31 Jan 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- संवैधानिक संशोधनों और न्यायपालिका की भूमिका को परिभाषित करते हुए परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि न्यायिक हस्तक्षेप ने संवैधानिक लचीलेपन और स्थिरता के बीच संतुलन कैसे सुनिश्चित किया।
- उचित निष्कर्ष निकालिये।
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परिचय:
न्यायिक समीक्षा के माध्यम से भारतीय न्यायपालिका संवैधानिक संशोधनों की वैधता की जाँच करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जबकि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति प्रदान करता है, सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति की सीमाओं की व्याख्या यह सुनिश्चित करने के लिये की है कि संशोधन संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन न करें। इस हस्तक्षेप ने संवैधानिक स्थिरता को मज़बूत किया है और न्यायिक अतिक्रमण के बारे में चिंताएँ भी बढ़ाई हैं।
मुख्य भाग:
संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा में न्यायपालिका की भूमिका:
- संवैधानिक सुरक्षा के रूप में न्यायिक समीक्षा: अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 32 के तहत, न्यायालय मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले संशोधनों को अमान्य कर सकते हैं।
- उदाहरण: मिनर्वा मिल्स केस (1980) ने 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को रद्द कर दिया।
- मूल संरचना सिद्धांत: केशवानंद भारती मामले (1973) में स्थापित यह सिद्धांत संसद को संविधान के मूल मूल्यों में संशोधन करने से रोकता है।
- मौलिक अधिकारों का संरक्षण: मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में, न्यायालय ने 42वें संशोधन के कुछ हिस्सों को निरस्त कर दिया, जिससे यह सुनिश्चित हो गया कि मौलिक अधिकार निदेशक सिद्धांतों पर लागू रहेंगे।
- संसदीय सर्वोच्चता में संतुलन: जबकि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, न्यायपालिका यह सुनिश्चित करती है कि ऐसे संशोधनों से लोकतांत्रिक सिद्धांत कमज़ोर न हों।
- उदाहरण: 99वें संविधान संशोधन को रद्द करना (NJAC मामला, 2015)।
- संघीय ढाँचे को सुनिश्चित करना: न्यायालय केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करने वाले संशोधनों की समीक्षा करते हैं।
- उदाहरण: पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ (1963) ने राज्य के अधिकारों को बरकरार रखा।
- अस्पष्ट प्रावधानों की व्याख्या करना: न्यायपालिका संवैधानिक उद्देश्य को बनाए रखने के लिये अस्पष्ट संशोधन प्रावधानों को स्पष्ट करती है।
- उदाहरण: संघवाद पर एस.आर. बोम्मई मामला (1994)।
न्यायिक हस्तक्षेप स्थिरता कैसे सुनिश्चित करता है:
- सत्तावादी संशोधनों को रोकता है: 39वाँ संशोधन (इंदिरा गांधी मामला, 1975), जिसने चुनावी विवादों को न्यायिक समीक्षा से परे रखा था, को रद्द कर दिया गया, जिससे चुनावी जवाबदेही सुनिश्चित हुई।
- संवैधानिक सर्वोच्चता बनाए रखना: केशवानंद भारती केस (1973) ने फैसला सुनाया कि संसद मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती, जिससे लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद की रक्षा हो सके।
- न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा: कार्यपालिका के प्रभाव से न्यायपालिका की स्वायत्तता को सुरक्षित रखने के लिये 99वें संशोधन (NJAC मामला, 2015) को रद्द कर दिया गया था।
- आरक्षण नीतियों को बरकरार रखा: जरनैल सिंह मामला (2018) में, उच्च न्यायालय ने SC/ST के लिये पदोन्नति में आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन फैसला दिया कि उन्हें मात्रात्मक डाटा द्वारा समर्थित होना चाहिये, जिससे सामाजिक न्याय और प्रशासनिक दक्षता के बीच संतुलन सुनिश्चित हो सके।
- निष्पक्ष आर्थिक नीतियों को सुनिश्चित करना: आर्थिक शासन को कायम रखते हुए मनमाने कर अधिरोपण को रोकने के लिये प्रथम संशोधन (1951) और हाल के GST-संबंधी मामलों की समीक्षा की गई है।
न्यायिक हस्तक्षेप लचीलेपन को कैसे प्रभावित करता है:
- न्यायिक सक्रियता बनाम संसदीय सर्वोच्चता: केशवानंद भारती (1973) में, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने एक संवैधानिक संशोधन (24वाँ) को यह घोषित करके पलट दिया कि संसद संविधान के "मूल ढाँचे" में परिवर्तन नहीं कर सकती है।
- विलंबित सुधार: एम. नागराज मामला (2006) में सरकार को पदोन्नति में SC/ST आरक्षण के लिये मात्रात्मक डाटा दिखाने की आवश्यकता थी, जिससे नीति कार्यान्वयन में विलंब हुआ।
- प्रगतिशील आर्थिक नीतियों पर प्रहार: हाल ही में चुनावी बाॅण्ड (2024) संबंधी निर्णय में कहा गया कि यह योजना चुनावों में पारदर्शिता और निष्पक्षता का उल्लंघन करती है, हालाँकि कुछ लोगों ने तर्क दिया कि इससे कॉर्पोरेट फंडिंग को विनियमित करने में मदद मिली।
निष्कर्ष:
न्यायिक समीक्षा ने संवैधानिक स्थिरता को बनाए रखते हुए मनमाने संशोधनों पर एक आवश्यक जाँच के रूप में काम किया है। हालाँकि कभी-कभी न्यायिक अतिक्रमण संसदीय सर्वोच्चता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करता है। विधायी इरादे और न्यायिक निगरानी के बीच एक सामंजस्यपूर्ण संतुलन संवैधानिक अखंडता एवं लोकतांत्रिक प्रगति सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।