सुधार होगा।
- कुछ राज्यों ने पहले ही विशेष बोर्ड और प्राधिकरण गठित किये हैं, जैसे कि पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिये क्षेत्र विकास बोर्ड (Area Development Board)ए किंतु ये वांछित परिणाम प्राप्त करने में खासतौर से प्रभावी नहीं हुए हैं। कार्यों के बीच दोहरेपन के परिणामस्वरूप दुर्लभ संसाधन का अपव्यय हो जाता है।
- आयोग की सिफारिश है कि क्षेत्रीय असंतुलनों को दूर करने के लिये प्रयास स्थानीय शासी एजेंसियों के माध्यम से किये जाएँ, जैसे कि ज़िला परिषद व अन्य, न कि क्षेत्र विकास बोर्डों और प्राधिकरणों, जैसे- ‘विशेष प्रयोजन वाहनों’ के माध्यम से।
पिछड़े क्षेत्रों का विनिर्धारण
- हमारे देश में आर्थिक और सामाजिक विकास का विश्लेषण प्राय: राज्य स्तर पर किया जाता है।
- लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि राज्य स्तर पर विश्लेषण में राज्य के अंदर भिन्न-भिन्न विकास प्रवृत्तियों को शामिल कर लिया जाए।
- समय के दौरान कुल मिलाकर राज्य की बजाय एक यूनिट के रूप में ज़िले पर बल दिये जाने की प्रवृत्ति कायम हुई है।
- कुल मिलाकर पिछड़े क्षेत्रों का विनिर्धारण करने के लिये दृष्टिकोण भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। स्पष्टत: पिछड़े क्षेत्रों का विनिर्धारण करने के लिये एक मानक मापदंड निर्धारित करने की ज़रूरत है।
- यह आवश्यक है कि साक्षरता और शिशु मृत्यु दरों, जैसे- मानव विकास संकेतकों को मापदंड के अंदर शामिल किया जाना चाहिये।
- जहाँ तक पिछड़ेपन की परिभाषा के लिये भौगोलिक यूनिट का संबंध है, आयोग का मत है कि जैसा कि बी. शिवरमन और हनुमंत राव समितियों ने सिफारिश की है, विनिर्धारण के लिये ब्लॉक एक यूनिट होनी चाहिये।
विकास के लिये समग्र परिवेश
- अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों में समाज सेवाओं और अवस्थापना में निवेश करने हेतु ज़रूरत निश्चित रूप से अधिक विकसित राज्यों की तुलना में पिछड़े राज्यों में अधिक है।
- पिछड़े राज्यों में सरकारें वित्तीय रूप से कमज़ोर हैं, परिणामस्वरूप वे अधिक विकसित राज्यों के बराबर आने के लिये अपेक्षित विशाल निवेशों का वित्तपोषण करने के लिये पर्याप्त संसाधन जुटाने की स्थिति में नहीं है। सामान्यत: पिछड़े राज्य घटिया अवस्थापना की वजह से, जिसे संसाधनों के अभाव में उन्न्त नहीं बनाया जा सकता। पर्याप्त मात्रा में निजी निवेश आकर्षित करने में असमर्थ होते हैं। \
- निष्कर्ष रूप से चुनौती इस कुचक्र को तोड़ने की है। केंद्रीय सरकार ने जनवरी 2007 में पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि (Back Ward Regions Grant Fund-BRGF) कार्यक्रम शुरू किया है।
- BRGF से उपायों के वित्त पोषण में प्रमुख उद्देश्य, स्थानीय क्षेत्र विकास में न्यूनतम मानकीय अंतरों को समाप्त करना, भौतिक अवस्थापना, स्वास्थ्य और शिक्षा तथा भू-उत्पादकता में सामाजिक उपलब्धियाँ होनी चाहिये।
- कुल मिलाकर ऐसे निधियन के लिये दृष्टिकोण परिणामोन्मुखी होना चाहिये। ऐसे मामलों में धन की व्यवस्था वांछित परिणाम प्राप्त करने के लिये एक तंत्र के रूप में जानी चाहिये, न कि खुद ही अंत के रूप में, जैसा कि विगत में किया गया है।
सिफारिशें
1. मानव विकास के संकेतकों के आधार पर निर्धनता, साक्षरता और शिशु मृत्यु दरों सहित, सामाजिक और आर्थिक अवस्थापना के सूचकों के साथ-साथ पिछड़े क्षेत्रों का विनिर्धारण करने के लिये (एक यूनिट के रूप में ब्लॉक के साथ) एक मिश्रित मापदंड योजना आयोग द्वारा 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिये तैयार किया जाना चाहिये।
2. केंद्रीय और राज्य सरकारों को अधिक पिछड़े क्षेत्रों को लक्षित करते हुए निधियों के ब्लॉक-वार अंतरण हेतु एक सूत्र अपनाना चाहिये।
3. राज्य के अंदर अधिक पिछड़े क्षेत्रों को विशेष रूप से सुदृढ़ करने के लिये अधिशासन ज़रूरतों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये। ‘विशेष प्रयोजन इकाइयों,’ जैसे कि पिछड़ा क्षेत्र विकास बोर्ड और प्राधिकरणों की अंतर राज्य विषमताओं को कम करने में, भूमिका की समीक्षा करने की ज़रूरत है। स्थानीय शासनों को सुदृढ़ बनाने और उन्हें उत्तरदायी तथा जवाबदेह बनाना परामर्श योग्य है।
4. अंतर-राज्य विषमताओं में पर्याप्त रूप से कमी प्राप्त करने वाले राज्यों को (विकसित राज्यों सहित) पुरस्कृत करने की एक पद्धति लागू की जानी चाहिये।
5. कम विकसित राज्यों और ऐसे राज्यों में पिछड़े क्षेत्रों में अंतर-ज़िला स्तर पर प्रमुख अवस्थापना का निर्माण करने के लिये अतिरिक्त निधियाँ उपलब्ध कराए जाने की ज़रूरत है। सहायता की मात्रा ऐसे क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की संख्या के अनुपात होनी चाहिये।
6. ऐसे सभी निधियन के लिये दृष्टिकोण परिणामोन्मुखी होना चाहिये। कार्यनीति, मानव और स्थानीय विकास के स्वीकार्य न्यूनतम मानदंडों की परिभाषा इस प्रकार से करने की होनी चाहिये, जिसे देश में प्रत्येक ब्लॉक द्वारा प्राप्त किया जाए तथा नीतियाँ, पहल और वित्त पोषण के ढंग अंतरों को पाटने तथा इस प्रकार परिभाषित करने के विचार द्वारा मार्गदर्शित होनी चाहिये।
अध्याय 12: पूर्वोत्तर में संघर्ष
प्रस्तावना
- 50 वर्ष से अधिक समय के बाद भी पूर्वोत्तर में लगातार हिंसक संघर्षों की कड़ी कायम है, जो प्रमुख रूप से विद्रोहियों द्वारा की जा रही है, जिनकी मांग पूर्ण स्वायत्तता से लेकर और अधिक राजनीतिक प्रभुसत्ता से संबंधित है।
- बगावत ने हज़ारों व्यक्तियों की जान ली है, जिनमें सुरक्षा बल और नागरिक सभी शामिल हैं।
बगावत की जड़ें:
- पूर्वोत्तर में बगावत की जड़ें इसके भूगोल, इतिहास और अनेक समाजार्थिक कारणों में छिपी है।
- क्षेत्र की 98 प्रतिशत सीमाएँ अंतर्राष्ट्रीय सीमाएँ हैं, जो शेष भारत के साथ क्षेत्र की कठिन भौगोलिक संयोजकता का संकेत है।
- यद्यपि क्षेत्र की आबादी का हिस्सा जो लगभग 3.90 करोड़ है, राष्ट्रीय आबादी का मात्र 3 प्रतिशत है, तथापि 1951-2001 के बीच इसकी वृद्धि दर 200 प्रतिशत से अधिक रही है, जिससे आजीविकाओं पर बड़ा बोझ पड़ा है और भू-विखंडन को बढ़ावा दिया है।
- सामान्यत: असम को छोड़कर पूरे क्षेत्र की आबादी में जनजातियों की प्रतिशतता 27 है, यह शेष राज्यों के संबंध में बढ़कर 58 प्रतिशत हो गई। प्रतिशतता से क्षेत्र की जनजातीय आबादी में व्यापक विविधता की पर्याप्त रूप से झलक नहीं मिलती, जहाँ 125 से अधिक भिन्न-भिन्न जनजातीय समूह हैं- एक ऐसी विविधता जो झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी देखने में नहीं आती है, जहाँ जनजातियों की आबादी काफी अधिक है।
संघर्षों की प्रकृति
- क्षेत्र में संघर्षों को मुख्यत: निम्नलिखित श्रेणियों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है।
1. राष्ट्रीय संघर्ष: एक पृथक् राष्ट्र के रूप में एक भिन्न ‘गृह भूमि’ की अवधारणा तथा इसके समर्थकों द्वारा इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रयास।
2. जातिगत संघर्ष: राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से प्रभावशाली जनजातीय समूह के विरुद्ध संख्या में कम और कम प्रभुत्व वाले जनजातीय समूहों द्वारा ज़ोर दिया जाना। असम में यह स्थानीय और प्रवासी समुदायों के बीच तनाव का रूप भी लेता है।
3. उप-क्षेत्रीय संघर्ष: ऐसे आंदोलनों वाले, जिनमें उप-क्षेत्रीय आकांक्षाओं को स्वाीकार किया जाना शामिल है और प्राय: राज्य सरकारों अथवा स्वायत्त परिषदों के साथ सीधे ही संघर्षरत रहते हैं।
राज्य विशिष्ट संघर्ष स्थिति
- अरुणाचल प्रदेश: राज्य, एनएससीएन के साथ युद्ध विराम के बाद, जो ‘तिरप ज़िले’ में सक्रिय था, शांत रहा है।
- बड़ी संख्या में राज्य में बांग्लादेश से अपेक्षाकृत अधिक उद्यमी ‘चकमा’ विस्थापितों को बसाए जाने से वहाँ कुछ अशांति आई, जो अब थम गई है।
- बढ़ती आय विषमताएँ तथा रोज़गार अवसरों में कमी संघर्षों का एक सशक्त स्रोत हो सकता है।
- असम: राज्य में बड़ी संख्या में जातिगत संघर्ष विद्यमान हैं अर्थात् ‘विदेशियों की घुसपैठ’ के विरुद्ध आंदोलन, उन्हें निष्कासित न करने की सरकार की कल्पित असमर्थता; भाषायी/समूहों के बीच समय-समय पर तनाव और जनजातीय समुदायों द्वारा संघर्ष में बढ़ोतरी, जो स्थानीय स्वायत्तता आदि की मांग करते हैं।
- मणिपुर: फिलहाल यह ‘सर्वाधिक बगावत पीड़ित’ राज्य है, जहाँ राज्य में भिन्न-भिन्न जनजातियों समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग पंद्रह हिंसक संगठन सक्रिय हैं और ये विशेष रूप से घाटी में स्वयं-पोषी गतिविधियों में लिप्त हैं। राज्य के दौरे के दौरान आयोग को उन अनेक घटनाओं के बारे में बताया गया, जबकि विकास निधियों का इस्तेमाल विभिन्न गैर-कानूनी और विध्वंसक गतिविधियों के लिये किया गया।
एक-चौथाई मणिपुर (जो घाटी है) इसकी 70 प्रतिशत से अधिक आबादी के लिये निवास स्थान है, जो प्रमुख रूप से सांस्कृतिक रूप से विशिष्ट ‘मेइतई’ समुदाय से है। राज्य पर ‘मेइतई’ शासकों द्वारा शाही रूप से शासन किया गया था (बाद में शाही राज्य)। आज़ादी के बाद समाजार्थिक क्षेत्रों में ‘मेइतई’ प्रभाव में कमी आ गई तथा जनजातीय लोग अग्रणी बन गए, जिसका कारण आरक्षणों का होना था। राज्य के भारतीय संघ के विलय के बारे में भी ‘मेइतई’ सोसायटी के एक वर्ग में नाराजगी थी-जिस नाराजगी की वजह से 1960 के दशक से मेइतई विद्रोह उत्पन्न हुआ। जनजातीय लोगों की संख्या राज्य की आबादी में लगभग 30 प्रतिशत है तथा वे मुख्यत: नागा, कुकी, चिन और मिजो समूहों से संबंधित हैं। बगावत नगालैंड और मिज़ोरम से उस राज्य में भी फैल गई। ‘मेइतई लोगों’ से जनजातियों की सांस्कृतिक दूरी और भी विस्तृत हो गई, जबकि 1930 के दशक तक लगभग सभी जातियाँ ‘ईसाई धर्म’ के तहत आ गईं।
- मेघालय: सौभाग्यवश राज्य हिंसा की तीव्रता से मुक्त है, जो क्षेत्र के बहुत से अन्य भागों में विद्यमान है। ‘बाहरी लोगों’, विशेष रूप से बंगाली भाषी-भाषायी अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा को छोड़कर राज्य में कोई बड़ी समस्या नहीं है। निम्नलिखित कुछ भावी चिंता के क्षेत्र हैं-
- राज्य सरकार और छठी अनुसूची ज़िला परिषदों के बीच बढ़ता हित संघर्ष- पूरा राज्य इस सूची के तहत है।
- बढ़ती अंतर-जातीय प्रतिद्वंदिता।
- बांग्ला देश से, विशेष रूप से गारो पहाड़ियों से घुसपैठ के बारे में उभरता तनाव।
- मिज़ोरम: अपने हिंसक बगावत के इतिहास और बाद में इसमें शांति कायम होना, सभी अन्य हिंसा प्रभावित राज्यों के लिये एक उदाहरण हैं। 1986 में केंद्रीय सरकार तथा मिज़ो नेशनल फ्रंट के बीच ‘समझौते’ और इससे अगले वर्ष राज्य का दर्जा प्रदान किये जाने के बाद मिज़ोरम में पूर्ण शांति और सामंजस्य कायम है।
- प्रमुख रूप से एक समतावादी सोसायटी के बीच बढ़ती आय और परिसंपत्ति विषमताएँ तथा पहचान और अनु. जनजातियों के रूप में आरक्षण संबंधी मुद्दों के कारण राज्य सरकार के साथ तीन छोटी गैर-मिज़ो ज़िला परिषदों का असंतोष, संघर्ष के केवल संभावित क्षेत्र हैं।
- नागालैंड NSCN के प्रभावशाली ‘मुइवाह-स्वु’ के साथ युद्ध-विराम के बाद राज्य वस्तुत: प्रत्यक्ष हिंसक असंतोष से मुक्त है। कुछेक भावी चिंता के विषय हैं:
1. अंतिम राजनीतिक निपटारे का लंबित मुद्दा, जिसमें ‘विशाल नगालैंड’ अथवा ‘नगालिम’ की मांग सहित, जैसा कि पहले नोट किया गया है, निकटवर्ती क्षेत्रों में, विशेष रूप से मणिपुर में अशांति पैदा कर रहा है।
2. राज्य के सीमित संसाधनों के लिये बढ़ती प्रतियोगिता तथा शिक्षित युवाओं की बेरोज़गारी की समस्या।
- सिक्किम: राज्य ने विकेंद्रीकृत आयोजन के माध्यम से न केवल विकास के क्षेत्र में उत्तम कार्य किया है बल्कि विभिन्न जातिगत समूहों (मुख्यत: लेपचाओं, भूटियाओं और नेपालियों) के बीच संवैधानिक अधिदेश में संतुलन कायम करके बड़े संघर्ष होने से भी बचाव किया है।
- त्रिपुरा: राज्य के जनांकिकीय प्राफाइल में 1947 के बाद से बदलाव आया, जबकि नए उभरे पूर्व पाकिस्तान से बड़े पैमाने पर उत्प्रवास के कारण, मुख्य रूप से एक जनजातीय क्षेत्र बंगाली भाषी मैदानी लोगों की बहुलता वाला हो गया। जनजातियों को बहुत कम कीमतों पर उनकी कृषि भूमियों से वंचित कर दिया गया तथा वनों में खदेड़ दिया गया। परिणामी तनाव के कारण बड़ी हिंसा हुई और बड़े पैमाने पर आतंक फैला, जबकि प्रभावशाली त्रिपुरा नेशनल वॉलंटियर्स (टीएनवी) पूर्वोत्तर में एक सर्वाधिक हिंसक उग्रवादी गुट के रूप में उभरा।
- मिज़ोरम के साथ निकटता के कारण वहाँ बगावत का ‘पार्श्व प्रभाव’ राज्य पर पड़ा। ‘गैर अनुसूचित क्षेत्रों’ में प्रभावी विकेंद्रीकरण, जनजातीय क्षेत्रों को एक स्वायत्त ‘छठी अनुसूची’ परिषद के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत लाने, सफल भू-सुधारों और कृषि के सुव्यवस्थित प्रोन्नयन से विवाद की कमी में काफी योगदान मिला।
संघर्ष समाधान की विधियाँ
- सुरक्षा बलधपुलिस कार्रवाई
- राज्य का दर्जा प्रदान, छठी अनुसूची, मणिपुर के मामले में संविधान का अनुच्छेद 371-ग और असम में जनजातीय विशिष्ट समझौतों आदि के ज़रिये और अधिक स्थानीय स्वायत्ता।
- विद्रोही गुटों के साथ बातचीत
- विकास कार्यकलाप, विशेष आर्थिक पैकेज सहित। पूर्वोत्तर में संघर्ष रोकथाम और समाधान के लिये, विगत की सफलताओं और असफलताओं के अनुभव से मज़बूती पाकर विभिन्न दृष्टिकोणों के एक विवेकपूर्ण मिश्रण की ज़रूरत होगी।
संघर्ष समाधान के लिये क्षमता निर्माण
क्षेत्र में संघर्ष समाधान के लिये क्षमता निर्माण हेतु ज़रूरी विशिष्ट क्षेत्रों पर निम्न चर्चा की गई है:
- प्रशासन में क्षमता निर्माण
- पुलिस में क्षमता निर्माण
- स्थानीय शासन प्रणालियों में क्षमता निर्माण
- क्षेत्रीय प्रणालियों में क्षमता निर्माण
- अन्य प्रणालियों में क्षमता निर्माण
प्रशासन में क्षमता निर्माण के लिये सिफारिशें
- क्षेत्र में सेवारत अधिकारियों को, विविध कार्य स्थितियों का और अधिक अनुभव प्राप्त करने के लिये पूर्वोत्तर से बाहर सेवा करने के लिये अधिक अवसर प्रदान किये जाने चाहिये। राज्य के स्थानीय और तकनीकी अधिकारियों को बड़े राज्यों में सेवा करने और देश-विदेश में प्रशिक्षण के माध्यम से अपनी व्यावसायिक अर्हताएँ सुधारने के लिये भी अवसर प्रदान किया जाना चाहिये।
- पूर्वोत्तर में कार्यरत अधिकारियों के लिये उपलब्ध प्रोत्साहनों में वृद्धि की जानी चाहिये।
- प्रशासन की विभिन्न शाखाओं के लिये, तकनीकों सेवाओं सहित, पूर्वोत्तर परिषद द्वारा क्षेत्रीय प्रशिक्षण संस्थान प्रचालित किये जा सकते हैं।
- NEC को राज्यों के तहत तकनीकी तथा विशेषज्ञ विभागों में वरिष्ठ पदों के लिये क्षेत्रीय संवर्गों के विधिक फलितार्थों और व्यवहार्य की जाँच करने के लिये राज्यों के साथ चर्चाएँ आयोजित करनी चाहिये।
- NEC तथा गृह मंत्रालय, राज्यों के सहयोग से क्षेत्र के संबंध में प्रशासनिक सुधारों के लिये एक एजेंडा तैयार कर सकते हैं, जिसके कार्यान्वयन का व्यवस्थित ढंग से मॉनीटरन किया जाना चाहिये। इस चार्टर पर संतोषजनक ढंग से अमल करने वाले राज्य अतिरिक्त धन के लिये, विशेष आर्थिक पैकेज सहित पात्र हो सकते हैं।
पुलिस में क्षमता निर्माण के लिये सिफारिशें
- पूर्वोत्तर पुलिस अकादमी (North Eastern Police Academy-NEPA) के आधारित ढाँचे और स्टाफ में बड़े पैमाने पर उन्नयन किये जाने की ज़रूरत है, जिससे कि शुरुआती स्तर पर बड़ी संख्या में अधिकारियों की ज़रूरतें पूरी हो सकें। ‘नेपा’ (NEPA) का विकास बगावत से निपटने के लिये अन्य क्षेत्रों से सिविल पुलिस अधिकारियों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिये भी किया जा सकता है। केंद्रीय पुलिस संगठनों और सिविल पुलिस से, विशेष रूप से बगावत-रोधी प्रचालनों में उत्तम सेवा रिकॉर्ड वालों को अकादमी में आकर्षित और वहाँ बनाए रखने के लिये वित्तीय व अन्य प्रोत्साहन आवश्यक हैं।
- क्षेत्र से पुलिस कार्मिकों को केंद्रीय पुलिस संगठनों में तैनात करने की एक स्कीम लागू करने और बाहर के क्षेत्र से पूर्वोत्तर राज्यों में पुलिस अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति को प्रोत्साहित करने के लिये ठोस उपाय अपनाए जाने की ज़रूरत है।
स्थानीय शासन प्रणालियों में क्षमता निर्माण सिफारिशें
- ‘अनुसूचित क्षेत्रों’ के साथ कम अनुकूल व्यवहार की शिकायतों से बचने के लिये विधान की छठी अनुसूची में उपयुक्त संशोधन किये जाने चाहिये, जिससे कि स्वायत्त परिषदें राज्य वित्त आयोगों और राज्य चुनाव आयोगों की सिफारिशों से लाभान्वित हो सकें, जिसकी व्यवस्था भारत के संविधान के क्रमश: अनुच्छेद 243(I) और 243(K) में की गई है।
- केंद्रीय सरकार, मेघालय सरकार और उस राज्य में स्वायत्त परिषदें, राज्य सरकार और परिषदों के बीच विवादों का समाधान करने के लिये एक संतोषजनक प्रणाली विकसित करने के लिये परिषदों और राज्य सरकारों के बीच संबंध की विद्यमान पद्धति की समीक्षा की जा सकती है।
- गृह मंत्रालय, संबंधित राज्य सरकारों और स्वायत्त परिषदें, राज्य सरकार और परिषदों के साथ परामर्श करके, छठी अनुसूची के अंतर्गत उन शक्तियों का विनिर्धारण कर सकता है, जिन्हें राज्यपाल द्वारा मंत्रिपरिषद की ‘सहायता और सलाह’ पर कार्रवाई करने की बजाय इस्तेमाल किया जा सके, जैसा कि संविधान के अनुच्छेद 163(1) में परिकल्पित है।
- छठी अनुसूची के पैराग्राफ 14 में उपयुक्त रूप से संशोधन किया जा सकता है, जिससे कि केंद्रीय सरकार सभी स्वायत्त ज़िलों के प्रशासन की स्थिति का आकलन करने और उस पैराग्राफ में परिकल्पित अन्य सिफारिशें करने के लिये उनके संबंध में एक सामान्य आयोग नियुक्त कर सके। आयोग के लिये समय के अंतराल की भी व्यवस्था की जा सकती है।
- असम सरकार को ‘मूल’ स्वायत्त परिषदों के लिये बजटीय आवंटन निर्धारित करने तथा धन जारी करने की विद्यमान व्यवस्था की समीक्षा करनी चाहिये, जिससे कि जहाँ तक व्यवहार्य हो, उन्हें बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद के संबंध में व्यवस्थाओं के समान बनाया जा सके।
जनजातीय पूर्वोत्तर में ग्राम स्तर स्व: शासन हेतु सिफारिशें
- यह सुनिश्चित करने के लिये उपाय किये जाने चाहिये कि सभी स्वायत्त परिषदें, सु-परिभाषित शक्तियों और संसाधनों के आवंटन की एक पारदर्शी पद्धति के साथ ग्राम स्तर निकाय स्थापित करने के लिये उपयुक्त विधान पारित करें।
- स्वायत्त परिषदों के लिये अनुदान जारी करने से संबंधित नियमों में इस संबंध में निर्धारण किये जाने चाहिये कि निर्वाचित ग्राम स्तर निकायों के लिये उपयुक्त विधान पारित करने और उसे लागू करने पर ही परिषदें अतिरिक्त निधियन की पात्र होंगी।
- स्वायत्त परिषदों को अपने दायित्व संतोषजनक ढंग से निपटाने में समर्थ बनाने के लिये यह ज़रूरी है कि इन निकायों के लिये धन की आवश्यकता, प्रदान की जाने वाली सेवा के न्यूनतम मानकों और स्थानीय संसाधन जुटाने की क्षमता के संदर्भ में मानकीय रूप से तय की जाए।
- ग्रामीण विकास मंत्रालय को विभिन्न विकास तथा निर्धनता उपशमन पहलुओं को कार्यान्वित करने के लिये इस व्यवस्था को औपचारिक रूप से मान्यता देनी चाहिये।
- मेघालय सरकार, राष्ट्रीय रोज़गार गारंटी अधिनियम को कार्यान्वित करने के लिये गारो पहाड़ियों में निर्वाचित ग्राम समितियों के प्रयोग का, सभी ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिये राज्य भर में विस्तार करने के लिये उपाय कर सकती है।
- ज़रूरी है कि उन सभी राज्यों में, जहाँ ग्राम निकाय छठी अनुसूची अथवा अन्य कानूनों के नाते, प्रथागत कानूनों के तहत न्यायप्रशासित करते हैं, ऐेसे कानूनों को यथापूर्वक संहिताबद्ध किया जाए।
अन्य क्षेत्रीय संस्थान
NEC द्वारा संचालित किये गए जाने वाले दस से भी अधिक अंतर-राज्य/क्षेत्रीय तकनीकी, मेडिकल और व्यावसायिक शिक्षा संस्थान तथा पूर्वोत्तर केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय हैं, जिसके सभी राज्यों में (सिक्किम सहित) असम को छोड़कर परिसर हैं, जिन्होेंने पिछले वर्षों के दौरान क्षेत्र के मानव संसाधनों के उन्नयन और संवर्द्धित अंतर-राज्य समझ बूझ और सहयोग में महत्त्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध किया है।
- नीपको (NEEPCO) अथवा पूर्वोत्तर क्षेत्रीय विद्युत परियोजना निगम (North Eastern Regional Electrical Project Corporation) को न केवल पूर्वोत्तर की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये बल्कि क्षेत्र से बाहर बिजली बेचने के लिये भी इसकी प्रचुर पन-विद्युत उत्पादन क्षमता का विकास करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।
- नेरामैक (NERAMAC) अथवा पूर्वोत्तर क्षेत्रीय कृषि विपणन निगम (North Eastern Regional Agricultural Marketing Coorperation) क्षेत्र के कृषि और बागवानी उत्पादक के विपणन, ऐसे उत्पाद के प्रसंस्करण, को प्रोत्साहित करने के लिये एक सरकारी क्षेत्रक कंपनी है। निगम ने अत्यंत सीमित संसाधनों के साथ, प्रसंस्करण यूनिटों के संचालन के माध्यम से अपने अधिदेश को मुख्यत: पूरा करने का प्रयास किया है। यह ज़रूरी है कि यह पूर्वोत्तर के उत्पाद के लिये क्षेत्र से बाहर बाज़ार विकसित करने पर अपना ध्यान केंद्रित करे तथा उद्यमियों को प्रसंस्करण संयंत्र कायम करने में सुविधा प्रदान करे।
- पूर्वोत्तर हथकरघा और हस्तशिल्प विकास निगम (North Eastern Handloom Agricultural Marketing Coorperation) का उद्देश्य क्षेत्र के सदियों पुराने हथकरघा और हस्तशिल्प क्षेत्रक को प्रोत्साहित करना है, जो इसकी संस्कृति और मूल्यों का भाग है। इस क्षेत्रक के ह्रास ने क्षेत्र में असंतोष की भावना पैदा करने में नि:संदेह रूप से योग दिया है, किंतु NEHHDC के प्रयासों ने इस गिरते क्षेत्रक में परिवर्तन लाने में वांछित योगदान नहीं किया है।
- नेडफी अथवा पूर्वोत्तर विकास और वित्त निगम (North Eastern Development and Finance Corporation-NEDFI) वाणिज्यिक आधार पर क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रकों के विकास के लिये उद्यम स्थापित करने के लिये औद्योगिक घरानों और उद्यमियों को धन प्रदान करने के लिये अनेक वित्तीय संस्थानों द्वारा संयुक्त रूप से प्रवर्तित एक कंपनी है।
सिफारिशें
NEC पूरे क्षेत्र के लिये एकसमान विविध मुद्दों का समाधान करने के लिये विज्ञानों, समाज विज्ञानों और मानविकियों में उच्च अध्ययन के केेंद्र के रूप में ‘नेहू’ (North Eastern Hill University — NEHU) का विकास करने के लिये एक विस्तृत योजना तैयार कर सकती है। NEC, NEIGRIHMS को तृतीयक स्वास्थ्य उपचार के लिये विशेष रूप से निम्न आय वर्गों के लिये, एक केंद्र के रूप में विकसित करने के लिये राज्य सरकारों के साथ व्यवस्था को भी सक्रिय रूप से समन्वित कर सकती है।
भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर
(National Register of Indian Citizens)
- राष्ट्रीय सुरक्षा पद्धति में सुधार करने संबंधी मंत्रियों के समूह ने सिफारिश की थी, क्योंकि गैर-कानूनी उत्प्रवास ने गंभीर रूप ले लिया है। इसलिये नागरिकों तथा गैर-नागरिकों के पंजीकरण को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये। इस सिफारिश को लागू करने के लिये बहु-प्रयोजन राष्ट्रीय पहचान कार्ड (Multipurpose National Identity Card-MNIC) परियोजना को जारी किया गया।
- MNIC परियोजना को कार्यान्वित करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। भारत सरकार सर्वप्रथम एक राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तैयार करने के लिये एक जनगणना किस्म का सर्वेक्षण आयोजित करेगी, जिसके आधार पर कार्ड जारी किये जाएंगे। बड़ी निरक्षरता दरों और अनेक क्षेत्रों में लोगों के पास बहुत कम दस्तावेज़ी सबूत के अभाव में कार्यान्वयन एजेंसियों को इस मुद्दे पर अत्यंत सावधानी से कार्रवाई करनी होगी।
सिफारिशें
- MNIC परियोजना को प्राथमिकता के आधार पर कार्यान्वित किया जाना चाहिये, क्योंकि अनेक केंद्रीय और राज्य सरकार एजेंसियाँ ऐसे पहचान पत्र जारी करते हैं। इसलिये ऐसी सभी पद्धतियों के बीच तालमेल कायम करना आवश्यक होगा, जिससे कि MNIC किसी व्यक्ति की पहचान के लिये एक बुनियादी प्रलेख बन सके और उसे एक बहु-प्रयोजन वैयक्तिक कार्ड के रूप में उपयोग में लाया जा सके।
- इस परियोजना कार्यान्वयन में अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं वाले क्षेत्रों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
आयोग द्वारा अंतिम सिफारिशें
- उच्च स्तरीय आयोग की ‘ट्रांसफॉर्मिंग दि नॉर्थ-ईस्ट’ (Transforming the North East) नामक अपनी रिपोर्ट में की गई सिफारिशों और पूर्वोत्तर परिषद द्वारा तैयार ‘विकास पहलों के संबंध में कार्य बल’ (Task Force on Development Initiatives) की रिपोर्ट को क्षेत्र में आधारभूत ढाँचे में अंतरालों को पूरा करने के लिये कार्यान्वित किया जाना चाहिये।
- क्षेत्र को एक प्राथमिकतापूर्ण निवेश स्थल के रूप में प्रोत्साहित करने के लिये एक व्यापक रूपरेखा तैयार किये जाने की ज़रूरत है।
- महत्त्वपूर्ण सड़क गलियारों के निर्माण के वित्त पोषण के लिये एक परिवहन विकास निधि कायम की जानी चाहिये।
- ‘लुक ईस्ट’ (Look East) की नीति को व्यापक रूप से कार्यान्वित करना यद्यपि पूरे देश के लिये संगत है, तथापि यह पूर्वोत्तर के दीर्घावधिक विकास के लिये विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। इसे कार्यान्वित करने के लिये एजेंडा राज्य सरकारों के सक्रिय सहयोग से तैयार किया जाना चाहिये। केंद्रीय सरकार के विभिन्न मंत्रालयों के बीच नीति के कार्यान्वयन और आयोजना के संबंध में ज़िम्मेदारी का स्पष्ट विभाजन शीघ्र से शीघ्र किया जाना चाहिये।
- क्षेत्र में रेल संयोजकता में प्राथमिकता के आधार पर सुधार किया जाना चाहिये।
- रिज़र्व बैंक व अन्य वित्तीय संस्थानों की नीतियों में और ढील देकर तथा उन्हें संवेदी बनाकर बैंक शाखाएँ व अन्य ऋण वितरण केंद्रों की स्थापना करने के लिये अधिक प्रयास किये जाने की ज़रूरत है।
- पूर्वोत्तर में व्यावसायिक व उच्च शिक्षा के लिये उत्कृष्ट केंद्र स्थापित करने की ज़रूरत है। इसके अलावा तकनीकी शिक्षा के लिये ITI जैसी सुविधाओं का बड़े पैमाने पर विस्तार किया जाना चाहिये, जिससे कि दक्ष कार्य बल का एक पूल कायम किया जा सके और उद्यमी क्षमता व साथ ही रोज़गार का भी सृजन हो सके।
- प्रथागत न्यायिक पद्धति का गहन अध्ययन करने की ज़रूरत है, जिसमें विद्यमान मानदंडों और प्रथाओं की बेहतर समझ और विकसित हो सके।
- पूर्वोत्तर के लिये भू-अभिलेखों (Land Records) के अनुरक्षण की एक विश्वस्तरीय पद्धति तैयार करने की ज़रूरत है।
अध्याय 13: संघर्ष प्रबंधन के लिये प्रचालनात्मक व्यवस्था
(Operational Arrangements for Conflict Management)
प्रस्तावना:
सिविल सोसाइटी में संस्थानों के अनेक संवैधानिक, सांविधिक और कार्यपालक-संस्थान हैं, जिनमें विवाद निवारण और समाधान की भूमिका निभाने की क्षमता है। इनमें से अनेक संस्थान, उदाहरण के लिये पुलिस, संघर्षपूर्ण स्थितियों में सबसे पहले दखल देती है और इसलिये उनकी कार्रवाई अथवा कार्रवाई न करने से वस्तुत: संघर्ष रुक सकता है।
कार्यपालिका तथा संघर्ष प्रबंधन- पुलिस और कार्यपालक मजिस्ट्रेसी
- आयोग ने ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ (Public Order) पर अपनी पाँचवीं रिपोर्ट व्यवस्था बनाए रखने तथा शांति भंग की घटनाओं को रोकने में पुलिस तथा मजिस्ट्रेसी की भूमिका की विस्तारपूर्वक चर्चा की है तथा सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिये पुलिस और मजिस्ट्रेसी की कारगरता में वृद्धि करने के लिये व्यापक रूप से सिफारिशें की हैं।
सिफारिशें
- आयोग द्वारा ‘सार्वजनिक’ पर अपनी पाँचवीं रिपोर्ट (अध्याय 5 और 6) में पुलिस सुधारों से संघर्ष समाधान में और अधिक प्रभावी व सक्रिय भूमिका निभाने की संस्थागत क्षमता में वृद्धि होने की संभावना है।
- पुलिस अधिकारियों के दायित्व में उनके ड्यूटी चार्ट में संघर्ष समाधान को शामिल करने के लिये विस्तार करते हुए उपयुक्त प्रावधान शामिल करने के लिये पुलिस संहिताओं, इस विषय पर संगत इनपुटों की व्यवस्था करने के लिये प्रशिक्षण प्रारूप में भी उपयुक्त संशोधन किये जाने चाहिये। समग्र निष्पादन का मूल्यांकन करते समय इस ‘शीर्ष’ के अंतर्गत उपलब्धियाें को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- राजस्व व अन्य क्षेत्र स्तर के अधिकारियों के रूप में अपनी हैसियत से कार्यपालक मजिस्ट्रेटों की जनता के साथ व्यापक अन्योन्यक्रिया होती है तथा उन्हें विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में काफी कीर्ति प्राप्त होती है। क्षेत्र की स्थितियों के बारे में उनकी जानकारी व उनके सामान्य सम्मान की वजह से वे स्थानीय विवादों में मध्यस्थता करने के लिये वार्ताकार के रूप में कार्य करने के लिये अच्छी स्थिति में होते हैं। राज्य सरकारों द्वारा इस संबंध में प्रक्रियाएँ तथा संस्थागत प्रणाली कायम करने की ज़रूरत है।
न्यायिक देरियाँ तथा वैकल्पिक विवाद समाधान
किसी सभ्य समाज में विवाद समाधान का सर्वोत्तम मंच न्यायपालिका है। कहा जा सकता है कि ‘विवाद’ ‘संघर्ष’ से भिन्न है, क्योंकि संघर्ष के अंतर्गत विरोधी दावे करने वाले बड़ी संख्या में ‘विरोधी’ सम्मिलित हैं- अनेक संघर्ष प्राय: न्यायिक देरियों के कारण विवादों का निपटान न होने के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं।
आयोग के निष्कर्ष
- न्यायिक परंपरा के बकाया मामले हमारे समाज में संघर्षों की विद्यमानता के प्रमुख कारक हैं।
- न्यायिक अधिकारियों की अत्यंत कमी और न्यायिक कार्यवाहियों को शासित करने वाली कुछेक प्रक्रियाओं की विलंबता प्रवृत्ति, न्यायपालिका के ज़रिये विवादों के धीमे समाधान के बुनियादी कारणों में शामिल है।
- लोक अदालतों की नूतनता केवल कुछ सीमा तक सफल हुई है। वैवाहिक विवादों, बीमा और दुर्घटना क्षतिपूर्तियों तथा दावों आदि के निपटान के मामलों को छोड़कर पद्धति न्यायिक बकायों को कम करने में असफल रही है। बार के कुछ सदस्यों द्वारा लोेक अदालतों का समर्थन न किया जाना इसकी सीमित सफलता का संभवत: एक कारण है।
सिफारिशें
- अधीनस्थ न्यायापालिका की अवस्थापना और कार्मिक के उन्नयन के लिये संसाधनों के आवंटन में संघीय राजकोषीय अंतरणों में उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- लोक अदालतों की पद्धति द्वारा अपना आशातीत उद्देश्य पूरा करने और विशेष रूप से इस दृष्टिकोण को सफलता का एक अवसर प्रदान करने के लिये बार के सदस्यों का सक्रिय सहयोग प्राप्त करने की ज़रूरत है।
- विधि मंत्रालय को अर्ध-न्यायिक प्राधिकरणों और निकायों के निर्णयों को ‘अधिक अंतिम रूप देने’ के साधनोपायों की खोज करने के लिये उच्च न्यायपलिका की बैंच और बार के साथ संवाद आरंभ करना चाहिये।
सिविल सोसाइटी और संघर्ष समाधान
- सभी सोसायटियों में कुछ तत्त्व संकीर्ण पक्षपातपूर्ण हितों से ऊपर उठने में समर्थ होते हैं। इनके उदाहरणों में संघर्ष क्षेत्रों में लंबी कार्यावधि वाले NGO, चर्च संगठन और सामाजिक कार्यकर्त्ता शामिल हैं, जो हमारे देश में विभिन्न विभागों में सांप्रदायिक, जातिगत, मिलिटेंट और वंशानुगत विवादों वाले क्षेत्रों में प्रमुख रूप से विद्यमान और सक्रिय हैं।
- यह भी समझा जाना चाहिये कि जो समुदाय अपने मामलों पर नियंत्रण रखते हैं, वे अधिक आत्म-विश्वासी और आंतरिक समस्याओं को अपने आप हल करने की बेहतर स्थिति में होते हैं। स्थानीय विवादों की रोकथाम और समाधान में पंचायती राज संस्थानों को शामिल करने की ज़रूरत को मज़बूती के साथ प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
सिफारिशें
- यद्यपि सेवाएँ प्रदान करने में सुधार करने और सामुदायिक आत्म-निर्भरता निर्मित करने के लिये सामाजिक पूंजी निर्माण को प्रोत्साहित किये जाने की ज़रूरत है, तथापि यह ज़रूरी है कि ऐसे प्रयासाें के अंतर्गत ‘इन-हाउस’ विवाद समाधान करने में समुदायों को शामिल करने का भी प्रयास किया जाए।
- विवाद समाधान में पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों और साथ ही राज्य की ‘पुलिस-भिन्न’ संस्थाओं को भी शामिल करने के लिये राज्य सरकारों द्वारा सामान्य नीति मार्ग-निर्देश तैयार किये जाने की ज़रूरत है।
- केंद्र प्रायोजित और केंद्रीय क्षेत्रक स्कीमों के मार्गनिर्देशों में उपयुक्त रूप से संशोधन किया जाना चाहिये, ताकि यह आवश्यक बनाया जा सके कि लाभार्थी क्षमता निर्माण के तहत स्थानीय विवाद प्रबंधन में आत्म निर्भरता विकसित करने पर भी बल दिया जाए।
अध्याय 14: संघर्ष प्रबंधन के लिये संस्थागत व्यवस्था
प्रस्तावना
राज्य की रूपरेखा के अंदर अनेक संस्थान और पद्धतियाँ हैं, जिनका कार्य संभावित और वास्तविक संघर्ष स्थितियों से निपटना है। इनमें से कुछेक को संवैधानिक दर्ज़ा प्राप्त है तथा अन्यों का गठन संविधियों अथवा कार्यकारी आदेशों के माध्यम से किया गया है।
भारतीय संविधान में प्रमुख प्रावधान
- अनुच्छेद 131 संघ-राज्य (यों) और अंतर-राज्य विवादों के समाधान के महत्त्व को स्वीकारता है तथा ऐसे विवादों से संबंधित मुकदमों पर विचारण करने के लिये उच्चतम न्यायालय को एकमात्र मूल क्षेत्राधिकार प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 262 संसद को विधान द्वारा, सभी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को (उच्चतम न्यायालय सहित) विवाद के किसी संवेदनशील क्षेत्र अर्थात् अंतर-राज्य नदी अथवा नदी अथवा नदी घाटी जल विवादों को अलग रखने और ऐसे विवादों के अधिनिर्णयन हेतु व्यवस्था करने की शक्ति प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 263 के अंतर्गत विवादों के समाधान हेतु अंतर राज्य परिषदों और संघ तथा राज्यों के परस्पर हित के मामलों और साथ ही उनके बीच समन्वय चाहने वाले मुददों के समाधान के लिये भी चर्चा करने की परिकल्पना की गई है।
- अनुच्छेद 280 के अंतर्गत संघ और राज्यों के बीच कतिपय केंद्रीय करों के विभाजन मानदंडों की सिफारिश करने तथा राज्यों का प्रशासन सुचारु ढंग से चलाने के लिये केंद्रीय हस्तक्षेप की वित्तीय आवश्यकताओं का सामान्य रूप से आकलन करने के लिये सामान्यत: पाँच वर्ष की अवधि के लिये एक अर्द्ध-न्यायिक वित्त आयोग स्थापित करने की व्यवस्था है। इस अनुच्छेद से राज्यों की ‘वित्तीय कठिनाइयों’ के कारण उत्पन्न विवादाें को रोकने का स्पष्टत: पता चलता है।
- अनुच्छेद 307 के तहत अंतर-राज्य व्यापार और वाणिज्य को सुकर बनाने के लिये एक प्राधिकरण की स्थापना करने का प्राधिकार दिया गया है।
उपरोक्त के अलावा, अन्य प्रावधान हैं, जिनमें शामिल है:
- अनुच्छेद 350 B, जिनके तहत भाषायी अल्पसंख्यकों के हितों को सुरक्षा प्रदान करने के लिये एक विशेष अधिकारी की व्यवस्था की गई है तथा अनुच्छेद 338 और 338 (A) हैं, जिनके तहत क्रमश: अनुसूचित जातियों और अनु. जनजातियों के हितों को संरक्षण प्रदान व प्रोत्साहित करने के लिये आयोगों की व्यवस्था है। ऐसे प्रावधानों का उद्देश्य संघर्ष का रूप लेने की गुंजाइश को कम करना है।
महत्त्वपूर्ण अधिकारिक विवाद निवारण/समाधान एजेंसियाँ
1. संवैधानिक प्रावधानों के अंतर्गत स्थापित संस्थान
2. विधायी अधिनियमनों के अंतर्गत संस्थान
3. सरकार के कार्यपालक आदेशों के तहत जारी विचार-विमर्शी मंच अथवा संस्थान।
A संविधान के तहत संस्थान
अंतर-राज्य परिषद (Inter State Council)
अंतर-राज्य परिषद के संबंध में प्रावधान यदि किसी समय राष्ट्रपति को यह प्रतीत हो कि निम्नलिखित कर्त्तव्य सौंपकर एक परिषद की स्थापना द्वारा सार्वजनिक हित की पूर्ति होगी:
(a) राज्यों के बीच उत्पन्न हुए विवादों के संबंध में जाँच करना तथा उनके संबंध में सलाह देना।
(b) उन विषयों की जाँच-पड़ताल और चर्चा करना, जिनमें कुछ अथवा सभी राज्यों का अथवा संघ अथवा एक अथवा अधिक राज्याें का सामान्य हित हो।
(c) ऐसे किसी विषय पर सिफारिशें देना और विशेष रूप से विषय के संबंध में नीति और कार्रवाई के बेहतर समन्वयन हेतु सिफारिशें करना।
अंतर-राज्य परिषद की संरचना
- प्रधानमंत्री - अध्यक्ष
- सभी राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों के मुख्य मंत्री
- (राज्यों के राज्यपाल जहाँ अनुच्छेद 356 प्रचालन में है);
- संघ राज्य क्षेत्रों के प्रशासक, जहाँ विधानसभा नहीं है;
- केंद्रीय मंत्री परिषद में मंत्रिमंडल दर्जे के छ: मंत्री, जिन्हें प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत किया जाएगा (केंद्रीय सरकार के अन्य मंत्रियों को स्थायी आमंत्रितों के रूप में आमंत्रित किया जा सकता है, यदि परिषद के अध्यक्ष द्वारा मनोनीत किया जाए अथवा जब कभी भी उनके प्रभार के अंतर्गत किसी विषय से संबंधित, किसी विषय से संबंधित किसी मद पर चर्चा की जाती है)।
आयोग के निष्कर्ष
- अंतर-राज्य पषिद की स्थापना के बाद से इसकी दस बैठकों में अधिकांश चर्चा, सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर चर्चा और उनकी समीक्षा करने तक सीमित थी।
- अंतर-राज्य परिषद को उसके लिये संविधान के तहत प्रदत्त ‘पूर्ण’ भूमिका प्रदान की जानी चाहिये अर्थात् संघ और राज्यों के हित वाले मामलोें में नीति और कार्रवाई के बेहतर समन्वयन और विवाद समाधान दोनों के संबंध में।
- अंतर-राज्य परिषद का गठन जब भी ज़रूरत हो तब किया जाए तथा इसके बने रहने की ज़रूरत नहीं है।
सिफारिशें
- संविधान के अनुच्छेद 263 (a) के तहत अंतर-राज्य परिषद के लिये परिकल्पित संघर्ष समाधान भूमिका का प्रभावी रूप से इस्तेमाल किया जाना चाहिये, जिससे कि राज्यों के बीच अथवा कुछ राज्याें और संघ के बीच विवादों का समाधान खोजा जा सके।
- अंतर-राज्य परिषद कोई स्थायी निकाय नहीं है। जब भी विशिष्ट ज़रूरत हो, संघ अथवा संबद्ध राज्यों के हित के मामलों के संबंध में विवाद अथवा नीति अथवा कार्रवाई के समन्वय पर विचार करने के लिये परिषद का गठन और आयोजित करने के लिये एक उपयुक्त राष्ट्रपति आदेश जारी किया जा सकता है। जिस प्रयोजन के लिये निकाय का गठन किया गया है, उसके पूरा हो जाने पर यह निकाय कार्य करना बंद कर सकता है।
- अंतर-राज्य परिषद की संरचना शिथिलनीय हो सकती है, जो अनुच्छेद 263 के तहत संदर्भित मामले की ज़रूरतों के लिये उपयुक्त हो।
- यदि आवश्यक हो तो एक समय पर भिन्न-भिन्न विचारार्थ विषयों और संरचना के साथ, जैसा कि प्रत्येक परिषद के लिये ज़रूरी हो, एक से अधिक अंतर-राज्य परिषद विद्यमान रह सकती हैं।
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग
(National Commision for Scheduled Castes and National Commission For Scheduled Tribes)
दोनाें निकायों की ज़िम्मेदारी के सामान्य क्षेत्र हैं:
- संविधान अथवा अन्य कानूनों के तहत व्यवस्थित अनु. जाति/अनु. जनजाति के लिये सुरक्षोपायों के कार्यान्वयन की जाँच-पड़ताल और निगरानी।
- इन समूहों के लिये व्यवस्थित सुरक्षोपायों के उल्लंघनों के विशिष्ट मामलों की जाँच।
- आयोजना और समाजार्थिक विकास में भागीदारी तथा संघ और राज्यों में ऐसे कार्यक्रमों के प्रभाव का मूल्यांकन।
- अनु. जाति/अनु. जनजाति के लिये सुरक्षोपायों के कामकाज के बारे में संसद को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करना।
- सुरक्षापायों के बेहतर कार्यान्वयन और संगत समूहों के समाजार्थिक विकास के लिये सिफारिशें करना।
आयोग के निष्कर्ष
- अभी तक इन निकायों के कामकाज का स्वतंत्र रूप से कोई आकलन नहीं किया गया है।
- उनकी रिपोर्टों पर भी कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है।
- संगत श्रेणियों से संबंधित सरकारी और सरकारी क्षेत्रक कर्मचारियों की अलग-अलग शिकायतों और कठिनाइयों को दूर करने में काफी समय और प्रयास करना पड़ता है।
- पदोन्नतियों, स्थानांतरणोें, तैनातियों आदि से संबंधित सामूहिक शिकायतों और वैयक्तिक दावों के बीच भेद करना ज़रूरी है।
- इन आयोगाें के लिये ज़िम्मेदार प्रशासनिक मंत्रालयों को आयोगों के साथ विचार-विमर्श करके, उन्हें अपने संवैधानिक दायित्वों के प्रभावी निपटान में समर्थ बनाने के लिये साधनोपायों पर सावधानीपूर्वक विचार करना चाहिये।
सिफारिशें
- राष्ट्रीय अनु. जाति और अनु. जनजाति आयोगों का एक महत्त्वपूर्ण कार्य विभिन्न क्षेत्रों में अनु. जातियों/अनु. जनजातियों के लिये उनकी शर्तों के मामले सहित व्यवस्थित, सुरक्षोपायों के कार्यान्वयन की समीक्षा, निगरानी और मार्गदर्शन करना है। यह अनिवार्य है कि दोनों आयोगों द्वारा अलग-अलग प्रकृति के मामलों पर बल देने की बजाय, जिन पर प्रशासनिक मंत्रालयों/उपयुक्त मंच द्वारा गौर किया जा सकता है तथा आयोग एक क्रांतिक निगरानी की भूमिका अदा कर सकते हैं, नीतिगत और कार्यान्वयन के बड़े मुद्दों पर ही मुख्य रूप से बल दिया जाए।
- दोनों आयोगों से जुड़े प्रशासनिक मंत्रालय एक प्रक्रिया आयोजित कर सकते हैं और इन निकायों के साथ परामर्श करके इस बारे में ब्योरे तय कर सकते हैं कि किस प्रकार इन निकायों को अपने संवैधानिक अधिदेश का निपटान करने में बेहतर ढंग से समर्थ बनाया जा सकता है।
सांविधिक निकाय (Institutions Under Legislative Enactments)
क्षेत्रीय परिषद (Zonal Councils)
- ‘क्षेत्रीय आधार’ पर अंतर-राज्य परिषदें स्थापित करने की ज़रूरत प्रमुख रूप से 1956 में भाषायी आधार पर राज्यों के पुनर्गठन से उत्पन्न समस्याओं से निपटने के लिये महसूस की गई।
- राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 (1956 का अधिनियम संख्या 37) की धारा 15 से 22, चार क्षेत्रों (उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम) के कामकाज के विभिन्न पहलुओं से संबंधित है।
- इन परिषदों में एक केंद्रीय मंत्री, जिसे राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जाता है और जो अध्यक्ष के रूप में कार्य करता है, क्षेत्र में राज्यों के मुख्य मंत्री और सदस्य-राज्यों से दो-दो मंत्री, जिन्हें राज्यपाल द्वारा सदस्याें के रूप में नामजद किया जाता है, सम्मिलित होते हैं। अधिनियम की धारा 21 की उप-धारा (2) के तहत परिषद के लिये निम्नलिखित कर्त्तव्य निर्धारित किये गए हैं:
- आर्थिक और सामाजिक आयोजना के क्षेत्र में समान हित का कोई मामला।
- सीमा विवाद, भाषायी अल्पसंख्यकों अथवा अंतर-राज्य परिवहन से संबंधित कोई मामला।
- राज्यों के पुनर्गठन से उत्पन्न अथवा संबंधित कोई मामला।
आयोग के निष्कर्ष
- पिछले समय के दौरान परिषदों की केवल कभी-कभी बैठकें हुईं।
- सचिवालयों के प्रचालन समाप्त हो गए हैं तथा राज्य मुख्य सचिवों द्वारा बारी-बारी से परिषदों के सचिवों के रूप में कार्य करने की प्रथा पर शायद ही अमल किया गया है।
- ये निकाय, अंतर-राज्य परिषद सचिवालय के माध्यम से गृह मंत्रालय की एक अनुषंगी ज़िम्मेदारी बन गए हैं।
- उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश के विभाजन के माध्यम से क्रमश: उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ की हाल ही में स्थापना से उपयुक्त क्षेत्रीय परिषदें पुन: सक्रिय नहीं हुईं तथा आवश्यक समन्वयन संबंधित राज्य सरकारों द्वारा द्विपक्षीय रूप से किये गए।
- संक्षेप में क्षेत्रीय परिषदें न केवल सुप्त हैं बल्कि प्रतीत होता है कि उन्हें पुन: सक्रिय करने में रुचि का अभाव है।
सिफारिश
- क्षेत्रीय परिषदों की पद्धति को समाप्त कर दिया जाना चाहिये। एक ही क्षेत्र में राज्यों के बीच अंतर-राज्य समन्वय अथवा विवादों के महत्त्वपूर्ण मुद्दों को, जब कभी ज़रूरी हो, उपयुक्त संरचना और विचारार्थ विषयों के साथ अंतर-राज्य परिषद को सौंपा जा सकता है, जिससे कि किसी निश्चित मुद्दों पर गहराई से विचार किया जा सके।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग
(National Human Right Commission)
- आयोग की स्थापना, मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 के तहत 1994 में की गई थी तथा भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश इसके अध्यक्ष और चार सदस्य हैं, जिनमें से दो उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं। राष्ट्रीय अनु. जाति, अनु. जनजाति, अल्पसंख्यक और पिछड़ा वर्गों के आयोगों के अध्यक्ष पदेन सदस्य हैं, जब सामान्य रूप से इनमें से किसी आयोग के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत आने वाले मामले पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा विचार किया जाता है।
- अधिनियम की धारा 2(घ) के अंतर्गत यथा परिभाषित ‘मानवाधिकार’ शब्द का कार्यक्षेत्र, संविधान में गारंटीशुदा मूलभूत अधिकारों की अपेक्षा काफी व्यापक है, क्योंकि इसमें ‘‘संविधान द्वार गारंटीशुदा अथवा अंतर्राष्ट्रीय अभिसमयों मेें सम्मिलित और भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय व्यक्तियों के जीवन, आज़ादी, समानता और सम्मान से संबंधित अधिकार’’ सम्मिलित हैं।
- आयोग ने अनेक स्थितियों में मानवाधिकारों के उल्लंघन के पीड़िताें के हित को समर्थन प्रदान करने में अत्यंत सक्रिय रूप से भाग लिया है। ‘बेस्ट बेकरी केस’ को गुजरात राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के लिये उच्चतम न्यायालय के साथ सफलतापूर्वक अनुरोध करना इस संबंध में अनेक मामलों में से एक मामला है।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग
(National Minorities Commission and National Commission for Backward Classes)
- ये आयोग, राष्ट्रीय अनु. जाति/अनु. जनजाति आयोगों की तरह काम करते हैं, अंतर इतना है कि ये अपनी शक्ति संसदीय विधानों से प्राप्त करते हैं, संवैधानिक प्रावधानों से नहीं।
- ‘संवैधानिक आयोगों’ के संदर्भ में की गई टिप्पणियाँ इनके मामले में भी लागू होती हैं।
राष्ट्रीय एकता परिषद (National Integration Council-NIC)
NIC की स्थापना, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा की गई पहल का परिणाम है, जिन्होेंने जबलपुर में तथा मध्य भारत में कतिपय अन्य स्थानों पर प्रमुख सांप्रदायिक समूहों को देखते हुए, सांप्रदायिकता, जातिवाद, क्षेत्रीयता, भाषायी उन्माद और संकीर्णता आदि की बुराइयाें से जूझने के लिये साधनोपाय खोजने के वास्ते सितंबर 1961 मेें एक राष्ट्रीय एकता सम्मेलन बुलाया।
आयोग के निष्कर्ष
- सम्मेलन से उभरने वाले महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों में से एक निष्कर्ष, राष्ट्रीय एकता से संबंधित सभी मामलों की समीक्षा करने और उनके संबंध में सिफारिशें करने के लिये, राष्ट्रीय एकता परिषद NIC की स्थापना करना था।
- तद्नुसार NIC की स्थापना की गई और इसकी पहली बैठक 2 व 3 जून, 1962 को आयोजित की गई।
- परिषद का पिछली बार पुनर्गठन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में तथा 141 सदस्यों के साथ 2005 में, पंद्रह वर्ष के बाद किया गया था।
सिफारिशें
- राष्ट्रीय एकता परिषद (NIC) के अधिदेश में अपेक्षित है कि राष्ट्रीय सामंजस्य को प्रभावित करने वाले सभी कारकों पर, न कि केवल सांप्रदायिकता और सांप्रदायिकता हिंसा पर विचार किया जाए। NIC के एजेंडे को विविधीकृत बनाए जाने की ज़रूरत है।
- परिषद के समक्ष मूल मुद्दों पर छोटी, विषय-विशिष्ट समितियों द्वारा विस्तारपूर्वक विचार किया जा सकता है।
- NIC की संरचना को युक्तिसंगत बनाया जाए, ताकि विविध किस्म के मुद्दों पर विचार किया जा सके। गृह मंत्रालय द्वारा हित समूहों तथा उन विशेषज्ञता समूहों का पता लगाने के लिये सामान्य रूपरेखा तक की जा सकती है, जिन्हें NIC मेें प्रतिनिधित्व दिए जाने की ज़रूरत है।
- परिषद की वर्ष में एक बार बैठक आयोजित की जा सकती है, जबकि उप-समितियों की बैठक, जब भी आवश्यक हो, सौंपे गए कार्य को एक समयबद्ध तरीके से पूरा करने के लिये आयोजित की जा सकती है।
- NIC की कार्यवाही का सारांश संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किया जा सकता है।
- भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (Indian Council of Social Science Research- ICSSR) और योजना आयोग, राष्ट्रीय एकता से संबंधित मुद्दों पर या तो विद्यमान संस्थान में अथवा एक नए संस्थान को प्रोत्साहित करके अथवा नेटवर्क के रूप में चर्चा करने के लिये एक बहु-विषयक अनुसंधान और नीति विश्लेषण मंच स्थापित करने के मामले में पहल कर सकते हैं।
राष्ट्रीय विकास परिषद (National Development Council- NDC)
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता और सदस्यों के रूप में राज्यों के मुख्य मंत्रियों के साथ एक शीर्ष निकाय (NDC) के रूप में 1952 में स्थापित इसका मूल उद्देश्य राष्ट्र को पंचवर्षीय योजनाओं के समर्थन में अभिप्रेरित करने तथा संतुलित और तीव्र विकास के लिये आर्थिक नीतियाँ प्रोन्नत करना था।
केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड
(Central Advisory Board on Education- CAB)
CABE प्रधान इस समूह में अनूठा है, न केवल इसलिये कि यह अपनी किस्म का एक प्राचीनतम निकाय है, जिसकी स्थापना 1921 में की गई थी बल्कि इसलिये भी कि इसने गंभीर विवादोें के समाधान में तथा शिक्षा से संबंधित, विशेष रूप से 1976 से पहले की अवधि के दौरान, जब ‘शिक्षा’ एकमात्र रूप से राज्यों के क्षेत्राधिकार केे तहत थी, मुद्दों पर राष्ट्रीय सहमति कायम करने में एक बड़ी भूमिका निभाई थी। अत्यंत जटिल और भावात्मक मुद्दे, जैसे कि ‘त्रि-भाषा सूत्र’ (Three Language Formula) राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति का समाधान भी CABE के माध्यम से कर लिया गया। दुर्भाग्यवश, इस महत्त्वपूर्ण सहमति कायम करने वाले मंच को 1990 के दशक के दौरान निष्क्रिय रहने दिया गया, 2004 से इसका पुनरुज्जीवन एक उत्तम संकेत है।
सिफारिश
राष्ट्रीय विकास परिषद और अन्य शीर्ष स्तर निकायों के संबंध में क्रियाविधि संबंधी विशिष्ट नियम तैयार किये जाने चाहिये, ताकि संकेंद्रित विचार-विमर्श सुनिश्चित हो सके।
अन्य संस्थागत नूतनताएँ
- यद्यपि विवादों में कमी लाने और उनके समाधान के लिये विद्यमान संस्थानों और मंचों को मज़बूत और प्रभावशाली बनाने की ज़रूरत है, तथापि कुछेक संस्थानों की विद्यमान रूपरेखा का विस्तार करने की भी ज़रूरत है, ताकि बातचीत और विचार-विमर्श की कतिपय सिद्ध पद्धतियों का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जा सके।
समिति के निष्कर्ष
- राज्य-विशिष्ट संघर्ष स्थितियों पर चर्चा करने के लिये, संभाव्य विवादोें सहित राज्य स्तर एकता परिषदों की स्थापना तथा ऐसी परिषदों की NIC के साथ नेटवर्किंग की एक पद्धति की व्यवस्था करना।
- एक ही राज्य के भागों अथवा विशिष्ट शिकायतों को दूर करने अथवा मांगों को पूरा करने के लिये आंदोलन कर रहे लोगों की एक बड़ी मांग वाले विवादों को उन व्यक्तियों की मध्यस्थता के जरिए निपटाया जा सकता है, जिन्हें समुदाय के अंदर सम्मान और स्वीकार्यता प्राप्त हो।
- व्यापक रूप से अपनी निष्पक्षता और विवेक के संबंध में जनता का व्यापक रूप से भरोसा और विश्वास प्राप्त करने वाले जीवन के विभिन्न क्षेत्रों से चुने गए विख्यात व्यक्तियों को शामिल करके ‘शांति समितियाँ’ गठित करके इस दृष्टिकोण को संस्थागत रूप दिया जा सकता है।
सिफारिशें
- राज्य स्तर विवाद स्थितियों का जायजा लेने के लिये राज्य एकता परिषदें (State Integration Councils) गठित की जा सकती हैं, जिनका NIC के साथ उपयुक्त तालमेल हो। महत्त्वपूर्ण मामलों में राज्य स्तर निकायों की रिपोर्ट को भी NIC के विचारार्थ सलाह और सिफारिशें हेतु लाया जा सकता है। राष्ट्रीय एकता परिषद की सदस्यता के बारे में निर्णय लेने के वास्ते मार्गनिर्देशों मेें राष्ट्रीय निकाय में राज्य एकता परिषदों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये समुचित प्राथमिकता प्रदान की जा सकती है।
- राज्य परिषदों के साथ उपयुक्त संयोजनों के साथ ज़िला स्तर एकता परिषदें (ज़िला शांति समितियाँ) स्थापित करने पर भी विचार किया जा सकता है, विशेष रूप से उन जिलों के लिये हिंसक विभाजक संघर्ष हुए हैं। इनमें प्रख्यात व्यक्तियों को शामिल किया जा सकता है, जिन्हें समाज के सभी वर्गों का विश्वास प्राप्त हो। ये निकाय संघर्षपूर्ण स्थितियों में मध्यस्थ और सलाहकार की भूमिका निभा सकते हैं।
निष्कर्ष
- यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे देश में यह एक बढ़ता क्षुब्धकर भ्रम है कि हिंसक आंदोलन का मार्ग अपनाना पीड़ित समूहों के लिये अपनी शिकायतें प्रस्तुत करने की एक पसंदीदा कार्यनीति है, बजाय इसके कि प्रजातंात्रिक आंदोलन और विसम्मति की संवैधानिक विधियों को अपनाया जाए।
- भारत को आज ऐसे राजनीतिक आंदोलनों के प्राचलों की ज़रूरत है, जो शांतिपूर्ण रहें, एक ऐसी राजनीतिक गतिविधि जो सभ्य और मानवीय हो, एक ऐसी राजनीति जो परस्पर गुंजाइश और सम्मान पर कायम हो। आक्रमकता के बगैर प्रजातांत्रिक सौदेबाजी के लेने और देने पर आधारित हो तथा ऐसे संघर्ष, जो छड़ों और पत्थरों की बजाय विचारों और चिंतन पर आधारित हो।