Sambhav-2025

दिवस-86: मरुस्थलीकरण का जैवविविधता और खाद्य सुरक्षा पर क्या प्रभाव पड़ता है? साथ ही, भारत द्वारा मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये किये गए प्रयासों पर चर्चा कीजिये। (150 शब्द)

11 Mar 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 3 | पर्यावरण

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • परिचय में, मरुस्थलीकरण को परिभाषित कीजिये और भारतीय संदर्भ में इसका महत्त्व बताइये।
  • जैवविविधता और खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये भारत के प्रयासों का उल्लेख कीजिये।
  • उचित निष्कर्ष निकालिये।

परिचय:

मरुस्थलीकरण से तात्पर्य शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और शुष्क उप-आर्द्र क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई एवं असंतुलित भूमि उपयोग जैसे कारकों के कारण भूमि क्षरण से है। भारत, जिसकी लगभग 30% भूमि मरुस्थलीकरण से प्रभावित है, जैवविविधता और खाद्य सुरक्षा के लिये गंभीर खतरों का सामना कर रहा है। सतत् विकास और पर्यावरण संरक्षण के लिये मरुस्थलीकरण से निपटना महत्त्वपूर्ण है।

मुख्य भाग:

जैवविविधता पर मरुस्थलीकरण का प्रभाव:

  • आवास की हानि और प्रजातियों का विलुप्त होना: मरुस्थलीकरण के कारण मृदा क्षरण, वनस्पति आवरण में कमी, आवासों का सिकुड़ना आदि होता है, जिससे जैवविविधता का ह्रास होता है
    • वनों, आर्द्रभूमियों और घास के मैदानों पर निर्भर प्रजातियों को आवास विखंडन के कारण अस्तित्व की गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • परागणकों और सूक्ष्मजीव विविधता में गिरावट: वनस्पति की हानि मधुमक्खियों और तितलियों जैसे परागणकों को प्रभावित करती है, जिससे फसल उत्पादकता प्रभावित होती है
    • मृदा सूक्ष्मजीव विविधता में कमी आती है, जिससे पौधों की वृद्धि के लिये पोषक तत्त्वों की उपलब्धता कम हो जाती है।
  • बढ़ती आक्रामक प्रजातियां और परिवर्तित पारिस्थितिकी तंत्र: क्षरित भूमि आक्रामक प्रजातियों को बढ़ावा देती है, जो स्थानीय वनस्पतियों और जीवों को नष्ट कर देती हैं, जिससे पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ जाता है।
  • जल निकायों में कमी से जलीय जैवविविधता प्रभावित होती है तथा पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण और अधिक बढ़ जाता है।

खाद्य सुरक्षा पर मरुस्थलीकरण का प्रभाव:

  • कृषि उत्पादकता में गिरावट: मृदा अपरदन, मृदा उर्वरता की हानि तथा जल की कमी से फसल की पैदावार कम हो जाती है, जिससे खाद्य उपलब्धता प्रभावित होती है।
  • राजस्थान और बुंदेलखंड जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भूमि क्षरण के कारण बार-बार फसल विफलता का सामना करना पड़ता है।
  • जल की कमी और सिंचाई क्षमता में कमी: मरुस्थलीकरण के कारण भूजल स्तर में गिरावट आ रही है और नदियाँ सूख रही हैं, जिससे सिंचाई करना मुश्किल हो रहा है
  • गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में रेगिस्तान का विस्तार कृषि संकट को बढ़ा रहा है।
  • ग्रामीण आजीविका और खाद्य कीमतों के लिये खतरा: कृषि उत्पादन में गिरावट से किसानों और ग्रामीण समुदायों की आय में कमी आती है
  • खाद्यान्नों की कमी के कारण कीमतों में वृद्धि होती है, जिससे विशेष रूप से कमज़ोर आबादी के लिये पौष्टिक भोजन की उपलब्धता प्रभावित होती है।

मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये भारत के प्रयास:

  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCD): वनरोपण, सतत् भूमि उपयोग और मृदा संरक्षण रणनीतियों पर ध्यान केंद्रित करती है।
  • क्षरित भूमि को पुनः बहाल करने के लिये जलग्रहण प्रबंधन और कृषि वानिकी पहलों को क्रियान्वित करना।
  • भारत का मरुस्थलीकरण और भूमि क्षरण एटलस: इसरो के अंतरिक्ष उपयोग केंद्र द्वारा प्रकाशित, लक्षित हस्तक्षेपों के लिये भूमि क्षरण पैटर्न का मानचित्रण।
  • UNCCD प्रतिबद्धता और बॉन चुनौती: भारत ने मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (UNCCD) के तहत वर्ष 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि को बहाल करने का संकल्प लिया।
  • बॉन चैलेंज का एक हिस्सा, जिसका लक्ष्य बड़े पैमाने पर वनरोपण और पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली है
  • ग्रीन इंडिया मिशन और कैम्पा फंड: कार्बन पृथक्करण और जैवविविधता संरक्षण को बढ़ाने के लिये वन संरक्षण तथा पुनर्वनीकरण को बढ़ावा देता है।
  • प्रतिपूरक वनरोपण कार्यक्रम (CAMPA) वनों की कटाई के प्रभावों की भरपाई के लिये वनरोपण प्रयासों को वित्तपोषित करता है।
  • वाटरशेड विकास और कृषि वानिकी पहल: PM कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) और राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति जैसे कार्यक्रम मिट्टी की नमी बनाए रखने एवं सतत् कृषि में सुधार करते हैं।
  • राजस्थान और गुजरात ने मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये सूखा प्रतिरोधी फसलों एवं जल संरक्षण तकनीकों को अपनाया है।

निष्कर्ष:

मरुस्थलीकरण जैवविविधता, खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न करता है, जिससे यह एक गंभीर पर्यावरणीय चुनौती बन जाती है। वनरोपण, सतत् कृषि और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं सहित भारत का बहुआयामी दृष्टिकोण भूमि बहाली के लिये महत्त्वपूर्ण है। सामुदायिक भागीदारी, वैज्ञानिक हस्तक्षेप और नीति प्रवर्तन को मज़बूत करने से भूमि क्षरण-तटस्थ भारत को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।