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01 Feb 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
दिवस- 54: "संविधान में संशोधन करने की शक्ति निरपेक्ष नहीं है।" मूल संरचना सिद्धांत और प्रमुख न्यायिक व्याख्याओं के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- परिचय में संशोधन शक्ति और उसकी सीमाओं को संक्षेप में समझाइये।
- मूल संरचना सिद्धांत और उसके न्यायिक विकास की व्याख्या कीजिये।
- संवैधानिक सीमाओं को पुष्ट करने वाले प्रमुख निर्णयों पर चर्चा कीजिये तथा ऐसे उदाहरणों पर भी चर्चा कीजिये, जहाँ संशोधनों को खारिज कर दिया गया।
- उचित निष्कर्ष निकालिये।
परिचय:
अनुच्छेद 368 के तहत संविधान में संशोधन करने की शक्ति निरपेक्ष नहीं है। जैसा कि केशवानंद भारती मामले, 1973 में प्रतिपादित किया गया था, मूल संरचना सिद्धांत संसद को संविधान की मौलिक पहचान को बदलने से रोकने के लिये इस शक्ति को सीमित करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक सर्वोच्चता और लोकतांत्रिक मूल्यों की सुरक्षा के लिये इस सिद्धांत को बनाए रखा है।
मुख्य भाग:
- मूल संरचना सिद्धांत (केशवानंद भारती केस, 1973):
- सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, लेकिन वह इसके "मूल ढाँचे" में बदलाव नहीं कर सकती।
- यह सुनिश्चित करता है कि संप्रभुता, लोकतंत्र, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और न्यायिक समीक्षा जैसे मूल सिद्धांत को बनाए रखे।
- सिद्धांत के निहितार्थ:
- अधिनायकवाद को रोकता है: यह सुनिश्चित करता है कि संसद एकतरफा ढंग से लोकतांत्रिक सिद्धांतों में परिवर्तन न करे।
- न्यायिक सुरक्षा: यह सर्वोच्च न्यायालय को संशोधनों की समीक्षा करने की शक्ति प्रदान करता है।
- संवैधानिक पहचान बनाए रखता है: संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करता है।
- संतुलन सुनिश्चित करता है: यद्यपि संशोधन विकास को सक्षम बनाते हैं, लेकिन वे आधारभूत सिद्धांतों को नष्ट नहीं कर सकते।
- सिद्धांत को पुष्ट करने वाली प्रमुख न्यायिक व्याख्याएँ:
- केशवानंद भारती केस (1973): इस सिद्धांत की स्थापना की गई कि संशोधन संविधान की मौलिक पहचान को नष्ट नहीं कर सकते।
- इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975): 39वें संशोधन को रद्द कर दिया गया, जो प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से बाहर करने का प्रयास करता था।
- मिनर्वा मिल्स केस (1980): 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को अमान्य कर दिया गया तथा इस बात की पुष्टि की गई कि न्यायिक समीक्षा और शक्ति संतुलन मूल संरचना का हिस्सा हैं।
- वामन राव केस (1981): स्पष्ट किया गया कि मूल ढाँचे का उल्लंघन करने वाले कानूनों की, भले ही वे नौवीं अनुसूची में शामिल हों, न्यायपालिका द्वारा समीक्षा की जा सकती है।
- आई.आर. कोलोहो केस (2007): न्यायालय ने माना कि मूल ढाँचे का उल्लंघन करने वाला कोई भी कानून, यहाँ तक कि नौवीं अनुसूची के तहत भी, न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- उदाहरण जहाँ संशोधनों को खारिज कर दिया गया:
- 99वाँ संशोधन (2014)-NJAC मामला (2015): इसे असंवैधानिक घोषित किया गया क्योंकि इसने न्यायिक स्वतंत्रता को कमज़ोर किया तथा मूल ढाँचे का उल्लंघन किया।
- पहला, चौथा और सत्रहवाँ संशोधन (संपत्ति के अधिकार के मामले): मूल संरचना सिद्धांत के तहत न्यायिक जाँच के अधीन।
निष्कर्ष:
संवैधानिक अनुकूलनशीलता के लिये संशोधन करने की शक्ति आवश्यक है, लेकिन इसे भारत के मौलिक मूल्यों के साथ संरेखित किया जाना चाहिये। मूल संरचना सिद्धांत एक संवैधानिक सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जो अनुकूलन और कठोरता के बीच संतुलन सुनिश्चित करता है तथा संविधान की अखंडता को बनाए रखता है।