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04 Jan 2025
सामान्य अध्ययन पेपर 1
इतिहास
दिवस- 30: भारत में किसान आंदोलन औपनिवेशिक शोषण, कृषि संबंधी कठिनाइयाँ और राष्ट्रवादी विचारधाराओं के प्रभाव से प्रभावित थे। चर्चा कीजिये। (250 शब्द)
उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
- भारत में किसान आंदोलनों के संक्षिप्त अवलोकन से शुरुआत कीजिये
- इन आंदोलनों को आकार देने में औपनिवेशिक शोषण, कृषि संबंधी कठिनाइयाँ और राष्ट्रवादी विचारधाराओं के प्रभाव का उल्लेख कीजिये।
- उपर्युक्त निष्कर्ष दीजिये।
परिचय:
औपनिवेशिक काल के दौरान भारत में किसान आंदोलन मुख्य रूप से औपनिवेशिक शोषण, कृषि संबंधी कठिनाइयाँ और राष्ट्रवादी विचारधाराओं के उदय से प्रेरित थे। ये आंदोलन ब्रिटिश आर्थिक नीतियों, सामाजिक असमानताओं और ज़मींदारों द्वारा शोषण के विरुद्ध अपने अधिकारों का दावा करने के लिये भारतीय किसानों के संघर्ष को दर्शाते हैं।
मुख्य भाग:
औपनिवेशिक शोषण और किसान आंदोलन: औपनिवेशिक शोषण ने किसान आंदोलनों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- बंगाल में वर्ष 1793 की स्थायी बंदोबस्त और दक्षिण भारत में रैयतवाड़ी व्यवस्था जैसी ब्रिटिश भू-राजस्व प्रणालियों के कारण किसानों पर गंभीर परिणाम हुए।
- इन प्रणालियों ने कृषि उत्पादन की परवाह किये बिना भूमि कर तय कर दिया, जिससे पहले से ही संघर्ष कर रहे किसानों पर आर्थिक बोझ बढ़ गया।
- महाराष्ट्र में वर्ष 1875 के दक्कन दंगे अत्यधिक साहूकार और क़र्ज़ का परिणाम था, जहाँ किसानों का साहूकारों द्वारा शोषण किया गया तथा उच्च ब्याज वाले ऋणों के कारण उन्हें शोषण का सामना करना पड़ा।
कृषि संबंधी कठिनाइयाँ और किसान आंदोलनों का उदय: भारत में किसानों को औपनिवेशिक नीतियों, जैसे उच्च कर, अकाल, ऋण और नकदी फसल खेती को बढ़ावा देने के कारण गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
नील, कपास और अफीम जैसी वाणिज्यिक फसलों पर ब्रिटिश सरकार के ध्यान के कारण खाद्यान्न में कमी होआई तथा किसान करों में उतार-चढ़ाव से प्रभावित हुए।
- बंगाल में नील विद्रोह (1859-60) ब्रिटिश बागान मालिकों की शोषणकारी प्रथाओं का प्रत्यक्ष परिणाम था, जिन्होंने किसानों को खाद्य फसलों के बजाय नील उगाने के लिये मज़बूर किया, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक कठिनाई उत्पन्न हुई।
- गुजरात में बारडोली सत्याग्रह (1928) कृषि संबंधी गतिविधियाँ से प्रेरित एक और महत्त्वपूर्ण आंदोलन था। ब्रिटिश प्रशासन ने अकाल और फसल विफलता के दौर में भूमि राजस्व कर में वृद्धि कर दी थी।
- सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में बारडोली के किसानों ने बढ़े हुए करों का भुगतान करने से इनकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप एक सफल अहिंसक आंदोलन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप भूमि वापस कर दी गई और करों में छूट दी गई।
किसान आंदोलनों पर राष्ट्रवादी विचारधाराओं का प्रभाव: कृषि संघर्षों और व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन के बीच संबंध ने किसानों को औपनिवेशिक नीतियों को चुनौती देने के लिये एक मंच प्रदान किया।
- चंपारण सत्याग्रह (1917) में गांधीजी का हस्तक्षेप एक राजनीतिक और नैतिक अभियान था, जिसने किसानों को औपनिवेशिक शासन और नील की खेती की प्रणाली को चुनौती देने हेतु एक मंच दिया।
- किसान सभा आंदोलनों (1930 के दशक) ने, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश और बिहार में, कृषि संबंधी मांगों को उपनिवेश-विरोधी भावनाओं के साथ जोड़ दिया।
- स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे समाजवादी नेताओं के नेतृत्व में इन आंदोलनों ने भूमि सुधार और बेहतर मज़दूरी का समर्थन किया, साथ ही स्वराज के विचार को भी बढ़ावा दिया।
निष्कर्ष:
भूमि राजस्व और शोषण की औपनिवेशिक नीतियों ने प्रतिरोध के लिये उपजाऊ ज़मीन तैयार की, जबकि राष्ट्रवादी नेताओं ने इन आंदोलनों का इस्तेमाल किसानों को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदार बनाने के लिये किया। इस प्रकार इन आंदोलनों ने औपनिवेशिक शासन और सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को चुनौती देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।