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28 Dec 2024
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस-24: "क्या आप सहमत हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक बहुवर्गीय आंदोलन था, जो विभिन्न वर्गों और समुदायों के साम्राज्यवाद-विरोधी हितों का प्रतिनिधित्व करता था? उत्तर को तर्कों के साथ स्पष्ट कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
- चर्चा कीजिये कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन वास्तव में बहुवर्गीय था।
- इस तर्क के समर्थन में स्वतंत्रता संग्राम की कुछ प्रमुख घटनाओं पर प्रकाश डालिये।
- निष्कर्ष निकालिये कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एक विविध समाज की सामूहिक आकांक्षाओं का सच्चा प्रतिनिधित्व था।
परिचय:
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिये एक व्यापक और बहुआयामी संघर्ष था, जो एक शताब्दी से अधिक समय तक चला, जिसकी परिणति वर्ष 1947 में भारत की स्वतंत्रता के रूप में हुई। इसमें विभिन्न प्रकार की रणनीतियाँ, नेता और दर्शन शामिल थे, जो उस समय के जटिल सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य को दर्शाते थे।
मुख्य भाग:
विभिन्न वर्गों की व्यापक भागीदारी
- किसान और ग्रामीण आबादी
- चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह: 20वीं सदी के प्रारंभ में, महात्मा गांधी ने चंपारण सत्याग्रह (1917) और खेड़ा सत्याग्रह (1918) जैसे महत्त्वपूर्ण आंदोलनों का नेतृत्व किया, जो दमनकारी ब्रिटिश नीतियों और ज़मींदारों के अधीन पीड़ित किसानों की शिकायतों को सीधे संबोधित करते थे
- बारडोली सत्याग्रह: वर्ष 1928 में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में हुए बारडोली सत्याग्रह में गुजरात के किसानों ने भू-राजस्व में वृद्धि के खिलाफ विरोध किया। इस आंदोलन ने ग्रामीण आबादी की सक्रिय भागीदारी को उजागर किया।
- शहरी श्रमिक वर्ग
- ट्रेड यूनियन आंदोलन: शहरी श्रमिक वर्ग ने ट्रेड यूनियन आंदोलनों और हड़तालों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वर्ष 1920 में स्थापित अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कॉन्ग्रेस (AITUC) ने श्रमिकों के शोषण के खिलाफ हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों को संगठित करने में प्रमुख भूमिका निभाई।
- मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी
- स्वदेशी आंदोलन: स्वदेशी आंदोलन (1905-1908) में छात्रों, शिक्षकों, वकीलों और पेशेवरों सहित मध्यम वर्ग ने ब्रिटिश वस्तुओं तथा संस्थानों का बहिष्कार किया। उन्होंने स्वदेशी उत्पादों और उद्यमों को बढ़ावा दिया, जिससे आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं राष्ट्रवादी उत्साह में योगदान मिला।
- कॉन्ग्रेस नेताओं की भूमिका: दादाभाई नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले और बाल गंगाधर तिलक जैसे बुद्धिजीवियों तथा शिक्षित अभिजात वर्ग ने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के राजनीतिक विमर्श एवं रणनीतियों को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे आंदोलन को आगे बढ़ाने में योगदान मिला।
- व्यवसाय और औद्योगिक वर्ग
- उद्योगपतियों से समर्थन: प्रमुख उद्योगपतियों ने राष्ट्रीय आंदोलन को आर्थिक और वैचारिक रूप से समर्थन दिया। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस की विभिन्न गतिविधियों को वित्तपोषित किया और स्वदेशी आंदोलन जैसी पहलों में भाग लिया।
- आर्थिक नीतियाँ: औद्योगिक वर्ग ने भी आंदोलन की आर्थिक नीतियों का समर्थन किया, जिसका उद्देश्य ब्रिटिश आयात पर निर्भरता कम करना और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देना था।
- जन आंदोलन:
- असहयोग आंदोलन (1920-22), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942) जैसे जन आंदोलनों ने संघर्ष की एकीकृत, बहु-वर्गीय प्रकृति का उदाहरण प्रस्तुत किया। इन आंदोलनों में समाज के सभी वर्गों की व्यापक भागीदारी देखी गई।
- दलित आंदोलन:
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर दलितों की चिंताओं और आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने वाले एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे।
- बहिष्कृत हितकारिणी सभा जैसे संगठनों के माध्यम से उन्होंने दलितों के लिये सामाजिक सुधार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व का समर्थन किया तथा "शिक्षित करो, संगठित करो और आंदोलन करो" के सिद्धांतों पर ज़ोर दिया।
- उन्होंने दलितों के अधिकारों की रक्षा करने और उनके मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिये मूकनायक तथा बहिष्कृत भारत जैसी प्रभावशाली पत्रिकाओं की शुरुआत की।
- डॉ. बी.आर. अंबेडकर दलितों की चिंताओं और आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने वाले एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे।
- आदिवासी भागीदारी:
- आदिवासी और जनजातीय समुदायों ने विभिन्न रूपों में स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया, जिसमें संथाल विद्रोह, मुंडा विद्रोह तथा बाद में गांधीवादी आंदोलनों जैसे संघर्ष शामिल थे।
- महिलाओं की भागीदारी:
- महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, विभिन्न विरोध प्रदर्शनों, मार्चों और सविनय अवज्ञा गतिविधियों में बड़ी संख्या में भाग लिया। सरोजिनी नायडू, भीकाजी कामा और अरुणा आसफ अली जैसे नेता इस आंदोलन में प्रमुख हस्तियाँ बन गईं।
- अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (एआईडब्ल्यूसी) जैसे संगठनों ने महिलाओं को संगठित करने और राष्ट्रीय तथा लैंगिक-विशिष्ट मुद्दों को संबोधित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
निष्कर्ष:
प्रतिभागियों की प्राथमिकताओं में विविधता और मतभेदों के बावजूद, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ एकजुट रुख बनाए रखा। आत्मनिर्णय और स्वतंत्रता का साझा लक्ष्य वर्ग तथा जाति की सीमाओं से परे था, जिससे विभिन्न सामाजिक समूहों को एक साथ लाया गया।