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21 Feb 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 2
राजव्यवस्था
दिवस- 71:भारत में सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में सकारात्मक कार्रवाई नीतियाँ कितनी प्रभावी रही हैं? उनकी आलोचनात्मक जाँच कीजिये और समकालीन चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए आवश्यक सुधारों का विश्लेषण कीजिये। (150 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में सामाजिक न्याय प्राप्त करने में सकारात्मक कार्रवाई नीतियों और उनकी भूमिका को परिभाषित कीजिये।
- उनके प्रभाव की आलोचनात्मक जाँच कीजिये, उदाहरणों और आँकड़ों के साथ सफलताओं एवं चुनौतियों दोनों पर प्रकाश डालिये।
- आर्थिक असमानताओं और अकुशलताओं जैसे समकालीन मुद्दों के समाधान के लिये आवश्यक सुधारों की सीमा का विश्लेषण कीजिये।
- एक संतुलित दृष्टिकोण के साथ निष्कर्ष लिखिये।
परिचय:
भारत में सकारात्मक कार्रवाई नीतियाँ ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने और वंचित समुदायों को शिक्षा, रोज़गार एवं राजनीति में आरक्षण के माध्यम से समान अवसर प्रदान करने के लिये बनाई गई हैं। हालाँकि इन नीतियों ने उत्थान में योगदान दिया है, लेकिन असमान वितरण, आर्थिक असमानताएँ और योग्यता संबंधी चिंताएँ पुनर्मूल्यांकन एवं सुधार की मांग करती हैं।
मुख्य भाग:
सामाजिक न्याय प्राप्त करने में सकारात्मक कार्रवाई की भूमिका:
- ऐतिहासिक रूप से वंचित समूहों को सशक्त बनाना: अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिये आरक्षण सामाजिक एवं आर्थिक गतिशीलता को बढ़ावा देता है।
- शासन में प्रतिनिधित्व में वृद्धि: अनुच्छेद 330 और 332 के तहत विधानसभाओं में आरक्षित सीटें हाशिये पर पड़े समुदायों की प्रभावी भागीदारी सुनिश्चित करती हैं, जिससे उन्हें नीति-निर्माण प्रक्रिया में प्रतिनिधित्व और आवाज़ मिलती है।
- शिक्षा तक पहुँच में सुधार: शीर्ष संस्थानों और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में आरक्षण से वंचित पृष्ठभूमि के छात्रों को विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में मदद मिलती है।
- आर्थिक असमानता में कमी: सरकारी नौकरियों में आरक्षण ने कई लोगों को आर्थिक स्थिरता प्रदान की है, जिससे उनके परिवारों की आय में वृद्धि हुई है और पीढ़ीगत गरीबी में कमी आई है।
- न्यायिक समर्थन: इंद्रा साहनी मामले (1992) ने OBC आरक्षण को बनाए रखा तथा कुल आरक्षण को 50% तक सीमित करते हुए व्यापक समावेशन सुनिश्चित किया।
चुनौतियाँ और सुधार की आवश्यकता:
- आर्थिक बनाम जाति-आधारित मानदंड: लोगों का मानना है कि आरक्षण केवल जाति के आधार पर नहीं, बल्कि आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखते हुए सभी वंचित समूहों को लाभ पहुँचाने के लिये होना चाहिये।
- क्रीमी लेयर मुद्दा: लाभ अक्सर आरक्षित श्रेणियों के अपेक्षाकृत समृद्ध वर्गों तक ही पहुँचते हैं तथा सबसे गरीब लोग अभी भी हाशिये पर रह जाते हैं।
- योग्यता पर प्रभाव: कुछ आलोचकों का तर्क है कि अत्यधिक आरक्षण से संस्थाओं और रोज़गार में दक्षता एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता प्रभावित होती है।
- सामाजिक गतिशीलता के बिना राजनीतिक आरक्षण: यद्यपि विधानमंडलों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व बढ़ा है, फिर भी सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ बनी हुई हैं, जिससे व्यापक विकास उपायों की आवश्यकता का पता चलता है।
- न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग की रिपोर्ट में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के बीच आरक्षण का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिये OBC के उप-वर्गीकरण की सिफारिश की गई है।
- रिक्त आरक्षित सीटें: सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में कई आरक्षित पद रिक्त रह जाते हैं, जो कार्यान्वयन में अंतराल को उजागर करता है।
- न्यायिक हस्तक्षेप: EWS आरक्षण (103वाँ संशोधन, 2019) सहित सर्वोच्च न्यायालय के फैसले, सकारात्मक कार्रवाई नीतियों के आवधिक पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता को दर्शाते हैं।
निष्कर्ष:
सकारात्मक कार्रवाई ने सामाजिक न्याय को आगे बढ़ाया है, लेकिन बेहतर लक्ष्य निर्धारण के लिये वंचितता सूचकांक, समान अवसर आयोग और जाति आधारित जनगणना जैसे सुधार आवश्यक हैं। आर्थिक मानदंड, आउटरीच और आवधिक समीक्षा को एकीकृत करने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण निष्पक्षता, समावेशिता एवं नीति दक्षता को बढ़ाएगा।