Sambhav-2025

दिवस- 29:ब्रिटिश शासन के दौरान सिविल सेवाओं, पुलिस और न्यायपालिका के विकास ने प्रशासनिक दक्षता तथा साम्राज्यवादी नियंत्रण को किस प्रकार संतुलित किया एवं दोनों उद्देश्यों की पूर्ति किस प्रकार की? (250 शब्द)

03 Jan 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • ब्रिटिश शासन के तहत सिविल सेवाओं, पुलिस और न्यायपालिका की दोहरी भूमिका का परिचय दीजिये।
  • उनके शासन कार्यों की व्याख्या कीजिये तथा उदाहरण सहित बताइये कि उन्होंने किस प्रकार साम्राज्यवादी नियंत्रण सुनिश्चित किया।
  • उनके दोहरे उद्देश्य को प्रभावी ढंग से संक्षेप में प्रस्तुत कीजिये।

परिचय:

ब्रिटिश शासन के तहत, सिविल सेवा, पुलिस और न्यायपालिका संस्थागत स्तंभों के रूप में विकसित हुए, जो शासन एवं साम्राज्यवादी नियंत्रण के दोहरे उद्देश्य की पूर्ति करते थे। यद्यपि इन संस्थानों का उद्देश्य एक विशाल और विविध क्षेत्र का प्रशासन करना प्रतीत होता था, इन्हें मुख्य रूप से ब्रिटिश शासन को मज़बूत करने के लिये डिज़ाइन किया गया था, जिसमें प्रभावी संसाधन निष्कर्षण, कानून प्रवर्तन तथा असंतोष का दमन सुनिश्चित करना शामिल था।

मुख्य भाग:

लोक सेवाएँ:

  • शासन:
    • विनियमन अधिनियमों, चार्टर अधिनियमों और भारत सरकार अधिनियमों के माध्यम से संवैधानिक सुधारों को सुगम बनाया, जबकि नगरपालिका सुधारों के माध्यम से स्थानीय शासन को बढ़ावा दिया गया, प्रशासनिक दक्षता और नियंत्रण को बढ़ाया गया।
    • भारतीय सिविल सेवा (आई.सी.एस.) ने कुशल कर संग्रहण और संसाधन प्रबंधन के माध्यम से प्रशासनिक स्थिरता प्रदान की।
    • कानूनों के संहिताकरण (जैसे- भारतीय दंड संहिता, 1860) और पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत (वुड्स डिस्पैच, 1854) ने केंद्रीकृत शासन सुनिश्चित किया।
  • साम्राज्यिक नियंत्रण:
    • स्थायी बंदोबस्त (1793) जैसी नीतियों ने स्थिर राजस्व सुनिश्चित किया लेकिन किसानों का शोषण किया।
    • आईसीएस अधिकारी निगरानी के साधन के रूप में कार्य करते थे, राष्ट्रवादी गतिविधियों की रिपोर्टिंग करते थे और औपनिवेशिक कानूनों को लागू करते थे (जैसे- वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट, 1878)
    • योग्यता आधारित भर्ती से अधिकांश भारतीय बाहर रह गए, जिससे यह प्रणाली उपनिवेशवादी बनी रही।

पुलिस:

  • शासन:
    • 1861 के पुलिस अधिनियम के तहत कानून और व्यवस्था बनाए रखने तथा व्यापार मार्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये एक संगठित बल का गठन किया गया।
    • अपराध को कम करने और स्थानीय विवादों में न्यायिक प्रक्रियाओं का समर्थन करने में सहायता की गई।
  • साम्राज्यिक नियंत्रण:
    • 1857 के विद्रोह और असहयोग आंदोलन (1920-22) जैसी घटनाओं के दौरान राजनीतिक असंतोष को दबा दिया गया।
    • रौलेट एक्ट (1919) जैसे कानूनों के तहत दमनकारी उपायों ने पुलिस को नागरिक स्वतंत्रताओं को दबाने का व्यापक अधिकार प्रदान किया।

न्यायपालिका:

  • शासन:
    • वाणिज्य और विवादों में कानूनी पूर्वानुमेयता के लिये सर्वोच्च न्यायालय (1774) एवं अधीनस्थ न्यायालयों जैसी संस्थाओं की स्थापना की गई।
    • न्यायपालिका ने भारतीय दंड संहिता (1860) जैसी संहिताबद्ध प्रणालियों के माध्यम से वाणिज्य और व्यक्तिगत विवादों के लिये कानूनों में पूर्वानुमेयता सुनिश्चित की।
    • व्यापार एवं कानूनी विवादों के समाधान के लिये बुनियादी ढाँचा उपलब्ध कराया गया।
  • साम्राज्यिक नियंत्रण:
    • रौलट एक्ट (1919) जैसे औपनिवेशिक कानूनों के तहत दमन को सुविधाजनक बनाया गया, गिरफ्तारियों को वैध बनाया और स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया।
    • असमान मुकदमों ने ब्रिटिश हितों के पक्ष में न्यायिक पूर्वाग्रह को प्रदर्शित किया।

इन संस्थानों ने एक साथ दोहरे उद्देश्यों की पूर्ति कैसे की:

  • लोक सेवाएँ शासन प्रदान करती थीं, लेकिन उच्च कराधान जैसी नीतियों के ज़रिये ब्रिटिश वर्चस्व को बनाए रखने का कार्य भी करती थीं।
  • पुलिस ने संथाल विद्रोह (1855-56) जैसे विद्रोहों को दबाते हुए कानून और व्यवस्था लागू की।
  • न्यायपालिका ने कानूनी पूर्वानुमानशीलता को बढ़ावा दिया, लेकिन साथ ही यह औपनिवेशिक नियंत्रण को बनाए रखने का उपकरण भी बन गई, जैसा कि राष्ट्रवादी आंदोलनों पर प्रतिबंध लगाने वाले मामलों में स्पष्ट होता है।

निष्कर्ष:

ब्रिटिश शासन के तहत लोक सेवाएँ, पुलिस और न्यायपालिका केवल प्रशासनिक उपकरण ही नहीं थे, बल्कि साम्राज्यवादी नियंत्रण के तंत्र भी थे। कुछ आधुनिकीकरण में योगदान देते हुए, उन्होंने मुख्य रूप से संसाधनों का दोहन करके, असहमति को दबाकर और औपनिवेशिक सत्ता को मज़बूत करके ब्रिटिश प्रभुत्व को बनाए रखा, जिससे स्वतंत्रता के बाद के भारत में केंद्रीकृत प्रशासन की विरासत बनी रही।