Sambhav-2025

दिवस- 61: भारत के कुछ राज्यों में विधान परिषद होने की प्रासंगिकता का मूल्यांकन कीजिये। क्या विधान परिषदों का गठन अधिक राज्यों में किया जाना चाहिये? उपयुक्त उदाहरणों सहित बताइये। (150 शब्द)

10 Feb 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण: 

  • भारत में विधान परिषद की अवधारणा को संक्षेप में परिभाषित कीजिये।
  • भारत के कुछ राज्यों में विधान परिषद की प्रासंगिकता का उल्लेख कीजिये।
  • विधान परिषदों को और अधिक राज्यों तक विस्तारित करने के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत कीजिये।
  • निष्कर्षतः विधान परिषदों के निर्माण के लिये विशिष्ट मानदंडों की सिफारिश की जानी चाहिये।

परिचय: 

विधान परिषदें कुछ भारतीय राज्यों की द्विसदनीय विधायिकाओं में ऊपरी सदन के रूप में कार्य करती हैं। संविधान के अनुच्छेद 169 के अनुसार, कोई राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित करके और उसके बाद संसदीय अनुमोदन के माध्यम से विधान परिषद बना या समाप्त कर सकता है। वर्तमान में, छह राज्यों में विधान परिषदें हैं- आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश। 

मुख्य भाग: 

मौजूदा राज्यों में विधान परिषदों की प्रासंगिकता

  • कानून का पुनरीक्षण और समीक्षा: 
    • विधान परिषदें विधान सभा द्वारा पारित विधेयकों की पुनर्समीक्षा का अवसर प्रदान करती हैं, जिससे जल्दबाज़ी या संभावित त्रुटियों वाले कानूनों की आशंका कम हो जाती है।
  •  कानून निर्माण में विशेषज्ञता: 
    • विधान परिषदों (MLC) के सदस्यों में पेशेवर, शिक्षाविद और प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होते हैं जो विशेषज्ञता तथा अनुभव लेकर आते हैं, जिससे विधायी गुणवत्ता में सुधार होता है।
  • लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को मज़बूत करना:
    • जनसंख्या और सांस्कृतिक विविधता वाले बड़े राज्यों में, विधान परिषदें व्यापक राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये एक प्रभावी मंच के रूप में कार्य कर सकती हैं।
  • संघीय संतुलन और राज्य स्वायत्तता: 
    • विधान परिषदें समाज के विभिन्न वर्गों को शासन में भागीदारी का अवसर देकर राज्य स्तर पर लोकतंत्र को सशक्त बनाती हैं और संघीय भावना को प्रोत्साहित करती हैं।
  • हाशिये पर पड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व: 
    • विधान परिषदें स्नातकों, शिक्षकों और अन्य हित समूहों को प्रतिनिधित्व प्रदान करती हैं, जिनकी अन्यथा राज्य नीति निर्धारण में कोई भूमिका नहीं होती।

विधान परिषदों के विस्तार के विरुद्ध तर्क

  • वित्तीय बोझ: 
    • विधान परिषद के संचालन में पर्याप्त व्यय होता है, जिससे कई लोगों का मानना है कि सीमित संसाधनों को अतिरिक्त विधायी निकायों के बजाय आवश्यक सेवाओं पर केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • सीमित विधायी शक्ति: 
    • केंद्रीय स्तर पर राज्यसभा के विपरीत, राज्य विधान परिषदों में पर्याप्त विधायी शक्ति का अभाव है। 
    • वे धन विधेयकों को रोक नहीं सकते तथा केवल सलाहकार निकाय के रूप में कार्य करते हैं, जिससे उनकी आवश्यकता पर प्रश्न उठते हैं।
  • राजनीतिक संरक्षण का खतरा: 
    • कुछ राज्यों में विधान परिषदों की आलोचना इस बात के लिये की गई है कि वे राजनीतिक पक्षपात का साधन बन गई हैं, जहाँ सत्तारूढ़ दल स्वतंत्र विशेषज्ञों के बजाय सहयोगियों को नामित करते हैं।
  • ऐतिहासिक तर्क अब प्रासंगिक नहीं:
    • प्रारंभ में, विधान परिषदों का गठन विशिष्ट राज्यों की ऐतिहासिक और जनसांख्यिकीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया गया था; बिना ठोस आधार के उनकी विस्तारशीलता उचित नहीं मानी जा सकती।
    • संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग (2002) ने उनकी आवश्यकता पर प्रश्न उठाया और सुझाव दिया कि उनका विस्तार ऐतिहासिक मिसाल के बजाय समकालीन शासन आवश्यकताओं पर आधारित होना चाहिये (NCRWC रिपोर्ट, 2002)

निष्कर्ष:

जबकि विधान परिषदों के कुछ लाभ हैं, उनका विस्तार राज्य-विशिष्ट आवश्यकताओं के आधार पर उचित ठहराया जाना चाहिये। बड़ी आबादी, जटिल शासन संरचनाओं और विविध समुदायों वाले राज्यों को द्विसदनीय प्रणाली से लाभ हो सकता है। हालाँकि राजनीतिक दुरुपयोग और वित्तीय बोझ को रोकने के लिये, नामांकन प्रक्रिया में सुधार तथा स्पष्ट कार्यात्मक जनादेश की आवश्यकता है। इस प्रकार, एकमुश्त विस्तार के बजाय, मामला-दर-मामला मूल्यांकन करके यह निर्धारित किया जाना चाहिये कि क्या अधिक राज्यों को विधान परिषदों की आवश्यकता है।