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Sambhav-2025

  • 20 Feb 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस- 70: भारत में दलबदल विरोधी कानून किस प्रकार संसदीय लोकतंत्र को सुदृढ़ करता है? इसके विधायी कार्यप्रणाली पर प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।(150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण:

    • दल-बदल विरोधी कानून (10वीं अनुसूची) तथा संसदीय लोकतंत्र में इसकी भूमिका का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
    • बताइये कि यह कानून स्थिरता, अनुशासन और जवाबदेही सुनिश्चित करके संसदीय लोकतंत्र को कैसे मज़बूत करता है।
    • सकारात्मक पहलुओं और सीमाओं सहित विधायी कार्यप्रणाली पर इसके प्रभाव का विश्लेषण कीजिये।
    • संतुलित दृष्टिकोण के साथ निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय:

    52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से लागू किये गए दल-बदल विरोधी कानून का उद्देश्य राजनीतिक दलबदल को रोकना और सरकारों की स्थिरता बनाए रखना है। इसका उद्देश्य पार्टी अनुशासन को बनाए रखना, खरीद-फरोख्त को रोकना और संसदीय लोकतंत्र को सशक्त करना है। हालाँकि इसके सख्त प्रावधान कई बार आंतरिक लोकतंत्र को बाधित करते हैं और विधायकों की स्वतंत्रता सीमित कर देते हैं।

    मुख्य भाग:

    दल-बदल विरोधी कानून संसदीय लोकतंत्र को कैसे सशक्त करता है

    • राजनीतिक अस्थिरता को रोककर: यह अनैतिक दलबदल को रोकने में सहायक होता है और सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित करता है, जिससे वे अपना कार्यकाल पूरा कर सकें (जैसे- कर्नाटक का 2019 संकट)।
    • भ्रष्ट आचरण में कमी: वर्ष 1985 से पहले व्याप्त खरीद-फरोख्त और रिश्वतखोरी पर रोक लगाई गई है तथा सदन में बहुमत परीक्षण में हेराफेरी को रोका गया है।
    • पार्टी अनुशासन सुनिश्चित करता है: विधायक अपनी पार्टी के वैचारिक रुख के प्रति प्रतिबद्ध रहते हैं, जिससे विखंडन और बार-बार होने वाले पुनर्निर्वाचन में कमी आती है।
    • सामूहिक उत्तरदायित्व को मज़बूत करता है: एक स्थिर कार्यपालिका सुनिश्चित करता है, जहाँ निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी पार्टी और मतदाताओं के प्रति जवाबदेह रहते हैं।
    • अध्यक्ष को निर्णायक के रूप में सशक्त बनाना: अध्यक्ष/सभापति अयोग्यता पर निर्णय लेते हैं, जिससे दलबदल के मामलों का त्वरित समाधान संभव हो पाता है।

    आलोचनात्मक विश्लेषण: विधायी कार्यप्रणाली पर प्रभाव

    • विधायकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है: सांसदों/विधायकों को स्वतंत्र विचार व्यक्त करने से रोकता है, जिससे विचार-विमर्शपूर्ण लोकतंत्र कम होता है।
    • पक्षपातपूर्ण निर्णय लेना: अध्यक्ष की विवेकाधीन शक्ति का प्रायः राजनीतिक हित साधने के लिये दुरुपयोग किया गया है
    • सामूहिक दल-बदल को रोकने में विफल: दो-तिहाई सदस्यों द्वारा दल-बदल की अनुमति देने वाले प्रावधान ने राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ावा दिया है (उदाहरण: महाराष्ट्र 2022 संकट)।
    • विधायी निगरानी का कमज़ोर होना: सांसदों और विधायकों को पार्टी के निर्देशों के अनुसार मतदान करने के लिये बाध्य किया जाता है, जिससे स्वतंत्र विचार, बहस एवं प्रभावी विपक्ष की भूमिका सीमित हो जाती है।
    • विलंबित अयोग्यता प्रक्रिया: मामले अक्सर महीनों तक लंबित रहते हैं, जिससे दल-बदलुओं को पद पर बने रहने और लाभ उठाने का अवसर मिल जाता है।
    • न्यायिक हस्तक्षेप में खामियों का संकेत: किहोटो होलोहान (1992) के फैसले में अध्यक्ष के अधिकार को बरकरार रखा गया, लेकिन निष्पक्ष निर्णय सुनिश्चित करने के लिये एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण की मांग की गई।

    निष्कर्ष:

    दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक स्थिरता को बढ़ाया है, लेकिन इसने विधायी स्वतंत्रता और आंतरिक लोकतंत्र को भी कम किया है। पार्टी अनुशासन और विधायी स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाने के लिये समय पर अयोग्य ठहराना, निर्णय के लिये एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण एवं विशिष्ट मुद्दों पर असहमति की अनुमति जैसे सुधारों पर विचार किया जाना चाहिये।

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