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Sambhav-2025

  • 11 Feb 2025 सामान्य अध्ययन पेपर 2 राजव्यवस्था

    दिवस- 62: समय के साथ मौलिक अधिकारों की व्याख्या में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका व्यापक हुई है। उपयुक्त उदाहरणों सहित विश्लेषण कीजिये कि इसका भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय को सुनिश्चित करने पर क्या प्रभाव पड़ा है? (150 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण: 

    • भारतीय संविधान के अंतर्गत मौलिक अधिकारों की व्याख्या करने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका का संक्षेप में परिचय दीजिये।
    • बताइये कि सर्वोच्च न्यायालय ने प्रगतिशील व्याख्याओं के माध्यम से मौलिक अधिकारों के दायरे को कैसे व्यापक बनाया है।
    • उपयुक्त उदाहरणों के साथ भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय पर इसके प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
    • अंत में, अधिकारों की प्रभावी प्राप्ति सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर सुझाव दीजिये।

    परिचय: 

    संविधान के संरक्षक के रूप में भारत का सर्वोच्च न्यायालय भाग III के तहत मौलिक अधिकारों की व्याख्या करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समय के साथ, इसकी प्रगतिशील व्याख्याओं ने अधिकारों के दायरे को केवल नागरिक और राजनीतिक स्वतंत्रता से आगे बढ़ाकर सामाजिक-आर्थिक न्याय तक पहुँचा दिया है। 

    मुख्य भाग: 

    मौलिक अधिकारों के विस्तार में महत्त्वपूर्ण मील के पत्थर

    • मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978)- न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार में व्यक्तिगत स्वतंत्रता शामिल है और इसे मनमाने ढंग से कम नहीं किया जा सकता है। 
    • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973)- मूल संरचना सिद्धांत की स्थापना की गई, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि मौलिक अधिकार अनुल्लंघनीय रहें।
    • जनहित याचिका (PIL)- न्याय तक व्यापक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये, गैर-पीड़ितों को भी हाशिये पर पड़े समुदायों के अधिकारों की रक्षा हेतु न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति दी गई।

    सामाजिक-आर्थिक न्याय पर प्रभाव

    • आजीविका का अधिकार
      • ओल्गा टेलिस बनाम बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन (1985)- आजीविका के अधिकार को जीवन के अधिकार (अनुच्छेद 21) के विस्तार के रूप में मान्यता दी गई। न्यायालय ने माना कि झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को पुनर्वास के बिना बेदखल नहीं किया जा सकता।
    • शिक्षा का अधिकार
      • उन्नी कृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993)- माना गया कि शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत अंतर्निहित है। इसके परिणामस्वरूप 86वें संवैधानिक संशोधन (2002) के माध्यम से अनुच्छेद 21A को सम्मिलित किया गया, जिससे शिक्षा एक मौलिक अधिकार बन गया।
    • स्वास्थ्य का अधिकार
      • पश्चिम बंग खेत मज़दूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (1996)- न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के संरक्षण को मज़बूत करते हुए पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएँ प्रदान करने की राज्य की ज़िम्मेदारी पर ज़ोर दिया।
      • पंजाब राज्य बनाम मोहिंदर सिंह चावला (1997)- घोषित किया गया कि स्वास्थ्य का अधिकार मौलिक है और राज्य को उचित चिकित्सा बुनियादी ढाँचा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया।
    • भोजन का अधिकार
      • PUCL बनाम भारत संघ (2001)- सरकार को खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों को लागू करने का अधिकार दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप मध्याह्न भोजन योजना का विस्तार हुआ और बाद में, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (2013) लागू हुआ।
    • पर्यावरण न्याय
      • एम.सी. मेहता मामले- अनुच्छेद 21 के तहत स्वच्छ पर्यावरण के अधिकार को स्वीकार किया गया, जिससे सख्त पर्यावरणीय नियमों का मार्ग प्रशस्त हुआ।

    चुनौतियाँ और आलोचना

    • न्यायिक अतिक्रमण- न्यायालय की अक्सर विधायी और कार्यकारी क्षेत्रों में अतिक्रमण करने के लिये आलोचना की जाती है, जिसके कारण शासन में टकराव उत्पन्न होता है।
    • कार्यान्वयन में अंतराल- नौकरशाही की अकुशलता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण कई ऐतिहासिक निर्णय खराब क्रियान्वयन से ग्रस्त हैं।
    • लंबित मामलों का बोझ- विलंबित न्याय सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की समय पर प्राप्ति को कमज़ोर करता है।

    निष्कर्ष:

    भारत में सामाजिक-आर्थिक न्याय को आगे बढ़ाने में सर्वोच्च न्यायालय की मौलिक अधिकारों की गतिशील व्याख्या महत्त्वपूर्ण रही है। हालाँकि न्यायिक निर्देशों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना और कार्यकारी-न्यायिक सहयोग को मज़बूत करना निरंतर प्रगति के लिये महत्त्वपूर्ण है। जैसा कि डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने सटीक रूप से कहा था, "राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार में सामाजिक लोकतंत्र न हो, जिसका अर्थ है एक ऐसी जीवन शैली जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है।"

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