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Sambhav-2025

  • 10 Feb 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस- 61: राज्य विधानमंडल शासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन इसकी शक्तियाँ संसद जितनी व्यापक नहीं हैं। राज्य विधानमंडल की विधायी, वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियों के संदर्भ में इस कथन पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • भारत की शासन संरचना में राज्य विधानमंडलों की भूमिका का संक्षेप में परिचय दीजिये। 
    • तर्क दिया जाता है कि यद्यपि राज्य विधानमंडलों के पास महत्त्वपूर्ण अधिकार होते हैं, फिर भी संसद की तुलना में उनकी शक्तियाँ सीमित होती हैं।
    • प्रभावी शासन के लिये संतुलित संघीय ढाँचे के महत्त्व पर बल देते हुए निष्कर्ष निकालिये।

    परिचय: 

    राज्य विधानमंडल कानून निर्माण, कार्यपालिका की निगरानी और राज्य स्तर पर वित्तीय प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि भारत के अर्द्ध-संघीय ढाँचे में इसकी शक्तियाँ संसद की तुलना में सीमित हैं।

    मुख्य भाग: 

    विधायी शक्तियाँ: सीमित क्षेत्राधिकार और संसद का सर्वोच्च अधिकार

    • सातवीं अनुसूची के अंतर्गत विषयों का विभाजन
      • राज्य विधानमंडल को राज्य सूची के विषयों (जैसे- पुलिस, सार्वजनिक स्वास्थ्य, कृषि) पर विशेष अधिकार प्राप्त है।
      • हालाँकि समवर्ती सूची के मामलों (जैसे- शिक्षा, आपराधिक कानून) पर, यदि केंद्रीय और राज्य कानूनों के बीच कोई संघर्ष होता है, तो संसद को अनुच्छेद 254 के तहत अवरक्त शक्तियाँ प्राप्त हैं।
    • राज्य के मामलों पर कानून बनाने की संसद की शक्ति
      • अनुच्छेद 249: यदि राज्य सभा दो-तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर दे तो संसद राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकती है।
      • अनुच्छेद 250: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान, संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त होता है।
      • अनुच्छेद 252: यदि दो या अधिक राज्य विधानमंडल प्रस्ताव पारित कर संसद से अनुरोध करते हैं, तो संसद को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार मिल जाता है, जिससे संबंधित राज्यों का उस विषय पर स्वतंत्र विधायी अधिकार समाप्त हो जाता है।
    • विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति
      • अनुच्छेद 200 के तहत, राज्यपाल राज्य विधेयकों पर अपनी स्वीकृति रोक सकते हैं, उन्हें पुनर्विचार के लिये वापस भेज सकते हैं, या उन्हें राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये आरक्षित रख सकते हैं
      • उदाहरण: तमिलनाडु के NEET विधेयक (2017) को राज्यपाल ने रोक दिया, जिससे इसके कार्यान्वयन में विलंब हुआ।

    वित्तीय शक्तियाँ: संघ पर राजकोषीय निर्भरता

    • सीमित कराधान प्राधिकरण
      • संघ सूची में आयकर, सीमा शुल्क और कॉर्पोरेट कर जैसे प्रमुख राजस्व स्रोत शामिल हैं, जबकि राज्यों के पास संपत्ति कर, शराब पर उत्पाद शुल्क एवं वाहन कर जैसे सीमित स्रोत रह जाते हैं
      • GST (2017) के लागू होने से राज्यों की स्वतंत्र राजस्व जुटाने की क्षमता और कम हो गई, जिससे वे केंद्र से GST मुआवज़े पर निर्भर हो गए
    • संघ से वित्तीय हस्तांतरण और अनुदान
      • वित्त आयोग (अनुच्छेद 280) केंद्र और राज्यों के बीच वित्तीय संसाधनों के वितरण का निर्धारण करता है।
      • राज्यों को केंद्र से अनुदान प्राप्त होता है, लेकिन उनकी वित्तीय स्वायत्तता सीमित है
      • उदाहरण: वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाने के लिये, कई राज्य अक्सर केंद्रीय करों में अधिक हिस्सेदारी की मांग करते हैं।

    प्रशासनिक शक्तियाँ: राज्य शासन पर संघ का प्रभाव

    • राज्यपाल की विवेकाधीन भूमिका
      • राज्यपाल (अनुच्छेद 163) राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है, लेकिन वह केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता है तथा राज्य शासन को प्रभावित करता है।
      • राज्यपाल अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकते हैं, राज्य विधानमंडल को निलंबित कर सकते हैं और केंद्र को सत्ता हस्तांतरित कर सकते हैं।
      • उदाहरण: एस.आर. बोम्मई मामले (1994) ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग को सीमित कर दिया, लेकिन राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने की केंद्र की शक्ति को बरकरार रखा।
    • राज्य सरकारों को निर्देश देने की संघ की शक्ति
      • अनुच्छेद 256: राज्यों को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन करना होगा।
      • अनुच्छेद 257: केंद्र विशिष्ट मामलों में राज्यों को निर्देश दे सकता है, यह सुनिश्चित करते हुए कि राज्य की नीतियाँ राष्ट्रीय हितों के विपरीत न हों।

    निष्कर्ष:

    राज्य विधानमंडल एक महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्था है, लेकिन संवैधानिक बाधाओं के भीतर काम करती है जो इसके विधायी, वित्तीय और प्रशासनिक अधिकार को सीमित करती हैं। संघवाद को सशक्त बनाने के लिये राज्यों की वित्तीय स्वायत्तता बढ़ाने, राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों को सीमित करने और राज्य विधान में संसद की भूमिका की पुनर्समीक्षा जैसे सुधार आवश्यक हैं। संतुलित संघीय संरचना से राष्ट्रीय एकता बनाए रखते हुए सुशासन को प्रोत्साहन मिलेगा।

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