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08 Feb 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
दिवस- 60: राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ प्रायः राजनीतिक विवादों का विषय बनती हैं। भारतीय संविधान के तहत इन शक्तियों की सीमाओं और प्रभावों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- परिचय में भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को संक्षेप में परिभाषित कीजिये।
- विवेकाधीन शक्तियों की सीमा और विवेकाधीन शक्तियों पर सीमाओं पर चर्चा कीजिये।
- इन शक्तियों से जुड़े विवादों के उदाहरण दीजिये।
- निष्कर्ष उपयुक्त रूप से लिखिये।
परिचय:
राज्यपाल भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है और मंत्रिपरिषद (अनुच्छेद 163) की सहायता एवं सलाह पर कार्य करता है। हालाँकि संविधान राज्यपाल को कुछ विवेकाधीन शक्तियाँ प्रदान करता है, जिसके कारण अक्सर राजनीतिक विवाद उत्पन्न होते हैं। यह बहस राज्यपाल की विवेकाधीन भूमिका और निर्वाचित सरकार के लोकतांत्रिक जनादेश के बीच संघर्ष से उत्पन्न होती है।
मुख्य भाग:
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का विस्तार:
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को अनुच्छेद 163(1) में रेखांकित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल उन मामलों में अपने विवेक से कार्य कर सकते हैं जहाँ संविधान विशेष रूप से ऐसी शक्ति प्रदान करता है। प्रमुख क्षेत्रों में शामिल हैं:
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति (अनुच्छेद 164):
- जब किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है, तो राज्यपाल निर्णय लेता है कि सरकार बनाने के लिये किसे आमंत्रित किया जाए।
- उदाहरण: महाराष्ट्र (2019) - राज्यपाल द्वारा किसी पार्टी को सरकार बनाने के लिये विषम समय पर आमंत्रित करने के निर्णय के कारण न्यायिक हस्तक्षेप हुआ।
- विधान सभा का विघटन (अनुच्छेद 174, 356):
- यदि सरकार बहुमत खो देती है या विधानसभा में बहुमत नहीं होता है तो राज्यपाल विधानसभा को भंग करने की सिफारिश कर सकता है।
- उदाहरण: झारखंड (2022) - राज्यपाल ने CM हेमंत सोरेन की अयोग्यता पर निर्णय लेने में विलंब किया, जिससे अनिश्चितता उत्पन्न हुई।
- राष्ट्रपति शासन की सिफारिश (अनुच्छेद 356):
- यदि राज्यपाल संवैधानिक विफलता की रिपोर्ट करता है, तो राष्ट्रपति राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकते हैं।
- उदाहरण: कर्नाटक (1989), बिहार (2005), उत्तराखंड (2016) - न्यायिक समीक्षा ने इसके दुरुपयोग को सीमित कर दिया।
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखना (अनुच्छेद 200 और 201):
- यदि कोई राज्य विधेयक संघीय कानून या संविधान के विपरीत हो तो राज्यपाल उस पर अपनी सहमति नहीं दे सकता या उसे राष्ट्रपति के पास भेज सकता है।
- उदाहरण: पश्चिम बंगाल का नागरिकता-संबंधी विधेयक - राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजा गया।
- सभा बुलाने में विवेकाधिकार (अनुच्छेद 174):
- राज्यपाल यह निर्णय ले सकते हैं कि विधानसभा सत्र बुलाया जाए या विलंबित किया जाए।
- उदाहरण: राजस्थान (2020) - राजनीतिक उथल-पुथल के बीच राज्यपाल ने विधानसभा बुलाने में विलंब किया।
- विधायकों की योग्यता का निर्धारण (अनुच्छेद 192):
- यदि किसी विधायक की अयोग्यता के संबंध में कोई विवाद होता है, तो राज्यपाल इसे चुनाव आयोग को भेजते हैं और उसकी सलाह पर कार्य करते हैं।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों पर सीमाएँ:
- मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से आबद्ध (अनुच्छेद 163(2)):
- राज्यपाल एक स्वतंत्र प्राधिकारी नहीं हैं और उन्हें विवेकाधिकार के मामलों को छोड़कर राज्य सरकार की सलाह के अनुसार कार्य करना होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय: शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (1974) - राज्यपाल उन सभी मामलों में मंत्रियों की सलाह से बाध्य है जहाँ विवेकाधिकार का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।
- विवेकाधीन शक्तियों की न्यायिक समीक्षा:
- सुप्रीम कोर्ट का फैसला: एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) - राष्ट्रपति शासन के लिये राज्यपाल की सिफारिश न्यायिक समीक्षा के अधीन है।
- नबाम रेबिया बनाम उपसभापति (2016) – राज्यपाल मनमाने ढंग से विधायी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
- आयोगों की सिफारिशें:
- सरकारिया आयोग (1983): सुझाव दिया कि राज्यपाल को निष्पक्ष रूप से कार्य करना चाहिये और राजनीतिक विचारों से प्रभावित नहीं होना चाहिये।
- पुंछी आयोग (2010): शक्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिये राज्यपाल की नियुक्ति हेतु विशिष्ट दिशा-निर्देशों की सिफारिश की।
- विधायी निरीक्षण:
- राज्यपाल के कार्यों पर विधानमंडल में प्रश्न उठाया जा सकता है और लोकतंत्र में मंत्रिपरिषद विधान सभा के प्रति जवाबदेह होती है।
राजनीतिक विवादों के कुछ उदाहरण:
- सरकार गठन में विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग:
- महाराष्ट्र (2019), कर्नाटक (2018) - राज्यपालों ने अस्पष्ट बहुमत के बावजूद कुछ दलों को आमंत्रित किया, जिससे पक्षपात के आरोप लगे।
- वर्ष 2016 में, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) के लिये राज्यपालों की सिफारिश को सर्वोच्च न्यायालय ने पलट दिया था, जिससे राज्यपाल के विवेक की न्यायिक समीक्षा की पुष्टि हुई।
- विधेयकों पर स्वीकृति में विलंब:
- केरल (2023), तमिलनाडु (2022) - राज्यपालों ने राज्य विधेयकों पर सहमति नहीं दी, जिससे केंद्र-राज्य संबंधों में तनाव उत्पन्न हो गया।
- राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल की भूमिका:
- अनुच्छेद 356 के मनमाने उपयोग के कारण सर्वोच्च न्यायालय को कई बार हस्तक्षेप करना पड़ा, जिससे संवैधानिक सुरक्षा सुनिश्चित हुई।
निष्कर्ष:
संघवाद और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिये राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों को संवैधानिक सीमाओं के अनुरूप होना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय और आयोग निर्वाचित सरकारों में हस्तक्षेप को कम करने पर ज़ोर देते हैं। सरकारिया और पुंछी आयोगों ने राज्यपाल की तटस्थता बनाए रखने तथा दुरुपयोग रोकने के लिये पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया, निर्धारित निर्णय समय-सीमा एवं जवाबदेही उपायों की सिफारिश की है।