Sambhav-2025

दिवस- 40: भारत में प्रमुख मृदा निर्माण प्रक्रिया और भौगोलिक वितरण पर चर्चा कीजिये। (250 शब्द)

16 Jan 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | भूगोल

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • परिचय में मृदा निर्माण को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या कीजिये।
  • मुख्य भाग में मृदा निर्माण प्रक्रियाओं का विस्तार से वर्णन कीजिये।
  • भारत में प्रमुख मृदा प्रकारों के भौगोलिक वितरण पर चर्चा कीजिये।
  • प्रासंगिक उदाहरणों द्वारा समझाइये।
  • सतत् मृदा प्रबंधन पर उपयुक्त निष्कर्ष दीजिये।

परिचय

मृदा कृषि और पारिस्थितिकी तंत्र की नींव बनाती है, जो खाद्य उत्पादन एवं जैवविविधता के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में कार्य करती है। भारत में, मृदा का निर्माण जलवायु, स्थलाकृति, मूल सामग्री, समय और जैविक गतिविधि जैसे कारकों से प्रभावित होता है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न क्षेत्रों में मृदा के प्रकार भिन्न होते हैं। ये विविधताएँ सीधे कृषि पद्धतियों और फसल विकल्पों को प्रभावित करती हैं।

मुख्य भाग:

मृदा निर्माण की प्रक्रियाएँ

  • मूल चट्टान का अपक्षय:
    • भौतिक, रासायनिक या जैविक प्रक्रियाओं के माध्यम से चट्टानों के विघटन से मृदा बनती है।
    • उदाहरण: नदी घाटियों में जलोढ़ मृदा नदियों द्वारा संवहनीय और जमा किये गए तलछट से उत्पन्न होती है।
  • जलवायु प्रभाव:
    • तापमान, वर्षा और आर्द्रता मृदा की विशेषताओं, जैसे बनावट एवं उर्वरता को प्रभावित करते हैं।
    • उदाहरण के लिये, लैटेराइट मृदा उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में निक्षालन के कारण बनती है, जिसमें घुलनशील पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं।
  • कार्बनिक और जैविक क्रियाएँ:
    • वनस्पति और जीव-जंतुओं के अपघटन से मृदा ह्यूमस एवं पोषक तत्त्वों से समृद्ध होती है।
    • उदाहरण: बेसाल्टिक लावा से निर्मित काली मृदा में उच्च कार्बनिक तत्त्व और आर्द्रता धारण क्षमता होती है।
  • स्थलाकृति/उच्चावच और समय:
    • ढलान जैसी भूदृश्य विशेषताएँ और अपक्षय में लगने वाला समय, मृदा की गहराई और विकास को प्रभावित करते हैं।
    • उदाहरण: पहाड़ी मृदा उथली होती है और खड़ी ढलानों पर कटाव के कारण कम गुणवत्तापूर्ण होती है।

भारत में प्रमुख मृदा प्रकारों का भौगोलिक वितरण

  • जलोढ़ मृदा:
    • विस्तार: भारत के भूमि क्षेत्र का लगभग 43%, मुख्य रूप से सिंधु-गंगा के मैदान और गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं महानदी जैसे नदी डेल्टाओं में।
    • विशेषताएँ: पोटाश और फॉस्फोरिक एसिड से भरपूर, लेकिन नाइट्रोजन की कमी। अत्यधिक उपजाऊ और गेहूँ, चावल एवं गन्ना जैसी फसलों के लिये आदर्श।
  • काली मृदा (रेगुर मृदा):
    • क्षेत्र: महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है।
    • गठन: ज्वालामुखीय बेसाल्ट चट्टानों से व्युत्पन्न।
    • विशेषताएँ: नमी को बनाए रखता है, शुष्क मौसम के दौरान दरारें आ जाती हैं और कपास की खेती के लिये उपयुक्त है।
  • लाल और पीली मृदा:
    • क्षेत्र: ओडिशा, छत्तीसगढ़, दक्षिणी कर्नाटक और झारखंड में।
    • निर्माण: क्रिस्टलीय और रूपांतरित चट्टानों का अपक्षय।
    • विशेषताएँ: आयरन ऑक्साइड से भरपूर, जो इसे लाल रंग देता है, लेकिन नाइट्रोजन और फास्फोरस की कमी होती है। बाजरा और मूंगफली जैसी फसलों के लिये उपयुक्त।
  • लैटेराइट मृदा:
    • क्षेत्र: केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पाया जाता है।
    • गठन: गर्म, नम जलवायु में तीव्र निक्षालन।
    • विशेषताएँ: पोषक तत्त्वों में कम लेकिन अच्छी तरह से प्रबंधन किये जाने पर चाय, कॉफी और काजू के बागानों के लिये उपयुक्त।
  • शुष्क एवं रेगिस्तानी मृदा:
    • क्षेत्र: राजस्थान, गुजरात और हरियाणा के कुछ हिस्से शामिल हैं।
    • निर्माण: वायु अपरदन और शुष्क जलवायु परिस्थितियों के कारण रेतीली मृदा का निर्माण हुआ।
    • विशेषताएँ: कम उर्वरता और उच्च लवणता, खेती के लिये सिंचाई की आवश्यकता। जौ और बाजरा जैसी फसलों के लिये उपयुक्त।
  • पहाड़ी मृदा:
    • क्षेत्र: हिमालय तथा पश्चिमी और पूर्वी घाट के कुछ भागों में पाया जाता है।
    • निर्माण: खड़ी ढलानों पर चट्टानों के अपक्षय से निर्मित।
    • विशेषताएँ: उथली और अम्लीय, बागवानी एवं सेब तथा चाय जैसी बागान फसलों के लिये आदर्श।
  • पीट और दलदली मृदा:
    • क्षेत्र: केरल, पश्चिम बंगाल और तटीय क्षेत्रों में पाया जाता है।
    • निर्माण: जलभराव वाले क्षेत्रों में कार्बनिक पदार्थों का संचय।
    • विशेषताएँ: ह्यूमस से भरपूर लेकिन अक्सर खारा और अम्लीय।

Soil_Types_in_India

निष्कर्ष

भारत में मृदा की विविधता देश की जटिल भौगोलिक और जलवायु विविधताओं को दर्शाती है। ये मृदा भारत की कृषि-निर्भर अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। मृदा के स्वास्थ्य और उत्पादकता को सुनिश्चित करने के लिये जैविक खेती, वनरोपण और कटाव नियंत्रण जैसी सतत् प्रथाओं को अपनाना चाहिये। दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा और पारिस्थितिक संतुलन प्राप्त करने के लिये प्रभावी मृदा प्रबंधन आवश्यक है।