Sambhav-2025

दिवस- 64: भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक समीक्षा की तुलना कीजिये और दोनों न्यायक्षेत्रों में इसके दायरे तथा सीमाओं का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)

13 Feb 2025 | सामान्य अध्ययन पेपर 2 | राजव्यवस्था

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • संविधान की सर्वोच्चता सुनिश्चित करने के लिये न्यायिक समीक्षा को एक तंत्र के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिये।
  • न्यायिक समीक्षा के दायरे और सीमाओं पर भारत और अमेरिका की तुलना कीजिये।
  • तुलना को प्रामाणित करने के लिये उदाहरण, केस कानून और संवैधानिक प्रावधान प्रदान कीजिये।
  • दोनों क्षेत्राधिकारों में महत्त्व और अंतरों का सारांश देकर निष्कर्ष निकालिये।

परिचय:

न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका की विधायी और कार्यकारी कार्यों की संवैधानिकता की जाँच करने की शक्ति है। भारत और अमेरिका दोनों इस सिद्धांत का पालन करते हैं, लेकिन उनके संवैधानिक ढाँचे के अंतर के कारण इसका दायरा, अनुप्रयोग तथा सीमाएँ काफी भिन्न होती हैं।

मुख्य भाग:

संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक समीक्षा:

  • मार्बरी बनाम मैडिसन (1803) से उत्पन्न, जिसने कानूनों को असंवैधानिक घोषित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट के अधिकार की स्थापना की।
  • पाँचवें और चौदहवें संशोधन के तहत "कानून की उचित प्रक्रिया" के सिद्धांत पर आधारित।
  • अमेरिका में सख्त न्यायिक समीक्षा अपनाई जाती है, जिसके तहत न्यायालय असंवैधानिक कानूनों को स्थायी रूप से रद्द कर सकती हैं।
  • क्षेत्र: संघीय और राज्य दोनों कानूनों, कार्यकारी आदेशों और प्रशासनिक कार्रवाइयों पर लागू होता है।
  • न्यायिक सर्वोच्चता: संविधान की व्याख्या पर न्यायपालिका का अंतिम निर्णय होता है, जैसा कि रो बनाम वेड (1973) जैसे मामलों में देखा गया।
  • सीमाएँ: विधायिका के पास न्यायिक निर्णयों पर पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं होता; उन्हें केवल संवैधानिक संशोधन के माध्यम से निरस्त किया जा सकता है।

भारत में न्यायिक समीक्षा:

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत स्पष्ट रूप से प्रावधान किया गया है, जो मौलिक अधिकारों से असंगत कानूनों को शून्य बनाता है।
    • अनुच्छेद 32, 226, 13, 131-136, 143 और 246 न्यायिक समीक्षा के लिये न्यायालयों को सशक्त बनाते हैं, मौलिक अधिकारों की रक्षा करके तथा मूल ढाँचे के सिद्धांत को बनाए रखते हुए संवैधानिक सर्वोच्चता सुनिश्चित करते हैं।
  • "कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया" के सिद्धांत पर आधारित, जो विधायी मंशा के प्रति अधिक सम्मान की अनुमति देता है।
  • सीमित न्यायिक समीक्षा का पालन करता है, जिससे संसद को न्यायिक अमान्यता के बाद संशोधनों के साथ कानूनों को पुनः लागू करने की अनुमति मिलती है।
  • दायरा: विधायी, कार्यकारी और प्रशासनिक कार्यों को सम्मिलित किया जाता है, लेकिन संवैधानिक संशोधन (अनुच्छेद 368) 'मूल संरचना सिद्धांत' (केशवानंद भारती मामला, 1973) के अधीन रहते हैं।
  • न्यायिक आत्म-संयम: न्यायालय नीति और शासन के मामलों में हस्तक्षेप करने से बचते हैं जब तक कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो।
  • सीमाएँ: संवैधानिक संशोधनों की समीक्षा करने की कोई प्रत्यक्ष शक्ति नहीं है जब तक कि वे मूल संरचना का उल्लंघन न करें (उदाहरण के लिये, मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, 1980)।

निष्कर्ष:

भारत और अमेरिका दोनों ही न्यायिक समीक्षा के माध्यम से अपनी न्यायपालिका को सशक्त बनाते हैं, लेकिन जहाँ अमेरिका एक अधिक निरपेक्ष मॉडल अपनाता है, वहीं भारत विधायी सर्वोच्चता तथा न्यायिक निरीक्षण के बीच संतुलन बनाए रखता है। भारत में मूल संरचना सिद्धांत एक संतुलन बनाए रखते हुए सुरक्षा कवच की भूमिका निभाता है, जिससे संसदीय संप्रभुता प्रभावित किये बिना न्यायिक समीक्षा का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।