Sambhav-2025

दिवस-21: भारत के आदिवासियों पर औपनिवेशिक शासन के परिणामों पर चर्चा कीजिये। आदिवासी समुदायों ने औपनिवेशिक शोषण पर किस प्रकार प्रतिक्रिया दी? (150 शब्द)
 

25 Dec 2024 | सामान्य अध्ययन पेपर 1 | इतिहास

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

हल करने का दृष्टिकोण:

  • भारत की जनजातियों पर औपनिवेशिक शासन के प्रभाव पर चर्चा कीजिये।
  • औपनिवेशिक शोषण के प्रति जनजातीय प्रतिक्रियाओं पर प्रकाश डालिये।
  • जनजातीय विद्रोहों की स्थायी विरासत को स्वीकार करते हुए निष्कर्ष निकालिये।

परिचय:

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से पहले, भारत में आदिवासी समुदाय अपेक्षाकृत अलग-थलग और आत्मनिर्भर समाज में रहते थे। हालाँकि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के आगमन ने इन पारंपरिक जीवन-शैली को बाधित कर दिया, जिससे महत्त्वपूर्ण आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन हुए।

मुख्य भाग:

आदिवासियों पर औपनिवेशिक शासन का प्रभाव:

  • आर्थिक शोषण:
    • अंग्रेज़ों ने स्थायी बंदोबस्त (1793) जैसी विभिन्न राजस्व प्रणालियाँ लागू कीं, जिसने भूमि के निजी स्वामित्व को बढ़ावा दिया और आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि पर कर चुकाने के लिये मजबूर किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें भूमि से बेदखल कर दिया गया।
    • 1865 के वन अधिनियम और उसके बाद के कानून ने आदिवासियों की वनों तक पहुँच को प्रतिबंधित कर दिया, जिससे वे ईंधन, भोजन एवं आजीविका के अपने प्राथमिक संसाधन से वंचित हो गए।
  • विस्थापन और स्वायत्तता की हानि:
    • रेलवे, खनन उद्योग और बागानों की स्थापना के कारण आदिवासियों को उनकी भूमि से जबरन विस्थापित किया गया।
    • रैयतवारी प्रणाली और ज़मींदारी प्रणाली जैसे भूमि हस्तांतरण कानूनों ने आदिवासी और किसान समुदायों को हाशिये पर डाल दिया।
    • ब्रिटिश शासन संरचनाओं के लागू होने और जनजातीय स्वशासन के विघटन के कारण राजनीतिक स्वायत्तता का ह्रास हुआ।
  • सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव:
    • ब्रिटिशों द्वारा प्रोत्साहित मिशनरी गतिविधियों ने पारंपरिक जनजातीय धार्मिक प्रथाओं को ईसाई धर्म से बदलने का प्रयास किया।
    • औपनिवेशिक शासन जनजातीय समाजों की सामाजिक और सांस्कृतिक गतिशीलता को समझने या उसका सम्मान करने में विफल रहा, जिसके कारण आदिवासियों तथा औपनिवेशिक प्राधिकारियों के बीच तनाव बढ़ गया।

औपनिवेशिक शोषण के प्रति जनजातीय प्रतिक्रियाएँ:

  • विद्रोह और बगावत: भारत भर में आदिवासी समुदायों ने औपनिवेशिक उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष करने के लिये कई विद्रोह और प्रतिरोध के तरीके अपनाए।
    • संथाल विद्रोह (1855-56): सिद्धू और कान्हू के नेतृत्व में संथाल अंग्रेज़ों, स्थानीय ज़मींदारों तथा साहूकारों की शोषणकारी नीतियों के खिलाफ उठ खड़े हुए।
    • मुंडा विद्रोह (1899-1900): बिरसा मुंडा के नेतृत्व में छोटानागपुर पठार में मुंडा जनजाति ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और स्थानीय ज़मींदारों तथा साहूकारों के शोषण के खिलाफ विद्रोह किया।
    • भील विद्रोह (1817-1913): भारत के पश्चिमी क्षेत्रों में रहने वाले भील, अपनी भूमि पर ब्रिटिश अतिक्रमण के खिलाफ लंबे समय से संघर्ष में शामिल थे।
  • अहिंसक प्रतिरोध:
    • आदिवासियों ने अंग्रेज़ों को चुनौती देने के लिये शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन, याचिकाएँ और सविनय अवज्ञा में भी भाग लिया।
    • उन्होंने स्थानीय प्राधिकारियों, प्रशासकों और ब्रिटिश सरकार से भूमि तथा संसाधनों पर अपने अधिकारों की बहाली के लिये अपील की।
  • प्रतिरोध का प्रभाव:
    • यद्यपि विद्रोहों को सामान्यत: ब्रिटिश सेना द्वारा दबा दिया गया था, फिर भी उन्होंने जनजातीय शिकायतों और औपनिवेशिक शासन की शोषणकारी प्रकृति की ओर ध्यान आकर्षित किया।
    • इन आंदोलनों के परिणामस्वरूप कुछ सुधार हुए, जैसे 1908 का छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम, जिसका उद्देश्य भूमि हस्तांतरण को कम करना तथा जनजातीय भूमि को संरक्षण प्रदान करना था।

निष्कर्ष:

जबकि आदिवासी आंदोलनों को अक्सर क्रूरता से दबा दिया गया था, उन्होंने औपनिवेशिक शोषण और स्वतंत्रता के लिये अधिक समावेशी लड़ाई की आवश्यकता को उजागर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन आंदोलनों की विरासत औपनिवेशिक युग के बाद आदिवासी अधिकारों और स्वायत्तता के प्रति भारत के दृष्टिकोण को आकार देती रही है।